||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १३ ||
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय तेरावा |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः |
आत्मरूप गणेशु केलिया स्मरण| सकळ विद्यांचें अधिकरण| तेचि वंदूं श्रीचरण| श्रीगुरूंचे ||१||
जयांचेनि आठवें| शब्दसृष्टि आंगवे| सारस्वत आघवें| जिव्हेसि ये ||२||
वक्तृत्वा गोडपणें| अमृतातें पारुखें म्हणे| रस होती वोळंगणें| अक्षरांसी ||३||
भावाचें अवतरण| अवतरविती खूण| हाता चढे संपूर्ण| तत्त्वभेद ||४||
श्रीगुरूंचे पाय| जैं हृदय गिंवसूनि ठाय| तैं येवढें भाग्य होय| उन्मेखासी ||५||
ते नमस्कारूनि आतां| जो पितामहाचा पिता| लक्ष्मीयेचा भर्ता| ऐसें म्हणे ||६||
श्रीभगवानुवाच |
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते |
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ||१||
तरी पार्था परिसिजे| देह हें क्षेत्र म्हणिजे| जो हें जाणे तो बोलिजे| क्षेत्रज्ञु एथें ||७||
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ञानं मतं मम ||२||
तरि क्षेत्रज्ञु जो एथें| तो मीचि जाण निरुतें| जो सर्व क्षेत्रांतें| संगोपोनि असे ||८||
क्षेत्र आणि क्षेत्रज्ञातें| जाणणें जें निरुतें| ज्ञान ऐसें तयातें| मानूं आम्ही ||९||
तत् क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् |
स च यो यत्प्रभावश्च तत् समासेन मे श्रुणु ||३||
तरि क्षेत्र येणें नावें| हें शरीर जेणें भावें| म्हणितलें तें आघवें| सांगों अतां ||१०||
हें क्षेत्र का म्हणिजे| कैसें कें उपजे| कवणाकवणीं वाढविजे| विकारीं एथ ||११||
हें औट हात मोटकें| कीं केवढें पां केतुकें| बरड कीं पिके| कोणाचें हें ||१२||
इत्यादि सर्व| जे जे याचे भाव| ते बोलिजती सावेव| अवधान देईं ||१३||
पैं याचि स्थळाकारणें| श्रुति सदा बोबाणे| तर्कु येणेंचि ठिकाणें| तोंडाळु केला ||१४||
चाळिता हेचि बोली| दर्शनें शेवटा आलीं| तेवींचि नाहीं बुझविली| अझुनि द्वंद्वें ||१५||
शास्त्रांचिये सोयरिके| विचळिजे येणेंचि एकें| याचेनि एकवंकें| जगासि वादु ||१६/|
तोंडेसीं तोंडा न पडे| बोलेंसीं बोला न घडे| इया युक्ती बडबडे| त्राय जाहली ||१७||
नेणों कोणाचें हें स्थळ| परि कैसें अभिलाषाचें बळ| जेघरोघरीं कपाळ| पिटवीत असे ||१८||
नास्तिका द्यावया तोंड| वेदांचें गाढें बंड| दे देखोनि पाखांड| आनचि वाजे ||१९||
म्हणे तुम्ही निर्मूळ| लटिकें हें वाग्जाळ| ना म्हणसी तरी पोफळ| घातलें आहे ||२०||
पाखांडाचे कडे| नागवीं लुंचिती मुंडे| नियोजिली वितंडें| ताळासि येती ||२१||
मृत्युबळाचेनि माजें| हें जाईल वीण काजें| तें देखोनियां व्याजें| निघाले योगी ||२२||
मृत्यूनि आधाधिले| तिहीं निरंजन सेविलें| यमदमांचे केले| मेळावे पुरे ||२३||
येणेंचि क्षेत्राभिमानें| राज्य त्यजिलें ईशानें| गुंति जाणोनि स्मशानें| वासु केला ||२४||
ऐसिया पैजा महेशा| पांघुरणें दाही दिशा| लांचकरू म्हणोनि कोळसा| कामु केला ||२५||
पैं सत्यलोकनाथा| वदनें आलीं बळार्था| तरी तो सर्वथा| जाणेचिना ||२६||
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् |
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ||४||
एक म्हणती हें स्थळ| जीवाचेंचि समूळ| मग प्राण हें कूळ| तयाचें एथ ||२७||
जे प्राणाचे घरीं| अंगें राबती भाऊ चारी| आणि मना ऐसा आवरी| कुळवाडीकरु ||२८||
तयातें इंद्रियबैलांची पेटी| न म्हणे अंवसीं पाहाटीं| विषयक्षेत्रीं आटी| काढी भली ||२९||
मग विधीची वाफ चुकवी| आणि अन्यायाचें बीज वाफवी| कुकर्माचा करवी| राबु जरी ||३०||
तरी तयाचिसारिखें| असंभड पाप पिके| मग जन्मकोटी दुःखें| भोगी जीवु ||३१||
नातरी विधीचिये वाफे| सत्क्रिया बीज आरोपे| तरी जन्मशताचीं मापें| सुखचि मवीजे ||३२||
तंव आणिक म्हणती हें नव्हे| हें जिवाचेंचि न म्हणावें| आमुतें पुसा आघवें| क्षेत्राचें या ||३३||
अहो जीवु एथ उखिता| वस्तीकरु वाटे जातां| आणि प्राणु हा बलौता| म्हणौनि जागे ||३४||
अनादि जे प्रकृती| सांख्य जियेतें गाती| क्षेत्र हे वृत्ती| तियेची जाणा ||३५||
आणि इयेतेंचि आघवा| आथी घरमेळावा| म्हणौनि ते वाहिवा| घरीं वाहे ||३६||
वाह्याचिये रहाटी| जे कां मुद्दल तिघे इये सृष्टीं| ते इयेच्याचि पोटीं| जहाले गुण ||३७||
रजोगुण पेरी| तेतुलें सत्त्व सोंकरी| मग एकलें तम करी| संवगणी ||३८||
रचूनि महत्तत्त्वाचें खळें| मळी एके काळुगेनि पोळें| तेथ अव्यक्ताची मिळे| सांज भली ||३९||
तंव एकीं मतिवंतीं| या बोलाचिया खंतीं| म्हणितलें या ज्ञप्ती| अर्वाचीना ||४०||
हां हो परतत्त्वाआंतु| कें प्रकृतीची मातु| हा क्षेत्र वृत्तांतु| उगेंचि आइका ||४१||
शून्यसेजेशालिये| सुलीनतेचिये तुळिये| निद्रा केली होती बळियें| संकल्पें येणें ||४२||
तो अवसांत चेइला| उद्यमीं सदैव भला| म्हणौनि ठेवा जोडला| इच्छावशें ||४३||
निरालंबींची वाडी| होती त्रिभुवनायेवढी| हे तयाचिये जोडी| रूपा आली ||४४||
मग महाभूतांचें एकवाट| सैरा वेंटाळूनि भाट| भूतग्रामांचे आघाट| चिरिले चारी ||४५||
यावरी आदी| पांचभूतिकांची मांदी| बांधली प्रभेदीं| पंचभूतिकीं ||४६||
कर्माकर्माचे गुंडे| बांध घातले दोहींकडे| नपुंसकें बरडें| रानें केलीं ||४७||
तेथ येरझारेलागीं| जन्ममृत्यूची सुरंगी| सुहाविली निलागी| संकल्पें येणें ||४८||
मग अहंकारासि एकलाधी| करूनि जीवितावधी| वहाविलें बुद्धि| चराचर ||४९||
यापरी निराळीं| वाढे संकल्पाची डाहाळी| म्हणौनि तो मुळीं| प्रपंचा यया ||५०||
यापरी मत्तमुगुतकीं| तेथ पडिघायिलें आणिकीं| म्हणती हां हो विवेकीं| कैसें तुम्ही ||५१||
परतत्त्वाचिया गांवीं| संकल्पसेज देखावी| तरी कां पां न मनावी| प्रकृति तयाची ? ||५२||
परि असो हें नव्हे| तुम्ही या न लगावें| आतांचि हें आघवें| सांगिजैल ||५३||
तरी आकाशीं कवणें| केलीं मेघाचीं भरणें| अंतरिक्ष तारांगणें| धरी कवण ? ||५४||
गगनाचा तडावा| कोणें वेढिला केधवां| पवनु हिंडतु असावा| हें कवणाचें मत ? ||५५||
रोमां कवण पेरी| सिंधू कवण भरी| पर्जन्याचिया करी| धारा कवण ? ||५६||
तैसें क्षेत्र हें स्वभावें| हे वृत्ती कवणाची नव्हे| हें वाहे तया फावे| येरां तुटे ||५७||
तंव आणिकें एकें| क्षोभें म्हणितलें निकें| तरी भोगिजे एकें| काळें केवीं हें ? ||५८||
तरी ययाचा मारु| देखताति अनिवारु| परी स्वमतीं भरु| अभिमानियां ||५९||
हें जाणों मृत्यु रागिटा| सिंहाडयाचा दरकुटा| परी काय वांजटा| पूरिजत असे ? ||६०||
महाकल्पापरौतीं| कव घालूनि अवचितीं| सत्यलोकभद्रजाती| आंगीं वाजे ||६१||
लोकपाळ नित्य नवे| दिग्गजांचे मेळावे| स्वर्गींचिये आडवे| रिगोनि मोडी ||६२||
येर ययाचेनि अंगवातें| जन्ममृत्यूचिये गर्तें| निर्जिवें होऊनि भ्रमतें| जीवमृगें ||६३||
न्याहाळीं पां केव्हडा| पसरलासे चवडा| जो करूनियां माजिवडा| आकारगजु ||६४||
म्हणौनि काळाची सत्ता| हाचि बोलु निरुता| ऐसे वाद पंडुसुता| क्षेत्रालागीं ||६५||
हे बहु उखिविखी| ऋषीं केली नैमिषीं| पुराणें इयेविषीं| मतपत्रिका ||६६||
अनुष्टुभादि छंदें| प्रबंधीं जें विविधें| ते पत्रावलंबन मदें| करिती अझुनी ||६७||
वेदींचें बृहत्सामसूत्र| जें देखणेपणें पवित्र| परी तयाही हें क्षेत्र| नेणवेचि ||६८||
आणीक आणीकींही बहुतीं| महाकवीं हेतुमंतीं| ययालागीं मती| वेंचिलिया ||६९||
परी ऐसें हें एवढें| कीं अमुकेयाचेंचि फुडें| हें कोणाही वरपडें| होयचिना ||७०||
आतां यावरी जैसें| क्षेत्र हें असे| तुज सांगों तैसें| साद्यंतु गा ||७१||
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च |
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ||५||
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः |
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ||६||
तरि महाभूतपंचकु| आणि अहंकारु एकु| बुद्धि अव्यक्त दशकु| इंद्रियांचा ||७२||
मन आणीकही एकु| विषयांचा दशकु| सुख दुःख द्वेषु| संघात इच्छा ||७३||
आणि चेतना धृती| एवं क्षेत्रव्यक्ती| सांगितली तुजप्रती| आघवीची ||७४||
आतां महाभूतें कवणें| कवण विषयो कैसीं करणे| हें वेगळालेपणें| एकैक सांगों ||७५||
तरी पृथ्वी आप तेज| वायु व्योम इयें तुज| सांगितलीं बुझ| महाभूतें पांचें ||७६||
आणि जागतिये दशे| स्वप्न लपालें असे| नातरी अंवसे| चंद्र गूढु ||७७||
नाना अप्रौढबाळकीं| तारुण्य राहे थोकीं| कां न फुलतां कळिकीं| आमोदु जैसा ||७८||
किंबहुना काष्ठीं| वन्हि जेवीं किरीटी| तेवीं प्रकृतिचिया पोटीं| गोप्यु जो असे ||७९||
जैसा ज्वरु धातुगतु| अपथ्याचें मिष पहातु| मग जालिया आंतु| बाहेरी व्यापी ||८०||
तैसी पांचांही गांठीं पडे| जैं देहाकारु उघडे| तैं नाचवी चहूंकडे| तो अहंकारु गा ||८१||
नवल अहंकाराची गोठी| विशेषें न लगे अज्ञानापाठीं| सज्ञानाचे झोंबे कंठीं| नाना संकटीं नाचवी ||८२||
आतां बुद्धि जे म्हणिजे| ते ऐशियां चिन्हीं जाणिजे| बोलिलें यदुराजें| तें आइकें सांगों ||८३||
तरी कंदर्पाचेनि बळें| इंद्रियवृत्तीचेनि मेळें| विभांडूनि येती पाळे| विषयांचे ||८४||
तो सुखदुःखांचा नागोवा| जेथ उगाणों लागे जीवा| तेथ दोहींसी बरवा| पाडु जे धरी ||८५||
हें सुख हें दुःख| हें पुण्य हें दोष| कां हें मैळ हें चोख| ऐसें जे निवडी ||८६||
जिथे अधमोत्तम सुझे| जिये सानें थोर बुझे| जिया दिठी पारखिजे| विषो जीवें ||८७||
जे तेजतत्त्वांची आदी| जे सत्त्वगुणाची वृद्धी| जे आत्मया जीवाची संधी| वसवीत असे जे ||८८||
अर्जुना ते गा जाण| बुद्धि तूं संपूर्ण| आतां आइकें वोळखण| अव्यक्ताची ||८९||
पैं सांख्यांचिया सिद्धांतीं| प्रकृती जे महामती| तेचि एथें प्रस्तुतीं| अव्यक्त गा ||९०||
आणि सांख्ययोगमतें| प्रकृती परिसविली तूंतें| ऐसी दोहीं परीं जेथें| विवंचिली ||९१||
तेथ दुजी जे जीवदशा| तिये नांव वीरेशा| येथ अव्यक्त ऐसा| पर्यावो हा ||९२||
तऱ्ही पाहालया रजनी| तारा लोपती गगनीं| कां हारपें अस्तमानीं| भूतक्रिया ||९३||
नातरी देहो गेलिया पाठीं| देहादिक किरीटी| उपाधि लपे पोटीं| कृतकर्माच्या ||९४||
कां बीजमुद्रेआंतु| थोके तरु समस्तु| कां वस्त्रपणे तंतु- | दशे राहे ||९५||
तैसे सांडोनियां स्थूळधर्म| महाभूतें भूतग्राम| लया जाती सूक्ष्म| होऊनि जेथे ||९६||
अर्जुना तया नांवें| अव्यक्त हें जाणावें| आतां आइकें आघवें| इंद्रियभेद ||९७||
तरी श्रवण नयन| त्वचा घ्राण रसन| इयें जाणें ज्ञान- | करणें पांचें ||९८||
इये तत्त्वमेळापंकीं| सुखदुःखांची उखिविखी| बुद्धि करिते मुखीं| पांचें इहीं ||९९||
मग वाचा आणि कर| चरण आणि अधोद्वार| पायु हे प्रकार| पांच आणिक ||१००||
कर्मेंद्रियें म्हणिपती| तीं इयें जाणिजती| आइकें कैवल्यपती| सांगतसे ||१०१||
पैं प्राणाची अंतौरी| क्रियाशक्ति जे शरीरीं| तियेचि रिगिनिगी द्वारीं| पांचे इहीं ||१०२||
एवं दाहाही करणें| सांगितलीं देवो म्हणे| परिस आतां फुडेपणें| मन तें ऐसें ||१०३||
जें इंद्रियां आणि बुद्धि| माझारिलिये संधीं| रजोगुणाच्या खांदीं| तरळत असे ||१०४||
नीळिमा अंबरीं| कां मृगतृष्णालहरी| तैसें वायांचि फरारी| वावो जाहलें ||१०५||
आणि शुक्रशोणिताचा सांधा| मिळतां पांचांचा बांधा| वायुतत्त्व दशधा| एकचि जाहलें ||१०६||
मग तिहीं दाहे भागीं| देहधर्माच्या खैवंगीं| अधिष्ठिलें आंगीं| आपुलाल्या ||१०७||
तेथ चांचल्य निखळ| एकलें ठेलें निढाळ| म्हणौनि रजाचें बळ| धरिलें तेणें ||१०८||
तें बुद्धीसि बाहेरी| अहंकाराच्या उरावरी| ऐसां ठायीं माझारीं| बळियावलें ||१०९||
वायां मन हें नांव| एऱ्हवीं कल्पनाचि सावेव| जयाचेनि संगें जीव- | दशा वस्तु ||११०||
जें प्रवृत्तीसि मूळ| कामा जयाचे बळ| जें अखंड सूये छळ| अहंकारासी ||१११||
जें इच्छेतें वाढवी| आशेतें चढवी| जें पाठी पुरवी| भयासि गा ||११२||
द्वैत जेथें उठी| अविद्या जेणें लाठी| जें इंद्रियांतें लोटी| विषयांमजी ||११३||
संकल्पें सृष्टी घडी| सवेंचि विकल्पूनि मोडी| मनोरथांच्या उतरंडी| उतरी रची ||११४||
जें भुलीचें कुहर| वायुतत्त्वाचें अंतर| बुद्धीचें द्वार| झाकविलें जेणें ||११५||
तें गा किरीटी मन| या बोला नाहीं आन| आतां विषयाभिधान| भेदू आइकें ||११६||
तरी स्पर्शु आणि शब्दु| रूप रसु गंधु| हा विषयो पंचविधु| ज्ञानेंद्रियांचा ||११७||
इहीं पांचैं द्वारीं| ज्ञानासि धांव बाहेरी| जैसा कां हिरवे चारीं| भांबावे पशु ||११८||
मग स्वर वर्ण विसर्गु| अथवा स्वीकार त्यागु| संक्रमण उत्सर्गु| विण्मूत्राचा ||११९||
हे कर्मेंद्रियांचे पांच| विषय गा साच| जे बांधोनियां माच| क्रिया धांवे ||१२०||
ऐसे हे दाही| विषय गा इये देहीं| आतां इच्छा तेही| सांगिजैल ||१२१||
तरि भूतलें आठवे| कां बोलें कान झांकवे| ऐसियावरि चेतवे| जे गा वृत्ती ||१२२||
इंद्रियाविषयांचिये भेटी- | सरसीच जे गा उठी| कामाची बाहुटी| धरूनियां ||१२३||
जियेचेनि उठिलेपणें| मना सैंघ धावणें| न रिगावें तेथ करणें| तोंडें सुती ||१२४||
जिये वृत्तीचिया आवडी| बुद्धी होय वेडी| विषयां जिया गोडी| ते गा इच्छा ||१२५||
आणी इच्छिलिया सांगडें| इंद्रियां आमिष न जोडे| तेथ जोडे ऐसा जो डावो पडे| तोचि द्वेषु ||१२६||
आतां यावरी सुख| तें एवंविध देख| जेणें एकेंचि अशेख| विसरे जीवु ||१२७||
मना वाचे काये| जें आपुली आण वाये| देहस्मृतीची त्राये| मोडित जें ये ||१२८||
जयाचेनि जालेपणें| पांगुळा होईजे प्राणें| सात्त्विकासी दुणें| वरीही लाभु ||१२९||
कां आघवियाचि इंद्रियवृत्ती| हृदयाचिया एकांतीं| थापटूनि सुषुप्ती| आणी जें गा ||१३०||
किंबहुना सोये| जीव आत्मयाची लाहे| तेथ जें होये| तया नाम सुख ||१३१||
आणि ऐसी हे अवस्था| न जोडतां पार्था| जें जीजे तेंचि सर्वथा| दुःख जाणे ||१३२||
तें मनोरथसंगें नव्हे| एऱ्हवीं सिद्धी गेलेंचि आहे| हे दोनीचि उपाये| सुखदुःखासी ||१३३||
आतां असंगा साक्षिभूता| देहीं चैतन्याची जे सत्ता| तिये नाम पंडुसुता| चेतना येथें ||१३४||
जे नखौनि केशवरी| उभी जागे शरीरीं| जे तिहीं अवस्थांतरी| पालटेना ||१३५||
मनबुद्ध्यादि आघवीं| जियेचेनि टवटवीं| प्रकृतिवनमाधवीं| सदांचि जे ||१३६||
जडाजडीं अंशीं| राहाटे जे सरिसी| ते चेतना गा तुजसी| लटिकें नाहीं ||१३७||
पैं रावो परिवारु नेणे| आज्ञाचि परचक्र जिणे| कां चंद्राचेनि पूर्णपणें| सिंधू भरती ||१३८||
नाना भ्रामकाचें सन्निधान| लोहो करी सचेतन| कां सूर्यसंगु जन| चेष्टवी गा ||१३९||
अगा मुख मेळेंवीण| पिलियाचें पोषण| करी निरीक्षण| कूर्मी जेवीं ||१४०||
पार्था तियापरी| आत्मसंगती इये शरीरीं| सजीवत्वाचा करी| उपेगु जडा ||४१||
मग तियेतें चेतना| म्हणिपे पैं अर्जुना| आतां धृतिविवंचना| भेदु आइक ||१४२||
तरी भूतां परस्परें| उघड जाति स्वभाववैरें| नव्हे पृथ्वीतें नीरें| न नाशिजे ? ||१४३||
नीरातें आटी तेज| तेजा वायूसि झुंज| आणि गगन तंव सहज| वायू भक्षी ||१४४||
तेवींचि कोणेही वेळे| आपण कायिसयाही न मिळे| आंतु रिगोनि वेगळें| आकाश हें ||१४५||
ऐसीं पांचही भूतें| न साहती एकमेकांतें| कीं तियेंही ऐक्यातें| देहासी येती ||१४६||
