||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १ ||
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय पहिला |
अर्जुनविषादयोगः |
ॐ नमो जी आद्या| वेद प्रतिपाद्या| जय जय स्वसंवेद्या| आत्मरूपा ||१||
देवा तूंचि गणेशु| सकलार्थमतिप्रकाशु| म्हणे निवृत्तिदासु| अवधारिजो जी ||२||
हें शब्दब्रह्म अशेष| तेचि मूर्ति सुवेष| जेथ वर्णवपु निर्दोष| मिरवत असे ||३||
स्मृति तेचि अवयव| देखा आंगीक भाव| तेथ लावण्याची ठेव| अर्थशोभा ||४||
अष्टादश पुराणें| तींचि मणिभूषणें| पदपद्धति खेवणें| प्रमेयरत्नांचीं ||५||
पदबंध नागर| तेंचि रंगाथिले अंबर| जेथ साहित्य वाणें सपूर| उजाळाचें ||६||
देखा काव्य नाटका| जे निर्धारितां सकौतुका| त्याचि रुणझुणती क्षुद्रघंटिका| अर्थध्वनि ||७||
नाना प्रमेयांची परी| निपुणपणें पाहतां कुसरी| दिसती उचित पदें माझारीं| रत्नें भलीं ||८||
तेथ व्यासादिकांच्या मतीं| तेचि मेखळा मिरवती| चोखाळपणें झळकती| पल्लवसडका ||९||
देखा षड्दर्शनें म्हणिपती| तेची भुजांची आकृति| म्हणौनि विसंवादे धरिती| आयुधें हातीं ||१०||
तरी तर्कु तोचि फरशु| नीतिभेदु अंकुशु| वेदांतु तो महारसु| मोदकु मिरवे ||११||
एके हातीं दंतु| जो स्वभावता खंडितु| तो बौद्धमतसंकेतु| वार्तिकांचा ||१२||
मग सहजें सत्कारवादु| तो पद्मकरु वरदु| धर्मप्रतिष्ठा तो सिद्धु| अभयहस्तु ||१३||
देखा विवेकवंतु सुविमळु| तोचि शुंडादंडु सरळु| जेथ परमानंदु केवळु| महासुखाचा ||१४||
तरी संवादु तोचि दशनु| जो समता शुभ्रवर्णु| देवो उन्मेषसूक्ष्मेक्षणु| विघ्नराजु ||१५||
मज अवगमलिया दोनी| मिमांसा श्रवणस्थानीं| बोधमदामृत मुनी| अली सेविती ||१६||
प्रमेयप्रवाल सुप्रभ| द्वैताद्वैत तेचि निकुंभ| सरिसेपणें एकवटत इभ- | मस्तकावरी ||१७||
उपरि दशोपनिषदें| जियें उदारें ज्ञानमकरंदे| तियें कुसुमें मुगुटीं सुगंधें| शोभती भलीं ||१८||
अकार चरण युगल| उकार उदर विशाल| मकार महामंडल| मस्तकाकारें ||१९||
हे तीन्ही एकवटले| तेथ शब्दब्रह्म कवळलें| तें मियां श्रीगुरुकृपा नमिलें| आदिबीज ||२०||
आतां अभिनव वाग्विलासिनी| ते चातुर्यार्थकलाकामिनी| ते शारदा विश्वमोहिनी| नमिली मियां ||२१||
मज हृदयीं सद्गुरु| जेणें तारिलों हा संसारपूरु| म्हणौनि विशेषें अत्यादरु| विवेकावरी ||२२||
जैसें डोळ्यां अंजन भेटे| ते वेळीं दृष्टीसी फांटा फुटे| मग वास पाहिजे तेथ| प्रगटे महानिधी ||२३||
कां चिंतामणी जालियां हातीं| सदा विजयवृत्ति मनोरथीं| तैसा मी पूर्णकाम श्रीनिवृत्ति| ज्ञानदेवो म्हणे ||२४||
म्हणोनि जाणतेनें गुरु भजिजे| तेणें कृतकार्य होईजे| जैसें मुळसिंचनें सहजें| शाखापल्लव संतोषती ||२५||
कां तीर्थें जियें त्रिभुवनीं| तियें घडती समुद्रावगाहनीं| ना तरी अमृतरसास्वादनीं| रस सकळ ||२६||
तैसा पुढतपुढती तोचि| मियां अभिवंदिला श्रीगुरुचि| जो अभिलषित मनोरुचि| पुरविता तो ||२७||
आतां अवधारा कथा गहन| जे सकळां कौतुकां जन्मस्थान| कीं अभिनव उद्यान| विवेकतरूचें ||२८||
ना तरी सर्व सुखाचि आदि| जे प्रमेयमहानिधि| नाना नवरससुधाब्धि| परिपुर्ण हे ||२९||
कीं परमधाम प्रकट| सर्व विद्यांचे मूळपीठ| शास्त्रजाता वसौट| अशेषांचें ||३०||
ना तरी सकळ धर्मांचें माहेर| सज्जनांचे जिव्हार| लावण्यरत्नभांडार| शारदेचें ||३१||
नाना कथारूपें भारती| प्रकटली असे त्रिजगतीं| आविष्करोनि महामतीं| व्यासाचिये ||३२||
म्हणौनि हा काव्यांरावो| ग्रंथ गुरुवतीचा ठावो| एथूनि रसां झाला आवो| रसाळपणाचा ||३३||
तेवींचि आइका आणिक एक| एथूनि शब्दश्री सच्छास्त्रिक| आणि महाबोधीं कोंवळीक| दुणावली ||३४||
एथ चातुर्य शहाणें झालें| प्रमेय रुचीस आलें| आणि सौभाग्य पोखलें| सुखाचें एथ ||३५||
माधुर्यीं मधुरता| श्रुंगारीं सुरेखता| रूढपण उचितां| दिसे भलें ||३६||
एथ कळाविदपण कळा| पुण्यासि प्रतापु आगळा| म्हणौनि जनमेजयाचे अवलीळा| दोष हरले ||३७||
आणि पाहतां नावेक| रंगीं सुरंगतेची आगळीक| गुणां सगुणपणाचें बिक| बहुवस एथ ||३८||
भानुचेनि तेजें धवळलें| जैसे त्रैलोक्य दिसे उजळिलें| तैसें व्यासमति कवळिलें| मिरवे विश्व ||३९||
कां सुक्षेत्रीं बीज घातलें| तें आपुलियापरी विस्तारलें| तैसें भारतीं सुरवाडलें| अर्थजात ||४०||
