||अमृतानुभव ||
प्रकरण पहिले
शिवशक्तिसमावेशन
यदक्षरमनाख्येयमानंदमजमव्ययम् |
श्रीमन्निवृत्तिनाथेति ख्यातं दैवतमाश्रये ||१||
गुरुरित्याख्यया लोके साक्षाद्विद्याहि शांकरी |
जयत्याज्ञा नमस्तस्यै दयार्द्रायै निरंतरम् ||२||
सार्धं केन च कस्यार्धं शिवयोः समरूपिणोः |
ज्ञातुं न शक्यते लग्नमितिद्वैतच्छलान्मुहुः ||३||
अद्वैतमात्मनस्तत्त्वं दर्शयंतौ मिथस्तराम् |
तौ वंदे जगतामाद्यौ तयोस्तत्त्वाभिपत्तये ||४||
मूलायाग्राय मध्याय मूलमध्याग्रमूर्तये |
क्षीणाग्रमूलमध्याय नमः पूर्णाय शंभवे ||५||
ऐशी ही निरुपाधिकें | जगाचीं जियें जनकें |
तियें वंदिलीं मियां मूळिकें | देवोदेवी ||१- १||
जो प्रीयुचि प्राणेश्वरी | उलथे आवडीचिये सरोभरीं |
चारुस्थळीं एकाहारी | एकाआंगाची ||१- २||
आवडीचेनि वेगें | एकएकातें गिळिती आंगें |
कीं द्वैताचेनि पांगें | उगळिते आहाति ||१- ३||
जि एकचि नव्हे एकसरें | दोघा दोपण नाहीं पुरें |
काय नेणों साकारें | स्वरूपें जियें ||१- ४||
कैशी स्वसुखाची अळुकी | जे दोनीपण मिळोनि एकीं |
नेदितीच कवतुकीं | एकपण फुटों ||१- ५||
हा ठावोवरी वियोगभेडे | जें बाळ जगायेवढें |
वियालीं परी न मोडे | दोघुलेपण ||१- ६||
आपुलिये आंगीं संसारा | देखलिया चराचरा |
परी नेदितीच तिसरा | झोक लागों ||१- ७||
जया एके सत्तेचें बैसणें | दोघां एका प्रकाशाचें लेणें |
जें अनादि एकपणें | नांदती दोघें ||१- ८||
भेदु लाजौनि आवडी | एकरसीं देत बुडी |
जो भोगणया थाव काढी | द्वैताचा जेथें ||१- ९||
जेणें देवें संपूर्ण देवी | जियेविण कांहींना तो गोसावी |
किंबहुना एकोपजीवी | एकएकांची ||१- १०||
कैसा मेळु आला गोडिये | दोघे न माती जगीं इये |
कीं परमाणूहि माजी उवाये | मांडिलीं आहाती ||१- ११||
जिहीं एकएकावीण | न कीजे तृणाचेंही निर्माण |
जिये दोघे जीवप्राण | जिया दोघा ||१- १२||
घरवातें मोटकी दोघे | जैं गोसावी सेजे रिघे |
तैं दंपत्यपणें जागे | स्वामिणी जे ||१- १३||
जया दोघांमाजीं एकादें | विपायें उमजलें होय निदे |
तरी घरवात गिळुनी नुसधें | कांहीं ना कीं ||१- १४||
दोन्ही आंगांची आटणी | गिंवसीत आहाती एकपणीं |
जाली भेदाचिया वाहाणी | आधाधी जियें ||१- १५||
विषो एकमेकांची जिये | जिये एकमेकांची विषयी इयें |
जिहीं दोघीं सुखियें | जिये दोघे ||१- १६||
स्त्रीपुरुष नामभेदें | शिवपण एकलें नांदे |
जग सकळ अधाधे- | पणें जिहीं ||१- १७||
दो दांडीं एक श्रुती | दोहों फुलीं एक दृति |
दोहों दिवीं दीप्ती | एकीची जेवीं ||१- १८||
दो ओठीं एकी गोष्टी | दो डोळां येकी दृष्टी |
तेवीं दोघीं जिहीं सृष्टी | एकीचि जेवीं ||१- १९||
दाऊनि दोनीपण | एकरसाचें आरोगण |
करीत आहे मेहूण | अनादि जे ||१- २०||
जे स्वामीचिया सत्ता | वीण असो नेणें पतिव्रता |
जियेवीण सर्वकर्ता | कांही ना जो ||१- २१||
जे कीं भाताराचें दिसणें | भातारुचि जियेचें असणें |
नेणिजती दोघेंजणें | निवडूं जिये ||१- २२||
गोडी आणि गुळु | कापुर आणि परिमळु |
निवडूं जातां पांगुळु | निवाडु होये ||१- २३||
समग्र दीप्ती घेतां | जेवि दीपचि ये हाता |
तेवी जियेचिया तत्त्वता | शिवूचि लाभे ||१- २४||
जैशी सूर्यीं मिरवे प्रभा | प्रभे सूर्यत्वचि गाभा |
तैशी भेद गिळित शोभा | एकचि जे ||१- २५||
कां बिंब प्रतिबिंबा द्योतक | प्रतिबिंब बिंबा अनुमापक |
तैसें द्वैतमिसें एक | बरवतसे ||१- २६||
सर्व शून्याचा निष्कर्षु | जिया बाइला केला पुरुषु |
जेणें दादुलेन सत्त विशेषु | शक्ती जाली ||१- २७||
जिये प्राणेश्वरीवीण | शिवींहि शिवपण |
थारो न शके ते आपण | शिवे घडली ||१- २८||
ऐश्वर्येशी ईश्वर | जियेचें अंग संसारा |
आपण होऊनी उभारा | आपणचि जे ||१- २९||
पतीचेनि अरूपपणें | लाजोनि अंगाचें मिरवणें |
केलें जगायेवढें लेणें | नामरूपाचें ||१- ३०||
ऐक्याचाही दुकाळा | बहुपणाचा सोहळा |
जिये सदैवोचिया लिळा | दाखविला ||१- ३१||
आंगाचिया आटणिया | कांतु उवाया आणिला जिया |
स्वसंकोचें प्रिया | रूढविली जेणें ||१- ३२||
जियेतें पाहावयाचिया लोभा | चढे दृष्टत्वाचिया क्षोभा |
जियेतें न देखतुचि उभा ||आंगचि सांडी ||१- ३३||
कांतेचिया भिडा | अवला होय जगायेवढा |
अंगविला उघडा | जियेवीण ||१- ३४||
जो हा ठाव मंदरूपें | उवाइलेपणें हारपे |
तो जाला जियेचेनि पडपें | विश्वरूप ||१- ३५||
जिया चेवविला शीवु | वेद्याचे बोणें बहु |
वाढीतेणेंसि जेउ | धाला जो ||१- ३६||
निदेलेनि भातारें | जे विये चराचरें |
जियेचा विसावला नुरे | आंबुलेपणही ||१- ३७||
जंव कांत लपो बैसें | तंव नेणिजे जियोद्देशें |
जिये दोघे आरिसे | जिया दोघा ||१- ३८||
जियेचेनि अंगलगें | आनंद आपणा आरोगूं लागे |
सर्व भोक्तृत्वही नेघे | जियेविण कांहीं ||१- ३९||
जया प्रियेचें जें आंग | जो प्रियु जियेचें चांग |
कालवूनि दोन्ही भाग | जेविते आहाति ||१- ४०||
जैशि कां समीरेसकट गति | कां सोनियासकट कांती |
तैसे शिवेशी शक्ति | अवघीच जे ||१- ४१||
कां कस्तुरीसकट परिमळु | कां उष्मेसकट अनळु |
तैसा शक्तीशी केवळु | श्रीशिवूचि जो ||१- ४२||
राति आणि दिवो | पातली सूर्याचा ठावो |
तैसा आपुलिया साचीं वावो | दोघे जिये ||१- ४३||
किंबहुना तिये | प्रणवाक्षरीं विरुढतिये |
दशेचीही वैरिये | शिवशक्ति ||१- ४४||
हें असो नामरूपाचा भेदसिरा | गिळित एकार्थाचा उजिरा |
नमो तया शिववोहरा | ज्ञानदेवो म्हणे ||१- ४५||
जयाच्या दोघांच्या आलिंगनीं | विरोनि गेली दोन्ही |
आघवियाचि रजनी | दिठिचि जे ||१- ४६||
जयांच्या रूपनिर्धारीं | गेली परेसीं वैखरी |
सिंधूशीं प्रलयनिरीं | गंगा जैशी ||१- ४६||
जया दोघांच्या आलिंगनीं | विरोनी गेलीं दोनी |
अघवीयाचिं रजनी | दिठीच जे ||४७||
वायु चळबळेंशीं | जिराला व्योमाचिये कुशीं |
अटला प्रळयप्रकाशीं | सप्रभ भानु ||१- ४८||
तेवीं निहाळितां ययातें | गेले पाहणेंनशी पाहते |
पुढती घरौतें वरौतें | वंदिलीं तियें ||१- ४९||
जयाच्या वाहणीं | वेदकु वेद्याचें पाणी |
न पिये पण सांडणी | आंगाचीही करी ||१- ५०||
तेथ मी नमस्करा- | लागीं उरों दुसरा |
तरी लिंगभेद पर्क्ष्हा | जोडूं जावों ||१- ५१||
परि सोनेनसी दुजें | नव्हतु लेणें सोना भजे |
हें नमन करणें माझें | तैसें आहे ||१- ५२||
सांगतां वाचेतें वाचा | ठावो वाच्यवाचकाचा |
पडतां काय भेदाचा | विटाळु होये ||१- ५३||
सिंधु आणि गंगेची मिळणी | स्त्रीपुरुष नामाची मिरवणी |
दिसतसे तरी काय पाणी | द्वैत होईल ? ||१- ५४||
पाहें पा भास्य भासकता | आपुलां ठाई दाविता |
एकपण काय सविता | मोडीतसे ? ||१- ५५||
चांदाचिया दोंदावरी | होता चांदणियाची विखुरी |
काय उणें दीप्तीवरी | गिंवसो पा दीपु ||१- ५६||
मोतियाची कीळ | होय मोतियावरी पांगुळ |
अगळें निर्मळ | रूपा ये कीं ? ||१- ५७||
मात्राचिया त्रिपुटिया | प्रणवू काय केला चिरटिया ? |
कीं ' णकार' ती रेघटिया | भेदवला काई ? ||१- ५८||
अहो ऐक्याचें मुद्दल न ढळे | आणि साजिरेपणाचा लाभ मिळे |
तरि स्वतरंगाचीं मुकुळें | तुरंबु का पाणी ||१- ५९||
म्हणोनि भूतेशु अणि भवानी | वंदिली न करोनि सिनानीं |
मी निघालों नमनीं | तें हें ऐसें ||१- ६०||
दर्पणाचेनि त्यागें | प्रतिबिंब बिंबीं रिगे |
कां बुडी दीजे तरंगें | वायूचा ठेला ||१- ६१||
नातरी नीदजात खेवो | पावे आपुला ठावो |
तैशी बुद्धित्यागें देवी देवो | वंदिली मिया ||१- ६२||
सांडूनि मीठपणाचा लोभु | मीठें सिंधुत्वाचा घेतला लाभु |
तेवी अहं देऊनि मी शंभु | शांभवी झालों ||१- ६३||
शिवशक्ति समावेशें | नमन केलें म्यां ऐसें |
रंभागर्भ आकाशे | रिघाला जैसा | १- ६४||
||इति श्रीमदमृतानुभवे शिवशक्तिसमावेशनमन नाम प्रथमं
प्रकरणं संपूर्णम्||
प्रकरण दुसरें
श्रीगुरुस्तवन
आतां उपायवनवसंतु | जो आज्ञेचा आहेवतंतु |
अमूर्तचि परि मूर्तु | कारुण्याचा ||२- १||
मोडोनि मायाकुंजरु | मुक्तमोतियाचा वोगरू |
जेवविता सद्गुरु | निवृत्ति वंदू ||२- ३||
अविद्येचे आडवे | भुंजीत जीवपणाचे भवे |
तया चैतन्याचे धांवे | कारुण्यें जो की ||२- ३||
जयाचेनि आपांगपातें | बद्ध मोक्षपणीं आते |
भेटे जाणतया जाणतें | जयापाशीं ||२- ४||
कैवल्यकनकाचिया दाना | जो न कडसी थोर साना |
द्रष्ट्याचिया दर्शना | पाढाऊ जो ||२- ५||
सामर्थ्याचेनि बिकें | जो शिवाचेंही गुरुत्व जिंके |
आत्मा आत्मसुख देखे | आरसां जिये ||२- ६||
बोधचंद्राचिया कळा | विखुरल्या एकवळा |
कृपापुनीव लीळा | करी जयाची ||२- ७||
जो भेटलियाचि सवे | पुरति उपायाचे धांवे |
प्रवृत्ति-गंगा स्थिरावे | सागरीं जिये ||२- ८||
जयाचेनि अनवसरें | द्रष्टा ले दृश्याचें मोहिरें |
जो भेटतखेव सरे | बहुरुपचि हें ||२- ९||
अविद्येचें काळवखें | कीं स्वबोधसुदिनीं फांके |
सीतलें प्रसादार्कें | जयाचेनि ||२- १०||
जयाचेनि कृपासलिलें | जीवू हा ठाववरी पाखाळे |
जे शिवपणही वोविळें | अंगी न लवी ||२- ११||
राखों जातां शिष्यातें | गुरुपणही धाडिलें थितें |
तरी गुरूगौरव जयातें | सांडीचिना ||२- १२||
एकपण नव्हे सुसास | म्हणूनि गुरु-शिष्याचे करुनि मिस |
पाहणेचि आपली वास | पाहतचि असे ||२- १३||
जयाचेनि कृपातुषारें | परतलें अविद्येचें मोहिरें |
परिणमे अपारें | बोधामृतें ||२- १४||
वेद्या देतां मिठी | वेदकूही सुये पोटीं |
तर्क्ष्ही नव्हेचि उशिटी | दिठी जयाची ||२- १५||
जयाचेनि सावायें | जीवू ब्रह्मउपर लाहे |
ब्रह्म तृणातळीं जाये | उदासें जेणें ||२- १६||
उपास्तीवरी राबतिया | उपायफळीं येती मोडूनिया |
वरिवंडले जयाचिया | अनुज्ञा का ||२- १७||
जयाचा दिठिवा वसंतु | जंव न रिघे निगमवनाआंतु |
तंव आपुलिये फळीं हातु | न घेपती ही ||२- १८||
पुढें दृष्टीचेनि आलगें | खोची की निवटे मागें |
येवढेया जैता नेघे | आपणपें जो ||२- १९||
लघुत्वाचेनि मुद्दलें | बैसला गुरुत्वाचे शेले |
नासूनि नाथिलें | सदैव जो ||२- २०||
नाहीं तें जळीं बुडिले | तै घनवटें जेणें तरिजे |
जेणें तारिलियाहि नुरिजे | कवणी ठायीं ||२- २१||
आकाश हे सावेव | न बंधे आकाशाची हांव |
ऐसें कोणी एक भरीव | आकाश जो ||२- २२||
चंद्रादि सुशीतळें | घडली जयाचेनि मेळें |
सूर्य जयाचेनि उजाळे | कडवसेनी ||२- २३||
जीवपणाचेनि त्रासें | यावया आपुलीये दशे |
शिवही मुहूर्त पुसे | जया जोशियातें ||२- २४||
चांदिणें स्वप्रकाशाचें | लेइला द्वैतदुणीचें |
तर्क्ष्ही उघडेपण नवचे | चांदाचें जया ||२- २५||
जो उघड कीं न दिसे | प्रकाश की न प्रकाशे |
असतेपणेंचि नसे | कव्हणीकडे ||२- २६||
आतां जो तो इहीं शब्दीं | कें मेळवूं अनुमानाची मांदी |
हा प्रमाणाही वो नेदी | कोणाही मा ||२- २७||
जेथें शब्दाची लिही पुसे | तेणेंशीं चावळों बैसे |
दुजयाच्या रागीं रुसे | एकपणा जो ||२- २८||
प्रमाणाची परी सरे | तैं प्रमेयेची आविष्करे |
नवल मेचु ये धुरे | नाहींपणाची ||२- २९||
कांहीबाही अळुमाळु | देखिजे येखादे वेळू |
तरी देखे तेंही विटाळू | जयां गांवीं ||२- ३०||
तेथें नमनें का बोलें| केउतीं सुयें पाउलें |
आंगीं लावुनि नाडिलें | नांवचि येणें ||२- ३१||
नव्हे आत्मया आत्मप्रवृत्ति | वाढवितां के निवृत्ती ? |
