||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक २० ||
||दशक विसावा : पूर्णनाम ||२०||
समास पहिला : पूर्णापूर्णनिरूपण
||श्रीराम ||
प्राणीव्यापक मन व्यापक | पृथ्वी व्यापक तेज व्यापक |
वायो आकाश त्रिगुण व्यापक | अंतरात्मा मूळमाया ||१||
निर्गुण ब्रह्म तें व्यापक | ऐसें अवघेंच व्यापक |
तरी हें सगट किं काये येक | भेद आहे ||२||
आत्मा आणि निरंजन | येणेंहि वाटतो अनुमान |
आत्मा सगुण किं निर्गुण | आणि निरंजन ||३||
श्रोता संदेहीं पडिला | तेणें संदेह वाढला |
अनुमान धरून बैसला | कोण तो कैसा ||४||
ऐका पहिली आशंका | अवघा गल्बला करूं नका |
प्रगट करून विवेका | प्रत्यये पाहावा ||५||
शरीरपाडें सामर्थ्यपाडें | प्राणी व्याप करी निवाडें |
परी पाहातां मनायेवढें | चपळ नाहीं ||६||
चपळपण येकदेसी | पूर्ण व्यापकता नव्हे त्यासी |
पाहातां पृथ्वीच्या व्यापासी | सीमा आहे ||७||
तैसेंचि आप आणि तेज | अपूर्ण दिसती सहज |
वायो चपळ समज | येकदेसी ||८||
गगन आणि निरंजन | तें पूर्ण व्यापक सघन |
कोणीयेक अनुमान | तेथें असेचिना ||९||
त्रिगुण गुणक्षोभिणी माया | माईक जाईल विलया |
अपूर्ण येकदेसी तया | पूर्ण व्यापकता न घडे ||१०||
आत्मा आणि निरंजन | हें दोहिकडे नामाभिधान |
अर्थान्वये समजोन | बोलणें करावें ||११||
आत्मा मन अत्यंत चपळ | तरी हें व्यापक नव्हेचि केवळ |
सुचित अंतःकर्ण निवळ | करून पाहावें ||१२||
अंतराळीं पाहातां पाताळी नाहीं | पाताळीं पाहातां अंतराळीं नाहीं |
पूर्णपणें वसत नाहीं | चहुंकडे ||१३||
पुढें पाहातां मागें नाहीं | मागें पाहातां पुढें नाहीं |
वाम सव्य व्याप नाहीं | दशदिशा ||१४||
चहुंकडे निशाणें मांडावीं | येकसरीं कैसीं सिवावीं |
याकारणें समजोन उगवी | प्रत्ययें आपणासी ||१५||
सूर्य आला प्रतिबिंबला | हाहि दृष्टांत न घडे वस्तुला |
वस्तुरूप निर्गुणाला | म्हणिजेत आहे ||१६||
घटाकाश मठकाश | हाहि दृष्टांत विशेष |
तुळूं जातां निर्गुणास | साम्यता येते ||१७||
ब्रह्मींचा अंश आकाश | आणी आत्म्याचा अंश मानस |
दोहींचा अनुभव प्रत्ययास | येथें घ्यावा ||१८||
गगन आणि हें मन | कैसे होती समान |
मननसीळ महाजन | सकळहि जाणती ||१९||
मन हें पुढें वावडे | मागें आवघेंचि रितें पडे |
पूर्ण गगनास साम्यता घडे | कोण्या प्रकारें ||२०||
परब्रह्मचि अचळ | आणि पर्वतासहि म्हणती अचळ |
दोनीही येक केवळ | हें कैसें म्हणावें ||२१||
ज्ञान विज्ञान विपरितज्ञान | तिनी कैसीं होती समान |
याचा प्रत्ययो मनन | करून पाहावा ||२२||
ज्ञान म्हणिजे जाणणें | अज्ञान म्हणिजे नेणणें |