ना तरी नगरांतरीं वसिजे| तरी नागराचि होईजे| तैसें व्यासोक्तितेजें| धवळत सकळ ||४१||
कीं प्रथमवयसाकाळीं| लावण्याची नव्हाळी| प्रगटे जैसी आगळी| अंगनाअंगीं ||४२||
ना तरी उद्यानीं माधवी घडे| तेथ वनशोभेची खाणी उघडे| आदिलापासौनि अपाडें| जियापरी ||४३||
नानाघनीभूत सुवर्ण| जैसें न्याहाळितां साधारण| मग अलंकारीं बरवेपण| निवाडु दावी ||४४||
तैसें व्यासोक्ति अळंकारिलें| आवडे तें बरवेपण पातलें| तें जाणोनि काय आश्रयिलें| इतिहासीं ||४५||
नाना पुरतिये प्रतिष्ठेलागीं| सानीव धरूनि आंगीं| पुराणें आख्यानरूपें जगीं| भारता आलीं ||४६||
म्हणौनि महाभारतीं नाहीं| तें नोहेचि लोकीं तिहीं| येणें कारणें म्हणिपे पाहीं| व्यासोच्छिष्ट जगत्रय ||४७||
ऐसी जगीं सुरस कथा| जें जन्मभूमि परमार्था| मुनि सांगे नृपनाथा| जनमेजया ||४८||
जें अद्वितीय उत्तम| पवित्रैक निरुपम| परम मंगलधाम| अवधारिजो ||४९||
आतां भारतकमळपरागु| गीताख्यु प्रसंगु| जो संवादला श्रीरंगु| अर्जुनेंसीं ||५०||
ना तरी शदब्रह्माब्धि| मथियला व्यासबुद्धि| निवडिलें निरवधि| नवनीत हें ||५१||
मग ज्ञानाग्निसंपर्कें| कडसिलेंनि विवेकें| पद आलें परिपाकें| आमोदासी ||५२||
जें अपेक्षिजे विरक्तीं| सदा अनुभविजे संतीं| सोहंभावें पारंगतीं| रमिजे जेथ ||५३||
जें आकर्णिजें भक्तीं| जें आदिवंद्य त्रिजगतीं| तें भीष्मपर्वीं संगती| म्हणितली कथा ||५४||
जें भगवद्गीता म्हणिजे| जें ब्रह्मेशांनीं प्रशंसिजे| जें सनकादिकीं सेविजे| आदरेंसीं ||५५||
जैसें शारदीचिये चंद्रकळे| माजि अमृतकण कोंवळे| ते वेंचिती मनें मवाळें| चकोरतलगें ||५६||
तियापरी श्रोतां| अनुभवावी हे कथा| अतिहळुवारपण चित्ता| आणूनियां ||५७||
हें शब्देंवीण संवादिजे| इंद्रियां नेणतां भोगिजे| बोलाआधि झोंबिजे| प्रमेयासी ||५८||
जैसे भ्रमर परागु नेती| परी कमळदळें नेणती| तैसी परी आहे सेविती| ग्रंथीं इये ||५९||
कां आपुला ठावो न सांडितां| आलिंगिजे चंद्रु प्रकटतां| हा अनुरागु भोगितां| कुमुदिनी जाणे ||६०||
ऐसेनि गंभीरपणें| स्थिरावलोनि अंतःकरणें| आथिला तोचि जाणें| मानूं इये ||६१||
अहो अर्जुनाचिये पांती| जे परिसणया योग्य होती| तिहीं कृपा करूनि संतीं| अवधान द्यावें ||६२||
हें सलगी म्यां म्हणितलें| चरणां लागोनि विनविलें| प्रभू सखोल हृदय आपुलें| म्हणौनियां ||६३||
जैसा स्वभावो मायबापांचा| अपत्य बोले जरी बोबडी वाचा| तरी अधिकचि तयाचा| संतोष आथी ||६४||
तैसा तुम्हीं मी अंगिकारिला| सज्जनीं आपुला म्हणितला| तरी उणें सहजें उपसाहला| प्रार्थूं कायी ||६५||
परी अपराधु तो आणिक आहे| जे मी गीतार्थु कवळुं पाहें| तें अवधारा विनवूं लाहें| म्हणौनियां ||६६||
हें अनावर न विचारितां| वायांचि धिंवसा उपनला चित्ता| येऱ्हवीं भानुतेजीं काय खद्योता| शोभा आथी ||६७||
कीं टिटिभू चांचुवरी| माप सूये सागरीं| मी नेणतु त्यापरी| प्रवर्तें येथ ||६८||
आइका आकाश गिंवसावें| तरी आणीक त्याहूनि थोर होआवें| म्हणौनि अपाडू हें आघवें| निर्धारितां ||६९||
या गीतार्थाची थोरी| स्वयें शंभू विवरी| जेथ भवानी प्रश्नु करी| चमत्कारौनि ||७०||
तेथ हरु म्हणे नेणिजे| देवी जैसें कां स्वरूप तुझें| तैसें हें नित्य नूतन देखिजे| गीतातत्व ||७१||
हा वेदार्थ सागरु| जया निद्रिताचा घोरु| तो स्वयें सर्वेश्वरु| प्रत्यक्ष अनुवादला ||७२ ||
ऐसे जें अगाध| जेथ वेडावती वेद| तेथ अल्प मी मतिमंद| काई होये ||७३||
हें अपार कैसेनि कवळावें| महातेज कवणें धवळावें| गगन मुठीं सुवावें| मशकें केवीं ? ||७४||
परी एथ असे एकु आधारु| तेणेंचि बोले मी सधरु| जे सानुकूळ श्रीगुरु| ज्ञानदेवो म्हणे ||७५||
येऱ्हवीं तरी मी मुर्खु| जरी जाहला अविवेकु| तऱ्ही संतकृपादीपकु| सोज्वळु असे ||७६||
लोहाचें कनक होये| हें सामर्थ्य परिसींच आहे| कीं मृतही जीवित लाहे| अमृतसिद्धि ||७७||
जरी प्रकटे सिद्धसरस्वती| तरी मुकयाहि आथी भारती| एथ वस्तुसामर्थ्यशक्ति| नवल कयी ||७८||
जयातें कामधेनु माये| तयासी अप्राप्य कांहीं आहे| म्हणौनि मी प्रवर्तों लाहें| ग्रंथीं इये ||७९||
तरी न्यून ते पुरतें| अधिक तें सरतें| करूनि घेयावें हें तुमतें| विनवितु असे ||८०||