या नामाचि वाय बुंथी | सांडीचिना ||२- ३२||
निवर्त्य तंव नाहीं | मा निवर्तवी हा काई ? |
तरि कैशी बैसे ठाईं | निवृत्तिनामाच्या ? ||२- ३३||
परी सूर्यासी अंधकारु | कै जाहला होता गोचरू ? |
तरी तमारी हा डगरू | आलाचि कीं ||२- ३४||
तैसें लटिकें येणें रूढे | जड येणें उजिवडे |
न घडे तेंहि घडे | याचिया मावा ||२- ३५||
हां गा मायावशें दाविशी | तें मायिक म्हणूनी वाळिशी |
अमायिक तंव नव्हशी | कवणाहि विषयो ||२- ३६||
शिव शिवा सद्गुरु | तुजला गूढा काय करूं ? |
एकाही निर्धार करूं | देतासी कां ? ||२- ३७||
नामें रूपें बहुवसें | उभारुनि पाडिलीं वोसें |
सत्तेचेनि आवेशे | तोषलासी ना ? ||२- ३८||
जिवु घेतलिया उणे | चालों नेदिसी साजणें |
मृत्यु उरे स्वामीपणें | तेंही नव्हे ||२- ३९||
विशेषाचेनि नांवें | आत्मत्वही न साहवे |
किंबहुना नव्हे | कोण्ही या ||२- ४०||
राती नुरेचि सूर्या | नातरी लवण पाणिया |
नुरेचि जेवि चेइलिया | नीद जैशी ||२- ४१||
कापुराचे थळीव | नुरेचि आगीची बरव |
नुरेचि रूप नांव | तैसें यया ||२- ४२||
याच्या हाता पाया पडे | तंव वंद्यत्वें पुढें न मंडे |
न पडेचि हा भिडे | भेदाचिये ||२- ४३||
आपणाप्रति रवि | उदो न करी जेवीं |
हा वंद्य नव्हें तेवी | वंदनासी ||२- ४४||
कां समोरपण आपुलें | न लाहिजे कांहीं केलें |
तैसें वंद्यत्व घातलें | हिरोनी येणें ||२- ४५||
आकाशाचा अरिसा | नुठी प्रतिबिंबाचा ठसा |
हा वंद्य नव्हे तैसा | नमस्कारासि ||२- ४६||
परी नव्हे तरी न हो | हे वेखासि कां घेवों |
परी वंदीतयाही ठावो | उरों नेदी ||२- ४७||
आंगौनि एकुणा झोलु | फेडितांचि तरी तो बाहिरीलु |
कडु फिटे आतुलु | न फेडीतांचि ||२- ४८||
नाना बिंबपणासरिसे | घेउनि प्रतिबिंब नासे |
नेलें वंद्यत्व येणें तैसें | वंदतेनसी ||२- ४९||
नाहीं रूपाची जेथें सोये | तेथें दृष्टीचें कांहींच नव्हे |
आम्हा फळले हे पाये | ऐशिया दशा ||२- ५०||
गुणा तेलाचिया सोयरिका | निर्वाहिली दीपकळिका |
ते कां होईल पुळिका | कापुराचिया ||२- ५१||
तया दोहो परस्परें | होय ना जंव मैल्हेरे |
तंव दोहीचेंही सरे | सरिसेंचि ||२- ५२||
तेवि देखेना मी ययातें | तंव गेलें वंद्य वंदितें |
चेइलिया कांते | स्वप्नींचि जेवी ||२- ५३||
किंबहुना इया भाषा | द्वैताचा जेथें उपखा |
फेडुनियां स्वसखा | श्रीगुरू वंदिला ||२- ५४||
याच्या सख्याची नवाई | आंगीं एकपणा रूप नाहीं |
आणि गुरु-शिष्य दुवाळीही | पवाडु केला ||२- ५५||
कैसा आपणया आपण | दोंवीण सोयरेपण |
हा याहूनि विलक्षण | नाहीं ना नोहे ||२- ५६||
जग अवघें पोटीं माये | गगनायेवढें होऊनि ठाये |
कीं तेचि निसी साहे | नाहींपणाची ||२- ५७||
कां पूर्णते तरि आधारू | सिंधु जैसा दुर्भरू |
तैसा विरुद्धा पाहुणेरू | याच्या घरीं ||२- ५८||
तेजा तमातें कांहीं | परस्परें निकें नाहीं |
परी सूर्याच्या ठायीं | सूर्यचि असे ||२- ५९||
एक म्हणतां भेदे | ते कीं नानात्वें नांदे ? |
विरुद्धे आपणया विरुद्धे | होती काई ? ||२- ६०||
म्हणोनि शिष्य आणि गुरुनाथु | या दोहों शब्दांचा अर्थु |
श्रीगुरुचि परी होतु | दोहों ठायीं ||२- ६१||
कां सुवर्ण आणि लेणें | वसतें एकें सुवर्णें |
वसते चंद्र चांदणें | चंद्रींचि जेवीं ||२- ६२||
नाना कापुर आणि परिमळु | कापूरचि केवळु |
गोडी आणि गुळु | गूळचि जेवीं ||२- ६३||
तैसा गुरुशिष्यमिसें | हाचि एकु उल्हासे |
जरी कांहीं दिसे | दोन्ही-पणें ||२- ६४||
आरिसा आणि मुखीं | मी दिसे हे उखी |
हे आपुलिये ओळखी | जाणे मुख ||२- ६५||
पहा पा निरंजनीं निदेला | तो हा निर्विवाद एकला |
परी चेता चेवविता जाला | दोनी तोचि ||२- ६६||
ते तोचि चेता तोचि चेतवी | तेवी हाचि बुझे हाचि बुझावी |
गुरु-शिष्यत्व नांदवी | ऐसेन हा ||२- ६७||
दर्पणेंवीण डोळा | आपुले भेटीचा सोहळा |
भोगितो तरी लीळा | सांगतों हें ||२- ६८||
एवं द्वैतासी उमसो | नेदि ऐक्याशी विसकुसो |
सोइरिकीचा अतिसो | पोखीतसे ||२- ६९||
निवृत्ति जया नांव | निवृत्ति जया बरव |
जया निवृत्तीचि राणीव | निवृत्तिची ||२- ७०||
वांचोनि प्रवृत्तिविरोधें | कां निवृत्तीचेंनि बोधें |
आणिजे तैसा वादें | निवृत्ति नव्हे ||२- ७१||
आपणा देऊनि राती | दिवसा आणी उन्नति |
प्रवृत्ति वारी निवृत्ति | नव्हे तैसा ||२- ७२||
वोपसरयाचें बळ | घेउनि मिरवे कीळ |
तैसें रत्न नव्हे निखळ | चक्रवर्ती हा ||२- ७३||
गगनही सूनि पोटीं | जैं चंद्राची पघळे पुष्टी |
तैं चांदिणें तेणेंसि उठी | आंग जयाचें ||२- ७४||
तैसें निवृत्तिपणासी कारण | हाचि आपणया आपण |
घेयावया फूलचि झालें घ्राण | आपुली दृती ||२- ७५||
दिठी मुखाचिये बरवे | पाठीकडूनि जैं पावे |
तैं आरिसे धांडोळावे | लागती काई ? ||२- ७६||
कीं राती हन गेलिया | दिवस हन पातलिया |
काय सूर्यपण सूर्या | होआवें लागें ? ||२- ७७||
म्हणोनि बोध्य बोधोनि | घेपे प्रमाणें साधूनि |
ऐसा नव्हे भरंवसेनि | गोसावी हा ||२- ७८||
ऐसें करणयावीण | स्वयंभचि जें निवृत्तिपण |
तयाचे श्रीचरण | वंदिले ऐसे ||२- ७९||
आतां ज्ञानदेवो म्हणे | श्रीगुरुप्रणामें येणें |
फेडिली वाचाऋणें | चौही वाचांचीं ||२- ८०||
||इति श्रीमदमृतानुभवे सद्गुरुस्तवननाम द्वितीय प्रकरणं
संपूर्णम्||
प्रकरण तिसरें
वाचाऋणोत्तीर्ण
ययाचेनि बोभाटे | आत्मयाची झोप लोटे |
पूर्ण तर्क्ष्ही ऋण न फिटे | जे चेणेंचि नीद कीं ||३- १||
येर्क्ष्हवीं परादिका चौघी | जीव मोक्षाच्या उपेगी |
अविद्येसवें आंगीं | वेंचती कीर ||३- २||
देहासवे हातपाये | जाती मनासवें इंद्रियें |
कां सूर्यासवें जाये | किरणजाळ ||३- ३||
ना तरी निद्रेचिये अवधी | स्वप्नें मरती आधीं |
तेवीं अविद्येचे संबंधी | अटती इया ||३- ४||
मृतें लोहें होती | ते रसरूपें जिती |
जळोनि इंधनें येती | वन्हीदशे ||३- ५||
लवण आंगें विरे | परी स्वादें जळीं उरे |
नीद मरोनि जागरें | जीइये निदे ||३- ६||
तेवि अविद्येसवें | चौघीं वेचिती जीवें |
तत्त्वज्ञानाचेनि नांवे | उठतीचि इया ||३- ७||
हा तत्त्वज्ञान दिवा | मरोनि इहीं लावावा |
तरी हाही शीण लेवा | बोधरूपेंची ||३- ८||
येऊनि स्वप्न मेळवी | गेलिया आपणपां दावी |
दोन्ही दिठी नांदवी | नीद जैशी ||३- ९||
जिती अविद्या ऐशी | अन्यथा बोधातें गिंवशी |
तेचि यथाबोधेंसी | निमाली उठी ||३- १०||
परी जीती ना मेली | अविद्या हे जाकळी |
बंधमोक्षीं घाली | बांधोनियां ||३- ११||
मोक्षुचि बंधु होये | तरी मोक्ष शब्द कां साहे ? |
अज्ञाना घरी त्राये | वाउगी यांची ||३- १२||
बागुलाचेनि मरणें | तोषावें कीं बाळपणें |
येरा तो नाहीं मा कोणें | मृत्यु मानावा ? ||३- १३||
घटाचें नाहींपण | फुटलियाची नागवण |
मानितसे तें जाण | म्हणो ये कीं ||३- १४||
म्हणोनि बंधुचि तंव वावो | मा मोक्षा कें प्रसवो ? |
परी मरोनि केला ठावो | अविद्या तया ||३- १५||
आणि ज्ञान बंधु ऐसें | शिवसूत्राचेनि मिसें |
म्हणितलें असे | सदाशिवें ||३- १६||
आणि वैकुंठींचेनिहि सुजाणें | ज्ञानपाशीं सत्त्वगुणें |
बांधिजे हें निरोपण | बहु केलें ||३- १७||
परी शिवें कां श्रीवल्लभें | बोलिलें येणेंचि लोभें |
मानूं तें हें लाभे | न बोलतांही ||३- १८||
जें आत्मज्ञान निखळ | तेंही घे ज्ञानाचें बळ |
तैं सूर्य चिंती सबळ | तैसे नोहे ? ||३- १९||
ज्ञानें श्लाघतु आहे | तैं ज्ञानपण धाडिलें वाये |
दीप वांचोनि दिवा लाहे | तैं आंग भुललाचि कीं ||३- २०||
आपणपें आपणापाशीं | नेणतां देशोदेशीं |
आपणपें गिंवशी | हें कीरू होये ? ||३- २१||
परि बहुतां कां दिया | आपणपें आठवलिया |
म्हणे मी यया | कैसा रिझों ? ||३- २२||
तैसा ज्ञानरूप आत्मा | ज्ञानेंचि आपली प्रमा |
करितसे सोहमा | ऐसा बंधु ||३- २३||
जें ज्ञान स्वये बुडे | म्हणोनी भारी नावडे |
ज्ञानें मोक्षु घडे | तें निमालेनि ||३- २४||
म्हणोनि परादिका वाचा | तो शृंगारु चौ आंगाचा |
एवं अविद्या जीवाचा | जीवत्व त्यागी ||३- २५||
आंगाचेनि इंधने उदासु | उठोनि ज्ञानाग्नी प्रवेशु |
करी तेथें भस्मलेशु | बोधाचा उरे ||३- २६||
आंगीं लाविलिया विभूति | तैं परमाणूही झडती |
परि पांडुरत्वें कांती | राहे जैशी ||३- २७||
जळीं जळा वेगळु | कापूर न दिसे अवडळु |
परी होऊनि परिमळु | उरे जेवीं ||३- २८||
ना वोहळला आंगीं जैसे | पाणी पाणीपणें नसे |
तर्क्ष्हीं वोल्हासाचेनि मिसें | आथीच तें ||३- २९||
ना तरी माध्यान्हकाळीं | छाया न दिसे वेगळी |
असे पायातळीं | रिगौनियां ||३- ३०||
तैसें ग्रासूनि दुसरें | स्वरूपीं स्वरूपाकारें |
आपुलेपणें उरे | बोधु जो कां ||३- ३१||
तें ऋणशेष वाचा इया | न फेडवेचि मरोनियां |
तें पायां पडोनि मियां | सोडविलें ||३- ३२||
म्हणोनि परा पश्यंती | मध्यमा हन भारती |
या निस्तरलिया लागती | ज्ञानीं अज्ञानींची ||३- ३३||
||इति श्रीमदमृतानुभवे वाचाऋणोत्तीर्णनाम तृतीय प्रकरणं
संपूर्णम्||
प्रकरण चवथें
ज्ञान अभेदकथन
आतां अज्ञानाचेनि मारें | ज्ञान अभेदें वावरें |
नीद साधोनि जागरें | नांदिजे जेवी ||४- १||
कां दर्पणाचा निघाला | ऐक्यबोधु पहिला |
मुख भोगी आपुला | आपणचि ||४- २||
ज्ञान जिया तिया परी | जगीं आत्मैक्य करी |
तैं सुरिया खोचे सुरी | तैसें जाहलें ||४- ३||
लावी आंत ठाउनि कोपट | तो साधी आपणया सकट |
का बांधलेया चोरट | मोटेमाजी ||४- ४||
आगी पोतासाचेनि मिसें | आपणपें जाळिलें जैसें |
ज्ञाना अज्ञाननाशें | तैसें जाहलें ||४- ५||
अज्ञानाचा टेका | नसतांही ज्ञान अधिका |
फांके तंव उफखा | आपुला पडे ||४- ६||
वात दशाही ते निमालियां | येणें जें ये उवाया |
तें केवळ नाशावया | दीपाचे परी ||४- ७||
उठणें कीं पडणें | कुचभाराचे कोण जाणें |
कां फांकणें कीं सुकणें | जाउळाचें ||४- ८||
तरंगाचें रूपा येणें | तयाचि नांव निमणें |
कां विजूचें उदैजणें | तोचि अस्तु ||४- ९||
तैसें पिऊनि अज्ञान | तंववरी वाढे ज्ञान |
जंव आपुलें निधन | निःशेष साधे ||४- १०||
जैसें कल्पांतीचें भरितें | स्थळां जळां दोहींतें |
बुडविलिया आरौतें | राहोंचि नेणें ||४- ११||
कीं विश्वाही वेगळ | वाढे जैं सूर्यमंडळ |
तैं तेजमत निखळ | तेंचि होय ||४- १२||
नाना नीद मारोनी | आपणपें हिरोनी |
जागणें ठाके होउनी | जागणेंचि ||४- १३||
तैसें अज्ञान आटोनिया | ज्ञान ये तें उवाया |
ज्ञानाज्ञान गिळोनिया | ज्ञानचि होय ||४- १४||
ते वेळीं पुनिवां भरे | ना आवसा सरे |
तें चंद्रंचि उरे | सतरावी जैशी ||४- १५||
कां तेजांतरे नाटोपे | कोणे तमें न शिंपे |
तें उपमेचें जाउपे | सूर्यचि होय ||४- १६||
म्हणोनि ज्ञानें उजळे | कां अज्ञानें रुळे |
तैसें नव्हे निर्वाळें | ज्ञानमात्र जे ||४- १७||
परी ज्ञानमात्रें निखळें | तेंचि कीं तया कळें |
काई देखिजे बुबुळें | बुबुळा जेवीं ? ||४- १८||
आकाश आपणपया रिघे ? | कायी आगी आपणया लागे ? |
आपला माथा वळघें | आपण कोण्ही ? ||४- १९||
दिठी आपणया देखे ? | स्वादु आपणया चाखे ? |
नादु आपलें आइकें ? | नादपण ||४- २०||
सूर्य सूर्यासि विवळे ? | कां फळ आपणया फळे ? |