द्वंद्वाची उखिविखी| सोडूनि वसती एकीं| एकेकातें पोखी| निजगुणें गा ||१४७||
ऐसें न मिळे तयां साजणें| चळे धैर्यें जेणें| तयां नांव म्हणें| धृती मी गा ||१४८||
आणि जीवेंसी पांडवा| या छत्तिसांचा मेळावा| तो हा एथ जाणावा| संघातु पैं गा ||१४९||
एवं छत्तीसही भेद| सांगितले तुज विशद| यया येतुलियातें प्रसिद्ध| क्षेत्र म्हणिजे ||१५०||
रथांगांचा मेळावा| जेवीं रथु म्हणिजे पांडवा| कां अधोर्ध्व अवेवां| नांव देहो ||१५१||
करीतुरंगसमाजें| सेना नाम निफजे| कां वाक्यें म्हणिपती पुंजे| अक्षरांचे ||१५२||
कां जळधरांचा मेळा| वाच्य होय आभाळा| नाना लोकां सकळां| नाम जग ||१५३||
कां स्नेहसूत्रवन्ही| मेळु एकिचि स्थानीं| धरिजे तो जनीं| दीपु होय ||१५४||
तैसीं छत्तीसही इयें तत्त्वें| मिळती जेणें एकत्वें| तेणें समूह परत्वें| क्षेत्र म्हणिपे ||१५५||
आणि वाहतेनि भौतिकें| पाप पुण्य येथें पिके| म्हणौनि आम्ही कौतुकें| क्षेत्र म्हणों ||१५६||
आणि एकाचेनि मतें| देह म्हणती ययातें| परी असो हें अनंतें| नामें यया ||१५७||
पैं परतत्त्वाआरौतें| स्थावराआंतौतें| जें कांहीं होतें जातें| क्षेत्रचि हें ||१५८||
परि सुर नर उरगीं| घडत आहे योनिविभागीं| तें गुणकर्मसंगीं| पडिलें सातें ||१५९||
हेचि गुणविवंचना| पुढां म्हणिपैल अर्जुना| प्रस्तुत आतां तुज ज्ञाना| रूप दावूं ||१६०||
क्षेत्र तंव सविस्तर| सांगितलें सविकार| म्हणौनि आतां उदार| ज्ञान आइकें ||१६१||
जया ज्ञानालागीं| गगन गिळिताती योगी| स्वर्गाची आडवंगी| उमरडोनि ||१६२||
न करिती सिद्धीची चाड| न धरिती ऋद्धीची भीड| योगाऐसें दुवाड| हेळसिती ||१६३||
तपोदुर्गें वोलांडित| क्रतुकोटि वोवांडित| उलथूनि सांडित| कर्मवल्ली ||१६४||
नाना भजनमार्गी| धांवत उघडिया आंगीं| एक रिगताति सुरंगीं| सुषुम्नेचिये ||१६५||
ऐसी जिये ज्ञानीं| मुनीश्वरांची उतान्ही| वेदतरूच्या पानोवानीं| हिंडताती ||१६६||
देईल गुरुसेवा| इया बुद्धि पांडवा| जन्मशतांचा सांडोवा| टाकित जे ||१६७||
जया ज्ञानाची रिगवणी| अविद्ये उणें आणी| जीवा आत्मया बुझावणी| मांडूनि दे ||१६८||
जें इंद्रियांचीं द्वारें आडी| प्रवृत्तीचे पाय मोडी| जें दैन्यचि फेडी| मानसाचें ||१६९||
द्वैताचा दुकाळु पाहे| साम्याचें सुयाणें होये| जया ज्ञानाची सोये| ऐसें करी ||१७०||
मदाचा ठावोचि पुसी| जें महामोहातें ग्रासी| नेदी आपपरु ऐसी| भाष उरों ||१७१||
जें संसारातें उन्मूळी| संकल्पपंकु पाखाळी| अनावरातें वेंटाळी| ज्ञेयातें जें ||१७२||
जयाचेनि जालेपणें| पांगुळा होईजे प्राणें| जयाचेनि विंदाणें| जग हें चेष्टें ||१७३||
जयाचेनि उजाळें| उघडती बुद्धीचे डोळे| जीवु दोंदावरी लोळे| आनंदाचिया ||१७४||
ऐसें जें ज्ञान| पवित्रैकनिधान| जेथ विटाळलें मन| चोख कीजे ||१७५||
आत्मया जीवबुद्धी| जे लागली होती क्षयव्याधी| ते जयाचिये सन्निधी| निरुजा कीजे ||१७६||
तें अनिरूप्य कीं निरूपिजे| ऐकतां बुद्धी आणिजे| वांचूनि डोळां देखिजे| ऐसें नाहीं ||१७७||
मग तेचि इये शरीरीं| जैं आपुला प्रभावो करी| तैं इंद्रियांचिया व्यापारीं| डोळांहि दिसे ||१७८||
पैं वसंताचें रिगवणें| झाडांचेनि साजेपणें| जाणिजे तेवीं करणें| सांगती ज्ञान ||१७९||
अगा वृक्षासि पाताळीं| जळ सांपडे मुळीं| तें शाखांचिये बाहाळीं| बाहेर दिसे ||१८०||
कां भूमीचें मार्दव| सांगे कोंभाची लवलव| नाना आचारगौरव| सुकुलीनाचें ||१८१||
अथवा संभ्रमाचिया आयती| स्नेहो जैसा ये व्यक्ती| कां दर्शनाचिये प्रशस्तीं| पुण्यपुरुष ||१८२||
नातरी केळीं कापूर जाहला| जेवीं परिमळें जाणों आला| कां भिंगारीं दीपु ठेविला| बाहेरी फांके ||१८३||
तैसें हृदयींचेनि ज्ञानें| जियें देहीं उमटती चिन्हें| तियें सांगों आतां अवधानें| चागें आइक ||१८४||
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||७||
तरी कवणेही विषयींचें| साम्य होणें न रुचे| संभावितपणाचें| वोझे जया ||१८५||
आथिलेचि गुण वानितां| मान्यपणें मानितां| योग्यतेचें येतां| रूप आंगा ||१८६||
तैं गजबजों लागे कैसा| व्याधें रुंधला मृगु जैसा| कां बाहीं तरतां वळसा| दाटला जेवीं ||१८७||
पार्था तेणें पाडें| सन्मानें जो सांकडे| गरिमेतें आंगाकडे| येवोंचि नेदी ||१८८||
पूज्यता डोळां न देखावी| स्वकीर्ती कानीं नायकावी| हा अमुका ऐसी नोहावी| सेचि लोकां ||१८९||
तेथ सत्काराची कें गोठी| कें आदरा देईल भेटी| मरणेंसीं साटी| नमस्कारितां ||१९०||
वाचस्पतीचेनि पाडें| सर्वज्ञता तरी जोडे| परी वेडिवेमाजीं दडे| महमेभेणें ||१९१||
चातुर्य लपवी| महत्त्व हारवी| पिसेपण मिरवी| आवडोनि ||१९२||
लौकिकाचा उद्वेगु| शास्त्रांवरी उबगु| उगेपणीं चांगु| आथी भरु ||१९३||
जगें अवज्ञाचि करावी| संबंधीं सोयचि न धरावी| ऐसी ऐसी जीवीं| चाड बहु ||१९४||
तळौटेपण बाणे| आंगीं हिणावो खेवणें| तें तेंचि करणें| बहुतकरुनी ||१९५||
हा जीतु ना नोहे| लोक कल्पी येणें भावें| तैसें जिणें होआवें| ऐसी आशा ||१९६||
पै चालतु कां नोहे| कीं वारेनि जातु आहे| जना ऐसा भ्रमु जाये| तैसें होईजे ||१९७||
माझें असतेपण लोपो| नामरूप हारपो| मज झणें वासिपो| भूतजात ||१९८||
ऐसीं जयाचीं नवसियें| जो नित्य एकांता जातु जाये| नामेंचि जो जिये| विजनाचेनि ||१९९||
वायू आणि तया पडे| गगनेंसीं बोलों आवडे| जीवें प्राणें झाडें| पढियंतीं जया ||२००||
किंबहुना ऐसीं| चिन्हें जया देखसी| जाण तया ज्ञानेंसीं| शेज जाहली ||२०१||
पैं अमानित्व पुरुषीं| तें जाणावें इहीं मिषीं| आतां अदंभाचिया वोळखीसी| सौरसु देवों ||२०२||
तरी अदंभित्व ऐसें| लोभियाचें मन जैसें| जीवु जावो परी नुमसे| ठेविला ठावो ||२०३||
तयापरी किरीटी| पडिलाही प्राणसंकटीं| तरी सुकृत न प्रकटी| आंगें बोलें ||२०४||
खडाणें आला पान्हा| पळवी जेवीं अर्जुना| कां लपवी पण्यांगना| वडिलपण ||२०५||
आढ्यु आतुडे आडवीं| मग आढ्यता जेवीं हारवी| नातरी कुळवधू लपवी| अवेवांतें ||२०६||
नाना कृषीवळु आपुलें| पांघुरवी पेरिलें| तैसें झांकी निपजलें| दानपुण्य ||२०७||
वरिवरी देहो न पूजी| लोकांतें न रंजी| स्वधर्मु वाग्ध्वजीं| बांधों नेणे ||२०८||
परोपकारु न बोले| न मिरवी अभ्यासिलें| न शके विकूं जोडलें| स्फीतीसाठीं ||२०९||
शरीर भोगाकडे| पाहतां कृपणु आवडे| एऱ्हवीं धर्मविषयीं थोडें| बहु न म्हणे ||२१०||
घरीं दिसे सांकड| देहींची आयती रोड| परी दानीं जया होड| सुरतरूसीं ||२११||
किंबहुना स्वधर्मीं थोरु| अवसरीं उदारु| आत्मचर्चे चतुरु| एऱ्हवी वेडा ||२१२||
केळीचें दळवाडें| हळू पोकळ आवडे| परी फळोनियां गाढें| रसाळ जैसें ||२१३||
कां मेघांचें आंग झील| दिसे वारेनि जैसें जाईल| परी वर्षती नवल| घनवट तें ||२१४||
तैसा जो पूर्णपणीं| पाहतां धाती आयणी| एऱ्हवीं तरी वाणी| तोचि ठावो ||२१५||
हें असो या चिन्हांचा| नटनाचु ठायीं जयाच्या| जाण ज्ञान तयाच्या| हातां चढें ||२१६||
पैं गा अदंभपण| म्हणितलें तें हें जाण| आतां आईक खूण| अहिंसेची ||२१७||
तरी अहिंसा बहुतीं परीं| बोलिली असे अवधारीं| आपुलालिया मतांतरीं| निरूपिली ||२१८||
परी ते ऐसी देखा| जैशा खांडूनियां शाखा| मग तयाचिया बुडुखा| कूंप कीजे ||२१९||
कां बाहु तोडोनि पचविजे| मग भूकेची पीडा राखिजे| नाना देऊळ मोडोनि कीजे| पौळी देवा ||२२०||
तैसी हिंसाचि करूनि अहिंसा| निफजविजे हा ऐसा| पैं पूर्वमीमांसा| निर्णो केला ||२२१||
जे अवृष्टीचेनि उपद्रवें| गादलें विश्व आघवें| म्हणौनि पर्जन्येष्टी करावे| नाना याग ||२२२||
तंव तिये इष्टीचिया बुडीं| पशुहिंसा रोकडी| मग अहिंसेची थडी| कैंची दिसे ? ||२२३||
पेरिजे नुसधी हिंसा| तेथ उगवैल काय अहिंसा ? | परी नवल बापा धिंवसा| या याज्ञिकांचा ||२२४||
आणि आयुर्वेदु आघवा| तो याच मोहोरा पांडवा| जे जीवाकारणें करावा| जीवघातु ||२२५||
नाना रोगें आहाळलीं| लोळतीं भूतें देखिलीं| ते हिंसा निवारावया केली| चिकित्सा कां ||२२६||
तंव ते चिकित्से पहिलें| एकाचे कंद खणविले| एका उपडविलें| समूळीं सपत्रीं ||२२७||
एकें आड मोडविली| अजंगमाची खाल काढविली| एकें गर्भिणी उकडविली| पुटामाजीं ||२२८||
अजातशत्रु तरुवरां| सर्वांगीं देवविल्या शिरा| ऐसे जीव घेऊनि धनुर्धरा| कोरडे केले ||२२९||
आणि जंगमाही हात| लाऊनि काढिलें पित्त| मग राखिले शिणत| आणिक जीव ||२३०||
अहो वसतीं धवळारें| मोडूनि केलीं देव्हारें| नागवूनि वेव्हारें| गवांदी घातली ||२३१||
मस्तक पांघुरविलें| तंव तळवटीं उघडें पडलें| घर मोडोनि केले| मांडव पुढें ||२३२||
नाना पांघुरणें| जाळूनि जैसें तापणें| जालें आंगधुणें| कुंजराचें ||२३३||
नातरी बैल विकूनि गोठा| पुंसा लावोनि बांधिजे गांठा| इया करणी कीं चेष्टा ? | काइ हसों ||२३४||
एकीं धर्माचिया वाहणी| गाळूं आदरिलें पाणी| तंव गाळितया आहाळणीं| जीव मेले ||२३५||
एक न पचवितीचि कण| इये हिंसेचे भेण| तेथ कदर्थले प्राण| तेचि हिंसा ||२३६||
एवं हिंसाचि अहिंसा| कर्मकांडीं हा ऐसा| सिद्धांतु सुमनसा| वोळखें तूं ||२३७||
पहिलें अहिंसेचें नांव| आम्हीं केलें जंव| तंव स्फूर्ति बांधली हांव| इये मती ||२३८||
तरि कैसेनि इयेतें गाळावें| म्हणौनि पडिलें बोलावें| तेवींचि तुवांही जाणावें| ऐसा भावो ||२३९||
बहुतकरूनि किरीटी| हाचि विषो इये गोठी| एऱ्हवी कां आडवाटीं| धाविजैल गा ? ||२४०||
आणि स्वमताचिया निर्धारा- | लागोनियां धनुर्धरा| प्राप्तां मतांतरां| निर्वेचु कीजे ||२४१||
ऐसी हे अवधारीं| निरूपिती परी| आतां ययावरी| मुख्य जें गा ||२४२||
तें स्वमत बोलिजैल| अहिंसे रूप किजैल| जेणें उठलिया आंतुल| ज्ञान दिसे ||२४३||
परी तें अधिष्ठिलेनि आंगें| जाणिजे आचरतेनि बगें| जैसी कसवटी सांगे| वानियातें ||२४४||
तैसें ज्ञानामनाचिये भेटी| सरिसेंचि अहिंसेचें बिंब उठी| तेंचि ऐसें किरीटी| परिस आतां ||२४४||
तरी तरंगु नोलांडितु| लहरी पायें न फोडितु| सांचलु न मोडितु| पाणियाचा ||२४६||
वेगें आणि लेसा| दिठी घालूनि आंविसा| जळीं बकु जैसा| पाउल सुये ||२४७||
कां कमळावरी भ्रमर| पाय ठेविती हळुवार| कुचुंबैल केसर| इया शंका ||२४८||
तैसे परमाणु पां गुंतले| जाणूनि जीव सानुले| कारुण्यामाजीं पाउलें| लपवूनि चाले ||२४९||
ते वाट कृपेची करितु| ते दिशाचि स्नेह भरितु| जीवातळीं आंथरितु| आपुला जीवु ||२५०||
ऐसिया जतना| चालणें जया अर्जुना| हें अनिर्वाच्य परिमाणा| पुरिजेना ||२५१||
पैं मोहाचेनि सांगडें| लासी पिलीं धरी तोंडें| तेथ दांतांचे आगरडे| लागती जैसे ||२५२||
कां स्नेहाळु माये| तान्हयाची वास पाहे| तिये दिठी आहे| हळुवार जें ||२५३||
नाना कमळदळें| डोलविजती ढाळें| तो जेणें पाडें बुबुळें| वारा घेपे ||२५४||
तैसेनि मार्दवें पाय| भूमीवरी न्यसीतु जाय| लागती तेथ होय| जीवां सुख ||२५५||
ऐसिया लघिमा चालतां| कृमि कीटक पंडुसुता| देखे तरी माघौता| हळूचि निघे ||२५६||
म्हणे पावो धडफडील| तरी स्वामीची निद्रा मोडैल| रचलेपणा पडैल| झोती हन ||२५७||
इया काकुळती| वाहणी घे माघौती| कोणेही व्यक्ती| न वचे वरी ||२५८||
जीवाचेनि नांवें| तृणातेंही नोलांडवे| मग न लेखितां जावें| हे कें गोठी ? ||२५९||
मुंगिये मेरु नोलांडवे| मशका सिंधु न तरवे| तैसा भेटलियां न करवे| अतिक्रमु ||२६०||
ऐसी जयाची चाली| कृपाफळी फळा आली| देखसी जियाली| दया वाचे ||२६१||
स्वयें श्वसणेंचि सुकुमार| मुख मोहाचें माहेर| माधुर्या जाहले अंकुर| दशन तैसे ||२६२||
पुढां स्नेह पाझरे| माघां चालती अक्षरें| शब्द पाठीं अवतरे| कृपा आधीं ||२६३||
तंव बोलणेंचि नाहीं| बोलों म्हणे जरी कांहीं| तरी बोल कोणाही| खुपेल कां ||२६४||
बोलतां अधिकुही निघे| तरी कोण्हाही वर्मीं न लगे| आणि कोण्हासि न रिघे| शंका मनीं ||२६५||
मांडिली गोठी हन मोडैल| वासिपैल कोणी उडैल| आइकोनिचि वोवांडिल| कोण्ही जरी ||२६६||
तरी दुवाळी कोणा नोहावी| भुंवई कवणाची नुचलावी| ऐसा भावो जीवीं| म्हणौनि उगा ||२६७||
मग प्रार्थिला विपायें| जरी लोभें बोलों जाये| तरी परिसतया होये| मायबापु ||२६८||
कां नादब्रह्मचि मुसे आलें| कीं गंगापय असललें| पतिव्रते आलें| वार्धक्य जैसे ||२६९||
तैसें साच आणि मवाळ| मितले आणि रसाळ| शब्द जैसे कल्लोळ| अमृताचे ||२७०||
विरोधुवादुबळु| प्राणितापढाळु| उपहासु छळु| वर्मस्पर्शु ||२७१||
आटु वेगु विंदाणु| आशा शंका प्रतारणु| हे संन्यासिले अवगुणु| जया वाचा ||२७२||
आणि तयाचि परी किरीटी| थाउ जयाचिये दिठी| सांडिलिया भ्रुकुटी| मोकळिया ||२७३||
कां जे भूतीं वस्तु आहे| तियें रुपों शके विपायें| म्हणौनि वासु न पाहे| बहुतकरूनी ||२७४||
ऐसाही कोणे एके वेळे| भीतरले कृपेचेनि बळें| उघडोनियां डोळे| दृष्टी घाली ||२७५||
तरी चंद्रबिंबौनि धारा| निघतां नव्हती गोचरा| परि एकसरें चकोरां| निघती दोंदें ||२७६||
तैसें प्राणियांसि होये| जरी तो कहींवासु पाहे| तया अवलोकनाची सोये| कूर्मींही नेणे ||२७७||
किंबहुना ऐसी| दिठी जयाची भूतांसी| करही देखसी| तैसेचि ते ||२७८||
तरी होऊनियां कृतार्थ| राहिले सिद्धांचे मनोरथ| तैसे जयाचे हात| निर्व्यापार ||२७९||
अक्षमें आणि संन्यासिलें| कीं निरिंधन आणि विझालें| मुकेनि घेतलें| मौन जैसें ||२८०||
तयापरी कांहीं| जयां करां करणें नाहीं| जे अकर्तयाच्या ठायीं| बैसों येती ||२८१||
आसुडैल वारा| नख लागेल अंबरा| इया बुद्धी करां| चळों नेदी ||२८२||
तेथ आंगावरिलीं उडवावीं| कां डोळां रिगतें झाडावीं| पशुपक्ष्यां दावावीं| त्रासमुद्रा ||२८३||
इया केउतिया गोठी| नावडे दंडु काठी| मग शस्त्राचें किरीटी| बोलणें कें ? ||२८४||
लीलाकमळें खेळणें| कांपुष्पमाळा झेलणें| न करी म्हणे गोफणें| ऐसें होईल ||२८५||
हालवतील रोमावळी| यालागीं आंग न कुरवाळी| नखांची गुंडाळी| बोटांवरी ||२८६||
तंव करणेयाचाचि अभावो| परी ऐसाही पडे प्रस्तावो| तरी हातां हाचि सरावो| जे जोडिजती ||२८७||
कां नाभिकारा उचलिजे| हातु पडिलियां देइजे| नातरी आर्तातें स्पर्शिजे| अळुमाळु ||२८८||
हेंही उपरोधें करणें| तरी आर्तभय हरणें| नेणती चंद्रकिरणें| जिव्हाळा तो ||२८९||
पावोनि तो स्पर्शु| मलयानिळु खरपुसु| तेणें मानें पशु| कुरवाळणें ||२९०||
जे सदा रिते मोकळे| जैशी चंदनांगें निसळें| न फळतांही निर्फळें| होतीचिना ||२९१||
आतां असो हें वाग्जाळ| जाणें तें करतळ| सज्जनांचे शीळ| स्वभाव जैसे ||२९२||
आतां मन तयाचें| सांगों म्हणों जरी साचें| तरी सांगितले कोणाचे| विलास हे ? ||२९३||
काइ शाखा नव्हे तरु ? | जळेंवीण असे सागरु ? | तेज आणि तेजाकारु| आन काई ? ||२९४||
अवयव आणि शरीर| हे वेगळाले कीर ? | कीं रसु आणि नीर| सिनानीं आथी ? ||२९५||
म्हणौनि हे जे सर्व| सांगितले बाह्य भाव| ते मनचि गा सावयव| ऐसें जाणें ||२९६||
जें बीज भुईं खोंविलें| तेंचि वरी रुख जाहलें| तैसें इंद्रियाद्वारीं फांकलें| अंतरचि कीं ||२९७||
पैं मानसींचि जरी| अहिंसेची अवसरी| तरी कैंची बाहेरी| वोसंडेल ? ||२९८||
आवडे ते वृत्ती किरीटी| आधीं मनौनीचि उठी| मग ते वाचे दिठी| करांसि ये ||२९९||
वांचूनि मनींचि नाहीं| तें वाचेसि उमटेल काई ? | बींवीण भुईं| अंकुर असे ? ||३००||
म्हणौनि मनपण जैं मोडे| तैं इंद्रिय आधींचि उबडें| सूत्रधारेंवीण साइखडें| वावो जैसें ||३०१||