विपरितज्ञान म्हणिजे देखणें | येकाचें येक ||२३||
जाणणें नेणणें वेगळें केलें | ढोबळें पंचभूतिक उरलें |
विपरीतज्ञान समजलें | पाहिजे जीवीं ||२४||
द्रष्टा साक्षी अंतरात्मा | जीवात्माची होये शिवात्मा |
पुढें शिवात्मा तोचि जीवात्मा | जन्म घेतो ||२५||
आत्मत्वीं जन्ममरण लागे | आत्मत्वीं जन्ममरण न भंगे |
संभवामि युगे युगे | ऐसे हें वचन ||२६||
जीव येकदेसी नर | विचारें जाला विश्वंभर |
विश्वंभरास संसार | चुकेना कीं ||२७||
ज्ञान आणि अज्ञान | वृत्तिरूपें हें समान |
निवृत्तिरूपें विज्ञान | जालें पाहिजे ||२८||
ज्ञानें येवढें ब्रह्मांड केलें | ज्ञानें येवढें वाढविलें |
नाना विकाराचें वळलें | तें हें ज्ञान ||२९||
आठवें देह ब्रह्मांडीचें | तें हें ज्ञान साचें |
विज्ञानरूप विदेहाचें | पद पाविजे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
पूर्णापूर्णनिरूपणनाम समास पहिला ||१||२०. १
समास दुसरा : सृष्टीत्रिविधलक्षणनिरूपण
||श्रीराम ||
मूळमाया नस्तां चंचळ | निर्गुण ब्रह्म तें निश्चळ |
जैसें गगन अंतराळ | चहुंकडे ||१||
दृश्य आलें आणि गेलें | परी तें ब्रह्म संचलें |
जैसें गगन कोंदाटलें | चहुंकडे ||२||
जिकडे पाहावें तिकडे अपार | कोणेकडे नाहीं पार |
येकजिनसी स्वतंत्र | दुसरें नाहीं ||३||
ब्रह्मांडावरतें बैसावें | अवकाश भकास अवलोकावें |
तेथें चंचळ व्यापकाच्या नांवें | सुन्याकार ||४||
दृश्य विवेकें काढिलें | मग परब्रह्म कोंदाटलें |
कोणासीच अनुमानलें | नाहीं कदा ||५||
अधोर्ध पाहातां चहुंकडे | निर्गुण ब्रह्म जिकडे तिकडे |
मन धांवेल कोणेकडे | अंत पाहावया ||६||
दृश्य चळे ब्रह्म चळेना | दृश्य कळे ब्रह्म कळेना |
दृश्य आकळे ब्रह्म आकळेना | कल्पनेसी ||७||
कल्पना म्हणिजे कांहींच नाहीं | ब्रह्म दाटले ठाईंचा ठाईं |
वाक्यार्थ विवरत जाई | म्हणिजे बरें ||८||
परब्रह्मायेवढें थोर नाहीं | श्रवणापरतें साधन नाहीं |
कळल्याविण कांहींच नाहीं | समाधान ||९||
पिप्लीकामार्गें हळु हळु घडे | विहंगमें फळासी गांठी पडे |
साधक मननीं पवाडे | म्हणिजे बरें ||१०||
परब्रह्मासारिखें दुसरें | कांहींच नाहीं खरें |
निंदा आणि स्तुतिउत्तरें | परब्रह्मीं नाहीं ||११||
ऐसे परब्रह्म येकजिनसी | कांहीं तुळेना तयासी |
मानुभव पुण्यरासी | तेथें पवाडती ||१२||
चंचळें होते दुःखप्राप्ती | निश्चळायेवडी नाहीं विश्रांती |
निश्चळ प्रत्ययें पाहाती | माहानुभाव ||१३||
मुळापासून शेवटवरी | विचारणा केलीच करी |
प्रत्ययाचा निश्चयो अंतरीं | तयासीच फावे ||१४||
