||चांगदेवपासष्टी, संत ज्ञानेश्वरविरचित ||
स्वस्ति श्री वटेशु | जो लपोनि जगदाभासु |
दावी मग ग्रासु | प्रगटला करी ||१ ||
प्रगटे तंव तंव न दिसे | लपे तंव तंव आभासे |
प्रगट ना लपाला असे | न खोमता जो ||२ ||
बहु जंव जंव होये | तंव तंव कांहींच न होये |
कांहीं नहोनि आहे | अवघाचि जो ||३ ||
सोनें सोनेपणा उणे | न येतांचि झालें लेणें |
तेंवि न वेंचतां जग होणे | अंगें जया ||४ ||
कल्लोळ कंचुक | न फेडितां उघडें उदक |
तेंवी जगेंसी सम्यक् | स्वरूप जो ||५ ||
परमाणूंचिया मांदिया | पृथ्वीपणें न वचेचि वायां |
तेंवी विश्वस्फूर्तिं इया | झांकवेना जो ||६ ||
कळांचेनि पांघुरणें | चंद्रमा हरपों नेणें |
कां वन्ही दीपपणें | आन नोहे ||७ ||
म्हणोनि अविद्यानिमित्तें | दृश्य द्रष्टृअत्व वर्ते |
तें मी नेणें, आइते | ऐसेंचि असे ||८ ||
जेंवी नाममात्र लुगडें | येऱ्हवीं सुतचि तें उघडें |
कां माती मृद्भांडें | जयापरी ||९ ||
तेंवी द्रष्टा दृश्य दशे- | अतीत दृङ्मात्र जें असे |
तेंचि द्रष्टादृश्यमिसें | केवळ होय ||१० ||
अलंकार येणें नामें | असिजे निखिल हेमें |
नाना अवयवसंभ्रमें | अवयविया जेंवी ||११ ||
तेंवी शिवोनि पृथीवरी | भासती पदार्थांचिया परी |
प्रकाशे ते एकसरी | संवित्ति हे ||१२ ||
नाहीं तें चित्र दाविती | परि असे केवळ भिंती |
प्रकाशे ते संवित्ति | जगदाकारें ||१३ ||
बांधियाचिया मोडी | बांधा नहोनि गुळाचि गोडी |
तयापरि जगपरवडी | संवित्ति जाण ||१४ ||
घडियेचेनि आकारें | प्रकाशिजे जेवीं अंबरें |
तेंवी विश्वस्फुर्तिं स्फुरें | स्फुर्तिचि हे ||१५ ||
न लिंपतां सुखदुःख | येणें आकारें क्षोभोनि नावेक |
होय आपणया सन्मुख | आपणचि जो ||१६ ||
तया नांव दृश्याचें होणें | संवित्ति दृष्टृत्वा आणिजे जेणें |
बिंबा बिंबत्व जालेपणें | प्रतिबिंबाचेनि ||१७ ||
तेंवी आपणचि आपुला पोटीं | आपणया दृश्य दावित उठी |
दृष्टादृश्यदर्शन त्रिपुटी | मांडें तें हे ||१८ ||
सुताचिये गुंजे | आंतबाहेर नाहीं दुजें |
तेवी तीनपणेविण जाणिजे | त्रिपुटि हें ||१९ ||
नुसधें मुख जैसें | देखिजतसें दर्पणमिसें |
वायांचि देखणें ऐसें | गमों लागे ||२० ||
तैसें न वचतां भेदा | संवित्ति गमे त्रिधा |
हेचि जाणे प्रसिद्धा | उपपत्ति इया ||२१ ||
दृश्याचा जो उभारा | तेंचि द्रष्टृत्व होय संसारा |
या दोहींमाजिला अंतरा | दृष्टि पंगु होय ||२२ ||
दृश्य जेधवां नाहीं | तेधवां दृष्टि घेऊनि असे काई ? |
आणि दृश्येंविण कांहीं | दृष्टृअत्व होणें | २३ ||
म्हणोनि दृश्याचे जालेंपणें | दृष्टि, द्रष्टृत्व होणें |
पुढती तें गेलिया, जाणें | तैसेचि दोन्ही ||२४ ||
एवं एकचि झालीं ती होती | तिन्ही गेलिया एकचि व्यक्ति |
तरी तिन्ही भ्रांति | एकपण साच ||२५ ||
दर्पणाचिया आधि शेखीं | मुख असतांचि असे मुखीं |
माजीं दर्पण अवलोकीं | आन कांहीं होये ? ||२६ ||
पुढें देखिजे तेणे बगे | देखतें ऐसें गमों लागे |
परी दृष्टीतें वाउगें | झकवित असे ||२७ ||
म्हणोनि दृश्याचिये वेळे | दृश्यद्रष्टृत्वा वेगळें |
वस्तुमात्र निहाळे | आपणापाशीं ||२८ ||
वाद्यजातेविण ध्वनी | काष्ठजातेविण वन्ही |
तैसें विशेष ग्रासूनी | स्वयेंचि असे ||२९ ||
जें म्हणतां नये कांहीं | जाणो न ये कैसेही |
असतचि असे, पाही | असणें जया ||३० ||
आपुलिया बुबुळा | दृष्टि असोनि अखम डोळा |
तैसा आत्मज्ञानीं दुबळा | ज्ञानरूप जो ||३१ ||
जें जाणणेंचि कीं ठाईं | नेणणें कीर नाहीं |
परि जाणणें म्हणोनियांही | जाणणें कैंचें ||३२ ||
यालागीं मौनेंचि बोलिजे | कांहीं नहोनि सर्व होईजे |
नव्हतां लाहिजे | कांहीच नाहीं ||३३ ||
नाना बोधाचिये सोयरिके | साचपण जेणें एके |