उगमींचि वाळूनि जाये| तें वोघीं कैचें वाहे| जीवु गेलिया आहे| चेष्टा देहीं ? ||३०२||
तैसें मन हें पांडवा| मूळ या इंद्रियभावा| हेंचि राहटे आघवां| द्वारीं इहीं ||३०३||
परी जिये वेळीं जैसें| जें होऊनि आंतु असे| बाहेरी ये तैसें| व्यापाररूपें ||३०४||
यालागी साचोकारें| मनीं अहिंसा थांवे थोरें| पिकली द्रुती आदरें| बोभात निघे ||३०५||
म्हणौनि इंद्रियें तेचि संपदा| वेचितां हीं उदावादा| अहिंसेचा धंदा| करितें आहाती ||३०६||
समुद्रीं दाटे भरितें| तैं समुद्रचि भरी तरियांते| तैसें स्वसंपत्ती चित्तें| इंद्रियां केलें ||३०७||
हें बहु असो पंडितु| धरुनि बाळकाचा हातु| वोळी लिही व्यक्तु| आपणचि ||३०८||
तैसें दयाळुत्व आपुलें| मनें हातापायां आणिलें| मग तेथ उपजविलें| अहिंसेतें ||३०९||
याकारणें किरीटी| इंद्रियांचिया गोठी| मनाचिये राहाटी| रूप केलें ||३१०||
ऐसा मनें देहें वाचा| सर्व संन्यासु दंडाचा| जाहला ठायीं जयाचा| देखशील ||३११||
तो जाण वेल्हाळ| ज्ञानाचें वेळाउळ| हें असो निखळ| ज्ञानचि तो ||३१२||
जे अहिंसा कानें ऐकिजे| ग्रंथाधारें निरूपिजे| ते पाहावी हें उपजे| तैं तोचि पाहावा ||३१३||
ऐसें म्हणितलें देवें| तें बोलें एकें सांगावें| परी फांकला हें उपसाहावें| तुम्हीं मज ||३१४||
म्हणाल हिरवें चारीं गुरूं| विसरे मागील मोहर धरूं| कां वारेलगें पांखिरूं| गगनीं भरे ||३१५||
तैसिया प्रेमाचिया स्फूर्ती| फावलिया रसवृत्तीं| वाहविला मती| आकळेना ||३१६||
तरि तैसें नोहे अवधारा| कारण असें विस्तारा| एऱ्हवीं पद तरी अक्षरां| तिहींचेंचि ||३१७||
अहिंसा म्हणतां थोडी| परी ते तैंचि होय उघडी| जैं लोटिजती कोडी| मतांचिया ||३१८||
एऱ्हवीं प्राप्तें मतांतरें| थातंबूनि आंगभरें| बोलिजैल ते न सरे| तुम्हांपाशीं ||३१९||
रत्नपारखियांच्या गांवीं| जाईल गंडकी तरी सोडावी| काश्मीरीं न करावी| मिडगण जेवीं ||३२०||
काइसा वासु कापुरा| मंद जेथ अवधारा| पिठाचा विकरा| तिये सातें ? ||३२१||
म्हणौनि इये सभे| बोलकेपणाचेनि क्षोभें| लाग सरूं न लभे| बोला प्रभु ||३२२||
सामान्या आणि विशेषा| सकळै कीजेल देखा| तरी कानाचेया मुखा- | कडे न्याल ना तुम्ही ||३२३||
शंकेचेनि गदळें| जैं शुद्ध प्रमेय मैळे| तैं मागुतिया पाउलीं पळे| अवधान येतें ||३२४||
कां करूनि बाबुळियेची बुंथी| जळें जियें ठाती| तयांची वास पाहाती| हंसु काई ? ||३२५||
कां अभ्रापैलीकडे| जैं येत चांदिणें कोडें| तैं चकोरें चांचुवडें| उचलितीना ||३२६||
तैसें तुम्ही वास न पाहाल| ग्रंथु नेघा वरी कोपाल| जरी निर्विवाद नव्हैल| निरूपण ||३२७||
न बुझावितां मतें| न फिटे आक्षेपाचें लागतें| तें व्याख्यान जी तुमतें| जोडूनि नेदी ||३२८||
आणि माझें तंव आघवें| ग्रथन येणेचि भावें| जे तुम्हीं संतीं होआवें| सन्मुख सदां ||३२९||
एऱ्हवीं तरी साचोकारें| तुम्ही गीतार्थाचे सोइरे| जाणोनि गीता एकसरें| धरिली मियां ||३३०||
जें आपुलें सर्वस्व द्याल| मग इयेतें सोडवूनि न्याल| म्हणौनि ग्रंथु नव्हे वोल| साचचि हे ||३३१||
कां सर्स्वाचा लोभु धरा| वोलीचा अव्हेरु करा| तरी गीते मज अवधारा| एकचि गती ||३३२||
किंबहुना मज| तुमचिया कृपा काज| तियेलागीं व्याज| ग्रंथाचें केलें ||३३३||
तरी तुम्हां रसिकांजोगें| व्याख्यान शोधावें लागे| म्हणौनि जी मतांगें| बोलों गेलों ||३३४||
तंव कथेसि पसरु जाहला| श्लोकार्थु दूरी गेला| कीजो क्षमा यया बोला| अपत्या मज ||३३५||
आणि घांसाआंतिल हरळु| फेडितां लागे वेळु| ते दूषण नव्हें खडळु| सांडावा कीं ||३३६||
कां संवचोरा चुकवितां| दिवस लागलिया माता| कोपावें कीं जीविता| जिताणें कीजे ? ||३३७||
परी यावरील हें नव्हे| तुम्हीं उपसाहिलें तेंचि बरवें| आतां अवधारिजो देवें| बोलिलें ऐसें ||३३८||
म्हणे उन्मेखसुलोचना| सावध होईं अर्जुना| करूं तुज ज्ञाना| वोळखी आतां ||३३९||
तरी ज्ञान गा तें एथें| वोळख तूं निरुतें| आक्रोशेंवीण जेथें| क्षमा असे ||३४०||
अगाध सरोवरीं| कमळिणी जियापरी| कां सदैवाचिया घरीं| संपत्ति जैसी ||३४१||
पार्था तेणें पाडें| क्षमा जयातें वाढे| तेही लक्षे तें फुडें| लक्षण सांगों ||३४२||
तरी पढियंते लेणें| आंगीं भावें जेणें| धरिजे तेवीं साहणें| सर्वचि जया ||३४३||
त्रिविध मुख्य आघवे| उपद्रवांचे मेळावे| वरी पडिलिया नव्हे| वांकुडा जो ||३४४||
अपेक्षित पावे| तें जेणें तोषें मानवें| अनपेक्षिताही करवे| तोचि मानु ||३४५||
जो मानापमानातें साहे| सुखदुःख जेथ सामाये| निंदास्तुती नोहे| दुखंडु जो ||३४६||
उन्हाळेनि जो न तपे| हिमवंती न कांपे| कयसेनिही न वासिपे| पातलेया ||३४७||
स्वशिखरांचा भारु| नेणें जैसा मेरु| कीं धरा यज्ञसूकरु| वोझें न म्हणे ||३४८||
नाना चराचरीं भूतीं| दाटणी नव्हे क्षिती| तैसा नाना द्वंद्वीं प्राप्तीं| घामेजेना ||३४९||
घेऊनी जळाचे लोट| आलिया नदीनदांचे संघाट| करी वाड पोट| समुद्र जेवीं ||३५०||
तैसें जयाचिया ठायीं| न साहणें काहींचि नाहीं| आणि साहतु असे ऐसेंही| स्मरण नुरे ||३५१||
आंगा जें पातलें| तें करूनि घाली आपुलें| येथ साहतेनि नवलें| घेपिजेना ||३५२||
हे अनाक्रोश क्षमा| जयापाशीं प्रियोत्तमा| जाण तेणें महिमा| ज्ञानासि गा ||३५३||
तो पुरुषु पांडवा| ज्ञानाचा वोलावा| आतां परिस आर्जवा| रूप करूं ||३५४||
तरी आर्जव तें ऐसें| प्राणाचें सौजन्य जैसें| आवडे तयाही दोषें| एकचि गा ||३५५||
कां तोंड पाहूनि प्रकाशु| न करी जेवीं चंडांशु| जगा एकचि अवकाशु| आकाश जैसें ||३५६||
तैसें जयाचें मन| माणुसाप्रति आन आन| नव्हे आणि वर्तन| ऐसें पैं तें ||३५७||
जे जगेंचि सनोळख| जगेंसीं जुनाट सोयरिक| आपपर हें भाख| जाणणें नाहीं ||३५८||
भलतेणेंसीं मेळु| पाणिया ऐसा ढाळु| कवणेविखीं आडळु| नेघे चित्त ||३५९||
वारियाची धांव| तैसे सरळ भाव| शंका आणि हांव| नाहीं जया ||३६०||
मायेपुढें बाळका| रिगतां न पडे शंका| तैसें मन देतां लोकां| नालोची जो ||३६१||
फांकलिया इंदीवरा| परिवारु नाहीं धनुर्धरा| तैसा कोनकोंपरा| नेणेचि जो ||३६२||
चोखाळपण रत्नाचें| रत्नावरी किरणाचें| तैसें पुढां मन जयाचें| करणें पाठीं ||३६३||
आलोचूं जो नेणे| अनुभवचि जोगावणें| धरी मोकळी अंतःकरणें| नव्हेचि जया ||३६४||
दिठी नोहे मिणधी| बोलणें नाहीं संदिग्धी| कवणेंसीं हीनबुद्धी| राहाटीजे ना ||३६५||
दाही इंद्रियें प्रांजळें| निष्प्रपंचें निर्मळें| पांचही पालव मोकळे| आठही पाहर ||३६६||
अमृताची धार| तैसें उजूं अंतर| किंबहुना जो माहेर| या चिन्हांचें ||३६७||
तो पुरुष सुभटा| आर्जवाचा आंगवटा| जाण तेथेंचि घरटा| ज्ञानें केला ||३६८||
आतां ययावरी| गुरुभक्तीची परी| सांगों गा अवधारीं| चतुरनाथा ||३६९||
आघवियाचि दैवां| जन्मभूमि हे सेवा| जे ब्रह्म करी जीवा| शोच्यातेंहि ||३७०||
हें आचार्योपास्ती| प्रकटिजैल तुजप्रती| बैसों दे एकपांती| अवधानाची ||३७१||
तरी सकळ जळसमृद्धी| घेऊनि गंगा निघाली उदधी| कीं श्रुति हे महापदीं| पैठी जाहाली ||३७२||
नाना वेंटाळूनि जीवितें| गुणागुण उखितें| प्राणनाथा उचितें| दिधलें प्रिया ||३७३||
तैसें सबाह्य आपुलें| जेणें गुरुकुळीं वोपिलें| आपणपें केलें| भक्तीचें घर ||३७४||
गुरुगृह जये देशीं| तो देशुचि वसे मानसीं| विरहिणी कां जैसी| वल्लभातें ||३७५||
तियेकडोनि येतसे वारा| देखोनि धांवे सामोरा| आड पडे म्हणे घरा| बीजें कीजो ||३७६||
साचा प्रेमाचिया भुली| तया दिशेसीचि आवडे बोली| जीवु थानपती करूनि घाली| गुरुगृहीं जो ||३७७||
परी गुरुआज्ञा धरिलें| देह गांवीं असे एकलें| वांसरुवा लाविलें| दावें जैसें ||३७८||
म्हणे कैं हें बिरडें फिटेल| कैं तो स्वामी भेटेल| युगाहूनि वडील| निमिष मानी ||३७९||
ऐसेया गुरुग्रामींचें आलें| कां स्वयें गुरूंनींचि धाडिलें| तरी गतायुष्या जोडलें| आयुष्य जैसें ||३८०||
कां सुकतया अंकुरा- | वरी पडलिया पीयूषधारा| नाना अल्पोदकींचा सागरा| आला मासा ||३८१||
नातरी रंकें निधान देखिलें| कां आंधळिया डोळे उघडले| भणंगाचिया आंगा आलें| इंद्रपद ||३८२||
तैसें गुरुकुळाचेनि नांवें| महासुखें अति थोरावे| जें कोडेंही पोटाळवें| आकाश कां ||३८३||
पैं गुरुकुळीं ऐसी| आवडी जया देखसी| जाण ज्ञान तयापासीं| पाइकी करी ||३८४||
आणि अभ्यंतरीलियेकडे| प्रेमाचेनि पवाडे| श्रीगुरूंचें रूपडें| उपासी ध्यानीं ||३८५||
हृदयशुद्धीचिया आवारीं| आराध्यु तो निश्चल ध्रुव करी| मग सर्व भावेंसी परिवारीं| आपण होय ||३८६||
कां चैतन्यांचिये पोवळी- | माजीं आनंदाचिया राउळीं| श्रीगुरुलिंगा ढाळी| ध्यानामृत ||३८७||
उदयिजतां बोधार्का| बुद्धीची डाळ सात्त्विका| भरोनियां त्र्यंबका| लाखोली वाहे ||३८८||
काळशुद्धी त्रिकाळीं| जीवदशा धूप जाळीं| न्यानदीपें वोंवाळी| निरंतर ||३८९||
सामरस्याची रससोय| अखंड अर्पितु जाय| आपण भराडा होय| गुरु तो लिंग ||३९०||
नातरी जीवाचिये सेजे| गुरु कांतु करूनि भुंजे| ऐसीं प्रेमाचेनि भोजें| बुद्धी वाहे ||३९१||
कोणेएके अवसरीं| अनुरागु भरे अंतरीं| कीं तया नाम करी| क्षीराब्धी ||३९२||
तेथ ध्येयध्यान बहु सुख| तेंचि शेषतुका निर्दोख| वरी जलशयन देख| भावी गुरु ||३९३||
मग वोळगती पाय| ते लक्ष्मी आपण होय| गरुड होऊनि उभा राहे| आपणचि ||३९४||
नाभीं आपणचि जन्मे| ऐसें गुरुमूर्तिप्रेमें| अनुभवी मनोधर्में| ध्यानसुख ||३९५||
एकाधिये वेळें| गुरु माय करी भावबळें| मग स्तन्यसुखें लोळे| अंकावरी ||३९६||
नातरी गा किरीटी| चैतन्यतरुतळवटीं| गुरु धेनु आपण पाठीं| वत्स होय ||३९७||
गुरुकृपास्नेहसलिलीं| आपण होय मासोळी| कोणे एके वेळीं| हेंचि भावीं ||३९८||
गुरुकृपामृताचे वडप| आपण सेवावृत्तीचें होय रोप| ऐसेसे संकल्प| विये मन ||३९९||
चक्षुपक्षेवीण| पिलूं होय आपण| कैसें पैं अपारपण| आवडीचें ||४००||
गुरूतें पक्षिणी करी| चारा घे चांचूवरी| गुरु तारू धरी| आपण कांस ||४०१||
ऐसें प्रेमाचेनि थावें| ध्यानचि ध्यानातें प्रसवे| पूर्णसिंधु हेलावे| फुटती जैसे ||४०२||
किंबहुना यापरी| श्रीगुरुमूर्ती अंतरीं| भोगी आतां अवधारीं| बाह्यसेवा ||४०३||
तरी जिवीं ऐसे आवांके| म्हणे दास्य करीन निकें| जैसें गुरु कौतुकें| माग म्हणती ||४०४||
तैसिया साचा उपास्ती| गोसावी प्रसन्न होती| तेथ मी विनंती| ऐसी करीन ||४०५||
म्हणेन तुमचा देवा| परिवारु जो आघवा| तेतुलें रूपें होआवा| मीचि एकु ||४०६||
आणि उपकरतीं आपुलीं| उपकरणें आथि जेतुलीं| माझीं रूपें तेतुलीं| होआवीं स्वामी ||४०७||
ऐसा मागेन वरु| तेथ हो म्हणती श्रीगुरु| मग तो परिवारु| मीचि होईन ||४०८||
उपकरणजात सकळिक| तें मीचि होईन एकैक| तेव्हां उपास्तीचें कवतिक| देखिजैल ||४०९||
गुरु बहुतांची माये| परी एकलौती होऊनि ठाये| तैसें करूनि आण वायें| कृपे तिये ||४१०||
तया अनुरागा वेधु लावीं| एकपत्नीव्रत घेववीं| क्षेत्रसंन्यासु करवीं| लोभाकरवीं ||४११||
चतुर्दिक्षु वारा| न लाहे निघों बाहिरा| तैसा गुरुकृपें पांजिरा| मीचि होईन ||४१२||
आपुलिया गुणांचीं लेणीं| करीन गुरुसेवे स्वामिणी| हें असो होईन गंवसणी| मीचि भक्तीसी ||४१३||
गुरुस्नेहाचिये वृष्टी| मी पृथ्वी होईन तळवटीं| ऐसिया मनोरथांचिया सृष्टी| अनंता रची ||४१४||
म्हणे श्रीगुरूंचें भुवन| आपण मी होईन| आणि दास होऊनि करीन| दास्य तेथिंचें ||४१५||
निर्गमागमीं दातारें| जे वोलांडिजती उंबरे| ते मी होईन आणि द्वारें| द्वारपाळु ||४१६||
पाउवा मी होईन| तियां मीचि लेववीन| छत्र मी आणि करीन| बारीपण ||४१७||
मी तळ उपरु जाणविता| चंवरु धरु हातु देता| स्वामीपुढें खोलता| होईन मी ||४१८||
मीचि होईन सागळा| करूं सुईन गुरुळां| सांडिती तो नेपाळा| पडिघा मीचि ||४१९||
हडप मी वोळगेन| मीचि उगाळु घेईन| उळिग मी करीन| आंघोळीचें ||४२०||
होईन गुरूंचें आसन| अलंकार परिधान| चंदनादि होईन| उपचार ते ||४२१||
मीचि होईन सुआरु| वोगरीन उपहारु| आपणपें श्रीगुरु| वोंवाळीन ||४२२||
जे वेळीं देवो आरोगिती| तेव्हां पांतीकरु मीचि पांतीं| मीचि होईन पुढती| देईन विडा ||४२३||
ताट मी काढीन| सेज मी झाडीन| चरणसंवाहन| मीचि करीन ||४२४||
सिंहासन होईन आपण| वरी श्रीगुरु करिती आरोहण| होईन पुरेपण| वोळगेचें ||४२५||
श्रीगुरूंचें मन| जया देईल अवधान| तें मी पुढां होईन| चमत्कारु ||४२६||
तया श्रवणाचे आंगणीं| होईन शब्दांचिया आक्षौहिणी| स्पर्श होईन घसणी| आंगाचिया ||४२७||
श्रीगुरूंचे डोळे| अवलोकनें स्नेहाळें| पाहाती तियें सकळें| होईन रूपें ||४२८||
तिये रसने जो जो रुचेल| तो तो रसु म्यां होईजैल| गंधरूपें कीजेल| घ्राणसेवा ||४२९||
एवं बाह्यमनोगत| श्रीगुरुसेवा समस्त| वेंटाळीन वस्तुजात| होऊनियां ||४३०||
जंव देह हें असेल| तंव वोळगी ऐसी कीजेल| मग देहांतीं नवल| बुद्धि आहे ||४३१||
इये शरीरींची माती| मेळवीन तिये क्षिती| जेथ श्रीचरण उभे ठाती| श्रीगुरूंचे ||४३२||
माझा स्वामी कवतिकें| स्पर्शीजति जियें उदकें| तेथ लया नेईन निकें| आपीं आप ||४३३||
श्रीगुरु वोंवाळिजती| कां भुवनीं जे उजळिजती| तयां दीपांचिया दीप्तीं| ठेवीन तेज ||४३४||
चवरी हन विंजणा| तेथ लयो करीन प्राणा| मग आंगाचा वोळंगणा| होईन मी ||४३५||
जिये जिये अवकाशीं| श्रीगुरु असती परिवारेंसीं| आकाश लया आकाशीं| नेईन तिये ||४३६||
परी जीतु मेला न संडीं| निमेषु लोकां न धाडीं| ऐसेनि गणावया कोडी| कल्पांचिया ||४३७||
येतुलेंवरी धिंवसा| जयाचिया मानसा| आणि करूनियांहि तैसा| अपारु जो ||४३८||
रात्र दिवस नेणे| थोडें बहु न म्हणें| म्हणियाचेनि दाटपणें| साजा होय ||४३९||
तो व्यापारु येणें नांवें| गगनाहूनि थोरावे| एकला करी आघवें| एकेचि काळीं ||४४०||
हृदयवृत्ती पुढां| आंगचि घे दवडा| काज करी होडा| मानसेंशीं ||४४१||
एकादियां वेळा| श्रीगुरुचिया खेळा| लोण करी सकळा| जीविताचें ||४४२||
जो गुरुदास्यें कृशु| जो गुरुप्रेमें सपोषु| गुरुआज्ञे निवासु| आपणचि जो ||४४३||
जो गुरु कुळें सुकुलीनु| जो गुरुबंधुसौजन्यें सुजनु| जो गुरुसेवाव्यसनें सव्यसनु| निरंतर ||४४४||
गुरुसंप्रदायधर्म| तेचि जयाचे वर्णाश्रम| गुरुपरिचर्या नित्यकर्म| जयाचें गा ||४४५||
गुरु क्षेत्र गुरु देवता| गुरु माय गुरु पिता| जो गुरुसेवेपरौता| मार्ग नेणें ||४४६||
श्रीगुरूचे द्वार| तें जयाचें सर्वस्व सार| गुरुसेवकां सहोदर| प्रेमें भजे ||४४७||
जयाचें वक्त्र| वाहे गुरुनामाचे मंत्र| गुरुवाक्यावांचूनि शास्त्र| हातीं न शिवे ||४४८||
शिवतलें गुरुचरणीं| भलतैसें हो पाणी| तया सकळ तीर्थें आणी| त्रैलोक्यींचीं ||४४९||
श्रीगुरूचें उशिटें| लाहे जैं अवचटें| तैं तेणें लाभें विटे| समाधीसी ||४५०||
कैवल्यसुखासाठीं| परमाणु घे किरीटी| उधळती पायांपाठीं| चालतां जे ||४५१||
हें असो सांगावें किती| नाहीं पारु गुरुभक्ती| परी गा उत्क्रांतमती| कारण हें ||४५२||
जया इये भक्तीची चाड| जया इये विषयींचें कोड| जो हे सेवेवांचून गोड| न मनी कांहीं ||४५३||
तो तत्त्वज्ञाचा ठावो| ज्ञाना तेणेंचि आवो| हें असो तो देवो| ज्ञान भक्तु ||४५४||
हें जाण पां साचोकारें| तेथ ज्ञान उघडेनि द्वारें| नांदत असे जगा पुरे| इया रीती ||४५५||
जिये गुरुसेवेविखीं| माझा जीव अभिलाखी| म्हणौनि सोयचुकी| बोली केली ||४५६||