परिमळु परिमळें | घेपत असे ? ||४- २१||
तैसें आपणयां आपण | जाणतें नव्हे जाण |
म्हणोनी ज्ञानपणेंवीण | ज्ञानमात्र जें ||४- २२||
आणि ज्ञान ऐशी सोये | ज्ञानपणेंचि जरी साहे |
तरी अज्ञान हें नोहे ? | ज्ञानपणेंचि ||४- २३||
जैसें तेज जें आहे | तें अंधारें कीर नोहे |
मा तेज तरी होये | तेजासी काईं ? ||४- २४||
तैसें असणें आणि नसणें | हें नाहीं जया होणें |
आतां मिथ्या ऐसें येणें | बोलें गमे ||४- २५||
तरी कांहीं नाहीं सर्वथा | ऐसी जरी व्यवस्था |
तरी नाहीं हे प्रथा | कवणासी पां ? ||४- २६||
शून्यसिद्धांतबोधु | कोणी सत्ता होय सिद्धु ? |
नसता हा अपवादु | वस्तूसी जो ||४- २७||
माल्हवितां देवे | माल्हवितें जरी माल्हवे |
तरी दीपु नाहीं हें फावे | कवणासी पा ||४- २८||
कीं निदेचेनि आलेपणें | निदेलें तें जाय प्राणें |
तरी नीद भली हें कोणें | कोणासी पा ? ||४- २९||
घटु घटपणें भासे | तद्भंगें भंगु आभासे |
सर्वथा नाहीं तैं नसे | कोणें म्हणावें ? ||४- ३०||
म्हणोनि कांहीं नाहींपण | देखता नाहीं आपण |
नोहोनी असणेनवीण | असणें जें ||४- ३१||
परी आणिका कां आपणया | न पुरे विखो होआवया |
म्हणोनी न असावया | कारण कीं ||४- ३२||
जो निरंजनीं निदेला | तो आणिकीं नाहीं देखिला |
आपुलाही निमाला | आठवु तया ||४- ३३ |
परी जीवें नाहीं नोहे | तैसें शुद्ध असणें आहे |
हें बोलणें न साहे | असेनाहींचें ||४- ३४||
दिठी आपणया मुरडे | तैं दिठीपणही मोडे |
परी नाहीं नोहे हें फुडे | जाणेचि ते ||४- ३५||
कां काळा राहे काळवखा | तो आपणा ना आणिकां |
न चोजवे तर्क्ष्ही आसिका | हा मी बाणे ||४- ३६||
तैसे असणें कां नसणें | हें कांहींच मानूसवाणें |
नसोनि असणें | ठायें ठावो ||४- ३७||
निर्मळपणीं आपुला | आकाशाचा संचु विराला |
तो स्वयें असे पुढिला | कांहीं ना कीं ||४- ३८||
कां आंगीं कीं निर्मळपणीं | हारतलिया पोखरणी |
हें आणिका वांचूनि पाणी | सगळेंचि आहे ||४- ३९||
आपणा भागु तैसें | असणेंचि जें असे |
आहे नाहीं ऐसें | सांडूनियां ||४- ४०||
निदेचें नाहींपण | निमालियाही जागेंपण |
असिजे कां नेण | कोणी न होऊनि जैसें ||४- ४१||
कां भूमी कुंभ ठेविजे | तैं सकुंभता आपजे |
तो नेलिया म्हणिजे | तेणेंवीण ||४- ४२||
परी दोन्ही हे भाग | न शिवति भूमीचें आंग |
ते वेळीं भूमि तैसें चांग | चोख जें असणें ||४- ४३||
||इति श्रीमदमृतानुभवे ज्ञान अभेदकथननाम चतुर्थ
प्रकरणं संपूर्णम्||
प्रकरण पांचवे
सच्चिदानंदपदत्रयविवरण
सत्ता प्रकाश सुख | या तिहीं तीहीं उणे लेख |
जैसें विखपणेंचि विख | विखा नाहीं ||५- १||
कांति काठिण्य कनक | तिन्ही मिळोनि कनक एक |
द्राव गोडी पीयुख | पीयुखचि जेवीं ||५- २||
उजाळ दृति मार्दव | या तिहीं तिहीं उणीव |
हें देखिजे सावेव | कापुरीं एकीं ||५- ३||
आंगें कीर उजाळ | कीं उजाळताचि मवाळ |
कीं दोन्ही ना परिमळ | मात्र जें ||५- ४||
ऐसें एके कापूरपणीं | तिन्ही इये तिहीं उणी |
इयापरी आटणी | सत्तादिकांची ||५- ५||
येर्क्ष्हवीं सच्चिदानंदभेदें | चालिलीं तिन्ही पदें |
परि तिन्हीं उणीं आनंदें | केलीं येणें ||५- ६||
सत्ताचि कीं सुखप्रकाशु | प्रकाशुचि सत्ता उल्हासु |
हें न निवडे मिठांशु | अमृतीं जेवीं ||५- ७||
शुक्लपक्षीच्या सोळा | दिवसा वाढती कळा |
परि चंद्र मात्र सगळा | चंद्रीं जेवीं ||५- ८||
थेंबीं पडतां उदक | थेंबां धरूं ये लेख |
परी पडिलाठायीं उदक | वांचूनि आहे ? ||५- ९||
तैसें असताचिया व्यावृत्ती | सत् म्हणों आलें श्रुति |
जडाचिया समाप्ती | चिद्रूप ऐसें ||५- १०||
दुःखाचेनि सर्वनाशें | उरलें तें सुख ऐसें |
निगदिलें निश्वासें | प्रभूचेनि ||५- ११||
ऐसीं सदादि प्रतियोगियें | असदादि तिन्ही इयें |
लोटितां जाली त्राये | सत्तादिकां ||५- १२||
एवं सच्चिदानंदु | आत्मा हा ऐसा शब्दु |
अनव्यावृत्ति सिद्धु | वाचक नव्हे ||५- १३||
सूर्याचेनि प्रकाशें | जें कांहीं जड आभासें |
तेणें तो गिवसें | सूर्यु काई ? ||५- १४||
तेवीं जेणें तेजें | वाचेसि वाच्य सुजें |
ते वाचा प्रकाशिजे | हें कें आहे ? ||५- १५||
विषो नाहीं कोणाही | जया प्रमेयत्वचि नाहीं |
तया स्वप्रकाशा काई | प्रमाण होये ||५- १६||
प्रमेयपरिच्छेदें | प्रमाणत्व नांदे |
तें काई स्वतःसिद्धें | वस्तूच्या ठायीं ? ||५- १७||
एवं वस्तूसि जाणों जातां | जाणणेंचि वस्तु तत्त्वता |
मग जाणणें आणि जाणता | कैचें उरे ? ||१८||
म्हणोनि सच्चित्सुख | हे बोल वस्तुवाचक |
नव्हती हें शेष | विचाराचें ||५- १९||
ऐसेनि इयें प्रसिद्धें | चालिलीं सच्चिदानंद पदें |
मग द्रष्ट्या स्वसंवादें | भेटती जेव्हां ||५- २०||
ते वेळीं वरषोनि मेघु | समुद्र होऊनि वोघु |
सरे दाऊनि मागु | राहे जैसा ||५- २१||
फळ विउनी फूल सुके | फळनाशे रसपाकें |
तोही रस उपखें | तृप्तीदानीं ||५- २२||
कां आहुति अग्नीआंतु | घालूनि वोसरे हातु |
सुख चेवऊनि गीतु | उगा राहे ||५- २३||
नाना मुखा मुख दाऊनी | आरिसा जाय निघोनि |
कां निदैलें चेववुनी | चेवितें जैसें ||५- २४||
तैसा सच्चिदानंदा चोखटा | दाऊनि द्रष्ट्या द्रष्टा |
तिन्हीं पदें लागतीं वाटा | मौनाचिया ||५- २५||
जें जें बोलिजे तें तें नव्हे | होय तें तंव न बोलवे |
साउलीवरी न मववे | मवितें जैसें ||५- २६||
मग आपुलियाकडे | मवितया से पडे |
तैं लाजलाजों आखुडे | मविते जैसें ||५- २७||
तैसी सत्ताचि स्वभावें | असत्ता तंव नव्हे |
मा सत्तात्व संभवे | सत्तेसि कायि ? ||५- २८||
आणि अचिदाचेनि नाशें | आलें जें चिन्मात्रदशे |
आतां चिन्मात्रचि मा कैसें | चिन्मात्रीं ये ||५- २९||
नीद प्रबोधाच्या ठायीं | नसे तैसें जागणेंही |
तेवीं चिन्मात्रचि मा काई | चिन्मात्रीं ये ? ||५- ३०||
ऐसें यया सुखपणें | नाहीं दुःख कीर होणें |
मा सुख हें गणणें | सुखासि काई ? ||५- ३१||
म्हणोनी सदसदत्वें गेलें | चिदचिदत्वें मावळलें |
सुखासुख जालें | कांहीं ना कीं ||५- ३२||
आतां द्वंद्वाचें लवंचक | सांडूनि दुणीचे कंचुक |
सुखामात्रचि एक | स्वयें आथी ||५- ३३||
वरी एकपणें गणिजे | तें गणितेनसीं ये दुजें |
म्हणोनि हें न गणिजे | ऐसें एक ||५- ३४||
तैसें सुखा आतोनि निघणें | तें सुखीयें सुखी तेणें |
हें सुखमात्रचि मा कोणें | अनुभवावें ? ||५- ३५||
जैं प्रकृति डंकु अनुकरे | तैं प्रकृति डंकें अवतरे |
मां डंकूचि तैं भरे | कोण कोणा ? ||५- ३६||
तैसें आपुलेनि सुखपणें | जया नाहीं सुखावणें |
आणि नाहीं हेंही जेणें | नेणिजे सुखें ||५- ३७||
आरिसा न पाहतां मुख | स्वयें सन्मुख ना विन्मुख |
तेवीं नसोनी सुखासुख | सुखचि जें ||५- ३८||
सर्व सिद्धांताचिया उजरिया | सांडूनिया निदसुरिया |
आपुलिया हात चोरिया | आपणचि जें ||५- ३९||
न लवितां ऊंसु | तैं जैसेनि असे रसु |
तेथिंचा मीठांशु | तोचि जाणे ||५- ४०||
कां न सज्जिता विणा | तो नादु जो अबोलपणा |
तया तेणेंचि जाणा | होआवें लागे ||५- ४१||
नाना पुष्पाचिया उदरा | न येतां पुष्पसारा |
आपणचि भंवरा | होआवें पडे ||५- ४२||
नाना न रांधितां रससोये | ते गोडी पां कैसी आहे |
हें पाहणें तैसें नोहे | आणिका जोगें ||५- ४३||
तैसें सुखपणा येवों | लाजें आपुलें सुख पावों |
तें आणिकां चाखों सुवों | येईल काईं ? ||५- ४४||
दिहाचिया दुपारीं | चांदू जैसा अंबरीं |
तें असणें चांदाचिवरी | जाणावें कीं ||५- ४५||
रूप नाहीं तैं लावण्य | अंग नुठी तैं तारुण्य |
क्रिया न फुटे तैं पुण्य | कैसें असे ||५- ४६||
जैं मनाचा अंकुर नुपजे | तेथिलेनि मकरध्वजें |
तोचि हन माजे | तरीच घडे ||५- ४७||
कां वाद्यविशेषाची सृष्टी | जैं जन्म नेघे दृष्टी |
तैं नादु ऐशी गोष्टी | नादाचि जोगी ||५- ४८||
नाना काष्ठाचिया विटाळा | वोसरलियाही अनळा |
लागणें तैं केवळा | अंगासीचि ||५- ४९||
दर्पणाचेनि नेमें- | विणचि मुख प्रेमे |
आणिती तेचि वर्में | वर्मती येणें ||५- ५०||
न पेरितां पीक जोडे | तें मुडाचि आहे रोकडें |
ऐसिया सोई उघडें | बोलणें हें ||५- ५१||
एवं विशेष सामान्य | दोहीं नातळे चैतन्य |
तें भोगिजे अनन्य | तेणेंसीं सदा ||५- ५२||
आतां यावरी जे बोलणें | तें येणेंचि बोलें शहाणें |
जें मौनाचेंही निपटणें | पिऊनि गेलें ||५- ५३||
एवं प्रमाणें अप्रमाण- | पण केलें प्रमाण |
दृष्टांतीं वाइली आण | दिसावयाची ||५- ५४||
आंगाचिया अनुपपत्ति | आटलिया उपपत्ती |
येथें उठली पांती | लक्षणांची ||५- ५५||
उपाय मागिला पाये | घेऊन जाले वाये |
प्रतीति सांडिली सोये | प्रत्ययाची ||५- ५६||
येथें निर्धारेंसी विचारु | निमोनि जाला साचारु |
स्वामीच्या संकटी शूरु | सुभटू जैसा ||५- ५७||
नाना नाशु साधूनि आपुला | बोधु बोधें लाजिन्नला |
नुसधेपणें थोटावला | अनुभवु जेथे ||५- ५८||
भिंगाचिया चडळा | पदरांचा पुंज वेगळा |
करितां जैसा निफाळा | आंगाचा होय ||५- ५९||
कां गजबजला उबा | पांघुरणें केळीचा गाभा |
सांडी तेव्हेळीं उभा | कैचा कीजे ? ||५- ६०||
तैसें अनुभाव्य अनुभाविक | इहीं दोही अनुभूतिक |
तें गेलिया कैचें एक | एकासीचि ||५- ६१||
अनुभवा हा ठावोवरी | आपुलीचि अनवसरी |
तेथें अक्षरांची हारी | वाईल काई ? ||५- ६२||
कां परेसी पडे मिठी | तेथें नादा सळु नुठी |
मा वावरिजैल ओंठीं | हें कें आहे ? ||५- ६३||
चेइलियाही पाठीं | चेवणयाच्या गोठी |
कीं धाला बैसें पाठीं | रंधनाच्या ? ||५- ६४||
उदैजलिया दिवसपती | तैं कीं दिवे सेजे येती |
वांचुनि पिकलां शेतीं | सुइजताती नांगर काई ? ||५- ६५||
म्हणोनि बंधमोक्षाचें व्याज | नाहीं निमालें काज |
आतां निरूपणाचें भोज | वोळगे जरी ||५- ६६||
आणि पुढिला कां आपणापें | वस्तु विसराचेनि हातें हारपें |
मग शब्देंचि घेपे | आठवूनियां ||५- ६७||
येतुलियाही परौतें | चांगावें नाहीं शब्दातें |
जऱ्ही स्मारकपणें कीर्तीतें | मिरवी हा जगीं ||५- ६८||
||इति श्रीमदमृतानुभवे सच्चिदानंदपदत्रयविवरणं नाम
पंचम प्रकरणं संपूर्णम्||
प्रकरण सहावें
शब्दखंडण
बाप उपेगी वस्तु शब्दु | स्मरणदानीं प्रसिद्धु |
अमूर्ताचा विशदु | आरिसा नव्हे ? ||६- १||
पाहतें आरिसा पाहें | तेथें कांहींचि नवल नव्हे |
परि दर्पणें येणें होये | न पाहतें पाहतें ||६- २||
वडिला अव्यक्ताचिया वंशा | उद्योत्कारु सूर्य जैसा |
येणें एके गुणें आकाशा | अंबरत्व ||६- ३||
आपण तंव खपुष्प | परी फळ ते जगद्रूप |
शब्द मवी तैं अमुप | कोण आहे ? ||६- ४||
विधिनिषेधाचिया वाटा | दाविता हाचि दिवटा |
बंधमोक्ष कळिकटा | शिष्टु हाचि ||६- ५||
हा अविद्येच्या आंगीं पडे | तैं नाथिलें ऐसें विरूढे |
न लाहिजे तीन कवडे | साचा वस्तु ||६- ६||
शुद्धा शिवाच्या शरीरीं | कुमारु हा जिउ भरी |
जेवीं आंगें पंचाक्षरी | तेवींचि बोलु ||६- ७||
जिउ देहें बांधला | तो बोलें एके सुटला |
आत्मा बोलें भेटला | आपणपयां ||६- ८||
दिवसातें उगो गेला | तंव रात्रीचा द्रोहो आला |
म्हणोनि सूर्यो या बोला | उपमा नव्हे ||६- ९||
जे प्रवृत्ति आणि निवृत्ति | विरुद्धा ह्या हातु धरिती |
मग शब्देंचि चालती | एकलेनि ||६- १०||
सहाय आत्मविद्येचें | करावया आपण वेंचे |