आतां देईजो अवधान| तुम्हीं बोलविल्या मी बोलेन| जैसे चेष्टे सूत्राधीन| दारुयंत्र ||८१||
तैसा मी अनुग्रहीतु| साधूंचा निरूपितु| ते आपुलियापरी अलंकारितु| भलतयापरी ||८२||
तंव श्रीगुरु म्हणती राहीं| हे तुज बोलावें नलगे कांहीं| आतां ग्रंथा चित्त देईं| झडकरी वेगां ||८३||
या बोला निवृत्तिदासु| पावूनि परम उल्हासु| म्हणे परियसा मना अवकाशु| देऊनियां ||८४||
धृतराष्ट्र उवाच |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ||१||
तरी पुत्रस्नेहें मोहितु| धृतराष्ट्र असे पुसतु| म्हणे संजया सांगे मातु| कुरुक्षेत्रींची ||८५||
जें धर्मालय म्हणिजे| तेथ पांडव आणि माझे| गेले असती व्याजें| जुंझाचेनि ||८६||
तरी तेचि येतुला अवसरीं| काय किजत असे येरयेरीं| ते झडकरी कथन करी| मजप्रती ||८७||
संजय उवाच |
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ||२||
तिये वेळीं तो संजय बोले| म्हणे पांडव सैन्य उचललें| जैसें महाप्रळयीं पसरलें| कृतांतमुख ||८८||
तैसें तें घनदाट| उठावलें एकवाट| जैसें उसळलें काळकूट| धरी कवण ||८९||
नातरी वडवानळु सादुकला| प्रळयवातें पोखला| सागरु शोषूनि उधवला| अंबरासी ||९०||
तैसें दळ दुर्धर| नानाव्यूहीं परीकर| अवगमलें भयासुर| तिये काळीं ||९१||
तें देखोनियां दुर्योधनें| अव्हेरिलें कवणें मानें| जैसे न गणिजे पंचाननें| गजघटांतें ||९२||
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||३||
मग द्रोणापासीं आला| तयांतें म्हणे हा देखिला| कैसा दळभारू उचलला| पांडवांचा ||९३||
गिरिदुर्ग जैसे चालते| तैसे विविध व्यूह सभंवते| रचिले आथी बुद्धिमंतें| द्रुपदकुमरें ||९४||
जो हा तुम्हीं शिक्षापिला| विद्या देऊनि कुरुठा केला| तेणें हा सैन्यसिंहु पाखरिला| देख देख ||९५||
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि |
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ||४||
आणिकही असाधारण| जे शस्त्रास्त्रीं प्रवीण| क्षात्रधर्मीं निपुण| वीर आहाती ||९६||
जे बळें प्रौढी पौरुषें| भीमार्जुनांसारिखे| ते सांगेन कौतुकें| प्रसंगेची ||९७||
एथ युयुधानु सुभटु| आला असे विराटु| महारथी श्रेष्ठु| द्रुपद वीरु ||९८||
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् |
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः ||५||
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ||६||
चेकितान धृष्टकेतु| काशिराज वीर विक्रांतु| उत्तमौजा नृपनाथु| शैब्य देख ||९९||
हा कुंतिभोज पाहें| एथ युधामन्यु आला आहे| आणि पुरुजितादि राय हे| सकळ देख ||१००||
हा सुभद्राहृदयनंदनु| जो अपरु नवार्जुनु| तो अभिमन्यु म्हणे दुर्योधनु| देखें द्रोणा ||१०१||
आणीकही द्रौपदीकुमर| हे सकळही महारथी वीर| मिती नेणिजे परी अपार| मीनले असती ||१०२||
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ||७||
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः |
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ||८||
आतां आमुच्या दळीं नायक| जे रूढवीर सैनिक| ते प्रसंगें आइक| सांगिजती ||१०३||
उद्देशें एक दोनी| जायिजती बोलोनी| तुम्ही आदिकरूनी| मुख्य जे जें ||१०४||
हा भीष्म गंगानंदनु| जो प्रतापतेजस्वी भानु| रिपुगजपंचाननु| कर्णवीरु ||१०५||
या एकेकाचेनी मनोव्यापारें| हें विश्व होय संहरे| हा कृपाचार्यु न पुरे| एकलाचि ||१०६||
एथ विकर्ण वीरु आहे| हा अश्वत्थामा पैल पाहें| याचा आडदरु सदां वाहे| कृतांतु मनीं ||१०७||
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः |
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ||९||
समितिंजयो सौमदत्ती| ऐसे आणीकही बहुत आहाती| जयांचिया बळा मिती| धाताही नेणें ||१०८||
जे शास्त्रविद्यापारंगत| मंत्रावतार मूर्त| हो कां जें अस्त्रजात| एथूनि रूढ ||१०९||
हे अप्रतिमल्ल जगीं| पुरता प्रतापु अंगीं| परी सर्व प्राणें मजलागीं| आरायिले असती ||११०||
पतिव्रतेचें हृदय जैसें| पतिवांचूनि न स्पर्शे| मी सर्वस्व या तैसें| सुभटांसी ||१११||
आमुचिया काजाचेनि पाडें| देखती आपुलें जीवित थोकडें| ऐसे निरवधि चोखडें| स्वामिभक्त ||११२||
झुंजती कुळकणी जाणती| कळे किर्तीसी जिती| हे बहु असो क्षात्रनीति| एथोनियां ||११३||