एऱ्हवीं असतां हातीं खुळा| भजनावधानीं आंधळा| परिचर्येलागीं पांगुळा- | पासूनि मंदु ||४५७||
गुरुवर्णनीं मुका| आळशी पोशिजे फुका| परी मनीं आथि निका| सानुरागु ||४५८||
तेणेंचि पैं कारणें| हें स्थूळ पोसणें| पडलें मज म्हणे| ज्ञानदेवो ||४५९||
परि तो बोलु उपसाहावा| आणि वोळगे अवसरु देयावा| आतां म्हणेन जी बरवा| ग्रंथार्थुचि ||४६०||
परिसा परिसा श्रीकृष्णु| जो भूतभारसहिष्णु| तो बोलतसे विष्णु| पार्थु ऐके ||४६१||
म्हणे शुचित्व गा ऐसें| जयापाशीं दिसे| आंग मन जैसें| कापुराचें ||४६२||
कां रत्नाचें दळवाडें| तैसें सबाह्य चोखडें| आंत बाहेरि एकें पाडें| सूर्यु जैसा ||४६३||
बाहेरीं कर्में क्षाळला| भितरीं ज्ञानें उजळला| इहीं दोहीं परीं आला| पाखाळा एका ||४६४||
मृत्तिका आणि जळें| बाह्य येणें मेळें| निर्मळु होय बोलें| वेदाचेनी ||४६५||
भलतेथ बुद्धीबळी| रजआरिसा उजळी| सौंदणी फेडी थिगळी| वस्त्रांचिया ||४६६||
किंबहुना इयापरी| बाह्य चोख अवधारीं| आणि ज्ञानदीपु अंतरीं| म्हणौनि शुद्ध ||४६७||
एऱ्हवीं तरी पंडुसुता| आंत शुद्ध नसतां| बाहेरि कर्म तो तत्त्वतां| विटंबु गा ||४६८||
मृत जैसा शृंगारिला| गाढव तीर्थीं न्हाणिला| कडुदुधिया माखिला| गुळें जैसा ||४६९||
वोस गृहीं तोरण बांधिलें| कां उपवासी अन्नें लिंपिलें| कुंकुमसेंदुर केलें| कांतहीनेनें ||४७०||
कळस ढिमाचे पोकळ| जळो वरील तें झळाळ| काय करूं चित्रींव फळ| आंतु शेण ||४७१||
तैसें कर्मवरिचिलेंकडां| न सरे थोर मोलें कुडा| नव्हे मदिरेचा घडा| पवित्र गंगे ||४७२||
म्हणौनि अंतरीं ज्ञान व्हावें| मग बाह्य लाभेल स्वभावें| वरी ज्ञान कर्में संभवे| ऐसें कें जोडे ? ||४७३||
यालागी बाह्य विभागु| कर्में धुतला चांगु| आणि ज्ञानें फिटला वंगु| अंतरींचा ||४७४||
तेथ अंतर बाह्य गेले| निर्मळत्व एक जाहलें| किंबहुना उरलें| शुचित्वचि ||४७५||
म्हणौनि सद्भाव जीवगत| बाहेरी दिसती फांकत| जे स्फटिकगृहींचे डोलत| दीप जैसे ||४७६||
विकल्प जेणें उपजे| नाथिली विकृति निपजे| अप्रवृत्तीचीं बीजें| अंकुर घेती ||४७७||
तें आइके देखे अथवा भेटे| परी मनीं कांहींचि नुमटे| मेघरंगें न कांटे| व्योम जैसें ||४७८||
एऱ्हवीं इंद्रियांचेनि मेळें| विषयांवरी तरी लोळे| परी विकाराचेनि विटाळें| लिंपिजेना ||४७९||
भेटलिया वाटेवरी| चोखी आणि माहारी| तेथ नातळें तियापरी| राहाटों जाणें ||४८०||
कां पतिपुत्रांतें आलिंगी| एकचि ते तरुणांगी| तेथ पुत्रभावाच्या आंगीं| न रिगे कामु ||४८१||
तैसें हृदय चोख| संकल्पविकल्पीं सनोळख| कृत्याकृत्य विशेख| फुडें जाणें ||४८२||
पाणियें हिरा न भिजे| आधणीं हरळु न शिजे| तैसी विकल्पजातें न लिंपिजे| मनोवृत्ती ||४८३||
तया नांव शुचिपण| पार्था गा संपूर्ण| हें देखसी तेथ जाण| ज्ञान असे ||४८४||
आणि स्थिरता साचें| घर रिगाली जयाचें| तो पुरुष ज्ञानाचें| आयुष्य गा ||४८५||
देह तरी वरिचिलीकडे| आपुलिया परी हिंडे| परी बैसका न मोडे| मानसींची ||४८६||
वत्सावरूनि धेनूचें| स्नेह राना न वचे| नव्हती भोग सतियेचे| प्रेमभोग ||४८७||
कां लोभिया दूर जाये| परी जीव ठेविलाचि ठाये| तैसा देहो चाळितां नव्हे| चळु चित्ता ||४८८||
जातया अभ्रासवें| जैसें आकाश न धांवे| भ्रमणचक्रीं न भंवे| ध्रुव जैसा ||४८९||
पांथिकाचिया येरझारा| सवें पंथु न वचे धनुर्धरा| कां नाहीं जेवीं तरुवरा| येणें जाणें ||४९०||
तैसा चळणवळणात्मकीं| असोनि ये पांचभौतिकीं| भूतोर्मी एकी| चळिजेना ||४९१||
वाहुटळीचेनि बळें| पृथ्वी जैसी न ढळे| तैसा उपद्रव उमाळें| न लोटे जो ||४९२||
दैन्यदुःखीं न तपे| भवशोकीं न कंपे| देहमृत्यु न वासिपे| पातलेनी ||४९३||
आर्ति आशा पडिभरें| वय व्याधी गजरें| उजू असतां पाठिमोरें| नव्हे चित्त ||४९४||
निंदा निस्तेज दंडी| कामलोभा वरपडी| परी रोमा नव्हे वांकुडी| मानसाची ||४९५||
आकाश हें वोसरो| पृथ्वी वरि विरो| परि नेणे मोहरों| चित्तवृत्ती ||४९६||
हाती हाला फुलीं| पासवणा जेवीं न घाली| तैसा न लोटे दुर्वाक्यशेलीं| शेलिला सांता ||४९७||
क्षीरार्णवाचिया कल्लोळीं| कंपु नाहीं मंदराचळीं| कां आकाश न जळे जाळीं| वणवियाच्या ||४९८||
तैशा आल्या गेल्या ऊर्मी| नव्हे गजबज मनोधर्मीं| किंबहुना धैर्य क्षमी| कल्पांतींही ||४९९||
परी स्थैर्य ऐसी भाष| बोलिजे जे सविशेष| ते हे दशा गा देख| देखणया ||५००||
हें स्थैर्य निधडें| जेथ आंगें जीवें जोडे| तें ज्ञानाचें उघडें| निधान साचें ||५०१||
आणि इसाळु जैसा घरा| कां दंदिया हतियेरा| न विसंबे भांडारा| बद्धकु जैसा ||५०२||
कां एकलौतिया बाळका- | वरि पडौनि ठाके अंबिका| मधुविषीं मधुमक्षिका| लोभिणी जैसी ||५०३||
अर्जुना जो यापरी| अंतःकरण जतन करी| नेदी उभें ठाकों द्वारीं| इंद्रियांच्या ||५०४||
म्हणे काम बागुल ऐकेल| हे आशा सियारी देखैल| तरि जीवा टेंकैल| म्हणौनि बिहे ||५०५||
बाहेरी धीट जैसी| दाटुगा पति कळासी| करी टेहणी तैसी| प्रवृत्तीसीं ||५०६||
सचेतनीं वाणेपणें| देहासकट आटणें| संयमावरीं करणें| बुझूनि घाली ||५०७||
मनाच्या महाद्वारीं| प्रत्याहाराचिया ठाणांतरीं| जो यम दम शरीरीं| जागवी उभे ||५०८||
आधारीं नाभीं कंठीं| बंधत्रयाचीं घरटीं| चंद्रसूर्य संपुटीं| सुये चित्त ||५०९||
समाधीचे शेजेपासीं| बांधोनि घाली ध्यानासी| चित्त चैतन्य समरसीं| आंतु रते ||५१०||
अगा अंतःकरणनिग्रहो जो| तो हा हें जाणिजो| हा आथी तेथ विजयो| ज्ञानाचा पैं ||५११||
जयाची आज्ञा आपण| शिरीं वाहे अंतःकरण| मनुष्याकारें जाण| ज्ञानचि तो ||५१२||
इंद्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च |
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ||८||
आणि विषयांविखीं| वैराग्याची निकी| पुरवणी मानसीं कीं| जिती आथी ||५१३||
वमिलेया अन्ना| लाळ न घोंटी जेवीं रसना| कांआंग न सूये आलिंगना| प्रेताचिया ||५१४||
विष खाणें नागवे| जळत घरीं न रिगवे| व्याघ्रविवरां न वचवे| वस्ती जेवीं ||५१५||
धडाडीत लोहरसीं| उडी न घालवे जैसी| न करवे उशी| अजगराची ||५१६||
अर्जुना तेणें पाडें| जयासी विषयवार्ता नावडे| नेदी इंद्रियांचेनि तोंडें| कांहींच जावों ||५१७||
जयाचे मनीं आलस्य| देही अतिकार्श्य| शमदमीं सौरस्य| जयासि गा ||५१८||
तपोव्रतांचा मेळावा| जयाच्या ठायीं पांडवा| युगांत जया गांवा- | आंतु येतां ||५१९||
बहु योगाभ्यासीं हांव| विजनाकडे धांव| न साहे जो नांव| संघाताचें ||५२०||
नाराचांचीं आंथुरणें| पूयपंकीं लोळणें| तैसें लेखी भोगणें| ऐहिकींचें ||५२१||
आणि स्वर्गातें मानसें| ऐकोनि मानी ऐसें| कुहिलें पिशित जैसें| श्वानाचें कां ||५२२||
तें हें विषयवैराग्य| जें आत्मलाभाचें सभाग्य| येणें ब्रह्मानंदा योग्य| जीव होती ||५२३||
ऐसा उभयभोगीं त्रासु| देखसी जेथ बहुवसु| तेथ जाण रहिवासु| ज्ञानाचा तूं ||५२४||
आणि सचाडाचिये परी| इष्टापूर्तें करी| परी केलेंपण शरीरीं| वसों नेदी ||५२५||
वर्णाश्रमपोषकें| कर्में नित्यनैमित्तिकें| तयामाजीं कांहीं न ठके| आचरतां ||५२६||
परि हें मियां केलें| कीं हें माझेनि सिद्धी गेलें| ऐसें नाहीं ठेविलें| वासनेमाजीं ||५२७||
जैसें अवचितपणें| वायूसि सर्वत्र विचरणें| कां निरभिमान उदैजणें| सूर्याचें जैसें ||५२८||
कां श्रुति स्वभावता बोले| गंगा काजेंविण चाले| तैसें अवष्टंभहीन भलें| वर्तणें जयाचें ||५२९||
ऋतुकाळीं तरी फळती| परी फळलों हें नेणती| तयां वृक्षांचिये ऐसी वृत्ती| कर्मीं सदा ||५३०||
एवं मनीं कर्मीं बोलीं| जेथ अहंकारा उखी जाहली| एकावळीची काढिली| दोरी जैसी ||५३१||
संबंधेंवीण जैसीं| अभ्रें असती आकाशीं| देहीं कर्में तैसीं| जयासि गा ||५३२||
मद्यपाआंगींचें वस्त्र| लेपाहातींचें शस्त्र| बैलावरी शास्त्र| बांधलें आहे ||५३३||
तया पाडें देहीं| जया मी आहे हे सेचि नाहीं| निरहंकारता पाहीं| तया नांव ||५३४||
हें संपूर्ण जेथें दिसे| तेथेंचि ज्ञान असे| इयेविषीं अनारिसें| बोलों नये ||५३५||
आणि जन्ममृत्युजरादुःखें| व्याधिवार्धक्यकलुषें| तियें आंगा न येतां देखे| दुरूनि जो ||५३६||
साधकु विवसिया| कां उपसर्गु योगिया| पावे उणेयापुरेया| वोथंबा जेवीं ||५३७||
वैर जन्मांतरींचें| सर्पा मनौनि न वचे| तेवीं अतीता जन्माचें| उणें जो वाहे ||५३८||
डोळां हरळ न विरे| घाईं कोत न जिरे| तैसें काळींचें न विसरे| जन्मदुःख ||५३९||
म्हणे पूयगर्ते रिगाला| अहा मूत्ररंध्रें निघाला| कटा रे मियां चाटिला| कुचस्वेदु ||५४०||
ऐसाइसिया परी| जन्माचा कांटाळा धरी| म्हणे आतां तें मी न करीं| जेणें ऐसें होय ||५४१||
हारी उमचावया| जुंवारी जैसा ये डाया| कीं वैरा बापाचेया| पुत्र जचे ||५४२||
मारिलियाचेनि रागें| पाठीचा जेवीं सूड मागें| तेणें आक्षेपें लागे| जन्मापाठीं ||५४३||
परी जन्मती ते लाज| न सांडी जयाचें निज| संभाविता निस्तेज| न जिरे जेवीं ||५४४||
आणि मृत्यु पुढां आहे| तोचि कल्पांतीं कां पाहे| परी आजीचि होये| सावधु जो ||५४५||
माजीं अथांव म्हणता| थडियेचि पंडुसुता| पोहणारा आइता| कासे जेवीं ||५४६||
कां न पवतां रणाचा ठावो| सांभाळिजे जैसा आवो| वोडण सुइजे घावो| न लागतांचि ||५४७||
पाहेचा पेणा वाटवधा| तंव आजीचि होईजे सावधा| जीवु न वचतां औषधा| धांविजे जेवीं ||५४८||
येऱ्हवीं ऐसें घडे| जो जळतां घरीं सांपडे| तो मग न पवाडे| कुहा खणों ||५४९||
चोंढिये पाथरु गेला| तैसेनि जो बुडाला| तो बोंबेहिसकट निमाला| कोण सांगे ||५५०||
म्हणौनि समर्थेंसीं वैर| जया पडिलें हाडखाइर| तो जैसा आठही पाहर| परजून असे ||५५१||
नातरी केळवली नोवरी| का संन्यासी जियापरी| तैसा न मरतां जो करी| मृत्युसूचना ||५५२||
पैं गा जो ययापरी| जन्मेंचि जन्म निवारी| मरणें मृत्यु मारी| आपण उरे ||५५३||
तया घरीं ज्ञानाचें| सांकडें नाहीं साचें| जया जन्ममृत्युचें| निमालें शल्य ||५५४||
आणि तयाचिपरी जरा| न टेंकतां शरीरा| तारुण्याचिया भरा- | माजीं देखे ||५५५||
म्हणे आजिच्या अवसरीं| पुष्टि जे शरीरीं| ते पाहे होईल काचरी| वाळली जैसी ||५५६||
निदैव्याचे व्यवसाय| तैसे ठाकती हातपाय| अमंत्र्या राजाची परी आहे| बळा यया ||५५७||
फुलांचिया भोगा- | लागीं प्रेम टांगा| तें करेयाचा गुडघा| तैसें होईल ||५५८||
वोढाळाच्या खुरीं| आखरुआतें बुरी| ते दशा माझ्या शिरीं| पावेल गा ||५५९||
पद्मदळेंसी इसाळे| भांडताति हे डोळे| ते होती पडवळें| पिकलीं जैसीं ||५६०||
भंवईचीं पडळें| वोमथती सिनसाळे| उरु कुहिजैल जळें| आंसुवाचेनि ||५६१||
जैसें बाभुळीचें खोड| गिरबडूनि जाती सरड| तैसें पिचडीं तोंड| सरकटिजैल ||५६२||
रांधवणी चुलीपुढें| पऱ्हे उन्मादती खातवडे| तैसींचि यें नाकाडें| बिडबिडती ||५६३||
तांबुलें वोंठ र्ॐ| हांसतां दांत द्ॐ| सनागर मिरऊं| बोल जेणें ||५६४||
तयाचि पाहे या तोंडा| येईल जळंबटाचा लोंढा| इया उमळती दाढा| दातांसहित ||५६५||
कुळवाडी रिणें दाटली| कां वांकडिया ढोरें बैसलीं| तैसी नुठी कांहीं केली| जीभचि हे ||५६६||
कुसळें कोरडीं| वारेनि जाती बरडीं| तैसा आपदा तोंडीं| दाढियेसी ||५६७||
आषाढींचेनि जळें| जैसीं झिरपती शैलाचीं मौळें| तैसें खांडीहूनि लाळे| पडती पूर ||५६८||
वाचेसि अपवाडु| कानीं अनुघडु| पिंड गरुवा माकडु| होईल हा ||५६९||
तृणाचें बुझवणें| आंदोळे वारेनगुणें| तैसें येईल कांपणें| सर्वांगासी ||५७०||
पायां पडती वेंगडी| हात वळती मुरकुंडी| बरवपणा बागडी| नाचविजैल ||५७१||
मळमूत्रद्वारें| होऊनि ठाती खोंकरें| नवसियें होती इतरें| माझियां निधनीं ||५७२||
देखोनि थुंकील जगु| मरणाचा पडैल पांगु| सोइरियां उबगु| येईल माझा ||५७३||
स्त्रियां म्हणती विवसी| बाळें जाती मूर्छी| किंबहुना चिळसी| पात्र होईन ||५७४||
उभळीचा उजगरा| सेजारियां साइलिया घरा| शिणवील म्हणती म्हातारा| बहुतांतें हा ||५७५||
ऐसी वार्धक्याची सूचणी| आपणिया तरुणपणीं| देखे मग मनीं| विटे जो गा ||५७६||
म्हणे पाहे हें येईल| आणि आतांचें भोगितां जाईल| मग काय उरेल| हितालागीं ? ||५७७||
म्हणौनि नाइकणें पावे| तंव आईकोनि घाली आघवें| पंगु न होता जावें| तेथ जाय ||५७८||
दृष्टी जंव आहे| तंव पाहावें तेतुलें पाहे| मूकत्वा आधीं वाचा वाहे| सुभाषितें ||५७९||
हात होती खुळे| हें पुढील मोटकें कळे| आणि करूनि घाली सकळें| दानादिकें ||५८०||
ऐसी दशा येईल पुढें| तैं मन होईल वेडें| तंव चिंतूनि ठेवी चोखडें| आत्मज्ञान ||५८१||
जैं चोर पाहे झोंबती| तंव आजीचि रुसिजे संपत्ती| का झांकाझांकी वाती| न वचतां कीजे ||५८२||
तैसें वार्धक्य यावें| मग जें वायां जावें| तें आतांचि आघवें| सवतें करीं ||५८३||
आतां मोडूनि ठेलीं दुर्गें| कां वळित धरिलें खगें| तेथ उपेक्षूनि जो निघे| तो नागवला कीं ? ||५८४||
तैसें वृद्धाप्य होये| आलेपण तें वायां जाये| जे तो शतवृद्ध आहे| नेणों कैंचा ||५८५||
झाडिलींचि कोळें झाडी| तया न फळे जेवीं बोंडीं| जाहला अग्नि तरी राखोंडी| जाळील काई ? ||५८६||
म्हणौनि वार्धक्याचेनि आठवें| वार्धक्या जो नागवे| तयाच्या ठायीं जाणावें| ज्ञान आहे ||५८७||
तैसेंचि नाना रोग| पडिघाती ना जंव पुढां आंग| तंव आरोग्याचे उपेग| करूनि घाली ||५८८||
सापाच्या तोंडी| पडली जे उंडी| ते लाऊनि सांडी| प्रबुद्धु जैसा ||५८९||
तैसा वियोगें जेणें दुःखे| विपत्ति शोक पोखे| तें स्नेह सांडूनि सुखें| उदासु होय ||५९०||
आणि जेणें जेणें कडे| दोष सूतील तोंडें| तयां कर्मरंध्री गुंडे| नियमाचे दाटी ||५९१||
ऐसाइसिया आइती| जयाची परी असती| तोचि ज्ञानसंपत्ती- | गोसावी गा ||५९२||
आतां आणीकही एक| लक्षण अलौकिक| सांगेन आइक| धनंजया ||५९३||
असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु |
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ||९||
तरि जो या देहावरी| उदासु ऐसिया परी| उखिता जैसा बिढारीं| बैसला आहे ||५९४||
कां झाडाची साउली| वाटे जातां मीनली| घरावरी तेतुली| आस्था नाहीं ||५९५||
साउली सरिसीच असे| परी असे हें नेणिजे जैसें| स्त्रियेचें तैसें| लोलुप्य नाहीं ||५९६||
आणि प्रजा जे जाली| तियें वस्ती कीर आलीं| कां गोरुवें बैसलीं| रुखातळीं ||५९७||
जो संपत्तीमाजी असतां| ऐसा गमे पंडुसुता| जैसा कां वाटे जातां| साक्षी ठेविला ||५९८||
किंबहुना पुंसा| पांजरियामाजीं जैसा| वेदाज्ञेसी तैसा| बिहूनि असे ||५९९||
एऱ्हवीं दारागृहपुत्रीं| नाहीं जया मैत्री| तो जाण पां धात्री| ज्ञानासि गा ||६००||
महासिंधू जैसे| ग्रीष्मवर्षीं सरिसे| इष्टानिष्ट तैसें| जयाच्या ठायीं ||६०१||
कां तिन्ही काळ होतां| त्रिधा नव्हे सविता| तैसा सुखदुःखीं चित्ता| भेदु नाहीं ||६०२||
जेथ नभाचेनि पाडें| समत्वा उणें न पडे| तेथ ज्ञान रोकडें| वोळख तूं ||६०३||
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१०||
आणि मीवांचूनि कांहीं| आणिक गोमटें नाहीं| ऐसा निश्चयोचि तिहीं| जयाचा केला ||६०४||
शरीर वाचा मानस| पियालीं कृतनिश्चयाचा कोश| एक मीवांचूनि वास| न पाहती आन ||६०५||
किंबहुना निकट निज| जयाचें जाहलें मज| तेणें आपणयां आम्हां सेज| एकी केली ||६०६||
रिगतां वल्लभापुढें| नाहीं आंगीं जीवीं सांकडें| तिये कांतेचेनि पाडें| एकसरला जो ||६०७||