गोमटे काय शब्दाचें | एकैक वानूं ||६- ११||
किंबहुना शब्दु | स्मरणदानीं प्रसिद्धु |
परी ययाही समंधु | नाहीं येथें ||६- १२||
आत्मया बोलाचें | कांहींचि उपेगा न वचे |
स्वसंवेद्या कोणाचें | ओझें आथी ? ||६- १३||
आठवे कां विसरे | विषो होऊनि अवतरे |
तरी वस्तूशीं वस्तू दुसरें | असेना कीं ||६- १४||
आपण आपणयातें | आठवी विसरे केउतें ? |
काय जीभ जिभेतें | चाखे न चाखे ? ||६- १५||
जागतेया नीद नाही | मा जागणें घडे काई ? |
स्मरणास्मरण दोन्हीही | स्वरूपीं तैसीं ||६- १६||
सूर्यो रात्री पां नेणें | मा दिवो काय जाणें ? |
तेवीं स्मरणास्मरणे वीण | आपण वस्तु ||६- १७||
एवं स्मरणास्मरण नाहीं | तरी स्मारकें काज काई ? |
म्हणौनि इये ठाईं | बोलु न सरे ||६- १८||
आणिक एक शब्दें | काज कीर भलें सिद्धें |
परि धिवसा न बंधे | विचारू येथें ||६- १९||
कां जे बोलें अविद्या नाशे | मग आत्मेनि आत्मा भासे |
हें म्हणतखेव पिसें | आलेंचि कीं ||६- २०||
सूर्यो रात्रि मारील | मा आपणया उदो करील |
हे कुडे न सरती बोल | साचाच्या गांवीं ||६- २१||
चेईलें निदे रुसे | ऐसी कें नीद असे ? |
कीं चेईलें चेवो बैसें | ऐसें चेणें आहे ? ||६- २२||
म्हणोनि नाशापुरती | अविद्या नाहीं निरुती |
नाहीं आत्मा आत्मस्थिती | रिगे ऐसा ||६- २३||
अविद्या तंव स्वरूपें | वांझेचें कीर जाउपें |
मा तर्कांचें खुरपें | खांडे कोणा ? ||६- २४||
इंद्रधनुष्या सितें | कवण धनवई न लाविजेतें |
तें दिसें तैसें होतें | साच जरी ? ||६- २५||
अगस्तीचिया कौतुका | पुरती जरी मृगतृष्णिका |
तरी मार देतो तर्का | अविद्येसी ||६- २६||
साहे बोलाची वळघी | ऐसी अविद्या असे जगीं |
तरी जाळुं ना कां आगी | गंधर्वनगरें ? ||६- २७||
नातरी दीपाचिये सोये | आंधारु कीर न साहे |
तेथें कांहीं आहे | जावयाजोगें ? ||६- २८||
नातरी पाहावया दिवसु | वातीचा कीजे सोसु |
तेव्हढाहि उद्वसु | उद्यमु पडे ||६- २९||
जेथें साउली न पडे | तेथें नाही जेणें पाडें |
मा पडे तेथें तेव्हडे | नाहींच की ||६- ३०||
दिसतचि स्वप्न लटिकें | हें जागरीं होय ठाउकें |
तेंवि अविद्याकाळीं सतुकें | अविद्या नाहीं ||६- ३१||
वोडंबरीचिया लेणिया | घरभरी आतुडलिया |
नागवें नागविलिया | विशेषु काई ? ||६- ३२||
मनोरथाचें परियळ | आरोगिजतु कां लक्ष वेळ |
परि उपवासा वेगळ | आनु आथी ? ||६- ३३||
मृगजळ जेथ नुमंडे | तेथ असे पां कोरडें |
मा उमंडे तेथें जोडे | वोल्हांसु काई ? ||६- ३४||
हें दिसे तैसें असे | तरी चित्रींचेनि पाउसें |
वोल्हावतु कां मानुसें | आगरा तळीं ||६- ३५||
कालवूनि आंधारें | लिहों येती अक्षरें |
तरी मसीचिया वोरबारें | कां सिणावें ? ||६- ३६||
आकाश काय निळें | न देखतु हे डोळे ? |
तेवीं अविद्येचि टवाळें | जाणोनि घेईं ||६- ३७||
अविद्या येणें नांवें | मी विद्यमानचि नव्हे |
हे अविद्याची स्वभावें | सांगतसे ||६- ३८||
आणि इये अनिर्वाच्यपण | तें दुजेंही देवांगण |
आपुलां अभावीं आपण | साधीतसे ||६- ३९||
कांहीच जरी आहे | तरी निर्द्धारु कां न साहे ? |
वरी घटाभावें भोये | अंकित दिसे ? ||६- ४०||
अविद्या नाशी आत्मा | ऐसी नव्हे प्रमा |
सुर्या आंगीं तमा | जयापरी ||६- ४१||
हे अविद्या तरी मायावी | परी मायावीपणचि लपवी |
हे साचा आली अभावी | आपुलां हे ||६- ४२||
बहुतापरी ऐसी | अविद्या नाहीं आपैसीं |
आतां बोलू हात वसी | कवणावरी ||६- ४३||
साउलि येतें साबळें | हालया भोय आडळे |
कीं हालेनि अंतराळें | थोंटावे हातु ||६- ४४||
कां मृगजळाचा पानीं | गगनाचा अलिंगनीं |
नातरी चुंबनीं | प्रतिबिंबाच्या ||६- ४५||
उठावला वोथरे तवका | तो सुनाथा पडे असिका |
अविद्यानाशीं तर्का | तैसें होय ||६- ४६||
ऐसी अविद्या नासावी | हें वाहेल जो जीवीं |
तेणें साली काढावी | आकाशाची ||६- ४७||
तेणें शेळी गळां दोहावीं | गुडगाडोळां वास पाहावी |
वाळवोनि काचरी करावी | सांजवेळेची ||६- ४८||
जांभई वांटूनि रसु | तेणें काढावा बहुवसू |
कालवूनि आळसू | मोदळा पाजावा | ६- ४९||
तो पाटा पाणी परतु | पडली साउली उलथु |
वारयाचे तांथु | वळू सुखें ||६- ५०||
तो बागुलातें मारू | प्रतिबिंब खोळे भरूं |
तळहातींचे विंचरू | केस सुखें ||६- ५१||
घटाचें नाहींपण फोडू | गगनाची फुलें तोडू |
सशाचें मोडू | शिंग सुखें ||६- ५२||
तो कापुराची मसी करू | रत्नदीपीं काजळ धरू |
वांझेचें लेंकरूं | परणू सुखें ||६- ५३||
तो अंवसेनेचि सुधाकरें | पोसू पाताळीची चकोरें |
मृगजळींचीं जळचरें | गाळूं सुखें ||६- ५४||
अहो हें किती बोलावें | अविद्या रचिली अभावें |
आतां काई नाशावें | शब्दें येणें ||६- ५५||
नाहीं तयाचेनि नाशें | शब्द न ये प्रमाणदशे |
अंधारीं अंधारा जैसें | नव्हे रूप ||६- ५६||
अविद्येची नाहीं जाती | तेथें नाहीं म्हणतया युक्ती |
जेवी दुपारीं कां वाती | अंगणींचिया ||६- ५७||
न पेरितां शेती | जे कीं संवगणिया जाती |
तयां लाजेपरौति | जोडी आहे ? ||६- ५८||
खवणियाच्या आंगा | जेणें केला वळघा |
तो न करितांचि उगा | घरी होता ||६- ५९||
पाणियावरी वरखु | होता कें असे विशेखु |
अविद्यानाशी उन्मेखु | फांकावा तैसा ||६- ६०||
माप मापपणें श्लाघे | जंव आकाश मवूं न रिघे |
तम पाहतां वाउगें | दीपाचें जन्म ||६- ६१||
गगनाची रससोये | जीभ जैं आरोगुं जाये |
मग रसना हें होये | आडनांव कीं ||६- ६२||
नव्हतेनि वल्लभे | अहेवपण कां शोभे |
खातां केळीचे गाभे | न खातां गेले ||६- ६३||
स्थूळ सूक्ष्म कवण येकु | पदार्थ न प्रकाशी अर्कु |
परी रात्रीविषयीं अप्रयोजकु | जालाचि कीं ||६- ६४||
दिठी पाहतां काय न फावे | परी निदेतें तंव न देखवे |
चेता ते न संभवे | म्हणोनियां ||६- ६५||
चकोराचिया उद्यमा | लटिकेपणाची सीमा |
जरि दिहाचि चंद्रमा | गिंवसूं बैसे ||६- ६६||
नुसधियेचि साच्या | मुका होय वाचरुकाचा |
अंतराळीं पायांचा | पेंधा होय ||६- ६७||
तैसीं अविद्येसीं सन्मुखें | सिद्धचि प्रतिषेधकें |
उठलींचि निरर्थकें | जल्पें होतीं ||६- ६८||
अंवसे आला सुधाकरु | न करीच काय अंधकारु ? |
अविद्यानाशीं विचारु | तैसा होये ||६- ६९||
नाना न निफजतेनि अन्नें | जेवणें तेंचि लंघनें |
निमालेनि नयनें | पाहणाचि अंधु ||६- ७०||
कैसीनि ही वस्तु नसे | तेथें जै शब्दाचा अर्थ हों बैसे |
तैं निरर्थकपणें नासे | शब्दहि थिता ||६- ७१||
आतां अविद्याचि नाहीं | हें कीर म्हणो काई |
परी ते नाशितां कांहीं | नुरेची शब्दाचें ||६- ७२||
यालागीं अविद्येचिया मोहरां | उठलियाही विचारा |
आंगाचाची संसारा | होऊनि ठेला ||६- ७३||
म्हणोनि अविद्येचेनि मरणें | प्रमाणा येईल बोलणें |
हें अविद्याचि नाहींपणें | नेदी घडों ||६- ७४||
आणि आत्मा हन आत्मया | दाऊनी बोलु महिमेया |
येईल हें साविया | विरुद्धचि ||६- ७५||
आपणया आपणपेंसी | लागलें लग्न कवणे दिवशीं |
कीं सूर्य अंग ग्रासी | ऐसें ग्रहण आहे ? ||६- ७६||
गगन आपणया निघे ? | सिंधु आपणा रिघे ? |
तळहात काय वळघे | आपणपयां ? ||६- ७७||
सूर्य सूर्यासि विवळे ? | फळ आपणया फळें ? |
परिमळु परिमळें | घेपता ये ? ||६- ७८||
चराचरा पाणी पाजणी | करूं येईल एके क्षणीं |
परि पाणियासि पाणी | पाजवे कायी ? ||६- ७९||
साठीं तिशा दिवसां | माजीं एखादा होय ऐसा |
जे सूर्यासीच सूर्य जैसा | डोळा दावी ||६- ८०||
कृतांत जरी कोपेल | तरी त्रैलोक्य हें जाळील |
वांचूनि आगी लावील | आगीसि काई ? ||६- ८१||
आपणपें आपणया | दर्पणेवीण धात्रेया |
समोर होआवया | ठाकीं आहे ? ||६- ८२||
दिठी दिठीतें रिघों पाहे ? | रुचि रुचीतें चाखों सुये ? |
कीं चेतया चेतऊं ये ? | हें नाहींच कीं ||६- ८३||
चंदन चंदनपणा लावी ? | रंगु रंगपणा लावी |
मोतींपण मोतीं लेववी | ऐसें कैसें ? ||६- ८४||
सोनेंपण सोनें कसी | दीपपण दीप प्रकाशी |
रसपणा बुडी ते रसीं | तें कें जोडे ? ||६- ८५||
आपुलिये मुकुटीं समर्था | चंद्र बैसविला सर्वथा |
परि चंद्र चंद्राचिये माथा | वाऊं ये काई ? ||६- ८६||
तैसा आत्मराजु तंव | ज्ञानमात्रचि भरींव |
आतां ज्ञानें ज्ञानासि खेंव | कैसें दीजे ? ||६- ८७||
आपुलेनि जाणपणें | आपणयातें जाणों नेणे |
डोळ्या आपुलें पाहाणें | दुवाड जैसें ||६- ८८||
आरसा आपुलिये | आंगीं आपणा पाहे |
तरी जाणणें जाणों लाहे | आपणयातें ||६- ८९||
दिगंता पैलीकडेचें | धांवोनि सुरिया खोंचे |
मा तिये कां तियेचें | आंग फुटे ? ||६- ९०||
रसवृत्तीसी उगाणें | घेऊनि जिव्हाग्र शाहाणें |
परि कायी कीजे नेणे | आपणपें चाखों ||६- ९१||
तरि जिव्हे काय आपलें | चाखणें हन ठेलें ? |
तैसे नव्हे संचलें | तेंचि ते कीं ||६- ९२||
तैसा आत्मा सच्चिदानंदु | आपणया आपण सिद्धु |
आतां काय दे शब्दु | तयाचें तया ||६- ९३||
कोणाही प्रमाणाचेनि हातें | वस्तु घे ना नेघे आपणयातें |
जो स्वयेंचि आइतें | घेणें ना न घेणें ||६- ९४||
म्हणोनि आत्मा आत्मलाभें | नांदवूनि शब्द शोभे |
येईल ऐसा न लभे | उमसु घेवों ||६- ९५||
एवं माध्यान्हींची दिवा | तम धाडी ना दिवो दावी |
तैसी उभयतां पदवी | शब्दा जाली ||६- ९६||
आतां अविद्या नाहींपणें | नाहीं तये नासणें |
आत्मा सिद्धुचि मा कोणें | काय साधावें ? ||६- ९७||
ऐसा उभय पक्षीं | बोला न लाहोनि नखी |
हारपला प्रळयोदकीं | वोघु जैसा ||६- ९८||
आतां बोला भागु कांहीं | असणें जयाच्या ठाईं |
अर्थता तरी नाहीं | निपटूनियां ||६- ९९||
बागुल आला म्हणतें | बोलणें जैसें रितें |
कां आकाश वोळंबतें | तळहातीं ||६- १००||
तैसीं निरर्थकें जल्पें | होउनियां सपडपें |
शोभती जैसें लेपे | रंगावरी ||६- १०१||
एवं शब्दैकजीवनें | बापुडीं ज्ञानें अज्ञानें |
साचपणें वनें | चित्रींचीं जैसीं ||६- १०२||
या शब्दाचा निमाला | महाप्रळयो हो सरला |
अभ्रासवें गेला | दुर्दिनु जैसा ||६- १०३||
||इति श्रीमदमृतानुभवे शब्दखंडनं नाम षष्ठम
प्रकरणं संपूर्णम्||
प्रकरण सातवें
अज्ञानखंडण
येर्क्ष्हवीं तर्क्ष्ही अज्ञाना | जैं ज्ञानाची नसे क्षोभणा |
तैं तरी काना- | खालींच दडे ||७- १||
आडसूनि अंधारीं | खद्योत दीप्ती शिरी |
तैसें लटिकेंवरी | अनादि होय ||७- २||
जैसी स्वप्ना स्वप्नीं महिमा | तमीं मानु असे तमा |
तेवीं अज्ञाना गरिमा | अज्ञानींचि ||७- ३||
कोल्हेरीचे वारु | न येती धारकीं धरूं |
नये लेणा श्रृंगारूं | वोडंबरीचा ||७- ४||
हें जाणणेयाच्या घरीं | खोंचिलेंही आन न करी |
काई चांदिणां उठे लहरी | मृगजळाची ? ||७- ५||
आणि ज्ञान हें जें म्हणिजे | तें अज्ञानचि पां दुजें |
येक लपऊनि दाविजे | येक नव्हे ? ||७- ६||
असो आतां या प्रस्तावो | आधीं अज्ञानाचा धांडोळा घेवों |
मग तयाच्या साचीं लाहो | ज्ञानही लटिकें ||७- ७||
या अज्ञान ज्ञानातें | आंगींचि आहे जितें |
तरी जेथें असे तयातें | नेण कां न करी ? ||७- ८||
अज्ञाने जेथ असावें | तेणें सर्व नेण होआवें |
ऐसी जाती स्वभावें | अज्ञानाची ||७- ९||
तरी शास्त्रमत ऐसें | जे आत्माचि अज्ञान असे |
आणि तेणेंचि तो गिंवसे | आश्रो जरी ||७- १०||
तरी नुठितां दुजें | जैं अज्ञान आहे बीजें |
तैं तेचि आथी हे बुझे | कोण येथें ? ||७- ११||