ऐसे सर्वांपरि पुरते| वीर दळीं आमुते| आतं काय गणूं यांतें| अपार हे ||११४||
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ||१०||
वरी क्षत्रियांमाजी श्रेष्ठु| जो जगजेठी जगीं सुभटु| तया दळवैपणाचा पाटु| भीष्मासि पैं ||११५||
आतां याचेनि बळें गवसलें| हे दुग जैसे पन्नासिलें| येणें पाडें थेकुलें| लोकत्रय ||११६||
आधींच समुद्र पाहीं| तेथ दुवाडपण कवणा नाहीं| मग वडवानळु तैसे याही| विरजा जैसा ||११७||
ना तरीं प्रळयवन्ही महावातु| या दोघां जैसा सांधातु| तैसा हा गंगासुतु| सेनापति ||११८||
आतां येणेंसि कवण भिडे| हें पांडवसैन्य कीर थोकडें| परि वरचिलेनि पाडें| दिसत असे ||११९||
वरी भीमसेनु बेथु| तो जाहला असे सेनानाथु| ऐसें बोलोनियां मातु| सांडिली तेणें ||१२०||
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ||११||
मग पुनरपि काय बोले| सकळ सैनिकांतें म्हणितलें| आतां दळभार आपुलाले| सरसे करा ||१२१||
जया जिया अक्षौहिणी| तेणें तिया आरणी| वरगण कवणकवणी| महारथीया ||१२२||
तेणें तिया आवरिजे| भीष्मातळीं राहिजे| द्रोणातें म्हणे पाहिजे| तुम्ही सकळ ||१२३||
हाचि एकु रक्षावा| मी तैसा हा देखावा| येणें दळभारु आघवा| साचु आमुचा ||१२४||
तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान् ||१२||
या राजयाचिया बोला| सेनापति संतोषला| मग तेणें केला| सिंहनादु ||१२५||
तो गाजत असे अद्भुतु| दोन्ही सैन्याआंतु| प्रतिध्वनि न समातु| उपजत असे ||१२६||
तयाचि तुलगासवें| वीरवृत्तीचेनि थावें| दिव्य शंख भीष्मदेवें| आस्फुरिला ||१२७||
ते दोन्ही नाद मीनले| तेथ त्रैलोक्य बधिरीभूत जाहलें| जैसें आकाश कां पडिलें| तुटोनिया ||१२८||
घडघडीत अंबर| उचंबळत सागर| क्षोभलें चराचर| कांपत असे ||१२९||
तेणें महाघोषगजरें| दुमदुमिताती गिरिकंदरें| तव दळामाजीं रणतुरें| आस्फुरिलीं ||१३०||
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ||१३||
उदंड सैंघ वाजतें| भयानखें खाखातें| महाप्रळयो जेथें| धाकडांसी ||१३१||
भेरी निशाण मांदळ| शंख काहळ भोंगळ| आणि भयासुर रणकोल्हाळ| सुभटांचे ||१३२||
आवेशें भुजा त्राहाटिती| विसणेले हांका देती| जेथ महामद भद्रजाती| आवरती ना ||१३३||
तेथ भेडांची कवण मातु| कांचया केर फिटतु| जेणें दचकला कृतांतु| आंग नेघे ||१३४||
एकां उभयाचि प्राण गेले| चांगांचे दांत बैसले| बिरुदाचे दादुले| हिंवताती ||१३५||
ऐसा अद्भुत तूरबंबाळु| ऐकोनि ब्रह्मा व्याकुळु| देव म्हणती प्रळयकाळु| वोढवला आजी ||१३६||
ततः श्वेतैहयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ||१४||
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः ||१५||
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः |
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ||१६||
ऐसी स्वर्गीं मातु| देखोनि तो आकांतु| तव पांडवदळाआंतु| वर्तलें कायी ||१३७||
हो कां निजसार विजयाचें| कीं तें भांडार महातेजाचें| जेथ गरुडाचिये जावळियेचे| कांतले चाऱ्ही ||१३८||
कीं पाखांचा मेरु जैसा| रहंवरु मिरवतसे तैसा| तेजें कोंदाटलिया दिशा| जयाचेनि ||१३९||
जेथ अश्ववाहकु आपण| वैकुंठींचा राणा जाण| तया रथाचे गुण| काय वर्णूं ||१४०||
ध्वजस्तंभावरी वानरु| तो मुर्तिमंत शंकरु| सारथी शारङ्गधरु| अर्जुनेसीं ||१४१||
देखा नवल तया प्रभूचें| अद्भुत प्रेम भक्ताचें| जें सारथ्यपण पार्थाचें| करितु असे ||१४२||
पाइकु पाठींसी घातला| आपण पुढां राहिला| तेणें पाञ्चजन्यु आस्फुरिला| अवलीळाचि ||१४३||
परि तो महाघोषु थोरु| गर्जतु असे गंहिरु| जैसा उदेला लोपी दिनकरु| नक्षत्रांतें ||१४४||
तैसें तुरबंबाळु भंवते| कौरवदळीं गाजत होते| ते हारपोनि नेणों केउते| गेले तेथ ||१४५||
तैसाचि देखे येरे| निनादें अति गहिरे| देवदत्त धनुर्धरें| आस्फुरिला ||१४६||
ते दोन्ही शब्द अचाट| मिनले एकवट| तेथ ब्रह्मकटाह शतकूट| हों पाहत असे ||१४७||
तंव भीमसेनु विसणैला| जैसा महाकाळु खवळला| तेणें पौण्ड्र आस्फुरिला| महाशंखु ||१४८||
तो महाप्रलयजलधरु| जैसा घडघडिला गहिंरु| तंव अनंतविजयो युधिष्ठिरु| आस्फुरित असे ||१४९||