मिळोनि मिळतचि असे| समुद्रीं गंगाजळ जैसें| मी होऊनि मज तैसें| सर्वस्वें भजती ||६०८||
सूर्याच्या होण्यां होईजे| कां सूर्यासवेंचि जाइजे| हें विकलेपण साजे| प्रभेसि जेवीं ||६०९||
पैं पाणियाचिये भूमिके| पाणी तळपे कौतुकें| ते लहरी म्हणती लौकिकें| एऱ्हवीं तें पाणी ||६१०||
जो अनन्यु यापरी| मी जाहलाहि मातें वरी| तोचि तो मूर्तधारी| ज्ञान पैं गा ||६११||
आणि तीर्थें धौतें तटें| तपोवनें चोखटें| आवडती कपाटें| वसवूं जया ||६१२||
शैलकक्षांचीं कुहरें| जळाशय परिसरें| अधिष्ठी जो आदरें| नगरा न ये ||६१३||
बहु एकांतावरी प्रीति| जया जनपदाची खंती| जाण मनुष्याकारें मूर्ती| ज्ञानाची तो ||६१४||
आणिकहि पुढती| चिन्हें गा सुमती| ज्ञानाचिये निरुती- | लागीं सांगों ||६१५||
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |
एतद्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा ||११||
तरी परमात्मा ऐसें| जें एक वस्तु असे| तें जया दिसें| ज्ञानास्तव ||६१६||
तें एकवांचूनि आनें| जियें भवस्वर्गादि ज्ञानें| तें अज्ञान ऐसा मनें| निश्चयो केला ||६१७||
स्वर्गा जाणें हें सांडी| भवविषयीं कान झाडी| दे अध्यात्मज्ञानीं बुडी| सद्भावाची ||६१८||
भंगलिये वाटे| शोधूनिया अव्हांटे| निघिजे जेवीं नीटें| राजपंथें ||६१९||
तैसें ज्ञानजातां करी| आघवेंचि एकीकडे सारी| मग मन बुद्धि मोहरी| अध्यात्मज्ञानीं ||६२०||
म्हणे एक हेंचि आथी| येर जाणणें ते भ्रांती| ऐसी निकुरेंसी मती| मेरु होय ||६२१||
एवं निश्चयो जयाचा| द्वारीं आध्यात्मज्ञानाचा| ध्रुव देवो गगनींचा| तैसा राहिला ||६२२||
तयाच्या ठायीं ज्ञान| या बोला नाहीं आन| जे ज्ञानीं बैसलें मन| तेव्हांचि तें तो मी ||६२३||
तरी बैसलेपणें जें होये| बैसतांचि बोलें न होये| तरी ज्ञाना तया आहे| सरिसा पाडु ||६२४||
आणि तत्त्वज्ञान निर्मळ| फळे जें एक फळ| तें ज्ञेयही वरी सरळ| दिठी जया ||६२५||
एऱ्हवीं बोधा आलेनि ज्ञानें| जरी ज्ञेय न दिसेचि मनें| तरी ज्ञानलाभुही न मने| जाहला सांता ||६२६||
आंधळेनि हातीं दिवा| घेऊनि काय करावा ? | तैसा ज्ञाननिश्चयो आघवा| वायांचि जाय ||६२७||
जरि ज्ञानाचेनि प्रकाशें| परतत्त्वीं दिठी न पैसे| ते स्फूर्तीचि असे| अंध होऊनी ||६२८||
म्हणौनि ज्ञान जेतुलें दावीं| तेतुली वस्तुचि आघवी| तें देखे ऐशी व्हावी| बुद्धि चोख ||६२९||
यालागीं ज्ञानें निर्दोखें| दाविलें ज्ञेय देखे| तैसेनि उन्मेखें| आथिला जो ||६३०||
जेवढी ज्ञानाची वृद्धी| तेवढीच जयाची बुद्धी| तो ज्ञान हे शब्दीं| करणें न लगे ||६३१||
पैं ज्ञानाचिये प्रभेसवें| जयाची मती ज्ञेयीं पावे| तो हातधरणिया शिवे| परतत्त्वातें ||६३२||
तोचि ज्ञान हें बोलतां| विस्मो कवण पंडुसुता ? | काय सवितयातें सविता| म्हणावें असें ? ||६३३||
तंव श्रोतें म्हणती असो| न सांगें तयाचा अतिसो| ग्रंथोक्ती तेथ आडसो| घालितोसी कां ? ||६३४||
तुझा हाचि आम्हां थोरु| वक्तृत्वाचा पाहुणेरु| जे ज्ञानविषो फारु| निरोपिला ||६३५||
रसु होआवा अतिमात्रु| हा घेतासि कविमंत्रु| तरी अवंतूनि शत्रु| करितोसि कां गा ? ||६३६||
ठायीं बैसतिये वेळे| जे रससोय घेऊनि पळे| तियेचा येरु वोडव मिळे| कोणा अर्था ? ||६३७||
आघवाचि विषयीं भादी| परी सांजवणीं टेंकों नेदी| ते खुरतोडी नुसधी| पोषी कवण ? ||६३८||
तैसी ज्ञानीं मती न फांके| येर जल्पती नेणों केतुकें| परि तें असो निकें| केलें तुवां ||६३९||
जया ज्ञानलेशोद्देशें| कीजती योगादि सायासें| तें धणीचें आथी तुझिया ऐसें| निरूपण ||६४०||
अमृताची सातवांकुडी| लागो कां अनुघडी| सुखाच्या दिवसकोडी| गणिजतु कां ||६४१||
पूर्णचंद्रेंसीं राती| युग एक असोनि पहाती| तरी काय पाहात आहाती| चकोर ते ? ||६४२||
तैसें ज्ञानाचें बोलणें| आणि येणें रसाळपणें| आतां पुरे कोण म्हणे ? | आकर्णितां ||६४३||
आणि सभाग्यु पाहुणा ये| सुभगाचि वाढती होये| तैं सरों नेणें रससोये| ऐसें आथी ||६४४||
तैसा जाहला प्रसंगु| जे ज्ञानीं आम्हांसि लागु| आणि तुजही अनुरागु| आथि तेथ ||६४५||
म्हणौनि यया वाखाणा- | पासीं से आली चौगुणा| ना म्हणों नयेसि देखणा ? | होसी ज्ञानी ||६४६||
तरी आतां ययावरी| प्रज्ञेच्या माजघरीं| पदें साच करीं| निरूपणीं ||६४७||
या संतवाक्यासरिसें| म्हणितलें निवृत्तिदासें| माझेंही जी ऐसें| मनोगत ||६४८||
यावरी आतां तुम्हीं| आज्ञापिला स्वामी| तरी वायां वागू मी| वाढों नेदी ||६४९||
एवं इयें अवधारा| ज्ञानलक्षणें अठरा| श्रीकृष्णें धनुर्धरा| निरूपिली ||६५०||
मग म्हणें या नांवें| ज्ञान एथ जाणावें| हे स्वमत आणि आघवें| ज्ञानियेही म्हणती ||६५१||
करतळावरी वाटोळा| डोलतु देखिजे आंवळा| तैसें ज्ञान आम्हीं डोळां| दाविलें तुज ||६५२||
आतां धनंजया महामती| अज्ञान ऐसी वदंती| तेंही सांगों व्यक्ती| लक्षणेंसीं ||६५३||
एऱ्हवीं ज्ञान फुडें जालिया| अज्ञान जाणवे धनंजया| जें ज्ञान नव्हे तें अपैसया| अज्ञानचि ||६५४||
पाहें पां दिवसु आघवा सरे| मग रात्रीची वारी उरे| वांचूनि कांहीं तिसरें| नाहीं जेवीं ||६५५||
तैसें ज्ञान जेथ नाहीं| तेंचि अज्ञान पाहीं| तरी सांगों कांहीं कांहीं| चिन्हें तियें ||६५६||
तरी संभावने जिये| जो मानाची वाट पाहे| सत्कारें होये| तोषु जया ||६५७||
गर्वें पर्वताचीं शिखरें| तैसा महत्त्वावरूनि नुतरे| तयाचिया ठायीं पुरे| अज्ञान आहे ||६५८||
आणि स्वधर्माची मांगळी| बांधे वाचेच्या पिंपळीं| उभिला जैसा देउळीं| जाणोनि कुंचा ||६५९||
घाली विद्येचा पसारा| सूये सुकृताचा डांगोरा| करी तेतुलें मोहरा| स्फीतीचिया ||६६०||
आंग वरिवरी चर्ची| जनातें अभ्यर्चितां वंची| तो जाण पां अज्ञानाची| खाणी एथ ||६६१||
आणि वन्ही वनीं विचरे| तेथ जळती जैसीं जंगमें स्थावरें| तैसें जयाचेनि आचारें| जगा दुःख ||६६२||
कौतुकें जें जें जल्पे| तें साबळाहूनि तीख रुपे| विषाहूनि संकल्पें| मारकु जो ||६६३||
तयातें बहु अज्ञान| तोचि अज्ञानाचें निधान| हिंसेसि आयतन| जयाचें जिणें ||६६४||
आणि फुंकें भाता फुगे| रेचिलिया सवेंचि उफगे| तैसा संयोगवियोगें| चढे वोहटे ||६६५||
पडली वारयाचिया वळसा| धुळी चढे आकाशा| हरिखा वळघे तैसा| स्तुतीवेळे ||६६६||
निंदा मोटकी आइके| आणि कपाळ धरूनि ठाके| थेंबें विरे वारोनि शोखे| चिखलु जैसा ||६६७||
तैसा मानापमानीं होये| जो कोण्हीचि उर्मी न साहे| तयाच्या ठायीं आहे| अज्ञान पुरें ||६६८||
आणि जयाचिया मनीं गांठी| वरिवरी मोकळी वाचा दिठी| आंगें मिळे जीवें पाठीं| भलतया दे ||६६९||
व्याधाचे चारा घालणें| तैसें प्रांजळ जोगावणें| चांगाचीं अंतःकरणें| विरु करी ||६७०||
गार शेवाळें गुंडाळली| कां निंबोळी जैसी पिकली| तैसी जयाची भली| बाह्य क्रिया ||६७१||
अज्ञान तयाचिया ठायीं| ठेविलें असे पाहीं| याबोला आन नाहीं| सत्य मानीं ||६७२||
आणि गुरुकुळीं लाजे| जो गुरुभक्ती उभजे| विद्या घेऊनि माजे| गुरूसींचि जो ||६७३||
तयाचें नाम घेणें| तें वाचे शूद्रान्न होणें| परी घडलें लक्षणें| बोलतां इयें ||६७४||
आता गुरुभक्तांचें नांव घेवों| तेणें वाचेसि प्रायश्चित देवों| गुरुसेवका नांव पावों| सूर्यु जैसा ||६७५||
येतुलेनि पांगु पापाचा| निस्तरेल हे वाचा| जो गुरुतल्पगाचा| नामीं आला ||६७६||
हा ठायवरी| तया नामाचें भय हरी| मग म्हणे अवधारीं| आणिकें चिन्हें ||६७७||
तरि आंगें कर्में ढिला| जो मनें विकल्पें भरला| अडवींचा अवगळला| कुहा जैसा ||६७८||
तया तोंडीं कांटिवडे| आंतु नुसधीं हाडें| अशुचि तेणें पाडें| सबाह्य जो ||६७९||
जैसें पोटालागीं सुणें| उघडें झांकलें न म्हणे| तैसें आपलें परावें नेणे| द्रव्यालागीं ||६८०||
इया ग्रामसिंहाचिया ठायीं| जैसा मिळणी ठावो अठावो नाहीं| तैसा स्त्रीविषयीं कांहीं| विचारीना ||६८१||
कर्माचा वेळु चुके| कां नित्य नैमित्तिक ठाके| तें जया न दुखे| जीवामाजीं ||६८२||
पापी जो निसुगु| पुण्याविषयीं अतिनिलागु| जयाचिया मनीं वेगु| विकल्पाचा ||६८३||
तो जाण निखिळा| अज्ञानाचा पुतळा| जो बांधोनि असे डोळां| वित्ताशेतें ||६८४||
आणि स्वार्थें अळुमाळें| जो धैर्यापासोनि चळे| जैसें तृणबीज ढळे| मुंगियेचेनी ||६८५||
पावो सूदलिया सवें| जैसें थिल्लर कालवे| तैसा भयाचेनि नांवें| गजबजे जो ||६८६||
मनोरथांचिया धारसा| वाहणें जयाचिया मानसा| पूरीं पडिला जैसा| दुधिया पाहीं ||६८७||
वायूचेनि सावायें| धू दिगंतरा जाये| दुःखवार्ता होये| तसें जया ||६८८||
वाउधणाचिया परी| जो आश्रो कहींचि न धरी| क्षेत्रीं तीर्थीं पुरीं| थारों नेणे ||६८९||
कां मातलिया सरडा| पुढती बुडुख पुढती शेंडा| हिंडणवारा कोरडा| तैसा जया ||६९०||
जैसा रोविल्याविणें| रांजणु थारों नेणे| तैसा पडे तैं राहणें| एऱ्हवीं हिंडे ||६९१||
तयाच्या ठायीं उदंड| अज्ञान असे वितंड| जो चांचल्यें भावंड| मर्कटाचें ||६९२||
आणि पैं गा धनुर्धरा| जयाचिया अंतरा| नाहीं वोढावारा| संयमाचा ||६९३||
लेंडिये आला लोंढा| न मनी वाळुवेचा वरवंडा| तैसा निषेधाचिया तोंडा| बिहेना जो ||६९४||
व्रतातें आड मोडी| स्वधर्मु पायें वोलांडी| नियमाची आस तोडी| जयाची क्रिया ||६९५||
नाहीं पापाचा कंटाळा| नेणें पुण्याचा जिव्हाळा| लाजेचा पेंडवळा| खाणोनि घाली ||६९६||
कुळेंसीं जो पाठमोरा| वेदाज्ञेसीं दुऱ्हा| कृत्याकृत्यव्यापारा| निवाडु नेणे ||६९७||
वसू जैसा मोकाटु| वारा जैसा अफाटु| फुटला जैसा पाटु| निर्जनीं ||६९८||
आंधळें हातिरूं मातलें| कां डोंगरीं जैसें पेटलें| तैसें विषयीं सुटलें| चित्त जयाचें ||६९९||
पैं उबधडां काय न पडे| मोकाटु कोणां नातुडे| ग्रामद्वारींचे आडें| नोलांडी कोण ||७००||
जैसें सत्रीं अन्न जालें| कीं सामान्या बीक आलें| वाणसियेचें उभलें| कोण न रिगे ? ||७०१||
तैसें जयाचें अंतःकरण| तयाच्या ठायीं संपूर्ण| अज्ञानाची जाण| ऋद्धि आहे ||७०२||
आणि विषयांची गोडी| जो जीतु मेला न संडी| स्वर्गींही खावया जोडी| येथूनिची ||७०३||
जो अखंड भोगा जचे| जया व्यसन काम्यक्रियेचें| मुख देखोनि विरक्ताचें| सचैल करी ||७०४||
विषो शिणोनि जाये| परि न शिणे सावधु नोहे| कुहीला हातीं खाये| कोढी जैसा ||७०५||
खरी टेंकों नेदी उडे| लातौनि फोडी नाकाडें| तऱ्ही जेवीं न काढे| माघौता खरु ||७०६||
तैसा जो विषयांलागीं| उडी घाली जळतिये आगीं| व्यसनाची आंगीं| लेणीं मिरवी ||७०७||
फुटोनि पडे तंव| मृग वाढवी हांव| परी न म्हणे ते माव| रोहिणीची ||७०८||
तैसा जन्मोनि मृत्यूवरी| विषयीं त्रासितां बहुतीं परीं| तऱ्ही त्रासु नेघे धरी| अधिक प्रेम ||७०९||
पहिलिये बाळदशे| आई बा हेंचि पिसें| तें सरे मग स्त्रीमांसें| भुलोनि ठाके ||७१०||
मग स्त्री भोगितां थावों| वृद्धाप्य लागे येवों| तेव्हां तोचि प्रेमभावो| बाळकांसि आणी ||७११||
आंधळें व्यालें जैसें| तैसा बाळें परिवसे| परि जीवें मरे तों न त्रासे| विषयांसि जो ||७१२||
जाण तयाच्या ठायीं| अज्ञानासि पारु नाहीं| आतां आणीक कांहीं| चिन्हें सांगों ||७१३||
तरि देह हाचि आत्मा| ऐसेया जो मनोधर्मा| वळघोनियां कर्मा| आरंभु करी ||७१४||
आणि उणें कां पुरें| जें जें कांहीं आचरे| तयाचेनि आविष्करें| कुंथों लागे ||७१५||
डोईये ठेविलेनि भोजें| देवलविसें जेवीं फुंजे| तैसा विद्यावयसा माजे| उताणा चाले ||७१६||
म्हणे मीचि एकु आथी| माझ्यांचि घरीं संपत्ती| माझी आचरती रीती| कोणा आहे ||७१७||
नाहीं माझेनि पाडें वाडु| मी सर्वज्ञ एकचि रूढु| ऐसा गर्वतुष्टीगंडु| घेऊनि ठाके ||७१८||
व्याधि लागलिया माणुसा| नयेचि भोग द्ॐ जैसा| निकें न साहे जो तैसा| पुढिलांचें ||७१९||
पैं गुण तेतुला खाय| स्नेह कीं जाळितु जाय| जेथ ठेविजे तेथ होय| मसीऐसें ||७२०||
जीवनें शिंपिला तिडपिडी| विजिला प्राण सांडीं| लागला तरी काडी| उरों नेदी ||७२१||
आळुमाळ प्रकाशु करी| तेतुलेनीच उबारा धरी| तैसिया दीपाचि परी| सुविद्यु जो ||७२२||
औषधाचेनि नांवें अमृतें| जैसा नवज्वरु आंबुथे| कां विषचि होऊनि परतें| सर्पा दूध ||७२३||
तैसा सद्गुणीं मत्सरु| व्युत्पत्ती अहंकारु| तपोज्ञानें अपारु| ताठा चढे ||७२४||
अंत्यु राणिवे बैसविला| आरें धारणु गिळिला| तैसा गर्वें फुगला| देखसी जो ||७२५||
जो लाटणें ऐसा न लवे| पाथरु तेवीं न द्रवे| गुणियासि नागवे| फोडसें जैसें ||७२६||
किंबहुना तयापाशी| अज्ञान आहे वाढीसीं| हें निकरें गा तुजसीं| बोलत असों ||७२७||
आणीकही धनंजया| जो गृहदेह सामग्रिया| न देखे कालचेया| जन्मातें गा ||७२८||
कृतघ्ना उपकारु केला| कां चोरा व्यवहारु दिधला| निसुगु स्तविला| विसरे जैसा ||७२९||
वोढाळितां लाविलें| तें तैसेंच कान पूंस वोलें| कीं पुढती वोढाळुं आलें| सुणें जैसें ||७३०||
बेडूक सापाचिया तोंडीं| जातसे सबुडबुडीं| तो मक्षिकांचिया कोडीं| स्मरेना कांहीं ? ||७३१||
तैसीं नवही द्वारें स्रवती| आंगीं देहाची लुती जिती| जेणें जाली तें चित्तीं| सलेना जया ||७३२||
मातेच्या उदरकुहरीं| पचूनि विष्ठेच्या दाथरीं| जठरीं नवमासवरी| उकडला जो ||७३३||
तें गर्भींची जे व्यथा| कां जें जालें उपजतां| तें कांहींचि सर्वथा| नाठवी जो ||७३४||
मलमूत्रपंकीं| जे लोळतें बाळ अंकीं| तें देखोनि जो न थुंकीं| त्रासु नेघे ||७३५||
कालचि ना जन्म गेलें| पाहेचि पुढती आलें| ऐसें हें कांहीं वाटलें| नाहीं जया ||७३६||
आणि पैं तयाची परी| जीविताची फरारी| देखोनि जो न करी| मृत्युचिंता ||७३७||
जिणेयाचेनि विश्वासें| मृत्यु एक एथ असे| हें जयाचेनि मानसें| मानिजेना ||७३८||
अल्पोदकींचा मासा| हें नाटे ऐसिया आशा| न वचेचि कां जैसा| अगाध डोहां ||७३९||
कां गोरीचिया भुली| मृग व्याधा दृष्टी न घाली| गळु न पाहतां गिळिली| उंडी मीनें ||७४०||
दीपाचिया झगमगा| जाळील हें पतंगा| नेणवेचि पैं गा| जयापरी ||७४१||
गव्हारु निद्रासुखें| घर जळत असे तें न देखे| नेणतां जेंवी विखें| रांधिलें अन्न ||७४२||
तैसा जीविताचेनि मिषें| हा मृत्युचि आला असे| हें नेणेचि राजसें| सुखें जो गा ||७४३||
शरीरींचीं वाढी| अहोरात्रांची जोडी| विषयसुखप्रौढी| साचचि मानी ||७४४||
परी बापुडा ऐसें नेणे| जें वेश्येचें सर्वस्व देणें| तेंचि तें नागवणें| रूप एथ ||७४५||
संवचोराचें साजणें| तेंचि तें प्राण घेणें| लेपा स्नपन करणें| तोचि नाशु ||७४६||
पांडुरोगें आंग सुटलें| तें तयाचि नांवे खुंटलें| तैसें नेणें भुललें| आहारनिद्रा ||७४७||
सन्मुख शूला| धांवतया पायें चपळा| प्रतिपदीं ये जवळा| मृत्यु जेवीं ||७४८||
तेवीं देहा जंव जंव वाढु| जंव जंव दिवसांचा पवाडु| जंव जंव सुरवाडु| भोगांचा या ||७४९||
तंव तंव अधिकाधिकें| मरण आयुष्यातें जिंके| मीठ जेवीं उदकें| घांसिजत असे ||७५०||
तैसें जीवित्व जाये| तयास्तव काळु पाहे| हें हातोहातींचें नव्हे| ठाउकें जया ||७५१||
किंबहुना पांडवा| हा आंगींचा मृत्यु नीच नवा| न देखे जो मावा| विषयांचिया ||७५२||
तो अज्ञानदेशींचा रावो| या बोला महाबाहो| न पडे गा ठावो| आणिकांचा ||७५३||
पैं जीविताचेनि तोखें| जैसा कां मृत्यु न देखे| तैसाचि तारुण्ये पोखें| जरा न गणी ||७५४||
कडाडीं लोटला गाडा| कां शिखरौनि सुटला धोंडा| तैसा न देखे जो पुढां| वार्धक्य आहे ||७५५||
कां आडवोहळा पाणी आलें| कां जैसे म्हैसयाचें झुंज मातलें| तैसें तारुण्याचे चढलें| भुररें जया ||७५६||