अज्ञान तंव आपणयातें | जडपणें नेणे निरुतें |
आणि प्रमाण प्रमाणातें | होत आहे ? ||७- १२||
या लागीं जरी अज्ञान | करील आपुलें ज्ञान |
हें म्हणत खेंवो घेववी मौन | विरोधुचि ||७- १३||
आणि जाणति वस्तु येक | ते येणें अज्ञानें कीजे मूर्ख |
तैं अज्ञान हे लेख | कवण धरी ? ||७- १४||
अहो आपणयाही पुरता | नेणू न करवे जाणता |
तयातें अज्ञान म्हणतां | लाजिजे कीं ? ||७- १५||
आभाळें भानु ग्रासे | तैं आभाळ कोणें प्रकाशे ? |
सुषुप्ती सुषुप्तेया रुसे | तैं तेचि कोणा ? ||७- १६||
तैसें अज्ञान असे जेथें | तेंचि जरी अज्ञान आतें |
तरी अज्ञान अज्ञानातें | नेणतां गेलें ||७- १७||
ना तरी अज्ञान एक घडे | हें जयास्तव निवडे |
तें अज्ञान नव्हे फुडे | कोणे काळीं ||७- १८||
पडळही आथी डोळा | आणि डोळा नव्हे आंधळा |
तरी आथी या पोकळा | बोलिया कीं ||७- १९||
इंधनाच्या आंगीं | खवळलेन आगी |
तें न जळे तैं वाउगी | शक्तीच ते ||७- २०||
आंधारु कोंडूनि घरीं | घरा पडसायी न करी |
तैं आंधार इहीं अक्षरीं | न म्हणावा कीं ? ||७- २१||
वोजावों नेदी जागणें | तये निदेतें नीद कोण म्हणे |
दिवसा नाणी उणें | तैं रात्रिचि कैंची ||७- २२||
तैसें आत्मा अज्ञान असकें | असतां तो न मुके |
तैं अज्ञानशब्द लटिलें | आलेंच कीं ||७- २३||
येर्क्ष्हवी तरी आत्मया | माजीं अज्ञान असावया |
कारण म्हणतां न्याया | चुकी येईल कीं ||७- २४||
अज्ञान तममेळणी | आत्मा प्रकाशाची खाणी |
आतां दोहीं मिळणी | येकी कैसी ? ||७- २५||
स्वप्न आणि जागरु | आठवु आणि विसरु |
इयें युग्में येका हारु | चालती जरी ||७- २६||
शीता तापा एकवट | वाहे वस्तीची वाट |
कां तमें बांधिजे मोट | सूर्यरश्मींची ||७- २७||
नाना राती आणि दिवो | येती येके ठाईं राहों |
तैं आत्मा जिवें जिवो | अज्ञानाचेनि ||७- २८||
हें असो मृत्यु आणि जिणें | इयें शोभती जरी मेहुणे |
तरी आत्मेनि असणें | अज्ञानेंसि ||७- २९||
अहो आत्मेन जे बाधे | तेंचि आत्मेनशी नांदे ? |
ऐसीं कायसीं विरुद्धें | बोलणीं इयें ||७- ३०||
अहो अंधारपणाची पैज | सांडूनी अंधार तेज |
जाला तैं सहज | सूर्यचि निभ्रांत | ७- ३१||
दुलांकुडपण सांडलें | आणि आगीपण मांडिलें |
तैं तेंचि आगी जालें | इंधन कीं ||७- ३२||
का गंगा पावत खेंवो | आनपणाचा ठावो |
सांडी तैं गंगा हो | लाहे पाणी ||७- ३३||
तैसें अज्ञान हें अज्ञान नोहे | तरी आत्मा असकें असों लाहे |
येर्क्ष्हवीं अज्ञान होये | लागलेंचि ||७- ३४||
आत्मेनशी विरोधी | म्हणोनि नुरेचि इये संबंधीं |
वेगळी तरी सिद्धि | जायेचिना ||७- ३५||
लवणाची मासोळी | जरी जाली जिव्हाळी |
तरी जळीं ना जळावेगळी | न जिये जेवीं ||७- ३६||
जें अज्ञान येथें नसे | तरीच आत्मा असे |
म्हणोनि बोलणीं वाइसें | नायकावीं कीं ||७- ३७||
दोरीं सर्पाभास होये | तो तेणें दोरें बांधों ये ? |
ना दवडणें न साहे | जयापरी ||७- ३८||
नाना पुनिवेचेनि आंधारें | दिहा भेणें रात्रीं महुरें |
कीं येतांचि सुधाकरें | गिळिजे जेवीं ||७- ३९||
तियापरी उभयतां | अज्ञान शब्द गेला वृथा |
हा तर्कावांचूनि हाता | स्वरूपें नये ||७- ४०||
तरी अज्ञान स्वरूपें कैसें | काय कार्यानुमेय असे |
कीं प्रत्यक्षचि दिसे | धांडोळूं आतां ||७- ४१||
अहो प्रत्यक्षादि प्रमाणीं | कीजे जयाची घेणी |
ते अज्ञानाची करणी | अज्ञान नव्हे ||७- ४२||
जैसी अंकुरेंसी सरळ | वेली दिसे वेल्हाळ |
तें बीज नव्हे केवळ | बीजकार्य होये ||७- ४३||
कां शुभाशुभ रूपें | स्वप्नदृष्टी आरोपें |
तें नीद नव्हे जाउपें | निदेचें कीं ||७- ४४||
नाना चांदु एकु असे | तो व्योमीं दुजा दिसे |
तें तिमिरकार्य जैसें | तिमिर नव्हे पैं ||७- ४५||
तैसें प्रमाता प्रमेय | प्रमाण जें त्रय |
तें अज्ञानाचें कार्य | अज्ञान नव्हे ||७- ४६||
म्हणोनि प्रत्यक्षादिकीं | अज्ञान कार्यविशेखीं |
नेघे तें असे ये विखीं | आनु नाहीं ||७- ४७||
अज्ञान कार्यपणें | घेइजे तें अज्ञान म्हणणे |
तरी घेताही करणें | तयाचेंची ||७- ४८||
स्वप्नीं दिसे तें स्वप्न | मा देखता काय आन |
तैसें कार्यचि अज्ञान | केवळ जरी ||७- ४९||
तरी चाखिला गूळ गूळें | माखिलें काजळ काजळें |
कां घेपे देपे शुळें | हालया सुळें ||७- ५०||
तैसें कारण अभिन्नपणें | कार्यही अज्ञान होणें |
तें अज्ञानचि मा काय कोणें | घेपे देपे ||७- ५१||
आतां घेतें घेइजे तें ऐसा | विचारु नये मानसा |
तरी प्रमाण जाला मासा | मृगजळींचा ना ? ||७- ५२||
तंव प्रमाणाचिया मापा | न संपडेचि जे बापा |
तया आणि खपुष्पा | विशेषु काई ? ||७- ५३||
मा हे प्रमाणचि नुरवी | आतां आथी हें कोण प्रस्तावी |
येणें बोलें ही जाणावी | अज्ञान उखी ||७- ५४||
एवं प्रत्यक्ष अनुमान | यया प्रमाणां भाजन |
नहोनि जालें अज्ञान | अप्रमाण ||७- ५५||
ना स्वकार्यातें विये | जें कारणपणा नये |
मी अज्ञान ऐसें बिहे | मानूं साचें ||७- ५६||
आत्मया स्वप्न दाऊं | न शके कीर बहू |
परी ठायें ठाऊ | निदेजों नेणें ||७- ५७||
हें असो जिये वेळे | आत्मपणेंचि निखळें |
आत्मा अज्ञानमेळें | असे तेणें ||७- ५८||
जैसें न करितां मंथन | काष्ठीं अवस्थान |
जैसें कां हुताशन | सामर्थ्यांचें ||७- ५९||
तैसें आत्मा ऐसें नांव | न साहे आत्मयाची बरव |
तैं कांहीं अज्ञान हांव | बांधतें कां ? ||७- ६०||
काइ दीप जैं न लाविजे | तैंचि काजळी फेडिजे |
कां नुगवतीया वाळिजे | रुखाची छाया ||६१||
नाना नुठितां देहदशा | कालवूनि लाविजे चिकसा |
न घडितां आरिसा | उटिजे काई ||६२||
कां वोहाच्या दुधीं | सायचि असावी आधीं |
मग ते फेडूं इये बुद्धी | पवाडु कीजे ||७- ६३||
तैसें आत्मयाच्या ठाई | जैं आत्मेपणा ठावो नाहीं |
तैं अज्ञान कांहीं | सारिखें कैसें ||७- ६४||
म्हणोनि तेव्हांही अज्ञान नसे | हें जालेंचि असे आपैसें |
आतां रिकामेंचि काइसें | नाहीं म्हणो ||७- ६५||
ऐसाही आत्मा जेव्हां | जैं नातळे भावाभावा |
अज्ञान असे तेव्हां | तरी तें ऐसें ||७- ६६||
जैसें घटाचें नाहींपण | फुटोनि होय शतचूर्ण |
कीं सर्वांपरी मरण | मारवलें कीं ||७- ६७||
नाना निदे नीद आली | कीं मूर्छां मूर्छें गेली |
कीं आंधारी पडली | अंधकूपीं ||७- ६८||
कां अभाव अवघडला | का केळीचा गाभा मोडला |
चोखळा आसुडला | आकाशाचा ||७- ६९||
कां निवटलिया सूदलें विख | मुकियाचें बांधलें मुख |
नाना नुठितां लेख | पुसिलें जैसें ||७- ७०||
तैसें अज्ञान आपुलिये वेळ | भोगी हेचि टवाळ |
आतां तरी केवळ | वस्तू होऊनि असे ||७- ७१ ||
देखा वांझ कैसी विये ? | विरूढती भाजली बियें ? |
कीं सूर्य कोण्हा लाहे | अंधारातें ? ||७- ७२||
तैसा चिन्मात्रे चोखडा | भलतैसा अज्ञानाचा झाडा |
घेतला तरी पवाडा | येईल काई ? ||७- ७३||
जे सायेचिये चाडे | डहुळिजे दुधाचें भांडें |
ते दिसे कीं विघडे | तैसें हें पां ||७- ७४||
नाना नीद धरावया हातीं | चेऊनी उठिला झडती |
ते लाभे कीं थिती | नासिली होय ||७- ७५||
तेवीं पाहावया अज्ञान ऐसें | हें आंगीं पिसें काइसें |
न पाहतां आपैसें | न पाहणेंचि कीं ||७- ७६||
एवं कोण्हेही परी | अज्ञानभावाची उजरी |
न पडेचि नगरीं | विचाराचिये ||७- ७७||
अहो कोण्हेही वेळे | आत्मा अथवा वेगळें |
विचाराचे डोळे | देखते कां ? ||७- ७८||
ना निर्धाराचें तोंड न माखे | प्रमाण स्वप्नींही नाइके |
कीं निरुती हन मुके | अनसाईपणा ||७- ७९||
इतुलियाही भागु | अज्ञानाचा तरी तो मागु |
निगे ऐसा बागु | पडतां कां देवा ||७- ८०||
अंवसेचेनि चंद्रबिंबें | निर्वाळिलिये सभे |
कां मांडलें जैसे खांबे | शशविषाणाचे ||७- ८१||
नाना गगनौलाचिया माळा | वांझेचिया जालिया गळा |
घापती तो सोहळा | पाविजेत असे ||७- ८२||
आणूनि कासवीचें तूप | भरू आकाशाचें माप |
तरी साचा येती संकल्प | ऐसे ऐसे ||७- ८३||
आम्हीं येऊनि जाऊनि पुढती | अज्ञान आणावें निरुती |
तें नाहीं तरी किती | वतवतूं पां ||७- ८४||
म्हणोनि अज्ञान अक्षरें | नुमसूं आतां निदसुरें |
परी आन एक स्फुरे | इयेविषयीं ||७- ८५||
आपणया ना आणिकातें | देखोनि होय देखतें |
वस्तू ऐसिया पुरतें | नव्हेचि आंगें ||७- ८६||
तरी ते आपणयापुढें | दृश्य पघळे येव्हढें |
आपण करी फुडें | द्रष्टेपणें ||७- ८७||
जेथ आत्मत्वाचें सांकडे | तेथ उठे हें येव्हढें |
आणि उठिलें तरी रोकडें | देखत असों ||७- ८८||
न दिसे जरी अज्ञान | तरी आहे हें नव्हे आन |
यया दृश्या अनुमान | प्रमाण जालें ||७- ८९||
ना तरी चंद्रु एक असे | तो व्योमीं दुणावला दिसे |
तरी डोळां तिमिर ऐसें | मानूं ये कीं ||७- ९०||
भूमीवेगळीं झाडें | पाणी घेती कवणीकडे |
न दिसती आणि अपाडें | साजीं असती ||७- ९१||
तरी भरंवसेनि मूळें | पाणी घेती हें न टळें |
तैसें अज्ञान कळें | दृश्यास्तव ||७- ९२||
चेइलेया नीद जाये | निद्रिता तंव ठाउवी नोहे |
परी स्वप्न दाऊनि आहे | म्हणों ये कीं ||७- ९३||
म्हणोन वस्तूमात्रें चोखें | दृश्य जरी येव्हडें फांके |
तेव्हां अज्ञान आथी सुखें | म्हणों ये कीं ||७- ९४||
अगा ऐसिया ज्ञानातें | अज्ञान म्हणणें केउतें |
काय दिवो करी तयातें | अंधारु म्हणिपे ? ||७- ९५||
अगा चंद्रापासूनि उजळ | जेणें राविले वस्तू धवळ |
तयातें काजळ | म्हणिजेत असे ||७- ९६||
आगीचें काज पाणी | निफजा जरी आणी |
अज्ञान इया वाहणी | मानूं तरी तें ||७- ९७||
कळीं पूर्ण चंद्रमा | आणून मेळवी आमा |
तरी ज्ञान हें अज्ञान नामा | पात्र होईजे ||७- ९८||
वोरसोनि लोभें | विष कां अमृतें दुभे |
ना दुभे तरी लाभे | विषचि म्हणणें ||७- ९९||
तैसा जाणणेयाचा वेव्हारू | जेथें माखला समोरु |
तेथें आणिजे पुरू | अज्ञानाचा ||७- १००||
तया नांव अज्ञान ऐसें | तरी ज्ञान होआवें तें कैसें ? |
येर्क्ष्हवीं कांहींचि असे | आत्मा काई ? ||७- १०१||
कांहींच जया न होणें | होय तें स्वतां नेणे |
तरी शून्याचीं देवांगणें | प्रमाणासी ||७- १०२||
असे म्हणावया जोगें | नाचरे कीर आंगें |
परी नाहीं हें न लगे | जोडावेंचि ||७- १०३||
कोणाचे असणेंनवीण असे | कोणी न देखतांचि दिसे |
हें आथी तरी काईसें | हरतलेपण ||७- १०४||
मिथ्या वादाची कुटी आली | ते निवांतचि साहिली |
विशेषाही दिधली | पाठी जेणें ||७- १०५||
जो निमालीही नीद देखे | तो सर्वज्ञ येव्हढें काय चुके ? |
परी दृश्याचिये न टेके | सोइ जो ||७- १०६||
वेदु काय काय न बोले | परी नांवचि नाहीं घेतलें |
ऐसें कांहीं जोडिलें | नाहीं जेणें ||७- १०७||
सूर्यो कोणा न पाहे ? | परी आत्मा दाविला आहे ? |
गगनें व्यापिता ठाये | ऐशी वस्तू ||७- १०८||
देह हाडांची मोळी | मी म्हणोनि पोटाळी |
तो अहंकारु गाळी | पदार्थु हा ||७- १०९||
बुद्धि बोद्ध्या सोके | ते येव्हडी वस्तु चुके |
मना संकल्प निके | याहीहूनी ||७- ११०||
विषयाचिया बरडी | अखंड घासती तोंडीं |
तियें इंद्रियें गोडी | न घेपती हे ||७- १११||
परी नाहींपणा सकट | खाऊनी भरलें पोट |
ते कोणाही सकट | कां फावेल ? ||७- ११२||
जो आपणासी नव्हे विखो | तो कोण लाहे देखो |
जे वाणी न सके चाखों | आपणापें ||७- ११३||
हें असो नामें रूपें | पुढासूनि अमूपें |