कल्पनेचि सृष्टी जाली | त्रिविध प्रकारें भासली |
तिक्षण बुद्धीनें आणिली | पाहिजे मना ||१५||
मूळमायेपासून त्रिगुण | अवघें येकदेसी लक्षण |
पांचा भूतांचा ढोबळा गुण | दिसत आहे ||१६||
पृथ्वीपासून च्यारी खाणी | चत्वार वेगळाली करणी |
सकळ सृष्टीचि चाली येथुनी | पुढें नाहीं ||१७||
सृष्टीचें विविध लक्षण | विशद करूं निरूपण |
श्रोतीं सुचित अंतःकर्ण | केलें पाहिजे ||१८||
मूळमाया जाणीवेची | मुळीं सूक्ष्म कल्पनेची |
जैसी स्थिती परे वाचेची | तद्रूपचि ते ||१९||
अष्टधा प्रकृतीचें मूळ | ते हे मूळमायाच केवळ |
सूक्ष्मरूप बीज सकळ | मुळींच आहे ||२०||
जड पदार्थ चेतवितें तें | म्हणौन चैतन्य बोलिजेतें |
सूक्ष्म रूपें संकेतें | समजोन घ्यावीं ||२१||
प्रकृती पुरुषाचा विचार | अर्धनारीनटेश्वर |
अष्टधा प्रकृतीचा विचार | सकळ कांहीं ||२२||
गुप्त त्रिगुणाचें गूढत्व | म्हणौन संकेत महत्तत्व |
गुप्तरूपें शुद्धसत्व | तेथेंचि वसे ||२३||
जेथून गुण प्रगटती | तीस गुणक्षोभिणी म्हणती |
त्रिगुणाचीं रूपें समजती | धन्य ते साधु ||२४||
गुप्तरूपें गुणसौम्य | म्हणौनि बोलिजे गुणसाम्य |
सूक्ष्म संकेत अगम्य | बहुतांस कैंचा ||२५||
मूळमायेपासून त्रिगुण | चंचळ येकदेसी लक्षण |
प्रत्ययें पाहातां खूण | अंतरीं येते ||२६||
पुढें पंचभूतांचीं बंडें | वाढलीं विशाळें उदंडें |
सप्तद्वीपें नवखंडें | वसुंधरा हे ||२७||
त्रिगुणापासून पृथ्वीवरी | दुसऱ्या जिनसान्याची परी |
दोनी जिनस याउपरी | तिसरा ऐका ||२८||
पृथ्वी नाना जिनसाचें बीज | अंडज जारज श्वेतज उद्भिज |
च्यारी खाणी च्यारी वाणी सहज | निर्माण जाल्या ||२९||
खाणी वाणी होती जाती | परंतु तैसीच आहे जगती |
ऐसे होती आणी जाती | उदंड प्राणी ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सृष्टीत्रिविधलक्षणनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||२०. २
समास तिसरा : सूक्ष्मनामाभिधाननिरूपण
||श्रीराम ||
मुळींहून सेवटवरी | विस्तार बोलिला नानापरी |
पुन्हा विवरत विरत माघारी | वृत्ति न्यावी ||१||
च्यारी खाणी च्यारी वाणी | चौऱ्यासी लक्ष जीवयोनी |
नाना प्रकारीचे प्राणी | जन्मास येती ||२||
अवघे होती पृथ्वीपासूनी | पृथ्वीमधें जाती नासोनी |
अनेक येती जाती परी अवनी | तैसीच आहे ||३||
ऐसें हें सेंड्याकडिल खांड | दुसरें भूतांचें बंड |
तिसरें नामाभिधानें उदंड | सूक्ष्मरूपें ||४||
स्थूळ अवघें सांडून द्यावें | सूक्ष्मरूपें वोळखावें |
गुणापासून पाहिलेच पाहावें | सूक्ष्मदृष्टीं ||५||