पुष्टि लागे विघरों| कांति पाहे निसरों| मस्तक आदरीं शिरों- | भागीं कंप ||७५७||
दाढी साउळ धरी| मान हालौनि वारी| तरी जो करी| मायेचा पैसु ||७५८||
पुढील उरीं आदळे| तंव न देखे जेवीं आंधळें| कां डोळ्यावरलें निगळे| आळशी तोषें ||७५९||
तैसें तारुण्य आजिचें| भोगितां वृद्धाप्य पाहेचें| न देखे तोचि साचें| अज्ञानु गा ||७६०||
देखे अक्षमें कुब्जें| कीं विटावूं लागे फुंजें| परी न म्हणे पाहे माझें| ऐसेंचि भवे ||७६१||
आणि आंगीं वृद्धाप्यतेची| संज्ञा ये मरणाची| परी जया तारुण्याची| भुली न फिटे ||७६२||
तो अज्ञानाचें घर| हें साचचि घे उत्तर| तेवींचि परियेसीं थोर| चिन्हें आणिक ||७६३||
तरि वाघाचिये अडवे| एक वेळ आला चरोनि दैवें| तेणें विश्वासें पुढती धांवे| वसू जैसा ||७६४||
कां सर्पघराआंतु| अवचटें ठेवा आणिला स्वस्थु| येतुलियासाठीं निश्चितु| नास्तिकु होय ||७६५||
तैसेनि अवचटें हें| एकदोनी वेळां लाहे| एथ रोग एक आहे| हें मानीना जो ||७६६||
वैरिया नीद आली| आतां द्वंद्वें माझीं सरलीं| हें मानी तो सपिली| मुकला जेवीं ||७६७||
तैसी आहारनिद्रेची उजरी| रोग निवांतु जोंवरी| तंव जो न करी| व्याधी चिंता ||७६८||
आणि स्त्रीपुत्रादिमेळें| संपत्ति जंव जंव फळे| तेणें रजें डोळे| जाती जयाचे ||७६९||
सवेंचि वियोगु पडैल| विळौनी विपत्ति येईल| हें दुःख पुढील| देखेना जो ||७७०||
तो अज्ञान गा पांडवा| आणि तोही तोचि जाणावा| जो इंद्रियें अव्हासवा| चारी एथ ||७७१||
वयसेचेनि उवायें| संपत्तीचेनि सावायें| सेव्यासेव्य जाये| सरकटितु ||७७२||
न करावें तें करी| असंभाव्य मनीं धरी| चिंतू नये तें विचारी| जयाची मती ||७७३||
रिघे जेथ न रिघावें| मागे जें न घ्यावें| स्पर्शे जेथ न लागावें| आंग मन ||७७४||
न जावें तेथ जाये| न पाहावें तें जो पाहे| न खावें तें खाये| तेवींचि तोषे ||७७५||
न धरावा तो संगु| न लागावें तेथ लागु| नाचरावा तो मार्गु| आचरे जो ||७७६||
नायकावें तें आइके| न बोलावें तें बके| परी दोष होतील हें न देखे| प्रवर्ततां ||७७७||
आंगा मनासि रुचावें| येतुलेनि कृत्याकृत्य नाठवें| जो करणेयाचेनि नांवें| भलतेंचि करी ||७७८||
परि पाप मज होईल| कां नरकयातना येईल| हें कांहींचि पुढील| देखेना जो ||७७९||
तयाचेनि आंगलगें| अज्ञान जगीं दाटुगें| जें सज्ञानाही संगें| झोंबों सके ||७८०||
परी असो हें आइक| अज्ञान चिन्हें आणिक| जेणें तुज सम्यक्| जाणवे तें ||७८१||
तरी जयाची प्रीति पुरी| गुंतली देखसी घरीं| नवगंधकेसरीं| भ्रमरी जैशी ||७८२||
साकरेचिया राशी| बैसली नुठे माशी| तैसेनि स्त्रीचित्त आवेशीं| जयाचें मन ||७८३||
ठेला बेडूक कुंडीं| मशक गुंतला शेंबुडीं| जैसा ढोरु सबुडबुडीं| रुतला पंकीं ||७८४||
तैसें घरींहूनि निघणें| नाहीं जीवें मनें प्राणें| जया साप होऊनि असणें| भाटीं तियें ||७८५||
प्रियोत्तमाचिया कंठीं| प्रमदा घे आटी| तैशी जीवेंसी कोंपटी| धरूनि ठाके ||७८६||
मधुरसोद्देशें| मधुकर जचे जैसें| गृहसंगोपन तैसें| करी जो गा ||७८७||
म्हातारपणीं जालें| मा आणिक एक विपाईलें| तयाचें कां जेतुलें| मातापितरां ||७८८||
तेतुलेनि पाडें पार्था| घरीं जया प्रेम आस्था| आणि स्त्रीवांचूनि सर्वथा| जाणेना जो ||७८९||
तैसा स्त्रीदेहीं जो जीवें| पडोनिया सर्वभावें| कोण मी काय करावें| कांहीं नेणे ||७९०||
महापुरुषाचें चित्त| जालिया वस्तुगत| ठाके व्यवहारजात| जयापरी ||७९१||
हानि लाज न देखे| परापवादु नाइके| जयाचीं इंद्रियें एकमुखें| स्त्रिया केलीं ||७९२||
चित्त आराधी स्त्रीयेचें| आणि तियेचेनि छंदें नाचे| माकड गारुडियाचें| जैसें होय ||७९३||
आपणपेंही शिणवी| इष्टमित्र दुखवी| मग कवडाचि वाढवी| लोभी जैसा ||७९४||
तैसा दानपुण्यें खांची| गोत्रकुटुंबा वंची| परी गारी भरी स्त्रियेची| उणी हों नेदी ||७९५||
पूजिती दैवतें जोगावी| गुरूतें बोलें झकवी| मायबापां दावी| निदारपण ||७९६||
स्त्रियेच्या तरी विखीं| भोगुसंपत्ती अनेकीं| आणी वस्तु निकी| जे जे देखे ||७९७||
प्रेमाथिलेनि भक्तें| जैसेनि भजिजे कुळदैवतें| तैसा एकाग्रचित्तें| स्त्री जो उपासी ||७९८||
साच आणि चोख| तें स्त्रियेसीचि अशेख| येरांविषयीं जोगावणूक| तेही नाहीं ||७९९||
इयेतें हन कोणी देखैल| इयेसी वेखासें जाईल| तरी युगचि बुडैल| ऐसें जया ||८००||
नायट्यांभेण| न मोडिजे नागांची आण| तैसी पाळी उणखुण| स्त्रीयेची जो ||८०१||
किंबहुना धनंजया| स्त्रीचि सर्वस्व जया| आणि तियेचिया जालिया- | लागीं प्रेम ||८०२||
आणिकही जें समस्त| तियेचें संपत्तिजात| तें जीवाहूनि आप्त| मानी जो कां ||८०३||
तो अज्ञानासी मूळ| अज्ञाना त्याचेनि बळ| हें असो केवळ| तेंचि रूप ||८०४||
आणि मातलिया सागरीं| मोकललिया तरी| लाटांच्या येरझारीं| आंदोळे जेवीं ||८०५||
तेवीं प्रिय वस्तु पावे| आणि सुखें जो उंचावे| तैसाचि अप्रियासवें| तळवटु घे ||८०६||
ऐसेनि जयाचे चित्तीं| वैषम्यसाम्याची वोखती| वाहे तो महामती| अज्ञान गा ||८०७||
आणि माझ्या ठायीं भक्ती| फळालागीं जया आर्ती| धनोद्देशें विरक्ती| नटणें जेवीं ||८०८||
नातरी कांताच्या मानसी| रिगोनि स्वैरिणी जैसी| राहाटे जारेंसीं| जावयालागीं ||८०९||
तैसा मातें किरीटी| भजती गा पाउटी| करूनि जो दिठी| विषो सूये ||८१०||
आणि भजिन्नलियासवें| तो विषो जरी न पावे| तरी सांडी म्हणे आघवें| टवाळ हें ||८११||
कुणबट कुळवाडी| तैसा आन आन देव मांडी| आदिलाची परवडी| करी तया ||८१२||
तया गुरुमार्गा टेंकें| जयाचा सुगरवा देखे| तरी तयाचा मंत्र शिके| येरु नेघे ||८१३||
प्राणिजातेंसीं निष्ठुरु| स्थावरीं बहु भरु| तेवींचि नाहीं एकसरु| निर्वाहो जया ||८१४||
माझी मूर्ति निफजवी| ते घराचे कोनीं बैसवी| आपण देवो देवी| यात्रे जाय ||८१५||
नित्य आराधन माझें| काजीं कुळदैवता भजे| पर्वविशेषें कीजे| पूजा आना ||८१६||
माझें अधिष्ठान घरीं| आणि वोवसे आनाचे करी| पितृकार्यावसरीं| पितरांचा होय ||८१७||
एकादशीच्या दिवशीं| जेतुला पाडु आम्हांसी| तेतुलाचि नागांसी| पंचमीच्या दिवशीं ||८१८||
चौथ मोटकी पाहे| आणि गणेशाचाचि होये| चावदसी म्हणे माये| तुझाचि वो दुर्गे ||८१९||
नित्य नैमित्तिकें कर्में सांडी| मग बैसे नवचंडी| आदित्यवारीं वाढी| बहिरवां पात्रीं ||८२०||
पाठीं सोमवार पावे| आणि बेलेंसी लिंगा धांवे| ऐसा एकलाचि आघवे| जोगावी जो ||८२१||
ऐसा अखंड भजन करी| उगा नोहे क्षणभरी| अवघेन गांवद्वारीं| अहेव जैसी ||८२२||
ऐसेनि जो भक्तु| देखसी सैरा धांवतु| जाण अज्ञानाचा मूर्तु| अवतार तो ||८२३||
आणि एकांतें चोखटें| तपोवनें तीर्थे तटें| देखोनि जो गा विटे| तोहि तोचि ||८२४||
जया जनपदीं सुख| गजबजेचें कवतिक| वानूं आवडे लौकिक| तोहि तोची ||८२५||
आणि आत्मा गोचरु होये| ऐसी जे विद्या आहे| ते आइकोनि डौर वाहे| विद्वांसु जो ||८२६||
उपनिषदांकडे न वचे| योगशास्त्र न रुचे| अध्यात्मज्ञानीं जयाचें| मनचि नाहीं ||८२७||
आत्मचर्चा एकी आथी| ऐसिये बुद्धीची भिंती| पाडूनि जयाची मती| वोढाळ जाहली ||८२८||
कर्मकांड तरी जाणे| मुखोद्गत पुराणें| ज्योतिषीं तो म्हणे| तैसेंचि होय ||८२९||
शिल्पीं अति निपुण| सूपकर्मींही प्रवीण| विधि आथर्वण| हातीं आथी ||८३०||
कोकीं नाहीं ठेलें| भारत करी म्हणितलें| आगम आफाविले| मूर्त होतीं ||८८३१||
नीतिजात सुझे| वैद्यकही बुझे| काव्यनाटकीं दुजें| चतुर नाहीं ||८३२||
स्मृतींची चर्चा| दंशु जाणे गारुडियाचा| निघंटु प्रज्ञेचा| पाइकी करी ||८३३||
पैं व्याकरणीं चोखडा| तर्कीं अतिगाढा| परी एक आत्मज्ञानीं फुडा| जात्यंधु जो ||८३४||
तें एकवांचूनि आघवां शास्त्रीं| सिद्धांत निर्माणधात्री| परी जळों तें मूळनक्षत्रीं| न पाहें गा ||८३५||
मोराआंगीं अशेषें| पिसें असतीं डोळसें| परी एकली दृष्टि नसे| तैसें तें गा ||८३६||
जरी परमाणूएवढें| संजीवनीमूळ जोडे| तरी बहु काय गाडे| भरणें येरें ? ||८३७||
आयुष्येंवीण लक्षणें| सिसेंवीण अळंकरणें| वोहरेंवीण वाधावणें| तो विटंबु गा ||८३८||
तैसें शास्त्रजात जाण| आघवेंचि अप्रमाण| अध्यात्मज्ञानेंविण| एकलेनी ||८३९||
यालागीं अर्जुना पाहीं| अध्यात्मज्ञानाच्या ठायीं| जया नित्यबोधु नाहीं| शास्त्रमूढा ||८४०||
तया शरीर जें जालें| तें अज्ञानाचें बीं विरुढलें| तयाचें व्युत्पन्नत्व गेलें| अज्ञानवेलीं ||८४१||
तो जें जें बोले| तें अज्ञानचि फुललें| तयाचें पुण्य जें फळलें| तें अज्ञान गा ||८४२||
आणि अध्यात्मज्ञान कांहीं| जेणें मानिलेंचि नाहीं| तो ज्ञानार्थु न देखे काई| हें बोलावें असें ? ||८४३||
ऐलीचि थडी न पवतां| पळे जो माघौता| तया पैलद्वीपींची वार्ता| काय होय ? ||८४४||
कां दारवंठाचि जयाचें| शीर रोंविलें खांचे| तो केवीं परिवरींचें| ठेविलें देखे ? ||८४५||
तेवीं अध्यात्मज्ञानीं जया| अनोळख धनंजया| तया ज्ञानार्थु देखावया| विषो काई ? ||८४६||
म्हणौनि आतां विशेषें| तो ज्ञानाचें तत्त्व न देखे| हें सांगावें आंखेंलेखें| न लगे तुज ||८४७||
जेव्हां सगर्भे वाढिलें| तेव्हांचि पोटींचें धालें| तैसें मागिलें पदें बोलिलें| तेंचि होय ||८४८||
वांचूनियां वेगळें| रूप करणें हें न मिळे| जेवीं अवंतिलें आंधळें| तें दुजेनसीं ये ||८४९||
एवं इये उपरतीं| अज्ञानचिन्हें मागुतीं| अमानित्वादि प्रभृती| वाखाणिलीं ||८५०||
जे ज्ञानपदें अठरा| केलियां येरी मोहरां| अज्ञान या आकारा| सहजें येती ||८५१||
मागां श्लोकाचेनि अर्धार्धें| ऐसें सांगितलें श्रीमुकुंदें| ना उफराटीं इयें ज्ञानपदें| तेंचि अज्ञान ||८५२||
म्हणौनि इया वाहणीं| केली म्यां उपलवणी| वांचूनि दुधा मेळऊनि पाणी| फार कीजे ? ||८५३||
तैसें जी न बडबडीं| पदाची कोर न सांडी| परी मूळध्वनींचिये वाढी| निमित्त जाहलों ||८५४||
तंव श्रोते म्हणती राहें| कें परिहारा ठावो आहे ? | बिहिसी कां वायें| कविपोषका ? ||८५५||
तूतें श्रीमुरारी| म्हणितलें आम्ही प्रकट करीं| जें अभिप्राय गव्हरीं| झांकिले आम्हीं ||८५६||
तें देवाचें मनोगत| दावित आहासी तूं मूर्त| हेंही म्हणतां चित्त| दाटैल तुझें ||८५७||
म्हणौनि असो हें न बोलों| परि साविया गा तोषलों| जे ज्ञानतरिये मेळविलों| श्रवण सुखाचिये ||८५८||
आतां इयावरी| जे तो श्रीहरी| बोलिला तें करीं| कथन वेगां ||८५९||
इया संतवाक्यासरिसें| म्हणितलें निवृत्तिदासें| जी अवधारा तरी ऐसें| बोलिलें देवें ||८६०||
म्हणती तुवां पांडवा| हा चिन्हसमुच्चयो आघवा| आयकिला तो जाणावा| अज्ञानभागु ||८६१||
इया अज्ञानविभागा| पाठी देऊनि पैं गा| ज्ञानविखीं चांगा| दृढा होईजे ||८६२||
मग निर्वाळिलेनि ज्ञानें| ज्ञेय भेटेल मनें| तें जाणावया अर्जुनें| आस केली ||८६३||
तंव सर्वज्ञांचा रावो| म्हणे जाणौनि तयाचा भावो| परिसें ज्ञेयाचा अभिप्रावो| सांगों आतां ||८६४||
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा~मृतमश्नुते |
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||१२||
तरि ज्ञेय ऐसें म्हणणें| वस्तूतें येणेंचि कारणें| जें ज्ञानेंवांचूनि कवणें| उपायें नये ||८६५||
आणि जाणितलेयावरौतें| कांहींच करणें नाहीं जेथें| जाणणेंचि तन्मयातें| आणी जयाचें ||८६६||
जें जाणितलेयासाठीं| संसार काढूनियां कांठीं| जिरोनि जाइजे पोटीं| नित्यानंदाच्या ||८६७||
तें ज्ञेय गा ऐसें| आदि जया नसे| परब्रह्म आपैसें| नाम जया ||८६८||
जें नाहीं म्हणों जाइजे| तंव विश्वाकारें देखिजे| आणि विश्वचि ऐसें म्हणिजे| तरि हे माया ||८६९||
रूप वर्ण व्यक्ती| नाहीं दृश्य दृष्टा स्थिती| तरी कोणें कैसें आथी| म्हणावें पां ||८७०||
आणि साचचि जरी नाहीं| तरी महदादि कोणें ठाईं| स्फुरत कैचें काई| तेणेंवीण असे ? ||८७१||
म्हणौनि आथी नाथी हे बोली| जें देखोनि मुकी जाहली| विचारेंसीं मोडली| वाट जेथें ||८७२||
जैसी भांडघटशरावीं| तदाकारें असे पृथ्वी| तैसें सर्व होऊनियां सर्वीं| असे जे वस्तु ||८७३||
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतो~क्षिशिरोमुखम् |
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ||१३||
आघवांचि देशीं काळीं| नव्हतां देशकाळांवेगळी| जे क्रिया स्थूळास्थूळीं| तेचि हात जयाचे ||८७४||
तयातें याकारणें| विश्वबाहू ऐसें म्हणणें| जें सर्वचि सर्वपणें| सर्वदा करी ||८७५||
आणि समस्तांही ठाया| एके काळीं धनंजया| आलें असे म्हणौनि जया| विश्वांघ्रीनाम ||८७६||
पैं सवितया आंग डोळे| नाहींत वेगळे वेगळे| तैसें सर्वद्रष्टे सकळें| स्वरूपें जें ||८७७||
म्हणौनि विश्वतश्चक्षु| हा अचक्षूच्या ठायीं पक्षु| बोलावया दक्षु| जाहला वेदु ||८७८||
जें सर्वांचे शिरावरी| नित्य नांदे सर्वांपरी| ऐसिये स्थितीवरी| विश्वमूर्धा म्हणिपे ||८७९||
पैं गा मूर्ति तेंचि मुख| हुताशना जैसें देख| तैसें सर्वपणें अशेख| भोक्ते जे ||८८०||
यालागीं तया पार्था| विश्वतोमुख हे व्यवस्था| आली वाक्पथा| श्रुतीचिया ||८८१||
आणि वस्तुमात्रीं गगन| जैसें असे संलग्न| तैसें शब्दजातीं कान| सर्वत्र जया ||८८२||
म्हणौनि आम्हीं तयातें| म्हणों सर्वत्र आइकतें| एवं जें सर्वांतें| आवरूनि असे ||८८३||
एऱ्हवीं तरी महामती| विश्वतश्चक्षु इया श्रुती| तयाचिया व्याप्ती| रूप केलें ||८८४||
वांचूनि हस्त नेत्र पाये| हें भाष तेथ कें आहे ? | सर्व शून्याचा न साहे| निष्कर्षु जें ||८८५||
पैं कल्लोळातें कल्लोळें| ग्रसिजत असे ऐसें कळे| परी ग्रसितें ग्रासावेगळें| असे काई ? ||८८६||
तैसें साचचि जें एक| तेथ कें व्याप्यव्यापक ? | परी बोलावया नावेक| करावें लागे ||८८७||
पैं शून्य जैं दावावें जाहलें| तैं बिंदुलें एक पाहिजे केलें| तैसें अद्वैत सांगावें बोलें| तैं द्वैत कीजे ||८८८||
एऱ्हवीं तरी पार्था| गुरुशिष्यसत्पथा| आडळु पडे सर्वथा| बोल खुंटे ||८८९||
म्हणौनि गा श्रुती| द्वैतभावें अद्वैतीं| निरूपणाची वाहती| वाट केली ||८९०||
तेंचि आतां अवधारीं| इये नेत्रगोचरें आकारीं| तें ज्ञेय जयापरी| व्यापक असे ||८९१||
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ||१४||
तरी तें गा किरीटी ऐसें| अवकाशीं आकाश जैसें| पटीं पटु होऊनि असे| तंतु जेवीं ||८९२||
उदक होऊनि उदकीं| रसु जैसा अवलोकीं| दीपपणें दीपकीं| तेज जैसें ||८९३||
कर्पूरत्वें कापुरीं| सौरभ्य असे जयापरी| शरीर होऊनि शरीरीं| कर्म जेवीं ||८९४||
किंबहुना पांडवा| सोनेंचि सोनयाचा रवा| तैसें जें या सर्वां| सर्वांगीं असे ||८९५||
परी रवेपणामाजिवडे| तंव रवा ऐसें आवडे| वांचूनि सोनें सांगडें| सोनया जेवीं ||८९६||
पैं गा वोघुचि वांकुडा| परि पाणी उजू सुहाडा| वन्हि आला लोखंडा| लोह नव्हे कीं ||८९७||
घटाकारें वेंटाळें| तेथ नभ गमे वाटोळें| मठीं तरी चौफळें| आये दिसे ||८९८||
तरि ते अवकाश जैसें| नोहिजतीचि कां आकाशें| जें विकार होऊनि तैसें| विकारी नोहे ||८९९||
मन मुख्य इंद्रियां| सत्त्वादि गुणां ययां- | सारिखें ऐसें धनंजया| आवडे कीर ||९००||
पैं गुळाची गोडी| नोहे बांधया सांगडी| तैसीं गुण इंद्रियें फुडीं| नाहीं तेथ ||९०१||
अगा क्षीराचिये दशे| घृत क्षीराकारें असे| परी क्षीरचि नोहे जैसें| कपिध्वजा ||९०२||
तैसें जें इये विकारीं| विकार नोहे अवधारीं| पैं आकारा नाम भोंवरी| येर सोने तें सोनें ||९०३||