नकुळें सुघोषु| सहदेवें मणिपुष्पकु| जेणें नादें अंतकु| गजबजला ठाके ||१५०||
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः |
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ||१७||
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते |
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक् पृथक् ||१८||
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ||१९||
तेथ भूपति होते अनेक| द्रुपद द्रौपदेयादिक| हा काशीपति देख| महाबाहु ||१५१||
तेथ अर्जुनाचा सुतु| सात्यकि अपराजितु| धृष्टद्युम्नु नृपनाथु| शिखंडी हन ||१५२||
विराटादि नृपवर| जे सैनिक मुख्य वीर| तिहीं नानाशंख निरंतर| आस्फुरिले ||१५३||
तेणें महाघोषनिर्घातें| शेष कूर्म अवचितें| गजबजोनि भूभारातें| सांडूं पाहती ||१५४||
तेथ तीन्ही लोक डळमळित| मेरु मांदार आंदोळित| समुद्रजळ उसळत| कैलासवेरी ||१५५||
पृथ्वीतळ उलथों पहात| आकाश असे आसुडत| तेथ सडा होत| नक्षत्रांचा ||१५६||
सृष्टी गेली रे गेली| देवां मोकळवादी जाहली| ऐशी एक टाळी पिटली| सत्यलोकीं ||१५७||
दिहाचि दिन थोकला| जैसा प्रलयकाळ मांडला| तैसा हाहाकारु जाहला| तिन्हीं लोकीं ||१५८||
तें देखोनि आदिपुरुषु विस्मितु| म्हणे झणें होय पां अंतु| मग लोपिला अद्भुतु| संभ्रमु तो ||१५९||
म्हणौनि विश्व सांवरलें| एऱ्हवीं युगांत होतें वोडवलें| जैं महाशंख आस्फुरिले| कृष्णादिकीं ||१६०||
तो घोष तरी उपसंहरला| परि पडिसाद होता राहिला| तेणें दळभार विध्वंसिला| कौरवांचा ||१६१||
जैसा गजघटाआंतु| सिंह लीला विदारितु| तैसा हृदयातें भेदितु| कौरवांचिया ||१६२||
तो गाजत जंव आइकती| तंव उभेचि हिये घालिती| एकमेकांतें म्हणती| सावध रे सावध ||१६३||
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ||२०||
तेथ बळें प्रौढीपुरतें| महारथी वीर होते| तिहीं पुनरपि दळातें| आवरिलें ||१६४||
मग सरिसेपणें उठावले| दुणवटोनि उचलले| तया दंडीं क्षोभलें| लोकत्रय ||१६५||
तेथ बाणवरी धर्नुधर| वर्षताती निरंतर| जैसे प्रळयांत जलधर| अनिवार कां ||१६६||
ते देखलिया अर्जुनें| संतोष घेऊनि मनें| मग संभ्रमें दिठी सेने| घालीतसे ||१६७||
तंव संग्रामीं सज्ज जाहले| सकळ कौरव देखिले| तंव लीलाधनुष्य उचललें| पंडुकुमरें ||१६८||
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |
अर्जुन उवाच |
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ||२१||
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ||२२||
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ||२३||
ते वेळीं अर्जुन म्हणतसे देवा| आतां झडकरी रथु पेलावा| नेऊनि मध्यें घालावा| दोहीं दळां ||१६९||
जंव मी नावेक| हे सकळ वीर सैनिक| न्याहाळीन अशेख| झुंजते ते ||१७०||
येथ आले असती आघवें| परी कवणेंसीं म्यां झुंजावें| हे रणीं लागे पहावें| म्हणौनियां ||१७१||
बहुतकरूनि कौरव| हे आतुर दुःस्वभाव| वांटिवेवीण हांव| बांधिती झुंजीं ||१७२||
झुंजाची आवडी धरिती| परी संग्रामीं धीर नव्हती| हें सांगोनि रायाप्रती| काय संजयो म्हणे ||१७३||
सञ्जय उवाच |
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ||२४||
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ||२५||
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ||२६||
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ||२७||
कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदमब्रवीत् |
आइका अर्जुन इतुकें बोलिला| तंव श्रीकृष्णें रथु पेलिला| दोही सैन्यांमाजीं केला| उभा तेणें ||७४||
जेथ भीष्मद्रोणादिक| जवळिकेचि सन्मुख| पृथिवीपति आणिक| बहुत आहाती ||७५||
तेथ स्थिर करूनियां रथु| अर्जुन असे पाहातु| तो दळभार समस्तु| संभ्रमेंसीं ||७६||
मग देवा म्हणे देख देख| हे गुरुगोत्र अशेख| तंव कृष्णमनीं नावेक| विस्मो जाहला ||७७||
तो आपणयां आपण म्हणे| एथ कायी कवण जाणे| हें मनीं धरलें येणें| परि कांहीं आश्चर्य असे ||७८||
ऐसी पुढील से घेतु| तो सहजें जाणें हृदयस्थु| परि उगा असे निवांतु| तिये वेळीं ||१७९||
तंव तेथ पार्थु सकळ| पितृ पितामह केवळ| गुरु बंधु मातुळ| देखता जाहला ||१८०||