गुणाचीं रूपें जाणिव नेणीव | पाहिलाच पाहावा अभिप्राव |
सूक्ष्मदृष्टीचें लाघव | येथून पुढें ||६||
शुद्ध नेणीव तमोगुण | शुद्ध जाणीव सत्त्वगुण |
जाणीवनेणीव रजोगुण | मिश्रित चालिला ||७||
त्रिगुणाचीं रूपें ऐसीं | कळों लागलीं अपैसीं |
गुणापुढील कर्दमासी | गुणक्षोभिणी बोलिजे ||८||
रज तम आणि सत्व | तिहींचें जेथें गूढत्व |
तें जाणिजे महत्तत्व | कर्दमरूप ||९||
प्रकृती पुरुष शिवशक्ति | अर्धनारीनटेश्वर म्हणती |
परी याची स्वरूपस्थिती | कर्दमरूप ||१०||
सूक्ष्मरूपें गुणसौम्य | त्यास बोलिजे गुणसाम्य |
तैसेंचि चैतन्य अगम्य | सूक्ष्मरूपी ||११||
बहुजिनसी मूळमाया | माहांकारण ब्रह्मांडीची काया |
ऐसिया सूक्ष्म अन्वया | पाहिलेंचि पाहावें ||१२||
च्यारी खाणी पांच भूतें | चौदा सूक्ष्म संकेतें |
काये पाहाणें तें येथें | शोधून पाहावें ||१३||
आहाच पाहातां कळेना | गरज केल्यां समजेना |
नाना प्रकारीं जनाच्या मना | संदेह पडती ||१४||
चौदा पांच येकोणीस | येकोणीस च्यारी तेविस |
यांमधें मूळ चतुर्दश | पाहिलेंचि पाहावें ||१५||
जो विवरोन समजला | तेथें संदेह नाहीं उरला |
समजल्याविण जो गल्बला | तो निरर्थक ||१६||
सकळ सृष्टीचें बीज | मूळमायेंत असे सहज |
अवघें समजतां सज्ज | परमार्थ होतो ||१७||
समजलें माणूस चावळेना | निश्चइ अनुमान धरीना |
सावळगोंदा करीना | परमार्थ कदा ||१८||
शब्दातीत बोलतां आलें | त्यास वाच्यांश बोलिलें |
शुद्ध लक्ष्यांश लक्षिलें | पाहिजे विवेकें ||१९||
पूर्वपक्ष म्हणिजे माया | सिद्धांतें जाये विलया |
माया नस्तां मग तया | काये म्हणावें ||२०||
अन्वये आणी वीतरेक | हा पूर्वपक्षाचा विवेक |
सिद्धांत म्हणिजे शुद्ध येक | दुसरें नाहीं ||२१||
अधोमुखें भेद वाढतो | ऊर्धमुखें भेद तुटतो |
निःसंगपणें निर्गुणी तो | माहांयोगी ||२२||
माया मिथ्या ऐसी कळली | तरी मग भीड कां लागली |
मायेचें भिडेनें घसरली | स्वरूपस्थिती ||२३||
लटके मायेनें दपटावें | सत्य परब्रह्म सांडावें |
मुख्य निश्चयें हिंडावें | कासयासी ||२४||
पृथ्वीमधें बहुत जन | त्यामधें असती सज्जन |
परी साधूस वोळखतो कोण | साधुवेगळा ||२५||
म्हणौन संसार सांडावा | मग साधूचा शोध घ्यावा |
फिरफिरों ठाइं पाडावा | साधुजन ||२६||
उदंड हुडकावे संत | सांपडे प्रचितीचा महंत |
प्रचितीविण स्वहित | होणार नाहीं ||२७||
प्रपंच अथवा परमार्थ | प्रचितीविण अवघें वेर्थ |
प्रत्ययेज्ञानी तो समर्थ | सकळांमध्यें ||२८||
रात्रंदिवस पाहावा अर्थ | अर्थ पाहेल तो समर्थ |
परलोकींच निजस्वार्थ | तेथेंचि घडे ||२९||