इया उघड मऱ्हाटिया| तें वेगळेपण धनंजया| जाण गुण इंद्रियां- | पासोनियां ||९०४||
नामरूपसंबंधु| जातिक्रियाभेदु| हा आकारासीच प्रवादु| वस्तूसि नाहीं ||९०५||
तें गुण नव्हे कहीं| गुणा तया संबंधु नाहीं| परी तयाच्याचि ठायीं| आभासती ||९०६||
येतुलेयासाठीं| संभ्रांताच्या पोटीं| ऐसें जाय किरीटी| जे हेंचि धरी ||९०७||
तरी तें गा धरणें ऐसें| अभ्रातें जेवीं आकाशें| कां प्रतिवदन जैसें| आरसेनी ||९०८||
नातरी सूर्य प्रतिमंडल| जैसेनि धरी सलिल| कां रश्मिकरीं मृगजळ| धरिजे जेवीं ||९०९||
तैसें गा संबंधेंवीण| यया सर्वांतें धरी निर्गुण| परी तें वायां जाण| मिथ्यादृष्टी ||९१०||
आणि यापरी निर्गुणें| गुणातें भोगणें| रंका राज्य करणें| स्वप्नीं जैसें ||९११||
म्हणौनि गुणाचा संगु| अथवा गुणभोगु| हा निर्गुणीं लागु| बोलों नये ||९१२||
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च |
सूक्षमत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ||१५||
जें चराचर भूतां- | माजीं असे पंडुसुता| नाना वन्हीं उष्णता| अभेदें जैसी ||९१३||
तैसेनि अविनाशभावें| जें सूक्ष्मदशे आघवें| व्यापूनि असे तें जाणावें| ज्ञेय एथ ||९१४||
जें एक आंतुबाहेरी| जें एक जवळ दुरी| जें एकवांचूनि परी| दुजीं नाहीं ||९१५||
क्षीरसागरींची गोडी| माजीं बहु थडिये थोडी| हें नाहीं तया परवडी| पूर्ण जें गा ||९१६||
स्वेदजादिप्रभृती| वेगळाल्यां भूतीं| जयाचिये अनुस्यूतीं| खोमणें नाहीं ||९१७||
पैं श्रोते मुखटिळका| घटसहस्रा अनेकां- | माजीं बिंबोनि चंद्रिका| न भेदे जेवीं ||९१८||
नाना लवणकणाचिये राशी| क्षारता एकचि जैसी| कां कोडी एकीं ऊसीं| एकचि गोडी ||९१९||
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितं |
भूतभर्तृ च तज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||१६||
तैसें अनेकीं भूतजातीं| जें आहे एकी व्याप्ती| विश्वकार्या सुमती| कारण जें गा ||९२०||
म्हणौनि हा भूताकारु| जेथोनि तेंचि तया आधारु| कल्लोळा सागरु| जियापरी ||९२१||
बाल्यादि तिन्हीं वयसीं| काया एकचि जैसी| तैसें आदिस्थितिग्रासीं| अखंड जें ||९२२||
सायंप्रातर्मध्यान| होतां जातां दिनमान| जैसें कां गगन| पालटेना ||९२३||
अगा सृष्टिवेळे प्रियोत्तमा| जया नांव म्हणती ब्रह्मा| व्याप्ति जें विष्णुनामा| पात्र जाहलें ||९२४||
मग आकारु हा हारपे| तेव्हां रुद्र जें म्हणिपे| तेंही गुणत्रय जेव्हां लोपे| तैं जें शून्य ||९२५||
नभाचें शून्यत्व गिळून| गुणत्रयातें नुरऊन| तें शून्य तें महाशून्य| श्रुतिवचनसंमत ||९२६||
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते |
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विस्ठितम् ||१७||
जें अग्नीचें दीपन| जें चंद्राचें जीवन| सूर्याचे नयन| देखती जेणें ||९२७||
जयाचेनि उजियेडें| तारांगण उभडें| महातेज सुरवाडें| राहाटे जेणें ||९२८||
जें आदीची आदी| जें वृद्धीची वृद्धी| बुद्धीची जे बुद्धी| जीवाचा जीवु ||९२९||
जें मनाचें मन| जें नेत्राचे नयन| कानाचे कान| वाचेची वाचा ||९३०||
जें प्राणाचा प्राण| जें गतीचे चरण| क्रियेचें कर्तेपण| जयाचेनि ||९३१||
आकारु जेणें आकारे| विस्तारु जेणें विस्तारे| संहारु जेणें संहारे| पंडुकुमरा ||९३२||
जें मेदिनीची मेदिनी| जें पाणी पिऊनि असे पाणी| तेजा दिवेलावणी| जेणें तेजें ||९३३||
जें वायूचा श्वासोश्वासु| जें गगनाचा अवकाशु| हें असो आघवाची आभासु| आभासे जेणें ||९३४||
किंबहुना पांडवा| जें आघवेंचि असे आघवा| जेथ नाहीं रिगावा| द्वैतभावासी ||९३५||
जें देखिलियाचिसवें| दृश्य द्रष्टा हें आघवें| एकवाट कालवे| सामरस्यें ||९३६||
मग तेंचि होय ज्ञान| ज्ञाता ज्ञेय हन| ज्ञानें गमिजे स्थान| तेंहि तेंची ||९३७||
जैसें सरलियां लेख| आंख होती एक| तैसें साध्यसाधनादिक| ऐक्यासि ये ||९३८||
अर्जुना जिये ठायीं| न सरे द्वैताची वही| हें असो जें हृदयीं| सर्वांच्या असे ||९३९||
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः |
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ||१८||
एवं तुजपुढां| आदीं क्षेत्र सुहाडा| दाविलें फाडोवाडां| विवंचुनी ||९४०||
तैसेंचि क्षेत्रापाठीं| जैसेनि देखसी दिठी| तें ज्ञानही किरीटी| सांगितलें ||९४१||
अज्ञानाही कौतुकें| रूप केलें निकें| जंव आयणी तुझी टेंके| पुरे म्हणे ||९४२||
आणि आतां हें रोकडें| उपपत्तीचेनि पवाडें| निरूपिलें उघडें| ज्ञेय पैं गा ||९४३||
हे आघवीच विवंचना| बुद्धी भरोनि अर्जुना| मत्सिद्धिभावना| माझिया येती ||९४४||
देहादि परिग्रहीं| संन्यासु करूनियां जिहीं| जीवु माझ्या ठाईं| वृत्तिकु केला ||९४५||
ते मातें किरीटी| हेंचि जाणौनियां शेवटीं| आपणपयां साटोवाटीं| मीचि होती ||९४६||
मीचि होती परी| हे मुख्य गा अवधारीं| सोहोपी सर्वांपरी| रचिलीं आम्हीं ||९४७||
कडां पायरी कीजे| निराळीं माचु बांधिजे| अथावीं सुइजे| तरी जैसी ||९४८||
एऱ्हवीं अवघेंचि आत्मा| हें सांगों जरी वीरोत्तमा| परी तुझिया मनोधर्मा| मिळेल ना ||९४९||
म्हणौनि एकचि संचलें| चतुर्धा आम्हीं केलें| जें अदळपण देखिलें| तुझिये प्रज्ञे ||९५०||
पैं बाळ जैं जेवविजे| तैं घांसु विसा ठायीं कीजे| तैसें एकचि हेंचतुर्व्याजें| कथिलें आम्हीं ||९५१||
एक क्षेत्र एक ज्ञान| एक ज्ञेय एक अज्ञान| हे भाग केले अवधान| जाणौनि तुझें ||९५२||
आणि ऐसेनही पार्था| जरी हा अभिप्रावो तुज हाता| नये तरी हे व्यवस्था| एक वेळ सांगों ||९५३||
आतां चौठायीं न करूं| एकही म्हणौनि न सरूं| आत्मानात्मया धरूं| सरिसा पाडु ||९५४||
परि तुवां येतुलें करावें| मागों तें आम्हां देआवें| जे कानचि नांव ठेवावें| आपण पैं गा ||९५५||
या श्रीकृष्णाचिया बोला| पार्थु रोमांचितु जाहला| तेथ देवो म्हणती भला| उचंबळेना ||९५६||
ऐसेनि तो येतां वेगु| धरूनि म्हणे श्रीरंगु| प्रकृतिपुरुषविभागु| परिसें सांगों ||९५७||
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि |
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ||१९||
जया मार्गातें जगीं| सांख्य म्हणती योगी| जयाचिये भाटिवेलागीं| मी कपिल जाहलों ||९५८||
तो आइक निर्दोखु| प्रकृतिपुरुषविवेकु| म्हणे आदिपुरुखु| अर्जुनातें ||९५९||
तरी पुरुष अनादि आथी| आणि तैंचि लागोनि प्रकृति| संसरिसी दिवोराती| दोनी जैसी ||९६०||
कां रूप नोहे वायां| परी रूपा लागली छाया| निकणु वाढे धनंजया| कणेंसीं कोंडा ||९६१||
तैसीं जाण जवटें| दोन्हीं इयें एकवटे| प्रकृतिपुरुष प्रगटें| अनादिसिद्धें ||९६२||
पैं क्षेत्र येणें नांवें| जें सांगितलें आघवें| तेंचि एथ जाणावें| प्रकृति हे गा ||९६३||
आणि क्षेत्रज्ञ ऐसें| जयातें म्हणितलें असे| तो पुरुष हें अनारिसे| न बोलों घेईं ||९६४||
इयें आनानें नांवें| परी निरूप्य आन नोहे| हें लक्षण न चुकावें| पुढतपुढती ||९६५||
तरी केवळ जे सत्ता| तो पुरुष गा पंडुसुता| प्रकृतीतें समस्तां| क्रिया नाम ||९६६||
बुद्धि इंद्रियें अंतःकरण| इत्यादि विकारभरण| आणि ते तिन्ही गुण| सत्त्वादिक ||९६७||
हा आघवाचि मेळावा| प्रकृती जाहला जाणावा| हेचि हेतु संभवा| कर्माचिया ||९६८||
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते |
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ||२०||
तेथ इच्छा आणि बुद्धि| घडवी अहंकारेंसीं आधीं| मग तिया लाविती वेधीं| कारणाच्या ||९६९||
तेंचि कारण ठाकावया| जें सूत्र धरणें उपाया| तया नांव धनंजया| कार्य पैं गा ||९७०||
आणि इच्छा मदाच्या थावीं| लागली मनातें उठवी| तें इंद्रियें राहाटवी| हें कर्तृत्व पैं गा ||९७१||
म्हणौनि तीन्ही या जाणा| कार्यकर्तृत्वकारणा| प्रकृति मूळ हे राणा| सिद्धांचा म्हणे ||९७२||
एवं तिहींचेनि समवायें| प्रकृति कर्मरूप होये| परी जया गुणा वाढे त्राये| त्याचि सारिखी ||९७३||
जें सत्त्वगुणें अधिष्ठिजे| तें सत्कर्म म्हणिजे| रजोगुणें निफजे| मध्यम तें ||९७४||
जें कां केवळ तमें| होती जियें कर्में| निषिद्धें अधमें| जाण तियें ||९७५||
ऐसेनि संतासंतें| कर्में प्रकृतीस्तव होतें| तयापासोनि निर्वाळतें| सुखदुःख गा ||९७६||
असंतीं दुःख उपजे| सत्कर्मीं सुख निफजे| तया दोहींचा बोलिजे| भोगु पुरुषा ||९७७||
सुखदुःखें जंववरी| निफजती साचोकारीं| तंव प्रकृति उद्यमु करी| पुरुषु भोगी ||९७८||
प्रकृतिपुरुषांची कुळवाडी| सांगतां असंगडी| जे आंबुली जोडी| आंबुला खाय ||९७९||
आंबुला आंबुलिये| संगती ना सोये| कीं आंबुली जग विये| चोज ऐका ||९८०||
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुण संगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ||२१||
जे अनंगु तो पेंधा| निकवडा नुसधा| जीर्णु अतिवृद्धा- | पासोनि वृद्धु ||९८१||
तया आडनांव पुरुषु| एऱ्हवीं स्त्री ना नपुंसकु| किंबहुना एकु| निश्चयो नाहीं ||९८२||
तो अचक्षु अश्रवणु| अहस्तु अचरणु| रूप ना वर्णु| नाम आथी ||९८३||
अर्जुना कांहींचि जेथ नाहीं| तो प्रकृतीचा भर्ता पाहीं| कीं भोगणें ऐसयाही| सुखदुःखांचें ||९८४||
तो तरी अकर्ता| उदासु अभोक्ता| परी इया पतिव्रता| भोगविजे ||९८५||
जियेतें अळुमाळु| रूपागुणाचा चाळढाळु| ते भलतैसाही खेळु| लेखा आणी ||९८६||
मा इये प्रकृती तंव| गुणमयी हेंचि नांव| किंबहुना सावेव| गुण तेचि हे ||९८७||
हे प्रतिक्षणीं नीत्य नवी| रूपा गुणाचीच आघवी| जडातेंही माजवी| इयेचा माजु ||९८८||
नामें इयें प्रसिद्धें| स्नेहो इया स्निग्धें| इंद्रियें प्रबुद्धें| इयेचेनि ||९८९||
कायि मन हें नपुंसक| कीं ते भोगवी तिन्ही लोक| ऐसें ऐसें अलौकिक| करणें इयेचें ||९९०||
हे भ्रमाचे महाद्वीप| व्याप्तीचें रूप| विकार उमप| इया केले ||९९१||
हे कामाची मांडवी| हे मोहवनींची माधवी| इये प्रसिद्धचि दैवी| माया हे नाम ||९९२||
हे वाङ्मयाची वाढी| हे साकारपणाची जोडी| प्रपंचाची धाडी| अभंग हे ||९९३||
कळा एथुनि जालिया| विद्या इयेच्या केलिया| इच्छा ज्ञान क्रिया| वियाली हे ||९९४||
हे नादाची टांकसाळ| हे चमत्काराचें वेळाउळ| किंबहुना सकळ| खेळु इयेचा ||९९५||
जे उत्पत्ति प्रलयो होत| ते इयेचे सायंप्रात| हें असो अद्भुत| मोहन हे ||९९६||
हे अद्वयाचें दुसरें| हे निःसंगाचें सोयरे| निराळेंसि घरें| नांदत असे ||९९७||
इयेतें येतुलावरी| सौभाग्यव्याप्तीची थोरी| म्हणौनि तया आवरी| अनावरातें ||९९८||
तयाच्या तंव ठायीं| निपटूनि कांहींचि नाहीं| कीं तया आघवेहीं| आपणचि होय ||९९९||
तया स्वयंभाची संभूती| तया अमूर्ताची मूर्ती| आपण होय स्थिती| ठावो तया ||१०००||
तया अनार्ताची आर्ती| तया पूर्णाची तृप्ती| तया अकुळाची जाती- | गोत होय ||१००१||
तया अचर्चाचें चिन्ह| तया अपाराचें मान| तया अमनस्काचें मन| बुद्धीही होय ||१००२||
तया निराकाराचा आकारु| तया निर्व्यापाराचा व्यापारु| निरहंकाराचा अहंकारु| होऊनि ठाके ||१००३||
तया अनामाचें नाम| तया अजाचें जन्म| आपण होय कर्म- | क्रिया तया ||१००४||
तया निर्गुणाचे गुण| तया अचरणाचे चरण| तया अश्रवणाचे श्रवण| अचक्षूचे चक्षु ||१००५||
तया भावातीताचे भाव| तया निरवयवाचे अवयव| किंबहुना होय सर्व| पुरुषाचें हे ||१००६||
ऐसेनि इया प्रकृती| आपुलिया सर्व व्याप्ती| तया अविकारातें विकृती- | माजीं कीजे ||१००७||
तेथ पुरुषत्व जें असे| तें ये इये प्रकृतिदशे| चंद्रमा अंवसे| पडिला जैसा ||१००८||
विदळ बहु चोखा| मीनलिया वाला एका| कसु होय पांचका| जयापरी ||१००९||
कां साधूतें गोंधळी| संचारोनि सुये मैळी| नाना सुदिनाचा आभाळीं| दुर्दिनु कीजे ||१०१०||
जेवीं पय पशूच्या पोटीं| कां वन्हि जैसा काष्ठीं| गुंडूनि घेतला पटीं| रत्नदीपु ||१०११||
राजा पराधीनु जाहला| कां सिंहु रोगें रुंधला| तैसा पुरुष प्रकृती आला| स्वतेजा मुके ||१०१२||
जागता नरु सहसा| निद्रा पाडूनि जैसा| स्वप्नींचिया सोसा| वश्यु कीजे ||१०१३||
तैसें प्रकृति जालेपणें| पुरुषा गुण भोगणें| उदास अंतुरीगुणें| आतुडे जेवीं ||१०१४||
तैसें अजा नित्या होये| आंगीं जन्ममृत्यूचे घाये| वाजती जैं लाहे| गुणसंगातें ||१०१५||
परि तें ऐसें पंडुसुता| तातलें लोह पिटितां| जेवीं वन्हीसीचि घाता| बोलती तया ||१०१६||
कां आंदोळलिया उदक| प्रतिभा होय अनेक| तें नानात्व म्हणती लोक| चंद्रीं जेवीं ||१०१७||
दर्पणाचिया जवळिका| दुजेपण जैसें ये मुखा| कां कुंकुमें स्फटिका| लोहितत्व ये ||१०१८||
तैसा गुणसंगमें| अजन्मा हा जन्मे| पावतु ऐसा गमे| एऱ्हवीं नाहीं ||१०१९||
अधमोत्तमा योनी| यासि ऐसिया मानी| जैसा संन्यासी होय स्वप्नीं| अंत्यजादि जाती ||१०२०||
म्हणौनि केवळा पुरुषा| नाहीं होणें भोगणें देखा| येथ गुणसंगुचि अशेखा- | लागीं मूळ ||१०२१||
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ||२२||
हा प्रकृतिमाजीं उभा| परी जुई जैसा वोथंबा| इया प्रकृति पृथ्वी नभा| तेतुला पाडु ||१०२२||
प्रकृतिसरितेच्या तटीं| मेरु होय हा किरीटी| माजीं बिंबे परी लोटीं| लोटों नेणे ||१०२३||
प्रकृति होय जाये| हा तो असतुचि आहे| म्हणौनि आब्रह्माचें होये| शासन हा ||१०२४||
प्रकृति येणें जिये| याचिया सत्ता जग विये| इयालागीं इये| वरयेतु हा ||१०२५||
अनंतें काळें किरीटी| जिया मिळती इया सृष्टी| तिया रिगती ययाच्या पोटीं| कल्पांतसमयीं ||१०२६||
हा महद्ब्रह्मगोसावी| ब्रह्मगोळ लाघवी| अपारपणें मवी| प्रपंचातें ||१०२७||
पैं या देहामाझारीं| परमात्मा ऐसी जे परी| बोलिजे तें अवधारीं| ययातेंचि ||१०२८||
अगा प्रकृतिपरौता| एकु आथी पंडुसुता| ऐसा प्रवादु तो तत्त्वता| पुरुषु हा पैं ||१०२९||
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह |
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ||२३||
जो निखळपणें येणें| पुरुषा यया जाणे| आणि गुणांचें करणें| प्रकृतीचें तें ||१०३०||
हें रूप हे छाया| पैल जळ हे माया| ऐसा निवाडु धनंजया| जेवीं कीजे ||१०३१||
तेणें पाडें अर्जुना| प्रकृतिपुरुषविवंचना| जयाचिया मना| गोचर जाहली ||१०३२||
तो शरीराचेनि मेळें| करूं कां कर्में सकळें| परी आकाश धुई न मैळे| तैसा असे ||१०३३||
आथिलेनि देहें| जो न घेपे देहमोहें| देह गेलिया नोहे| पुनरपि तो ||१०३४||
ऐसा तया एकु| प्रकृतिपुरुषविवेकु| उपकारु अलौकिकु| करी पैं गा ||१०३५||
परी हाचि अंतरीं| विवेक भानूचिया परी| उदैजे तें अवधारीं| उपाय बहुत ||१०३६||
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना |
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ||२४||
कोणी एकु सुभटा| विचाराचा आगिटां| आत्मानात्मकिटा| पुटें देउनी ||१०३७||
छत्तीसही वानी भेद| तोडोनियां निर्विवाद| निवडिती शुद्ध| आपणपें ||१०३८||
तया आपणपयाच्या पोटीं| आत्मध्यानाचिया दिठी| देखती गा किरीटी| आपणपेंचि ||१०३९||
आणिक पैं दैवबगें| चित्त देती सांख्ययोगें| एक ते अंगलगें| कर्माचेनी ||१०४०||
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते |
तेऽपि चातितरंत्येव मृत्युं श्रुतिपरायणः ||२५||
येणें येणें प्रकारें| निस्तरती साचोकारें| हें भवा भेउरें| आघवेंचि ||१०४१||