जेथें आलीच वासिपे | अविद्या हे ||७- ११४||
म्हणोनि आपलेंचि मुख | पाहावयाची भूक |
न बाणे मा आणिक | कें रिघेल ? ||७- ११५||
नाडिले जें वादीकोडें | आंतुचि बाहेरी सवडे |
तैसा निर्णो सुसुथा पडे | केला येथें ||७- ११६||
कां मस्तकांत निर्धारिली | जो छाया उडों पाहे आपुली |
तयाची फाकावली | बुद्धि जैशी ||७- ११७||
तैसें टणकोनी सर्वथा | हे ते ऐसी व्यवस्था |
करी तो चुके हाता | वस्तूचा जिये ||७- ११८||
आतां सांगिजे तें केउतें | शब्दाचा संसारा नाहीं जेथें |
दर्शना बीजें तेथे | जाणीव आणी ? ||७- ११९||
जयाचेनि बळें | अचक्षुपण आंधळें |
फिटोनि वस्तु मिळे | देखणी दशा ||७- १२०||
आपुलेंचि दृश्यपण | उमसो न लाहे आपण |
द्रष्टत्वा कीर आण | पडली असतां ||७- १२१||
कोणा कोण भेटे ? | दिठी कैंची फुटे ? |
ऐक्या सकट पोटें | आटोनि गेलीं ||७- १२२||
येव्हढें ही सांकडें | जेणें सारोनि येकीकडे |
उघडिलीं कवाडें | प्रकाशाचीं ||७- १२३||
दृश्याचिया सृष्टी | दिठीवरी दिठी |
उठलिया तळवटीं | चिन्मात्रची ||७- १२४||
दर्शनरिद्धि बहुवसा | चिच्छेषु मातला ऐसा |
जे शिळा न पाहे आरिसा | वेद्यरत्नाचा ||७- १२५||
क्षणक्षणीं नीच नवी | दृश्याची चोख मदवी |
दिठीकरवीं वेढवी | उदार जे ||७- १२६||
मागिलीये क्षणीचीं अंगें | पारसी म्हणोनियां वेगें |
सांडूनि दृष्टि रिघे | नवीया रूपा ||७- १२७||
तैशीच प्रतिक्षणीं | जाणिवेचीं लेणीं |
लेऊनि आणी | जाणतेपणा ||७- १२८||
तया परमात्मपदीचें शेष | ना काहीं तया सुसास |
आणि होय येव्हढी कास | घातली जेणें ||७- १२९||
सर्वज्ञतेची परी | चिन्मात्राचे तोंडवरी |
परी तें आन घरीं | जाणिजेना ||७- १३०||
एवं ज्ञानाज्ञान मिठी | तेंही फांकतसे दिठी |
दृश्यपणें ये भेटी | आपणपयां ||७- १३१||
तें दृश्य मोटकें देखें | आपण स्वयें दृष्टत्वें तोखे |
तेंचि दिठीचेनि मुखें | माजीं दाटे ||७- १३२||
तेव्हां घेणें देणें घटे | परी ऐक्याचें सूत न तुटे |
जेवीं मुखीं मुख वाटे | दर्पणें केलें | ७- १३३||
आंगें आंगावरी पहुडे | चेइला वेगळा न पडे |
तया वारुवाचेनि पाडें | घेणें देणें ||७- १३४||
पाणी कल्लोळाचेनि मिसें | आपणापें वेल्हावे जैसें |
वस्तु वस्तुत्वें खेळों ये तैसें | सुखें लाहे ||७- १३५||
गुंफी ज्वाळांचिया माळा | लेइलियाही अनळा |
भेदाचिया आहाळां | काय पडणें आहे ? ||७- १३६||
किं रश्मीचेनि परिवारें | वेढुनि घेतला थोरें |
तर्क्ष्ही सूर्यासि दुसरें | बोलों येईल ||७- १३७||
चांदणियाचा गिंवसु | चांदावरी पडलिया बहुवसु |
काय केवळपणीं त्रासु | देखिजेल ? ||७- १३८||
दळाचिया सहस्रवरी | फांको आपुलिया परी |
परी नाहीं दुसरी | भास कमळीं ||७- १३९||
सहस्रवरी बाहिया | आहाती सहस्रार्जुना राया |
तरी तो काय तिया | एकोत्तरावा ? ||७- १४०||
सौकटाचिया वोजा | पसरो कां बहू पुंजा |
परी ताथुवींण दुजा | भाव आहे ? ||७- १४१||
कोडीवरी शब्दांचा | मेळावा घरीं वाचेचा |
मीनला तर्क्ष्ही वाचा | मात्र कीं ते ||७- १४२||
तैसे दृश्याचे डाखळे | नाना दृष्टीचे उमाळे |
उठती लेखावेगळे | द्रष्टत्वेंचि ||७- १४३||
गुळाचा बांधा | फुटलिया मोडीचा धांदा |
जाला तरी नुसधा | गूळचि कीं तो ||७- १४४||
तैसें हें दृश्य देखो | कीं बहू होऊनि फांको |
परी भेदाचा नव्हे विखो | तेचि म्हणोनि ||७- १४५||
तया आत्मयाच्या भाखा | न पडेचि दुसरी रेखा |
जरी विश्वा अशेखा | भरला आहे ||७- १४६||
दुबंधा क्षीरोदकीं | वाणें परी अनेकीं |
दिसती तरी तितुकीं | सुतें आथी ? ||७- १४७||
पातयाचि मिठी | नुकलितां दिठी |
अवघियाची सृष्टी | पाविजे जरी ||७- १४८||
न फुटतां बीजकणिका | माजीं विस्तारे वटु असिका |
तरी अद्वैतफांका | उपमा आथी ||७- १४९||
मग मातें म्यां न देखावें | ऐसेही भरे हावें |
तरी आंगाचिये विसवे | सेजेवरी ||७- १५०||
पातयाचि मिठी | पडलिया कीजे दिठी |
आपुलियेचि पोटीं | रिगोनि असणें ||७- १५१||
कां नुदेलिया सुधाकरु | आपणपें भरे सागरु |
ना कूर्मी गिळी विस्तारु | आपेंआप ||७- १५२||
अवसेचिये दिवशीं | सतराविये अंशीं |
स्वयें जैसें शशी | रिगणें होय ||७- १५३||
तैसें दृश्य जिणतां द्रष्टे | पडले जैताचिये कुटे |
तया नांव वावटे | आपणपेयां ||७- १५४||
सहजें आवघेंचि आहे | तरी कोणा कोण पाहे ? |
तें न देखणेंचि आहे | स्वरूप निद्रा ||७- १५५||
नाना न देखणें नको | म्हणे मीचि मातें देखो |
तरी आपेंआप विखो | अपैसें असे ||७- १५६||
जें अनादीच दृश्यपणें | अनादीचि देखणें |
हें आतां कायी कोणें | रचूं जावें ? ||७- १५७||
अवकाशेशीं गगना | गतीसीं पवना |
कीं दीप्तीशीं तपना | संबंधु कीजे ? ||७- १५८||
विश्वपणें उजिवडे | तरी विश्व देखे पुढें |
ना तें नाहीं तेव्हढें | नाहींचि देखे ||७- १५९||
विश्वाचें असे नाहीं | विपायें बुडालियाही |
तर्क्ष्ही दशा ऐशीही | देखतचि असे ||७- १६०||
कापुराही आथी चांदिणें | कीं तोचि न माखे तेणें |
तैसें केवळ देखणें | ठायें ठावो ||७- १६१||
किंबहुना ऐसें | वस्तु भलतिये दशे |
देखतचि असे | आपणपयातें ||७- १६२||
मनोरथांचीं देशांतरें | मनीं प्रकाशूनि नरें |
मग तेथें आदरें | हिंडे जैसा ||७- १६३||
कां दाटला डोळा डोळ्यां | डोळाचि तारा होऊनियां |
स्फुरे चोख म्हणौनियां | विस्मो नाहीं ||७- १६४||
यालागीं एकें चिद्रूपें | आपणयां आपणपें |
देखिजे कां आरोपे | काय काज ? ||७- १६५||
किळेचें पांघरुण | आपजवी रत्ना कोण ? |
कीं सोने ले सोनें पण | जोड जोडूं ? ||७- १६६||
चंदन सौरभ वेढी ? | कीं सुधा आपणया वाढी ? |
कीं गूळ चाखे गोडी ? | ऐसें आथी हें ? ||७- १६७||
कीं उजाळाचे किळे | कापुरा पुटीं दिधलें ? |
कीं ताऊनि ऊन केलें | आगीतें काई ? ||७- १६८||
नाना ते लता | आपुले वेली गुंडाळितां |
घर करी न करितां | जयापरी ||७- १६९||
कां प्रभेचा उभळा | दीप प्रकाशे संचला |
तैसा चैतन्यें गिंवसिला | चिद्रूप स्फुरे ||७- १७०||
ऐसें आपणया आपण | आपुलें निरीक्षण |
करावें येणेंवीण | करीतुचि असे ||७- १७१||
ऐसें हें देखणें न देखणें | हें आंधारें चांदिणें |
मा चंद्रासि उणें | स्फुरतें का ? ||७- १७२||
म्हणोनि हें न व्हावे | ऐसेंही करूं पावे |
तरी तैसाचि स्वभावें | आइता असे ||७- १७३||
द्रष्टा दृश्य ऐसें | अळुमाळु दोनी दिसे |
तेंही परस्परानुप्रवेशें | कांहीं ना कीं ||७- १७४||
तेथें दृश्य द्रष्टां भरे | | द्रष्टेपण दृश्यीं न सरे |
मा दोन्ही न होऊनि उरे | दोहींचें साच ||७- १७५||
मग भलतेथ भलतेव्हां | माझारीले दृश्य-द्रष्ट भावा |
आटणी करीत खेंवा | येती दोन्ही ||७- १७६||
कापुरीं अग्नीप्रवेशु | कीं अग्नि घातला पोतासु |
ऐसें नव्हे संसरीसु | वेंचु जाला ||७- १७७||
एका एकु वेंचला | शून्य बिंदु शून्यें पुसिला |
द्रष्टा दृश्याचा निमाला | तैसें होय ||७- १७८||
किंबहुना आपुलिया | प्रतिबिंबा झोंबिनलिया |
झोंबीसकट आटोनियां | जाइजे जेवीं ||७- १७९||
तैसें रुसता दृष्टी | द्रष्टा दृश्य भेटी |
येती तेथें मिठी | दोहींची पडे ||७- १८०||
सिंधु पूर्वापर | न मिळती तंवचि सागर |
मग एकवट नीर | जैसें होय ||७- १८१||
बहु ये हें त्रिपुटी | सहजें हो तया राहटी |
प्रतिक्षणीं काय ठी | करीतसे ? ||७- १८२||
दोनी विशेषें गिळी | ना निर्विशिष्टातें उगळी |
उघडी झांपी येकेंच डोळीं | वस्तुचि हे ||७- १८३||
पातया पातें मिळे | कीं दृष्ट्त्वें सैंघ पघळे |
तिये उन्मळितां मावळे | नवलावो हा ||७- १८४||
द्रष्टा दृश्याच्या ग्रासी | मध्यें लेखु विकाशी |
योगभूमिका ऐसी | आंगीं वाजे ||७- १८५||
उठिला तरंगु बैसे | पुढें अनुही नुमसे |
ऐसा ठाईं जैसे | पाणी होय ||७- १८६||
कां नीद सरोनि गेली | जागृती नाहीं चेयिली |
तेव्हां होय आपुली | जैसी स्थिति ||७- १८७||
नाना एका ठाऊनि उठी | अन्यत्र नव्हे पैठी |
हे गमे तैशिया दृष्टी | दिठी सूतां ||७- १८८||
कां मावळो सरला दिवो | रात्रीचा न करी प्रसवो |
तेणें गगनें हा भावो | वाखाणिला ||७- १८९||
घेतला श्वासु बुडाला | घापता नाहीं उठिला |
तैसा दोहींसि सिवतला | नव्हे जो अर्थु ||७- १९०||
कीं अवघवियांचि करणीं | विषयांची घेणी |
करितांचि एके क्षणीं | जें कीं आहे ||७- १९१||
तया सारिखा ठावो | हा निकराचा आत्मभावो |
येणें कां पाहों | न पाहों लाभे ? ||७- १९२||
कायी आपुलिये भूमिके | आरिसा आपुलियें निकें |
पाहों न पाहों शके | हें कें आहे ? ||७- १९३||
कां समोर पाठिमोरिया | मुखें होऊं ये आरिसिया |
वांचूनि तयाप्रति तया | होआवें कां ? ||७- १९४||
सर्वांगें देखणा रवी | परी ऐसें घडे केवीं |
जे उदो वस्तूचीं चवी | स्वयें घेपे ? ||७- १९५||
कीं रसु आपणया पिये ? | कीं तोंड लपऊनि ठाये ? |
हें रसपणें नव्हे | तया जैसें ||७- १९६||
तैसें पाहणें न पाहणें | पाहणेंपणेंचि हो नेणे |
आणि दोन्ही हें येणें | स्वयेंचि असिजे ||७- १९७||
जें पाहणेंचि म्हणौनियां | पाहणें नव्हे आपणयां |
तैं न पाहणें आपसया | हाचि आहे ||७- १९८||
आणि न पाहणें मा कैसें | आपणपें पाहों बैसे ? |
तरी पाहणें हें ऐसें | हाचि पुढती ||७- १९९||
हीं दोन्ही परस्परें | नांदती एका हारें |
बांधोनि येरयेरें | नाहीं केलें ||७- २००||
पाहाणया पाहणें आहे | तरी न पाहणें हेंचि नोहे |
म्हणौनि याची सोये | नेणती दोन्ही ||७- २०१||
एवं पाहणें न पाहणें | चोरूनियां असणें |
ना पाहे तरी कोणें | काय पाहिलें ? ||७- २०२||
दिसल्यानें दृश्य भासे | म्हणावें ना देखिलें ऐसें |
तरी दृश्यास्तव दिसे | ऐसें नाहीं ||७- २०३||
दृश्य कीर दृष्टीसी दिसे | परी साच कीं द्रष्टा असे |
आतां नाहीं तें कैसें | देखिलें होये ? ||७- २०४||
मुख दिसो कां दर्पणीं | परी असणें कीं तये मुखपणीं |
तरी जाली ते वायाणी | प्रतीती कीं ||७- २०५||
देखतांची आपणयातें | आलिये निदेचेनि हातें |
तया स्वप्ना ऐसा येथें | निहाळितां ||२०६||
निद्रिस्तु सुखासनीं | वाहिजे अनुवाहणीं |
तो साच काय तेसणी | दशा पावे ? ||७- २०७||
कीं सिसेंवीण एकएकें | दाविलीं राज्य करिती रंकें |
तैशीं तियें सतुकें | आथी काई ? ||२०८||
ते निद्रा जेव्हां नाहीं | तेव्हां जो जैसा जिये ठाई |
तैसाची स्वप्नी कांहीं | न पविजेचि कीं ||७- २०९||
तान्हेलिया मृगतृष्णा | न भेटलिया शिणु जेसणा |
मा भेटलेया कोणा | काय भेटलें ||७- २१०||
कीं साउलियेचेचि व्याजें | मेळविलें जेणें दुजे |
तयाचें करणें वांझें | जालें जैसें ||७- २११||
तैसें दृश्य करूनियां | द्रष्टयातें द्रष्टया |
दाऊनि धाडिलें वाया | दाविलेपणही ||७- २१२||
जें दृश्य द्रष्टाचि आहे | मा दावणें कां साहे ? |
न दाविजे तरी नोहे | तया तो काई ? ||७- २१३||
आरिसा पां न पाहे | तरी मुखचि वाया जाये ? |
तेणेंवीण आहे | आपणपें कीं ||७- २१४||
तैसें आत्मयातें आत्मया | न दाविजे पैं माया |
तरी आत्मा वावो कीं वायां | तेचि ते कीं ना ? ||७- २१५||
म्हणोनि आपणापें द्रष्टा | न करितां असें पैठां |
आतां जालाचि दिठा | कां करावा ||७- २१६||
नाना मागुतें दाविलें | तरी पुनरुक्त तेंचि जालें |
येणें ही बोलें गेलें | दावणें वृथा ||७- २१७||