म्हणौन पाहिलेंचि पाहावें | आणि शोधिलेंचि शोधावें |
अवघें कळतां स्वभावें | संदेह तुटती ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूक्ष्मनामाभिधाननिरूपणनाम समास तिसरा ||३||२०. ३
समास चौथा : आत्मानिरूपण
||श्रीराम ||
सकळ जनास प्रार्थना | उगेंच उदास करावेंना |
निरूपण आणावें मना | प्रत्ययाचें ||१||
प्रत्यये राहिला येकेकडे | आपण धांवतो भलतेकडे |
तरी सारासाराचे निवाडे | कैसे होती ||२||
उगिच पाहातां सृष्टी | गल्बला दिसतो दृष्टीं |
परी ते राजसत्तेची गोष्टी | वेगळीच ||३||
पृथ्वीमधें जितुकीं शरीरें | तितुकीं भगवंताचीं घरें |
नाना सुखें येणें द्वारें | प्राप्त होती ||४||
त्याचा महिमा कळेल कोणाला | माता वांटून कृपाळु जाला |
प्रत्यक्ष जगदीश जगाला | रक्षितसे ||५||
सत्ता पृथ्वीमधें वांटली | जेथें तेथें विभागली |
कळेनें सृष्टि चालिली | भगवंताचे ||६||
मूळ जाणत्या पुरुषाची सत्ता | शरीरीं विभागली तत्वता |
सकळ कळा चातुर्यता | तेथें वसे ||७||
सकळ पुराचा ईश | जगामध्यें तो जगदीश |
नाना शरीरीं सावकास | करूं लागे ||८||
पाहातां सृष्टिची रचना | ते येकाचेन चालेना |
येकचि चालवी नाना | देह धरुनी ||९||
नाहीं उंच नीच विचारिलें | नाहीं बरें वाईट पाहिलें |
कार्ये चालों ऐसें जालें | भगवंतासी ||१०||
किंवा नेणणें आडवें केलें | किंवा अभ्यासीं घातलें |
हें कैसें कैसें केलें | त्याचा तोचि जाणे ||११||
जगदांतरीं अनुसंधान | बरें पाहाणें हेंचि ध्यान |
ध्यान आणी तें ज्ञान | येकरूप ||१२||
प्राणी संसारास आला | कांहीं येक शाहाणा जाला |
मग तो विवरों लागला | भूमंडळीं ||१३||
प्रगट रामाचें निशाण | आत्माराम ज्ञानघन |
विश्वंभर विद्यमान | भाग्यें कळे ||१४||
उपासना धुंडुन वासना धरिली | तरी ते लांबतचि गेली |
महिमा न कळे बोलिली | येथार्थ आहे ||१५||
द्रष्टा म्हणिजे पाहाता | साक्षी म्हणिजे जाणता |
अनंतरूपी अनंता | वोळखावें ||१६||
संगती असावी भल्यांची | धाटी कथा निरूपणाची |
कांहीं येक मनाची | विश्रांती आहे ||१७||
त्याहिमधें प्रत्ययेज्ञान | जाळून टाकिला अनुमान |
प्रचितीविण समाधान | पाविजेल कैंचें ||१८||
मूळसंकल्प तो हरिसंकल्प | मूळमायेमधील साक्षेप |
जगदांतरीं तेंचि रूप | देखिजेतें ||१९||
उपासना ज्ञानस्वरूप | ज्ञानीं चौथा देह आरोप |
याकारणें सर्व संकल्प | सोडून द्यावा ||२०||
पुढें परब्रह्म विशाळ | गगनासारिखें पोकळ |
घन पातळ कोमळ | काये म्हणावें ||२१||
उपासना म्हणिजे ज्ञान | ज्ञानें पाविजे निरंजन |
योगियांचें समाधान | येणें रितीं ||२२||