इष्ट मित्र आपुले| कुमरजन देखिले| हे सकळ असती आले| तयांमाजी ||१८१||
सुहृज्जन सासरे| आणीकही सखे सोइरे| कुमर पौत्र धर्नुर्धरें| देखिले तेथ ||१८२||
जयां उपकार होते केले| कीं आपदीं जे रक्षिले| हे असो वडील धाकुले| आदिकरूनि ||१८३||
ऐसें गोत्रचि दोहीं दळीं| उदित जालें असे कळीं| हे अर्जुनें तिये वेळीं| अवलोकिलें ||१८४||
तेथ मनीं गजबज जाहली| आणि आपैसी कृपा आली| तेणें अपमानें निघाली| वीरवृत्ति ||१८५||
जिया उत्तम कुळींचिया होती| आणि गुणलावण्य आथी| तिया आणिकीतें न साहती| सुतेजपणें ||१८६||
नविये आवडीचेनि भरें| कामुक निजवनिता विसरे| मग पाडेंवीण अनुसरे| भ्रमला जैसा ||१८७||
कीं तपोबळें ऋद्धी| पातलिया भ्रंशे बुद्धी| मग तया विरक्तता सिद्धी| आठवेना ||१८८||
तैसें अर्जुना तेथ जाहलें| असतें पुरुषत्व गेलें| जे अंतःकरण दिधलें| कारुण्यासी ||१८९||
देखा मंत्रज्ञु बरळु जाय| मग तेथ कां जैसा संचारु होय| तैसा तो धनुर्धर महामोहें| आकळिला ||१९०||
म्हणौनि असतां धीरु गेला| हृदया द्रावो आला| जैसा चंद्रकळीं शिवतला| सोमकांतु ||१९१||
तयापरी पार्थु| अतिस्नेहें मोहितु| मग सखेद असे बोलतु| श्रीअच्युतेसीं ||१९२||
अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेमम् स्वजनं कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् ||२८||
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ||२९||
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात् त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ||३०||
तो म्हणे अवधारी देवा| म्यां पाहिला हा मेळावा| तंव गोत्र वर्गु आघवा| देखिला एथ ||१९३||
हें संग्रामीं उदित| जहाले असती कीर समस्त| पण आपणपेयां उचित| केवीं होय ||१९४||
येणें नांवेचि नेणों कायी| मज आपणपें सर्वथा नाहीं| मन बुद्धि ठायीं| स्थिर नोहे ||१९५||
देखे देह कांपत| तोंड असे कोरडें होत| विकळता उपजत| गात्रांसीही ||१९६||
सर्वांगा कांटाळा आला| अति संतापु उपनला| तेथ बेंबळ हातु गेला| गांडिवाचा ||१९७||
तें न धरतचि निष्टलें| परि नेणेंचि हातोनि पडिलें| ऐसें हृदय असे व्यापिलें| मोहें येणें ||१९८||
जें वज्रापासोनि कठिण| दुर्धर अतिदारुण| तयाहून असाधारण| हें स्नेह नवल ||१९९||
जेणें संग्रामीं हरु जिंतिला| निवातकवचांचा ठावो फेडिला| तो अर्जुन मोहें कवळिला| क्षणामाजीं ||२००||
जैसा भ्रमर भेदी कोडें| भलतैसें काष्ठ कोरडें| परि कळिकेमाजी सांपडे| कोंवळिये ||२०१||
तेथ उत्तीर्ण होईल प्राणें| परि तें कमळदळ चिरूं नेणें| तैसें कठिण कोवळेपणें| स्नेह देखा ||२०२||
हे आदिपुरुषाची माया| ब्रह्मेयाही नयेचि आया| म्हणौनि भुलविला ऐकें राया| संजयो म्हणे ||२०३||
अवधारी मग तो अर्जुनु| देखोनि सकळ स्वजनु| विसरला अभिमानु| संग्रामींचा ||२०४||
कैसी नेणों सदयता| उपनली तेथें चित्ता| मग म्हणे कृष्णा आतां| नसिजे एथ ||२०५||
माझें अतिशय मन व्याकुळ| होतसे वाचा बरळ| जे वधावे हे सकळ| येणें नांवें ||२०६||
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ||३१||
या कौरवां जरी वधावें| तरी युधिष्ठीरादिकां कां न वधावें| हे येरयेर आघवे| गोत्रज आमुचे ||२०७||
म्हणोनि जळो हें झुंज| प्रत्यया न ये मज| एणें काय काज| महापापें ||२०८||
देवा बहुतापरी पाहतां| एथ वोखटे होईल झुंजतां| वर कांहीं चुकवितां| लाभु आथी ||२०९||
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ||३२||
येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ||३३||
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः |
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ||३४||
तया विजयवृत्ती कांहीं| मज सर्वथा काज नाहीं| एथ राज्य तरी कायी| हे पाहुनियांं ||२१०||
या सकळांतें वधावें| मग हे भोग भोगावे| ते जळोत आघवे| पार्थु म्हणे ||२११||
तेणें सुखेंविण होईल| तें भलतैसें साहिजेल| वरी जीवितही वेंचिजेल| याचिलागीं ||२१२||
परी यांसी घातु कीजे| मग आपण राज्यसुख भोगिजे| हें स्वप्नींही मन माझें| करूं न शके ||२१३||
तरी आम्हीं कां जन्मावें| कवणलागीं जियावें| जरी वडिलां यां चिंतावें| विरुद्ध मनें ||२१४||
पुत्रातें इच्छी कुळ| तयाचें कायि हेंचि फळ| जे निर्दळिजे केवळ| गोत्र आपुलें ||२१५||