दोरा सर्पाभासा | साचपणें दोरु कां जैसा |
द्रष्टा दृश्या तैसा | द्रष्टा साचु ||७- २१८||
दर्पणें आणि मुखें | मुख दिसे हें न चुके |
परी मुखीं मुख सतुकें | दर्पणीं नाहीं ||७- २१९||
तैसे द्रष्टा दृश्या दोहों | साच कीं देखता ठावो |
म्हणौनि दृश्य तें वावो | देखिलें जऱ्ही ||७- २२०||
वावो कीर होये | तर्क्ष्ही दिसत तंव आहे |
येणें बोलें होये | आथी ऐसें ||७- २२१||
तरी आन आनातें | देखोन होय देखतें |
तरी मानूं येतें | देखिलें ऐसें ||७- २२२||
येथें देखोनि कां न देखोनी | ऐक्य कां नाना होऊनि |
परी हा येणें वाचूनि | देखणें असे ? ||७- २२३||
आरिशानें हो कां दाविलें | तर्क्ष्ही मुखचि मुखें देखिलें |
तो न दावी तर्क्ष्ही संचलें | मुखचि मुखीं ||७- २२४||
तैसें दाविलें नाहीं | तरी हाचि ययाच्या ठाईं |
ना दाविला तर्क्ष्हीही | हाचि यया ||७- २२५||
जागृती दाविला | कां निदा हारविला |
परी जैसा येकला | पुरुष पुरुषीं ||७- २२६||
कां रायातें तूं रावो | ऐसा दाविजे प्रत्ययो |
तर्क्ष्ही ठायें ठावो | राजाचि असे ||७- २२७||
ना तरी रायपण राया | नाणिजे कीं प्रत्यया |
तर्क्ष्ही कांहीं उणें तया- | माजी असे ? ||७- २२८||
तैसें दावितां न दावितां | हा यया परौता |
चढे न तुटे आइता | असतचि असे ||७- २२९||
तरी कां निमित्य पिसें | हा यया दाऊं बैसें |
देखतें नाहीं तैं आरिसे | देखावे कोणें ? ||७- २३०||
दीपु दावी तयातें रची | कीं तेणेंची सिद्धी दीपाची |
तैसी सत्ता निमित्ताची | येणें साच ||७- २३१||
वन्हीतें वन्ही शिखा | प्रकाशी कीर देखा |
परी वन्ही न होनि लेखा | येईल काई ? ||७- २३२||
आणि निमित्त जें बोलावें | तें येणें दिसोनि दावावें |
देखिलें तरी स्वभावें | दृश्यही हा ||७- २३३||
म्हणौनि स्वयंप्रकाशा यया | आपणापें देखावया |
निमित्त हा वांचुनियां | नाहींच मा ||७- २३४||
भलतेन विन्यासें | दिसत तेणेंची दिसे |
हा वांचूनि नसे | येथें कांहीं ||७- २३५||
लेणें आणि भांगारें | भांगारचि एक स्फुरे |
कां जे येथें दुसरें | नाहींचि म्हणोनि ||७- २३६||
जळ तरंगीं दोहीं | जळावांचूनि नाहीं |
म्हणौनि आन कांहीं | नाहीं ना नोहे ||७- २३७||
हो कां घ्राणानुमेयो | येवो कां हातीं घेवो |
लाभो कां दिठी पाहों | भलतैसा ||७- २३८||
परी कापुराच्या ठाईं | कापुरावांचूनि नाहीं |
तैशा रीती भलतेयाही | हाचि यया ||७- २३९||
आतां दृश्यपणें दिसो | कीं द्रष्टा होऊनि असो |
परी हा वांचूनि अतिसो | नाहीं येथें ||७- २४०||
गंगा गंगापणें वाहो | कीं सिंधु होऊनि राहो |
परी पाणीपणा नवलावो | हें न देखो कीं ||७- २४१||
थिजावें कीं विघरावें | हें अप्रयोजक आघवें |
घृतपण नव्हे | अनारिसें ||७- २४२||
ज्वाळा आणि वन्ही | न लेखिजती दोन्ही |
वन्हिमात्र म्हणोनि | आन नव्हेचि कीं ||७- २४३||
तैसें द्रश्य कां द्रष्टा | या दोन्ही दशा वांझटा |
पाहतां एकी काष्ठा | स्फूर्तिमात्र तो ||७- २४४||
इये स्फूर्तीकडोनी | नाहीं स्फुर्तिमात्र वांचुनि |
तरी काय देखोनी | देखतु असे ? ||७- २४५||
पुढें फरकें ना दिसतें | ना मागें डोकावी देखतें |
पाहतां येणें ययातें | स्फुरद्रुपेंचि ||७- २४६||
कल्लोळें जळीं घातलें | सोनेंनि सोनें पांघुरलें |
दिठीचे पाय गुंतले | दिठीसीची ||७- २४७||
श्रुतीसी मेळविली श्रुती | दृतीसि मेळविली दृती |
कां जे तृप्तीसीचि तृप्ती | वोगरिली ||७- २४८||
गुळें गुळें परिवाडिला | मेरु सुवर्णें मढिला |
कां ज्वाळा गुंडाळिला | अनळु जैसा ||७- २४९||
हें बहु काय बोलिजे | कीं नभ नभाचिया रिगे सेजे |
मग कोणें निदिजे | जागे तें कोणें ||७- २५०||
हा येणें पाहिला आइसा | कांहीं न पाहिला जैसा |
आणि न पाहतांही आपैसा | पाहणेंचि हा ||७- २५१||
येथें बोलणें न साहे | जाणणें न समाये |
अनुभव न लाहे | आंगी मिरौ ||७- २५२||
म्हणोनी ययातें येणें | ये परीचें पाहणें |
पाहतां कांहीं कोणे | पाहिलें नाहीं ||७- २५३||
किंबहुना ऐसें | आत्मेनि आत्मा प्रकाशे |
न चेतुचि चेऊं बैसे | तयासि तो ||७- २५४||
स्वयें दर्शनाचिया सवा | अवघीयाची जातसे फावां |
परी निजात्मभावा | न मोडिताही ||७- २५५||
न पाहतां आरिसा असो पाहे | तरी तेंचि पाहणें होये |
आणि पाहणेन तरी जाये | न पाहणें पाहणें ||७- २५६||
भलतैसा फांके | परी एकपणा न मुके |
नाना संकोचे तरी असकें | हाचि आथी ||७- २५७||
सूर्याचिया हाता | अंधकारू नये सर्वथा |
मग प्रकाशाची कथा | आइकता का ? ||७- २५८||
अंधारु कां उजिवडु | हा एकला एकवडु |
जैसा कां मार्तंडु | भलतेथें ||७- २५९||
तैसा आवडतिये भूमिके | आरूढलीयाही कौतुकें |
परि ययातें हा न चुके | हाचि ऐसा ||७- २६०||
सिंधूची सींव न मोडे | पाणीपणा सळु न पडे |
जरी मोडुतु कां गाडे | तरंगांची ||७- २६१||
रश्मी सूर्याची आथी | परी बिंबा बहेरी जाती |
म्हणौनि बोधसंपत्ती | उपमा नोहे ||७- २६२||
आणि पल्हेचा दोडा | न पडतां तढा |
जग तंव कापडा | न भरेचि कीं ||७- २६३||
सोनयाचा रवा | रवेपणाचा ठेवा |
आवघेयाचि अवयवा | लेणें नोहे ||७- २६४||
न फेडितां आडवावो | दिगंतौनि दिगंता जावो |
न ये मा पावों | उपमा काई ? ||७- २६५||
म्हणौनि इये आत्मलीळे | नाहीं आन कांटाळें |
आतां येयाचिये तुळे | हाचि यया ||७- २६६||
स्वप्रकाशाचा घांसीं | जेवितां बहु वेगेंसी |
वेंचेना परी कुशीं | वाखही न पडे ||७- २६७||
ऐसा निरुपमा परी | आपुलिये विलासवरी |
आत्मा राणीव करी | आपुला ठाईं ||७- २६८||
तयातें म्हणिपें अज्ञान | तरी न्याया भरलें रान |
आतां म्हणे तयाचें वचन | उपसावों आम्ही ||७- २६९||
प्रकाशितें अज्ञान | ऐसें म्हणणें हन |
तरी निधि दावितें अंजन | न म्हणिजे काई ? ||७- २७०||
सुवर्णगौर अंबिका | न म्हणिजे कय काळिका ? |
तैसा आत्मप्रकाशका | अज्ञानवादु ||७- २७१||
येर्क्ष्हवीं शिवोनि पृथ्वीवरी | तत्त्वाच्या वाणेपरी |
जयाचा रश्मिकरीं | उजाळा येती ||७- २७२||
जेणें ज्ञान सज्ञान होये | दृण्मात्र दृष्टीतें विये |
प्रकाशाचा दिवो पाहे | प्रकाशासी ||७- २७३||
तें कोणें निकृष्टें | दाविलें अज्ञानाचेनि बोटें |
ना तमें सूर्या मोटे | बांधितां निकें ||७- २७४||
' अ' पूर्वी ज्ञानाक्षरी | वसतां अज्ञानाची थोरी |
शब्दार्थाची उजरी | अपूर्व नव्हे कीं ? ||७- २७५||
लाखेचे मांदुसे | आगीचें ठेवणें कायिसें ? |
आंतु बाहेरी सरिसें | करूनि घाली ||७- २७६||
म्हणोनि जग ज्ञानें स्फितें | बोलतां अज्ञानवादातें |
विखुरली होती आतें | वाचेचिये ||७- २७७||
अखरीं तंव गोवधु | पुढारां अनृतवादु |
मा कैसा अज्ञानवादु | कीजे ज्ञानीं ? ||७- २७८||
आणि अज्ञान म्हणणें | स्फुरत्से अर्थपणें |
आतां हेंचि ज्ञान कोणे | मानिजे ना ? ||७- २७९||
असो हें आत्मराजें | आपणापें जेणें तेजें |
आपणचि देखिजे | बहुये परी ||७- २८०||
निर्वचितां जें झावळे | तेंचि कीं लाहे डोळे ? |
डोळ्यापुढें मिळे | तेंचि तया ||७- २८१||
ऐसें जगज्ञान जें आहे | तें अज्ञान म्हणें मी वियें |
येणें अनुमानें हों पाहे | आथी ऐसें ||७- २८२||
तंव अज्ञान त्रिशुद्धी नाहीं | हें जगेंचि ठेविलें ठाई |
जे धर्म धर्मित्वें केंहीं | ज्ञानाज्ञान असे ? ||७- २८३||
काजळां मोतीं वियें ? | राखोंडिया दीपु जिये ? |
तरी ज्ञान धर्मु होये | अज्ञानाचा ||७- २८४||
चंद्रमा निगती ज्वाळा ? | आकाश आते शिळा ? |
तरी अज्ञान उजळा | ज्ञानातें वमी ||७- २८५||
क्षीराब्धीं काळकूट | हे एकी परीचे विकट |
परी काळकूटीं चोखट | सुधा कैंची ? ||७- २८६||
ना ज्ञानी अज्ञान जालें | तें होतांचि अज्ञान गेलें |
पुढती ज्ञान एकलें | अज्ञान नाहीं ||७- २८७||
म्हणौनि सूर्य सूर्याचि येवढा | चंद्र चंद्राचि सांगडा |
ना दिपाचिया पडिपाडा | ऐसा दीपू ||७- २८८||
प्रकाश तो प्रकाश कीं | यासि न वंचे घेईं चुकी |
म्हणौनि जग असकी | वस्तुप्रभा ||७- २८९||
विभाति यस्य भासा | सर्वमिदं हा ऐसा |
श्रुति काय वायसा | ढेंकर देती ||७- २९०||
यालागीं वस्तुप्रभा | वस्तूचि पावे शोभा |
जात असे लाभा | वस्तुचिया ||७- २९१||
वांचून वस्तु यया | आपणपें प्रकाशावया |
अज्ञान हेतु वांया | अवघेंचि ||७- २९२||
म्हणोनि अज्ञान सद्भावो | कोणे परी न लाहों |
अज्ञान कीर वावो | पाहों ठेलियाही ||७- २९३||
परी तमाचा विसुरा | न जोडेचि दिनकरा |
रात्रीचिया घरा | गेलियाही ||७- २९४||
कां नीद खोळे भरिता | जागणें ही न ये हाता |
येकलिया टळटळिता | ठाकिजे जेवीं ||७- २९५||
||इति श्रीमदमृतानुभवे अज्ञानखंडन नाम सप्तम प्रकरणं
संपूर्णम्||
प्रकरण आठवें
ज्ञानखण्डन
तैसें आमुचेनि नांवें | अज्ञानाचें ज्ञानही नव्हे |
आम्हांलागीं गुरुदेवें | आम्हीच केलों ||८- १||
परी आम्हा आम्ही आहों | तें कैसें पाहो जावों |
तंव काय कीजे ठावो | लाजिजे ऐसा ||८- २||
हा ठावोवरी गुरुरायें | नांदविलों उवायें |
जे आम्ही न समाये | आम्हांमाजीं ||८- ३||
अहो आत्मपणीं न संठो | स्वसंविति न घसवटो |
आंगीं लागलिया न फुटों | कैवल्यही ||८- ४||
आमुची करवे गोठी | ते जालीचि नाहीं वाक्सृष्टी |
आमुतें देखे दिठी | ते दिठीचि नव्हे ||८- ५||
आमुतें करूनि विखो | भोगूं शके पारखो |
तैं आमुतें न देखों | आम्हीपणा ||८- ६||
प्रगटो लपो न लाहो | येथें नाहीं नवलाहो |
परी कैसेनिही विपावो | असणेयाचा ||८- ७||
किंबहुना श्रीनिवृत्तीं | ठेविलों असों जया स्थितीं |
ते काय देऊं हाती | वाचेचिया ? ||८- ८||
तेथ समोर होआवया | अज्ञानाचा पाडु कासया |
केउते मेलिया माया | होऊं पाहिजे ||८- ९||
अज्ञानाचा प्रवर्तु | नाहीं जया गांवाआंतु |
तेथें ज्ञानाची तरी मातु | कोण जाणे ? ||८- १०||
राती म्हणोनि दिवे | पडती कीं लावावे |
वांचुनि सूर्यासवें | शिणणें होये ||८- ११||
म्हणोनि अज्ञान नाहीं | तेथेंचि गेलें ज्ञानही |
आतां निमिषोन्मेषा दोहीं | ठेली वाट ||८- १२||
येर्क्ष्हवीं तर्क्ष्ही ज्ञान अज्ञानानें | दोहींचि अभिधानें |
अर्थाचेनि आनानें | विप्लाविलीं ||८- १३||
जैसीं दंपत्तें परस्परे | तोडोनि पालटिलीं शिरें |
तेथें पालटु ना पण सरे | दोहींचें जिणें ||८- १४||
कां पाठी लाविला होये | तो दीपुचि वायां जाये |
दिठी आंधारें पाहे | तैं तेचि वृथा ||८- १५||
तैसें निपटून जें नेणिजे | तें अज्ञान शब्दें बोलिजे |
आतां सर्वही जेणें सुजे | तें अज्ञान कैसें ? ||८- १६||
ऐसें ज्ञान अज्ञानीं आलें | अज्ञान ज्ञानें गेलें |
ये दोहीं वांझौलें | दोन्ही जाली ||८- १७||
आणि जाणे तोचि नेणें | नेणे तोचि जाणे |
आतां कें असेणे जिणें | ज्ञाना अज्ञाना ? ||८- १८||
एवं ज्ञानाज्ञानें दोन्ही | पोटीं सूनि अहनी |
उदैला चिद्गगनीं चिदादित्यु हा ||८- १९||
||इति श्रीमदमृतानुभवे ज्ञानखंडन नाम अष्टम प्रकरणं
संपूर्णम्||
प्रकरण नववें
जीवन्मुक्तदशाकथन
आतां आमोद सुनास जालें | श्रुतीसि श्रवण रिघाले |
आरिसे उठले | लोचनेसी ||९- १||
आपुलेनि समीरपणें | वेल्हावती विंजणें |
कीं माथेचि चांफेपणें | बहकताती ||९- २||
जिव्हा लोधली रसें | कमळ सूर्यपणें विकाशे |
चकोरचि जैसे | चंद्रमा झाले ||९- ३||
फुलेंचि जालीं भ्रमर | तरुणीची झाली नर |