परी ते करिती ऐसें| अभिमानु दवडूनि देशें| एकाचिया विश्वासें| टेंकती बोला ||१०४२||
जे हिताहित देखती| हानि कणवा घेपती| पुसोनि शिणु हरिती| देती सुख ||१०४३||
तयांचेनि मुखें जें निघे| तेतुलें आदरें चांगें| ऐकोनियां आंगें| मनें होती ||१०४४||
तया ऐकणेयाचि नांवें| ठेविती गा आघवें| तया अक्षरांसीं जीवें| लोण करिती ||१०४५||
तेही अंतीं कपिध्वजा| इया मरणार्णवसमाजा- | पासूनि निघती वोजा| गोमटिया ||१०४६||
ऐसेसे हे उपाये| बहुवस एथें पाहें| जाणावया होये| एकी वस्तु ||१०४७||
आतां पुरे हे बहुत| पैं सर्वार्थाचें मथित| सिद्धांतनवनीत| देऊं तुज ||१०४८||
येतुलेनि पंडुसुता| अनुभव लाहाणा आयिता| येर तंव तुज होतां| सायास नाहीं ||१०४९||
म्हणौनि ते बुद्धि रचूं| मतवाद हे खांचूं| सोलीव निर्वचूं| फलितार्थुची ||१०५०||
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम् |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ||२६||
तरी क्षेत्रज्ञ येणें बोलें| तुज आपणपें जें दाविलें| आणि क्षेत्रही सांगितलें| आघवें जें ||१०५१||
तया येरयेरांच्या मेळीं| होईजे भूतीं सकळीं| अनिलसंगें सलिलीं| कल्लोळ जैसे ||१०५२||
कां तेजा आणि उखरा| भेटी जालिया वीरा| मृगजळाचिया पूरा| रूप होय ||१०५३||
नाना धाराधरधारीं| झळंबलिया वसुंधरी| उठिजे जेवीं अंकुरीं| नानाविधीं ||१०५४||
तैसें चराचर आघवें| जें कांहीं जीवु नावें| तें तों उभययोगें संभवे| ऐसें जाण ||१०५५||
इयालागीं अर्जुना| क्षेत्रज्ञा प्रधाना- | पासूनि न होती भिन्ना| भूतव्यक्ती ||१०५६||
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् |
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ||२७||
पैं पटत्व तंतु नव्हे| तरी तंतूसीचि तें आहे| ऐसां खोलीं डोळां पाहें| ऐक्य हें गा ||१०५७||
भूतें आघवींचि होती| एकाचीं एक आहाती| परी तूं प्रतीती| यांची घे पां ||१०५८||
यांचीं नामेंही आनानें| अनारिसीं वर्तनें| वेषही सिनाने| आघवेयांचे ||१०५९||
ऐसें देखोनि किरीटी| भेद सूसी हन पोटीं| तरी जन्माचिया कोटी| न लाहसी निघों ||१०६०||
पैं नानाप्रयोजनशीळें| दीर्घें वक्रें वर्तुळें| होती एकाचींच फळें| तुंबिणीयेचीं ||१०६१||
होतु कां उजू वांकुडें| परी बोरीचे हें न मोडे| तैसी भूतें अवघडें| परी वस्तु उजू ||१०६२||
अंगारकणीं बहुवसीं| उष्णता समान जैशी| तैसा नाना जीवराशीं| परेशु असे ||१०६३||
गगनभरी धारा| परी पाणी एकचि वीरा| तैसा या भूताकारा| सर्वांगीं तो ||१०६४||
हें भूतग्राम विषम| परी वस्तू ते एथ सम| घटमठीं व्योम| जिंयापरी ||१०६५||
हा नाशतां भूताभासु| एथ आत्मा तो अविनाशु| जैसा केयूरादिकीं कसु| सुवर्णाचा ||१०६६||
एवं जीवधर्महीनु| जो जीवेंसीं अभिन्नु| देख तो सुनयनु| ज्ञानियांमाजीं ||१०६७||
ज्ञानाचा डोळा डोळसां- | माजीं डोळसु तो वीरेशा| हे स्तुति नोहे बहुवसा| भाग्याचा तो ||१०६८||
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् |
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ||२८||
जे गुणेंद्रिय धोकोटी| देह धातूंची त्रिकुटी| पांचमेळावा वोखटी| दारुण हे ||१०६९||
हें उघड पांचवेउली| पंचधां आगी लागली| जीवपंचानना सांपडली| हरिणकुटी हे ||१०७०||
ऐसा असोनि इये शरीरीं| कोण नित्यबुद्धीची सुरी| अनित्यभावाच्या उदरीं| दाटीचिना ||१०७१||
परी इये देहीं असतां| जो नयेचि आपणया घाता| आणि शेखीं पंडुसुता| तेथेंचि मिळे ||१०७२||
जेथ योगज्ञानाचिया प्रौढी| वोलांडूनियां जन्मकोडी| न निगों इया भाषा बुडी| देती योगी ||१०७३||
जें आकाराचें पैल तीर| जें नादाची पैल मेर| तुर्येचें माजघर| परब्रह्म जें ||१०७४||
मोक्षासकट गती| जेथें येती विश्रांती| गंगादि आपांपती| सरिता जेवीं ||१०७५||
तें सुख येणेंचि देहें| पाय पाखाळणिया लाहे| जो भूतवैषम्यें नोहे| विषमबुद्धी ||१०७६||
दीपांचिया कोडी जैसें| एकचि तेज सरिसें| तैसा जो असतुचि असे| सर्वत्र ईशु ||१०७७||
ऐसेनि समत्वें पंडुसुता| जिये जो देखत साता| तो मरण आणि जीविता| नागवे फुडा ||१०७८||
म्हणौनि तो दैवागळा| वानीत असों वेळोवेळां| जे साम्यसेजे डोळां| लागला तया ||१०७९||
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः पश्यति तथाऽऽत्मानंअकर्तारं स पश्यति ||२९||
आणि मनोबुद्धिप्रमुखें| कर्मेंद्रियें अशेखें| करी प्रकृतीचि हें देखे| साच जो गा ||१०८०||
घरींचीं राहटती घरीं| घर कांहीं न करी| अभ्र धांवे अंबरीं| अंबर तें उगें ||१०८१||
तैसी प्रकृति आत्मप्रभा| खेळे गुणीं विविधारंभा| येथ आत्मा तो वोथंबा| नेणे कोण ||१०८२||
ऐसेनि येणें निवाडें| जयाच्या जीवीं उजिवडें| अकर्तयातें फुडें| देखिलें तेणें ||१०८३||
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति |
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ||३०||
एऱ्हवीं तैंचि अर्जुना| होईजे ब्रह्मसंपन्ना| जैं या भूताकृती भिन्ना| दिसती एकी ||१०८४||
लहरी जैसिया जळीं| परमाणुकणिका स्थळीं| रश्मीकरमंडळीं| सूर्याच्या जेवीं ? ||१०८५||
नातरी देहीं अवेव| मनीं आघवेचि भाव| विस्फुलिंग सावेव| वन्हीं एकीं ||१०८६||
तैसे भूताकार एकाचे| हें दिठी रिगे जैं साचें| तैंचि ब्रह्मसंपत्तीचें| तारूं लागे ||१०८७||
मग जया तयाकडे| ब्रह्मेचि दिठी उघडे| किंबहुना जोडे| अपार सुख ||१०८८||
येतुलेनि तुज पार्था| प्रकृतिपुरुषव्यवस्था| ठायें ठावो प्रतीतिपथा- | माजीं जाहली ? ||१०८९||
अमृत जैसें ये चुळा| कां निधान देखिजे डोळां| तेतुला जिव्हाळा| मानावा हा ||१०९०||
जी जाहलिये प्रतीती| घर बांधणें जें चित्तीं| तें आतां ना सुभद्रापती| इयावरी ||१०९१||
तरी एक दोन्ही ते बोल| बोलिजती सखोल| देईं मनातें वोल| मग ते घेईं ||१०९२||
ऐसें देवें म्हणितलें| मग बोलों आदरिलें| तेथें अवधानाचेचि केलें| सर्वांग येरें ||१०९३||
अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ||३१||
तरी परमात्मा म्हणिपे| तो ऐसा जाण स्वरूपें| जळीं जळें न लिंपे| सूर्यु जैसा ||१०९४||
कां जे जळा आदीं पाठीं| तो असतुचि असे किरीटी| माजीं बिंबे तें दृष्टी| आणिकांचिये ||१०९५||
तैसा आत्मा देहीं| आथि म्हणिपे हें कांहीं| साचें तरी नाहीं| तो जेथिंचा तेथें ||१०९६||
आरिसां मुख जैसें| बिंबलिया नाम असे| देहीं वसणें तैसें| आत्मतत्त्वा ||१०९७||
तया देहा म्हणती भेटी| हे सपायी निर्जीव गोठी| वारिया वाळुवे गांठी| केंही आहे ? ||१०९८||
आगी आणि कापुसा| दोरा सुवावा कैसा| केउता सांदा आकाशा| पाषाणेंसी ? ||१०९९||
एक निघे पूर्वेकडे| एक तें पश्चिमेकडे| तिये भेटीचेनि पाडें| संबंधु हा ||११००||
उजियेडा आणि अंधारेया| जो पाडु मृता उभेयां| तोचि गा आत्मया| देहा जाण ||११०१||
रात्री आणि दिवसा| कनका आणि कापुसा| अपाडु कां जैसा| तैसाचि यासी ||११०२||
देह तंव पांचांचें जालें| हें कर्माचें गुणीं गुंथले| भंवतसे चाकीं सूदलें| जन्ममृत्यूच्या ||११०३||
हें काळानळाच्या तोंडीं| घातली लोणियाची उंडी| माशी पांखु पाखडी| तंव हें सरे ||११०४||
हें विपायें आगींत पडे| तरी भस्म होऊनि उडे| जाहलें श्वाना वरपडें| तरी ते विष्ठा ||११०५||
या चुके दोहीं काजा| तरी होय कृमींचा पुंजा| हा परिणामु कपिध्वजा| कश्मलु गा ||११०६||
या देहाची हे दशा| आणि आत्मा तो एथ ऐसा| पैं नित्य सिद्ध आपैसा| अनादिपणें ||११०७||
सकळु ना निष्कळु| अक्रियु ना क्रियाशीळु| कृश ना स्थुळु| निर्गुणपणें ||११०८||
आभासु ना निराभासु| प्रकाशु ना अप्रकाशु| अल्प ना बहुवसु| अरूपपणें ||११०९||
रिता ना भरितु| रहितु ना सहितु| मूर्तु ना अमूर्तु| शून्यपणें ||१११०||
आनंदु ना निरानंदु| एक ना विविधु| मुक्त ना बद्धु| आत्मपणें ||११११||
येतुला ना तेतुला| आइता ना रचिला| बोलता ना उगला| अलक्षपणें ||१११२||
सृष्टीच्या होणा न रचे| सर्वसंहारें न वेंचे| आथी नाथी या दोहींचें| पंचत्व तो ||१११३||
मवे ना चर्चे| वाढे ना खांचे| विटे ना वेंचे| अव्ययपणें ||१११४||
एवं रूप पैं आत्मा| देहीं जें म्हणती प्रियोत्तमा| तें मठाकारें व्योमा| नाम जैसें ||१११५||
तैसें तयाचिये अनुस्यूती| होती जाती देहाकृती| तो घे ना सांडी सुमती| जैसा तैसा ||१११६||
अहोरात्रें जैशी| येती जाती आकाशीं| आत्मसत्तें तैसीं| देहें जाण ||१११७||
म्हणौनि इयें शरीरीं| कांहीं करवीं ना करी| आयताही व्यापारीं| सज्ज न होय ||१११८||
यालागीं स्वरूपें| उणा पुरा न घेपे| हें असो तो न लिंपे| देहीं देहा ||१११९||
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते |
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ||३२||
अगा आकाश कें नाहीं ? | हें न रिघेचि कवणे ठायीं ? | परी कायिसेनि कहीं| गादिजेना ||११२०||
तैसा सर्वत्र सर्व देहीं| आत्मा असतुचि असे पाहीं| संगदोषें एकेंही| लिप्त नोहे ||११२१||
पुढतपुढती एथें| हेंचि लक्षण निरुतें| जे जाणावें क्षेत्रज्ञातें| क्षेत्रविहीना ||११२२||
संसर्गें चेष्टिजे लोहें| परी लोह भ्रामकु नोहे| क्षेत्रक्षेत्रज्ञां आहे| तेतुला पाडु ||११२३||
दीपकाची अर्ची| राहाटी वाहे घरींची| परी वेगळीक कोडीची| दीपा आणि घरा ||११२४||
पैं काष्ठाच्या पोटीं| वन्हि असे किरीटी| परी काष्ठ नोहे या दृष्टी| पाहिजे हा ||११२५||
अपाडु नभा आभाळा| रवि आणि मृगजळा| तैसाचि हाही डोळां| देखसी जरी ||११२६||
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः |
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ||३३||
हें आघवेंचि असो एकु| गगनौनि जैसा अर्कु| प्रगटवी लोकु| नांवें नांवें ||११२७||
एथ क्षेत्रज्ञु तो ऐसा| प्रकाशकु क्षेत्राभासा| यावरुतें हें न पुसा| शंका नेघा ||११२८||
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा |
भूतप्रकृतिमोक्षं च विदुर्यान्ति ते परम् ||३४||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगोनाम त्रयोदशोऽध्यायः ||१३अ ||
शब्दतत्त्वसारज्ञा| पैं देखणें तेचि प्रज्ञा| जे क्षेत्रा क्षेत्रज्ञा| अपाडु देखे ||११२९||
इया दोहींचें अंतर| देखावया चतुर| ज्ञानियांचे द्वार| आराधिती ||११३०||
याचिलागीं सुमती| जोडिती शांतिसंपत्ती| शास्त्रांचीं दुभतीं| पोसिती घरीं ||११३१||
योगाचिया आकाशा| वळघिजे येवढाचि धिंवसा| याचियाचि आशा| पुरुषासि गा ||११३२||
शरीरादि समस्त| मानिताति तृणवत| जीवें संतांचे होत| वाहणधरु ||११३३||
ऐसैसियापरी| ज्ञानाचिया भरोवरी| करूनियां अंतरीं| निरुतें होती ||११३४||
मग क्षेत्रक्षेत्रज्ञांचें| जें अंतर देखती साचें| ज्ञानें उन्मेख तयांचें| वोवाळूं आम्ही ||११३५||
आणि महाभूतादिकीं| प्रभेदलीं अनेकीं| पसरलीसे लटिकी| प्रकृति जे हे ||११३६||
जे शुकनळिकान्यायें| न लगती लागली आहे| हें जैसें तैसें होये| ठाउवें जयां ||११३७||
जैसी माळा ते माळा| ऐसीचि देखिजे डोळां| सर्पबुद्धि टवाळा| उखी होउनी ||११३८||
कां शुक्ति ते शुक्ती| हे साच होय प्रतीती| रुपेयाची भ्रांती| जाऊनियां ||११३९||
तैसी वेगळी वेगळेपणें| प्रकृति जे अंतःकरणें| देखती ते मी म्हणें| ब्रह्म होती ||११४०||
जें आकाशाहूनि वाड| जें अव्यक्ताची पैल कड| जें भेटलिया अपाडा पाड| पडों नेदी ||११४१||
आकारु जेथ सरे| जीवत्व जेथ विरे| द्वैत जेथ नुरे| अद्वय जें ||११४२||
तें परम तत्त्व पार्था| होती ते सर्वथा| जे आत्मानात्मव्यवस्था- | राजहंसु ||११४३||
ऐसा हा जी आघवा| श्रीकृष्णें तया पांडवा| उगाणा दिधला जीवा| जीवाचिया ||११४४||
येर कलशींचें येरीं| रिचविजे जयापरी| आपणपें तया श्रीहरी| दिधलें तैसें ||११४५||
आणि कोणा देता कोण| तो नर तैसा नारायण| वरी अर्जुनातें श्रीकृष्ण| हा मी म्हणे ||११४६||
परी असो तें नाथिलें| न पुसतां कां मी बोलें| किंबहुना दिधलें| सर्वस्व देवें ||११४७||
कीं तो पार्थु जी मनीं| अझुनी तृप्ती न मनी| अधिकाधिक उतान्ही| वाढवीतु असे ||११४८||
स्नेहाचिया भरोवरी| आंबुथिला दीपु घे थोरी| चाड अर्जुना अंतरीं| परिसतां तैसी ||११४९||
तेथ सुगरिणी आणि उदारे| रसज्ञ आणि जेवणारे| मिळती मग अवतरे| हातु जैसा ||११५०||
तैसें जी होतसे देवा| तया अवधानाचिया लवलवा| पाहतां व्याख्यान चढलें थांवा| चौगुणें वरी ||११५१||
सुवायें मेघु सांवरे| जैसा चंद्रें सिंधु भरे| तैसा मातुला रसु आदरें| श्रोतयांचेनि ||११५२||
आतां आनंदमय आघवें| विश्व कीजेल देवें| तें रायें परिसावें| संजयो म्हणे ||११५३||
एवं जे महाभारतीं| श्रीव्यासें आप्रांतमती| भीष्मपर्वसंगतीं| म्हणितली कथा ||११५४||
तो कृष्णार्जुनसंवादु| नागरीं बोलीं विशदु| सांगोनि द्ॐ प्रबंधु| वोवियेचा ||११५५||
नुसधीचि शांतिकथा| आणिजेल कीर वाक्पथा| जे शृंगाराच्या माथां| पाय ठेवी ||११५६||
द्ॐ वेल्हाळे देशी नवी| जे साहित्यातें वोजावी| अमृतातें चुकी ठेवी| गोडिसेंपणें ||११५७||
बोल वोल्हावतेनि गुणें| चंद्रासि घे उमाणे| रसरंगीं भुलवणें| नादु लोपी ||११५८||
खेचरांचियाही मना| आणीन सात्त्विकाचा पान्हा| श्रवणासवें सुमना| समाधि जोडे ||११५९||
तैसा वाग्विलास विस्तारू| गीतार्थेंसी विश्व भरूं| आनंदाचें आवारूं| मांडूं जगा ||११६०||
फिटो विवेकाची वाणी| हो कानामनाची जिणी| देखो आवडे तो खाणी| ब्रह्मविद्येची ||११६१||
दिसो परतत्त्व डोळां| पाहो सुखाचा सोहळा| रिघो महाबोध सुकाळा- | माजीं विश्व ||११६२||
हें निफजेल आतां आघवें| ऐसें बोलिजेल बरवें| जें अधिष्ठिला असें परमदेवें| श्रीनिवृत्तीं मी ||११६३||
म्हणौनि अक्षरीं सुभेदीं| उपमा श्लोक कोंदाकोंदी| झाडा देईन प्रतिपदीं| ग्रंथार्थासी ||११६४||
हा ठावोवरी मातें| पुरतया सारस्वतें| केलें असे श्रीमंतें| श्रीगुरुरायें ||११६५||
तेणें जी कृपासावायें| मी बोलें तेतुलें सामाये| आणि तुमचिये सभे लाहें| गीता म्हणों ||११६६||
वरी तुम्हा संतांचे पाये| आजि मी लाधलों आहें| म्हणौनि जी नोहे| अटकु काहीं ||११६७||
प्रभु काश्मिरीं मुकें| नुपजे हें काय कौतुकें| नाहीं उणीं सामुद्रिकें| लक्ष्मीयेसी ||११६८||
तैसी तुम्हां संतांपासीं| अज्ञानाची गोठी कायसी| यालागीं नवरसीं| वरुषेन मी ||११६९||
किंबहुना आतां देवा| अवसरु मज देयावा| ज्ञानदेव म्हणे बरवा| सांगेन ग्रंथु ||११७०||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां त्रयोदशोऽध्यायः ||
Encoded and proofread by
Chhaya Deo, Sharad Deo, and Vishwas Bhide.
Assisted by
Sunder Hattangadi, Joshi, and Shree Devi Kumar.
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% File name : dn13.itx
%--------------------------------------------
% Text title : Dnyaneshvari or Bhavarthadipika Chapter 13
% Author : Sant Dnyaneshwar
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments :
% Transliterated by : Vishwas Bhide vishwas_bhide@yahoo.com, santsahitya@yahoo.co.in, Sharad and Chhaya Deo
% Proofread by : Vishwas Bhide vishwas_bhide@yahoo.com, santsahitya@yahoo.co.in, Sharad and Chhaya Deo
% Latest update : June 20, 2005
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