नाना कल्लोळमाळिके | पाणि जेंवि ||३४ ||
जें देखिजतेविण | एकलें देखतेंपण |
हें असो, आपणिया आपण | आपणचि जें ||३५ ||
जें कोणाचे नव्हतेनि असणें | जें कोणाचे नव्हतां दिसणें |
कोणाचें नव्हतां भोगणें | केवळ जो ||३६ ||
तया पुत्र तूं वटेश्वराचा | रवा जैसा कापुराचा |
चांगया मज तुज आपणयाचा | बोल ऐके ||३७ ||
ज्ञानदेव म्हणे | तुज माझा बोल ऐकणें |
ते तळहाता तळीं मिठी देणें | जयापरि | ३८ ||
बोलेंचि बोल ऐकिजे | स्वादेंचि स्वाद चाखिजे |
कां उजिवडे देखिजे | उजिडा जेंवि ||३९ ||
सोनिया वरकल सोनें जैसा | कां मुख मुखा हो आरिसा |
मज तुज संवाद तैसा | चक्रपाणि ||४० ||
गोडिये आपुलि गोडी | घेतां काय न माये तोंडी |
आम्हां परस्परें आवडी | तो पाडु असे ||४१ ||
सखया तुझेनि उद्देशें | भेटावया जीव उल्हासे |
कीं सिद्धभेटी विसकुसे | ऐशिया बिहे ||४२ ||
घेवों पाहे तुझें दर्शन | तंव रूपा येवों पाहे मन |
तेथें दर्शना होय अवजतन | ऐसें गमों लागे ||४३ ||
कांहीं करी, बोले, कल्पी | कां न करी, न बोले, न कल्पी |
ये दोन्ही तुझ्या स्वरूपीं | न घेति उमसू ||४४ ||
चांगया ! तुझेनि नांवे | करणें, न करणें न व्हावें |
हें काय म्हणों, परि न धरवे | मीपण हें ||४५ ||
लवण पाणियाचा थावो | माजि रिघोनि गेलें पाहो |
तंव तेंचि नाहीं, मा काय घेवो | माप जळा ? ||४६ ||
तैसें तुज आत्मयातें पाही | देखो गेलिया मीचि नाहीं |
तेथें तूं कैचा काई | कल्पावया जोगा ||४७ ||
जो जागोनि नीद देखे | तो देखणेपणा जेंवि मुके |
तेंवि तूंतें देखोनि मी ठाके | कांहीं नहोनि ||४८ ||
अंधाराचे ठाईं | सूर्यप्रकाश तंव नाहीं |
परी मी आहें हें कांहीं | न वचेचि जेंवि ||४९ ||
तेंवि तूंतें मी गिवसी | तेथें तूंपण मीपणेंसी |
उखते पडे ग्रासीं | भेटीचि उरे ||५० ||
डोळ्याचे भूमिके | डोळा चित्र होय कौतुकें |
आणि तेणेंचि तो देखे | न डंडळितां ||५१ ||
तैसी उपजतां गोष्टी | न फुटतां दृष्टि |
मीतूंवीण भेटी | माझी तुझी ||५२ ||
आतां मी तूं या उपाधी | ग्रासूनि भेटी नुसधी |
ते भोगिली अनुवादीं | घोळघोळू ||५३ ||
रुचितयाचेनि मिसें | रुचितें जेविजे जैसें |
कां दर्पणव्याजें दिसे | देखतें जेंवि ||५४ ||
तैसी अप्रमेयें प्रमेयें भरलीं | मौनाचीं अक्षरें भली |
रचोनि गोष्टी केली | मेळियेचि ||५५ ||
इयेतें करुनि व्याज | तूं आपणयातें बुझ |
दीप दीपपणें पाहे निज | आपुलें जैसें ||५६ ||
तैसी केलिया गोठी | तया उघडिजे दृष्टी |
आपणिया आपण भेटी | आपणामाजी ||५७ ||
जालिया प्रळयीं एकार्णव | अपार पाणियाची धांव |
गिळी आपुला उगव | तैसें करी ||५८ ||
ज्ञानदेव म्हणे नामरूपें- | विण तुझें साच आहे आपणपें |
तें स्वानंदजीवनपे | सुखिया होई ||५९ ||
चांगया पुढत पुढती | घरा आलिया ज्ञानसंपत्ति |
वेद्यवेदकत्वही अतीतीं | पदीं बैसें ||६० ||
चांगदेवा तुझेनि व्याजें | माउलिया श्रीनिवृत्तिराजे |
स्वानुभव रसाळ खाजें | दिधलें लोभें ||६१ ||
एवं ज्ञानदेव चक्रपाणी ऐसे | दोन्ही डोळस आरिसे |
परस्पर पाहतां कैसें | मुकले भेदा ||६२ ||
तियेपरि जो इया | दर्पण करील ओविया |
तो आत्माएवढिया | मिळेल सुखा ||६३ ||
नाहीं तेंचि काय नेणों असें | दिसें तेंचि कैसें नेणों दिसे |
असें तेंचि नेणों, आपैसे | तें कीं होइहे ||६४ ||
निदेपरौते निदैजणें | जागृति गिळोनि जागणें |
केलें तैसें गुंफणें | ज्ञानदेवो म्हणे ||६५ ||
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% Author : Sant Dnyaneshwar
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% Subject : philosophy/hinduism/religion
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