हें मनींचि केविं धरिजे| आपण वज्राचेया होईजे| वरी घडे तरी कीजे| भलें इयां ||२१६||
आम्हीं जें जें जोडावें| तें समस्तीं इहीं भोगावें| हें जीवितही उपकारावें| काजीं यांच्या ||२१७||
आम्ही दिगंतीचे भूपाळ| विभांडूनि सकळ| मग संतोषविजे कुळ| आपुलें जें ||२१८||
तेचि हे समस्त| परी कैसें कर्म विपरीत| जे जाहले असती उद्यत| झुंजावया ||२१९||
अंतौरिया कुमरें| सांडोनियां भांडारें| शस्त्राग्रीं जिव्हारें| आरोपुनी ||२२०||
ऐसियांतें कैसेनि मारूं ? | कवणावरी शस्त्र धरूं ? | निजहृदया करूं| घातु केवीं ? ||२२१||
हें नेणसी तूं कवण| परी पैल भीष्म द्रोण| जयांचे उपकार असाधारण| आम्हां बहुत ||२२२||
एथ शालक सासरे मातुळ| आणि बंधु कीं हे सकळ| पुत्र नातू केवळ| इष्टही असती ||२२३||
अवधारी अति जवळिकेचे| हे सकळही सोयरे आमुचे| म्हणौनि दोष आथी वाचे| बोलितांचि ||२२४||
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ||३५||
हे वरी भलतें करितु| आतांचि येथें मारितु| परि आपण मनें घातु| न चिंतावा ||२२५||
त्रैलोक्यींचें अनकळित| जरी राज्य होईल प्राप्त| तरी हें अनुचित| नाचरें मी ||२२६||
जरी आजि एथ ऐसें कीजे| तरी कवणाच्या मनीं उरिजे ? | सांगे मुख केवीं पाहिजे| तुझें कृष्णा ? ||२२७||
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन |
पापमेवाऽऽश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ||३६||
जरी वधु करोनि गोत्रजांचा| तरी वसौटा होऊनि दोषांचा| मज जोडिलासि तुं हातींचा| दूरी होसी ||२२८||
कुळहरणीं पातकें| तिये आंगीं जडती अशेखें| तये वेळीं तुं कवणें कें| देखावासी ? ||२२९||
जैसा उद्यानामाजीं अनळु| संचारला देखोनि प्रबळु| मग क्षणभरी कोकिळु| स्थिरु नोहे ||२३०||
का सकर्दम सरोवरु| अवलोकूनि चकोरु| न सेवितु अव्हेरु| करूनि निघे ||२३१||
तयापरी तुं देवा| मज झकवूं न येसीं मावा| जरी पुण्याचा वोलावा| नाशिजैल ||२३२||
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् |
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ||३७||
म्हणोनि मी हें न करीं| इये संग्रामीं शस्त्र न धरीं| हें किडाळ बहुतीं परी| दिसतसे ||२३३||
तुजसीं अंतराय होईल| मग सांगे आमुचें काय उरेल ? | तेणें दुःखें हियें फुटेल| तुजवीण कृष्णा ||२३४||
म्हणौनि कौरव हे वधिजती| मग आम्ही भोग भोगिजती| हे असो मात अघडती| अर्जुन म्हणे ||२३५||
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ||३८||
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ||३९||
हे अभिमानमदें भुललें| जरी पां संग्रामा आले| तऱ्ही आम्हीं हित आपुलें| जाणावें लागे ||२३६||
हें ऐसें कैसें करावें ? | जे आपुले आपण मारावे ? | जाणत जाणतांचि सेवावें| काळकूट ? ||२३७||
हां जी मार्गीं चालतां| पुढां सिंहु जाहला आवचिता| तो तंव चुकवितां| लाभु आथी ||२३८||
असता प्रकाशु सांडावा| मग अंधकूप आश्रावा| तरी तेथ कवणु देवा| लाभु सांगे ? ||२३९||
कां समोर अग्नि देखोनी| जरी न वचिजे वोसंडोनी| तरी क्षणा एका कवळूनी| जाळूं सके ||२४०||
तैसे दोष हे मूर्त| अंगी वाजों असती पहात| हें जाणतांही केवीं एथ| प्रवर्तावें ? ||२४१||
ऐसें पार्थु तिये अवसरीं| म्हणे देवा अवधारीं| या कल्मषाची थोरी| सांगेन तुज ||२४२||
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||४०||
जैसें कष्ठें काष्ठ मथिजे| तेथ वन्हि एक उपजे| तेणें काष्ठजात जाळिजे| प्रज्वळलेनि ||२४३||
तैसा गोत्रींचीं परस्परें| जरी वधु घडे मत्सरें| तरी तेणें महादोषें घोरें| कुळचि नाशे ||२४४||
म्हणौनि येणें पापें| वंशजधर्मु लोपे| मग अधर्मुचि आरोपे| कुळामाजीं ||२४५||
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ||४१||
एथ सारासार विचारावें| कवणें काय आचारावें| आणि विधिनिषेध आघवे| पारुषती ||२४६||
असता दीपु दवडिजे| मग अंधकारीं राहाटिजे| तरी उजूचि कां अडळिजे| जयापरी ||२४७||
तैसा कुळीं कुळक्षयो होय| तये वेळीं तो आद्यधर्मु जाय| मग आन कांहीं आहे| पापावांचुनी ? ||२४८||
जैं यमनियम ठाकती| तेथ इंद्रिये सैरा राहाटती| म्हणौनि व्यभिचार घडती| कुळस्त्रियांसी ||२४९||