विचार नेहटूनसा पाहे | तरी उपासना आपणचि आहे |
येक जाये येक आहे | देह धरुनी ||२३||
अखंड ऐसी घालमेली | पूर्वापार होत गेली |
आतां हि तैसीच चालिली | उत्पत्ति स्थिती ||२४||
बनावरी बनचरांची सत्ता | जळावरी जळचरांची सत्ता |
भूमंडळीं भूपाळां समस्तां | येणेंचि न्यायें ||२५||
सामर्थ्य आहे चळवळेचें | जो जो करील तयाचें |
परंतु येथें भगवंताचें | अधिष्ठान पाहिजे ||२६||
कर्ता जगदीश हें तों खरें | परी विभाग आला पृथकाकारें |
तेथें अहंतेचें काविरें | बाधिजेना ||२७||
हरिर्दाता हरिर्भोक्ता | ऐसें चालतें तत्वता |
ये गोष्टीचा आतां | विचार पाहावा ||२८||
सकळ कर्ता परमेश्वरु | आपला माइक विचारु |
जैसें कळेल तैसें करूं | जगदांतरें ||२९||
देवायेवढें चपळ नाहीं | ब्रह्मायेवढें निश्चळ नाहीं |
पाइरी चढोन पाहीं | मूळपरियंत ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मानिरूपणनाम समास चौथा ||४||२०. ४
समास पांचवा : चत्वारजिन्नसनिरूपण
||श्रीराम ||
येथून पाहातां तेथवरी | चत्वार जीनस अवधारीं |
येक चौदा पांच च्यारी | ऐसें आहे ||१||
परब्रह्म सकळांहून वेगळें | परब्रह्म सकळांहून आगळें |
नाना कल्पनेनिराळें | परब्रह्म तें ||२||
परब्रह्माचा विचार | नाना कल्पनेहून पर |
निर्मळ निश्चळ निर्विकार | अखंड आहे ||३||
परब्रह्मास कांहींच तुळेना | हा येक मुख्य जिनसाना |
दुसरा जिनस नाना कल्पना | मूळमाया ||४||
नाना सूक्ष्मरूप | सूक्ष्म आणी कर्दमरूप |
मुळींच्या संकल्पाचा आरोप | मूळमाया ||५||
हरिसंकल्प मुळींचा | आत्माराम सकळांचा |
संकेत नामाभिधानाचा | येणें प्रकारें ||६||
निश्चळीं चंचळ चेतलें | म्हणौनि चैतन्य बोलिलें |
गुणसमानत्वें जालें | गुणसाम्य ऐसें ||७||
अर्धनारीनटेश्वर | तोचि शड्गुणैश्वर |
प्रकृतिपुरुषाचा विचार | शिवशक्ती ||८||
सुद्धसत्वगुणाची मांडणी | अर्धमात्रा गुणक्षोभिणी |
पुढें तिही गुणांची करणी | प्रगट जाली ||९||
मन माया अंतरात्मा | चौदा जिनसांची सीमा |
विद्यमान ज्ञानात्मा | इतुके ठाइं ||१०||
ऐसा दुसरा जिनस | अभिधानें चतुर्दश |
आतां तिसरा जिनस | पंचमाहाभूतें ||११||
येथें पाहातां जाणीव थोडी | आदिअंत हे रोकडी |
खाणी निरोपिल्या तांतडी | तो चौथा जिनस ||१२||
च्यारी खाणी अनंत प्राणी | जाणीवेची जाली दाटणी |
च्यारी जिनस येथूनी | संपूर्ण जाले ||१३||
बीज थोडें पेरिजेतें | पुढें त्याचें उदंड होतें |
तैसें जालें आत्मयातें | खाणी वाणी प्रगटतां ||१४||
ऐसी सत्ता प्रबळली | थोडे सत्तेचि उदंड जाली |