जालें आपुलें शेजार | निद्राळुचि ||९- ४||
दिठीवियाचा रवा | नागरु इया ठेवा |
घडिला कां कोरिवां | परी जैसा ||९- ५||
चूतांकूर झाले कोकिळ | आंगच झाले मलयानीळ |
रस झाले सकळ | रसनावंत ||९- ६||
तैसे भोग्य आणि भोक्ता | दिसे आणि देखता |
हें सरलें अद्वैता | अफुटामाजीं ||९- ७||
सेवंतेपणा बाहेरी | न निगताचि परी |
पाती सहस्रवरी | उपलविजे ते ||९- ८||
तैसें नव नवा अनुभवीं | वाजतां वाधावी |
अक्रियेच्या गांवीं | नेणिजे तें ||९- ९||
म्हणोनि विषयांचेनि नांवें | सूनि इंद्रियांचे थवे |
सैंघ घेती धांवे | समोरही ||९- १०||
परी आरिसा शिवे शिवे | तंव दिठीसी दिठी फावे |
तैसे झाले धांवे | वृत्तीचिया ||९- ११||
नाग मुदी कंकण | त्रिलिंगीं भेदली खूण |
घेतां तरी सुवर्ण | घेईजे कीं ||९- १२||
वेंचूनि आणूं कल्लोळ | म्हणोन घापे करतळ |
तेथें तरी निखळ | पाणीच फावे ||९- १३||
हातापाशीं स्पर्शु | डोळ्यापाशीं रूपसु |
जिव्हेपाशीं मिठांशु | कोण्ही एकू ||९- १४||
तऱ्ही परिमळा परौतें | मिरवणें नाहीं कापुरातें |
तेवीं बहुतांपरी स्फुरतें | तेंचि स्फुरे ||९- १५||
म्हणोनि शब्दादि पदार्थ | श्रोत्रादिकांचे हात |
घ्यावया जेथ | उजू होती ||९- १६||
तेथे संबंधु होये न होये | तव इंद्रियांचें तें नोहे |
मग असतचि आहे | संबंधु ना ||९- १७||
जिये पेरीं दिसती उसीं | तिये लाभती कीं रसीं |
कांति जेवीं शशीं | पुनवेचिया ||९- १८||
पडिलें चांदावरी चांदिणें | समुद्रीं जालें वरषणें |
विषयां करणें | भेटती तैशीं ||९- १९||
म्हणोन तोंडा आड पडे | तेंहि वाचा वावडे |
परी समाधी न मोडे | मौनमुद्रेची ||९- २०||
व्यापाराचे गाडे | मोडतांहि आपाडे |
अक्रियेचें न मोडे | पाऊल केंही ||९- २१||
पसरूनि वृत्तीची वावे | दिठी रूपातें दे खेवें |
परी साचाचेनि नांवे | कांहींचि न लभे ||९- २२||
तमातें घ्यावया | उचलूनी सहस्र बाहिया |
शेवटीं रवी इया | हाचि जैसा ||९- २३||
स्वप्नींचिया विलासा | भेटईन या आशा |
उठिला तंव जैसा | तोचि मा तो ||९- २४||
तैसा उदैलया निर्विषयें | ज्ञानी विषयी हों लाहे ? |
तंव दोन्ही न होनी होये | काय नेणों ||९- २५||
चंद्र वेचूं गेला चांदिणें | तंव वेंचिलें काय कोणें |
विऊनि वांझें स्मरणें | होतीं जैसी ||९- २६||
प्रत्याहारादि आंगीं | योगें आंग टेंकिलें योगीं |
तो जाला इये मार्गी | दिहाचा चांदु ||९- २७||
येथ प्रवृत्ति बहुडे जिणें | अप्रवृत्तीसी बाधावणें |
आतां प्रत्यण्मुखपणें | प्रचारु दिसे ||९- २८||
द्वैतदशेचें आंगण | अद्वैत वोळगे आपण |
भेद तंव तंव दुण | अभेदासी ||९- २९||
कैवल्याचा चढावा | करीत विषयसेवा |
झाला भृत्य भज्य कालोवा | भक्तीच्या घरीं ||९- ३०||
घरामाजीं पायें | चालतां मार्गूही तोचि होये |
ना बैसे तर्क्ष्ही आहे | पावणेंचि ||९- ३१||
तैसें भलतें करितां | येथें पाविजे कांहीं आतां |
ऐसें नाहीं न करितां | ठाकिजेना ||९- ३२||
आठवू आणि विसरू | तयातेंही घेऊं नेदी पसरु |
दशेचा वेव्हारु | असाधारणु ||९- ३३||
जाली स्वेच्छाचि विधि | स्वैर जाली समाधी |
दशे ये मोक्षऋद्धि | बैसों घापे ||९- ३४||
जाला देवोचि भक्तु | ठावोचि जाला पंथु |
होऊनि ठेला एकांतु | विश्वचि हें ||९- ३५||
भलतेउतेनि देवें | भलतेन भक्त होआवें |
बैसला तेथें राणिवें | अकर्मु हा ||९- ३६||
देवाचिया दाटणी | देऊळा जाली आटणी |
देशकाळादि वाहाणीं | येईचिना ||९- ३७||
देवीं देवोचि न माये | मा देवी कें अन्वयो आहे ? |
येथ परिवारु बहुये | अघडता कीं ||९- ३८||
ऐसाहि स्वामीभृत्यसंबंधा- | लागीं उठलीं श्रद्धा |
तैं देवोचि नुसधा | कामविजे ||९- ३९||
अवघियाचि उपचारा | जपध्यान निर्धारा |
नाहीं आन संसारा | देवोवांचुनी ||९- ४०||
आतां देवातेंचि देवें | देववरी भजावें |
अर्पणाचेनि नांवें | भलतिया ||९- ४१||
पाहें पां आघवया | रुखा रुखचि यया |
परी दुसरा नाहीं तया | विस्तार जेवीं ||९- ४२||
देव देऊळ परिवारू | कीजे कोरूनि डोंगरु |
तैसा भक्तीचा व्यवहारु | कां न व्हावा ? ||९- ४३||
अओ मुगीं मुग जैसें | घेतां न घेतां नवल नसे |
केलें देवपण तैसें | दोहींपरी ||९- ४४||
अखतांचि देवता | अखतींचि असे न पूजितां |
मा अखतीं काय आतां | पुजो जावो ||९- ४५||
दीप्तीचीं लुगडीं | दीपकळिके तूं वेढी |
हें न म्हणतां ते उघडी | ठाके काई ? ||९- ४६||
कां चंद्रातें चंद्रिका | न म्हणिजे तूं ले कां |
तर्क्ष्ही तो असिका | तियाचि कीं ना ||९- ४७||
आगीपण आगी | असतचि असे आंगीं |
मा कासयालागीं | देणें न देणें ? ||९- ४८||
म्हणोनि भजतां भजावें | मा न भजतां काय नव्हे ? |
ऐसें नाहीं स्वभावें | श्रीशिवूचि असे ||९- ४९||
अतां भक्ति अभक्ति | जालें ताट एकी पांती |
कर्माकर्माचिया वाती | माल्हावूनियां ||९- ५०||
म्हणोनि उपनिषदें | दशे येति निंदे |
निंदाचि विशदें | स्तोत्रें होती ||९- ५१||
ना तरी निंदास्तुति | दोन्हीं मौनासाठीं जाती |
मौनीं मौन आथी | न बोलतां बोली ||९- ५२||
घालिता अव्हासव्हा पाय | शिवयात्राचि होत जाय |
शिवा गेलियाही नोहे | केंही जाणें ||९- ५३||
चालणें आणि बैसक | दोन्ही मिळोनि एक |
नोहे ऐसें कौतुक | इये ठायीं ||९- ५४||
येर्क्ष्हवीं आडोळिलिया डोळा | शिवदर्शनाचा सोहळा |
भोगिजे भलते वेळां | भलतेणें ||९- ५५||
ना समोर दिसे शिवुही | परि देखिलें कांहीं नाहीं |
देवा भक्ता दोही | एकचि पाडू ||९- ५६||
आपणचि चेंडू सुटे | मग आपणया उपटे |
तेणें उंदळता दाटे | आपणपांचि ||९- ५७||
ऐसी जरी चेंडूफळी | देखिजे कां केव्हेळीं |
तरी बोलिजे हे सरळी | प्रबुद्धाची ||९- ५८||
कर्माचा हातु न लगे | ज्ञानाचेंही कांहीं न रिगे |
ऐसीचि होतसे आंगें | उपास्ति हे ||९- ५९||
निफजे ना निमे | आंगें आंग घुमे |
सुखा सुख उपमे | देववेल इया ||९- ६०||
कोण्ही एक अकृत्रीम | भक्तीचें हें वर्म |
योगज्ञानादिविश्राम | भूमिका हे ||९- ६१||
आंगें कीर एक झालें | परी नामरूपाचे मासले |
होते तेही आटले | हरिहर येथें ||९- ६२||
अहो अर्धनारीनटेश्वरें | गिळित गिळित परस्परें |
ग्रहण जालें एकसरें | सर्वग्रासें ||९- ६३||
वाच्यजात खाऊनी | वाचकत्वहि पिऊनी |
टाकली निदैजौनी | परा येथें ||९- ६४||
शिवाशिवा ! समर्था स्वामी | येवढीये आनंदभूमि |
घेपे दीजे एकें आम्हीं | ऐसें केलें ||९- ६५||
चेतचि मा चेवविलें | निदैलेंचि मा निदविलें |
आम्हीचि आम्हा आणिलें | नवल जी तुझें ||९- ६६||
आम्ही निखळ मा तुझे | वरी लोभें म्हणसी माझें |
हें पुनरुक्त साजे | तूंचि म्हणोनी ||९- ६७||
कोणाचें कांहीं न घेसी | आपुलेंही तैसेंचि न देसी |
कोण जाणे भोगिसी | गौरव कैसें ||९- ६८||
गुरुत्वें जेवढा चांगू | तेवढाचि तारूनि लघू |
गुरु लघु जाणे जो पांगू | तुझा करी ||९- ६९||
शिष्या देतां वाटे | अद्वैताचा समो फुटे |
तरी काह्या होती भाटें | शास्त्रें तुझीं ||९- ७०||
किंबहुना ये दातारा | मी तूं याचा संसारा |
वेंचोनि होसी सोयरा | तेणेंचि तोषें ||९- ७१||
||इति श्रीमदमृतानुभवे जीवन्मुक्तदशाकथनं नाम नवमं
प्रकरणं संपूर्णम्||
प्रकरण दहावें
ग्रंथपरिहार
परी गा श्रीनिवृत्तिराया | हातातळीं सुखविलें तुया |
तरी निवांतचि मियां | भोगावें कीं तें ||१०- १||
परी महेशें सूर्याहातीं | दिधली तेजाची सूति |
तया भासा अंतर्वर्ती | जगचि केलें ||१०- २||
चंद्रासि अमृत घातलें | तें तयाचि काई येतुलें |
कीइं सिंधु मेघा दिधले | मेघाचि भागू ||१०- ३||
दिवा जो उजेडू | तो घराचाची सुरवाडू |
गगनीं आथी पवाडु | तो जगाचाची कीं ||१०- ४||
अगाधें ही उचंबळती | ते चंद्रीची ना शक्ती ? |
वसंतु करी तैं होती | झाडांचें दानीं ||१०- ५||
म्हणोनि हें असंवर्य | दैविकीचें औदार्य |
वांचोनि स्वातंतर्य | माझें नाहीं ||१०- ६||
आणि हा येवढा ऐसा | परिहारु देऊं कायसा |
प्रभुप्रभावविन्यासा | आड ठावूनी ||१०- ७||
आम्ही बोलिलों जें कांहीं | तें प्रगटची असे ठाईं |
मा स्वयंप्रकाशा काई | प्रकाशावें बोलें ? ||१०- ८||
नाना विपायें आम्हीं हन | कीजे तें पां मौन |
तरी काय जनीं जन | दिसते ना ? ||१०- ९||
जनातें जनीं देखतां | द्रष्टेंचि दृश्य तत्वतां |
कोण्ही नहोनि आइता | सिद्धांतचि हा ||१०- १०||
यया परौतें कांहीं | संविद्रहस्य नाहीं |
आणि हें तया आधींही | असतचि असे ||१०- ११||
तर्क्ष्ही ग्रंथप्रस्तावो | न घडे हें म्हणों पावो |
तऱ्ही सिद्धानुवाद लाहों | आवडी करूं ||१०- १२||
पढियंतें सदा तेंचि | परी भोगीं नवी नवी रुची |
म्हणोनि हा उचितुचि | अनुवाद सिद्ध ||१०- १३||
या कारणें मियां | गौप्य दाविलें बोलोनियां |
ऐसें नाहीं आपसया | प्रकाशूचि ||१०- १४||
आणि पूर्णअहंता वेठलों | सैंघ आम्हीच दाटलों |
मा लोपलों ना प्रगटलों | कोण्ही होऊनी | १०- १५||
आपणया आपणपें | निरूपण काय वोपे ? |
मा उगेपणे हरपे | ऐसे आहे ? ||१०- १६||
म्हणोनि माझी वैखरी | मौनाचेंही मौन करी |
हे पाणियावरी मकरी | रेखिलीयां ||१०- १७||
एवं दशोपनिषदें | पुढारी न ढळती पदें |
देखोनि बुडी बोधें | येथेंचि दिधली ||१०- १८||
ज्ञानदेव म्हणे श्रीमंत | हें अनुभवामृत |
सेंवूनि जीवन्मुक्त | हेंचि होतु ||१०- १९||
मुक्ति कीर वेल्हाळ | अनुभवामृत निखळ |
परी अमृताही उठी लाळ | अमृतें येणें ||१०- २०||
नित्य चांदु होये | परी पुनवे आनु आहे |
हें कां मी म्हणों लाहें | सूर्यदृष्टी ? ||१०- २१||
प्रिया सावायिली होये | तै आंगीचे आंगीं न समाये |
येर्क्ष्हवीं तेथेंचि आहे | तारुण्य कीं ||१०- २२||
वसंताचा आला | फळीं फुलीं आपला |
गगनाचिया डाळा | पेलती झाडें ||१०- २३||
ययालागीं हें बोलणें | अनुभामृतपणें |
स्वानुभूति परगुणें | वोगरिलें ||१०- २४||
आणि मुक्त मुमुक्षु बद्ध | हें तंववरी योग्यता भेद |
अनुभवामृतस्वाद | विरुद्ध जंव ||१०- २५||
गंगावगहना आली | पाणीयें गंगा झालीं |
कां तिमिरें भेटलीं | सूर्या जैशीं ||१०- २६||
नाहीं परिसाची कसवटी | तंववरीच वानियाच्या गोठी |
मग पंधरावियाच्या पटीं | बैसावें कीं ||१०- २७||
तैसें जें या अक्षरा | भेटती गाभारां |
ते वोघ जैसे सागरा | आंतु आले ||१०- २८||
जैशा अकारादि अक्षरा | भेटती पन्नासही मात्रा |
तैसें या चराचरा | दुसरें नाहीं ||१०- २९||
तैसी तये ईश्वरीं | अंगुळी नव्हेचि दुसरी |
किंबहुना सरोभरीं | श्रीशिवेंशीचि ||१०- ३०||
म्हणोनि ज्ञानदेवो म्हणे | अनुभवामृतें येणें |
सणु भोगिजे सणें | विश्वाचेनि ||१०- ३१||
||इति अनुभवामृते ग्रंथपरिहारकथनं नाम दशमं प्रकरणं
संपूर्णम्||
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%@@1
% File name : amRitAnubhava.itx
%--------------------------------------------
% Text title : amR^itAnubhava
% Author : Sant Dnyaneshwar
% Language : Marathi
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments :
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% Proofread by : Vishwas Bhide vishwas underscore bhide at yahoo.com
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09/07/2023 07:23:14