उत्तम अधमीं संचरती| ऐसे वर्णावर्ण मिसळती| तेथ समूळ उपडती| जातिधर्म ||२५०||
जैसी चोहटाचिये बळी| पाविजे सैरा काउळीं| तैसीं महापापें कुळीं| संचरती ||२५१||
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ||४२||
मग कुळा तया अशेखा| आणि कुळघातकां| येरयेरां नरका| जाणें आथी ||२५२||
देखें वंशवृद्धि समस्त| यापरी होय पतित| मग वोवांडिती स्वर्गस्थ| पूर्वपुरुष ||२५३||
जेथ नित्यादि क्रिया ठाके| आणि नैमित्तिक क्रिया पारुखे| तेथ कवणा तिळोदकें| कवण अर्पी ? ||२५४||
तरी पितर काय करिती ? | कैसेनि स्वर्गीं वसती ? | म्हणौनि तेही येती| कुळापासीं ||२५५||
जैसा नखाग्रीं व्याळु लागे| तो शिखांत व्यापी वेगें| तेवीं आब्रह्म कुळ अवघें| आप्लविजे ||२५६||
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः |
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ||४३||
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||४४||
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ||४५||
देवा अवधारी आणीक एक| एथ घडे महापातक| जे संगदोषें हा लौकिक| भ्रंशु पावे ||२५७||
जैसा घरीं आपुला| वानिवसें अग्नि लागला| तो आणिकांहीं प्रज्वळिला| जाळूनि घाली ||२५८||
तैसिया तया कुळसंगती| जे जे लोक वर्तती| तेही बाधा पावती| निमित्तें येणें ||२५९||
तैसें नाना दोषें सकळ| अर्जुन म्हणे तें कुळ| मग महाघोर केवळ| निरय भोगी ||२६०||
पडिलिया तिये ठायीं| मग कल्पांतींही उकलु नाहीं| येसणें पतन कुळक्षयीं| अर्जुन म्हणे ||२६१||
देवा हें विविध कानीं ऐकिजे| परी अझुनिवरी त्रासु नुपजे| हृदय वज्राचें हें काय कीजे| अवधारीं पां ||२६२||
अपेक्षिजे राज्यसुख| जयालागीं तें तंव क्षणिक| ऐसे जाणतांही दोख| अव्हेरू ना ? ||२६३||
जे हे वडिल सकळ आपुले| वधावया दिठी सूदले| सांग पां काय थेंकुलें| घडलें आम्हां ? ||२६४||
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ||४६||
आतां यावरी जें जियावें| तयापासूनि हें बरवें| जे शस्त्र सांडुनि साहावे| बाण यांचे ||२६५||
तयावरी होय जितुकें| तें मरणही वरी निकें| परी येणें कल्मषें| चाड नाहीं ||२६६||
ऐसें देखून सकळ| अर्जुनें आपुलें कुळ| मग म्हणे राज्य तें केवळ| निरयभोगु ||२६७||
सञ्जय उवाच |
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ||४७||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगोनाम प्रथमोऽध्यायः ||१अ ||
ऐसे तिये अवसरी| अर्जुन बोलिला समरीं| संजयो म्हणे अवधारीं| धृतराष्ट्रातें ||२६८||
मग अत्यंत उद्वेगला| न धरत गहींवरु आला| तेथ उडी घातली खालां| रथौनियां ||२६९||
जैसा राजकुमरु पदच्युतु| सर्वथा होय उपहतु| कां रवि राहुग्रस्तु| प्रभाहीनु ||२७०||
नातरी महासिद्धिसंभ्रमें| जिंतिला तापसु भ्रमें| मग आकळूनि कामें| दीनु कीजे ||२७१||
तैसा तो धर्नुधरु| अत्यंत दुःखें जर्जरु| दिसे जेथ रहंवरु| त्यजिला तेणें ||२७२||
मग धनुष्य बाण सांडिले| न धरत अश्रुपात आले| ऐसें ऐक राया वर्तलें| संजयो म्हणे ||२७३||
आतां यापरी तो वैकुंठनाथु| देखोनि सखेद पार्थु| कवणेपरी परमार्थु| निरूपील ||२७४||
ते सविस्तर पुढारी कथा| अति सकौतुक ऐकतां| ज्ञानदेव म्हणे आतां| निवृत्तिदासु ||२७५||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः ||
Encoded and proofread by
Chhaya Deo, Sharad Deo, and Vishwas Bhide.
Assisted by
Sunder Hattangadi, Joshi, and Shree Devi Kumar.
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% File name : dn01.itx
%--------------------------------------------
% Text title : Dnyaneshvari or Bhavarthadipika Chapter 1
% Author : Sant Dnyaneshwar
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
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% Transliterated by : Vishwas Bhide vishwas_bhide@yahoo.com, santsahitya@yahoo.co.in, Sharad and Chhaya Deo
% Proofread by : Vishwas Bhide vishwas_bhide@yahoo.com, santsahitya@yahoo.co.in, Sharad and Chhaya Deo
% Latest update : June 20, 2005
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