मनुष्यवेषें सृष्टी भोगिली | नाना प्रकारें ||१५||
प्राणी मारून स्वापद पळे | वरकड त्यास काये कळे |
नाना भोग तो निवळे | मनुष्यदेहीं ||१६||
नाना शब्द नाना स्पर्श | नाना रूप नाना रस |
नाना गंध ते विशेष | नरदेह जाणे ||१७||
अमोल्य रत्नें नाना वस्त्रें | नाना यानें नाना शस्त्रें |
नाना विद्या कळा शास्त्रें | नरदेह जाणे ||१८||
पृथ्वी सत्तेनें व्यापिली | स्थळोस्थळीं आटोपिली |
नाना विद्या कळा केली | नाना धारणा ||१९||
दृश्य अवघेंचि पाहावें | स्थानमान सांभाळावें |
सारासार विचारावें | नरदेहे जालियां ||२०||
येहलोक आणी परलोक | नाना प्रकारींचा विवेक |
विवेक आणी अविवेक | मनुष्य जाणे ||२१||
नाना पिंडीं ब्रह्मांडरचना | नाना मुळींची कल्पना |
नाना प्रकारीं धारणा | मनुष्य जाणे ||२२||
अष्टभोग नवरस | नाना प्रकारींचा विळास |
वाच्यांश लक्ष्यांश सारांश | मनुष्य जाणे ||२३||
मनुष्यें सकळांस आळिलें | त्या मनुष्यास देवें पाळिलें |
ऐसें हें अवघें कळलें | नरदेहयोगें ||२४||
नरदेह परम दुल्लभ | येणें घडे अलभ्य लाभ |
दुल्लभ तें सुल्लभ | होत आहे ||२५||
बरकड देहे हें काबाड | नरदेह मोठें घबाड |
परंतु पाहिजे जाड | विवेकरचना ||२६||
येथें जेणें आळस केला | तो सर्वस्वें बुडाला |
देव नाहीं वोळखिला | विवेकबळें ||२७||
नर तोचि नारायेण | जरी प्रत्ययें करी श्रवण |
मननशीळ अंतःकर्ण | सर्वकाळ ||२८||
जेणें स्वयेंचि पोहावें | त्यास कासेस नलगे लागावें |
स्वतंत्रपणें शोधावें | सकळ कांहीं ||२९||
सकळ शोधून राहिला | संदेह कैचा तयाला |
पुढें विचार कैसा जाला | त्याचा तोचि जाणे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चत्वारजिनसनाम समास पांचवा ||५||२०. ५
समास सहावा : आत्मागुणनिरूपण
||श्रीराम ||
पाहों जातां भूमंडळ | ठाईं ठाईं आहे जळ |
कित्तेक तें निर्मळ माळ | जळेंविण पृथ्वी ||१||
तैसें दृश्य विस्तारलें | कांहींयेक जाणिवेनें शोभलें |
जाणीवरहित उरलें | कीतीयेक दृश्य ||२||
च्यारी खाणी च्यारी वाणी | चौऱ्यासी लक्ष जीवयोनी |
शास्त्रीं अवघें नेमुनी | बोलिलें असे ||३||
||श्लोक ||
जलजा नवलक्षाश्च दशलक्षाश्च पक्षिणः |
कृमयो रुद्रलक्षाश्च विंशल्लक्षा गवादयः ||
स्थावरा स्त्रिंशल्लक्षाश्च चतुर्लक्षाश्च मानवाः |
पापपुण्यं समं कृत्वा नरयोनिषु जायते ||
मनुष्यें च्यारी लक्ष | पशु वीस लक्ष |
क्रिम आक्रा लक्ष | बोलिलें शास्त्रीं ||४||
दाहा लक्ष ते खेचर | नव लक्ष जळचर |
तीस लक्ष स्थावर | बोलिलें शास्त्रीं ||५||
ऐसी चौऱ्यासी लक्ष योनी | जितुका तितुका जाणता प्राणी |
अनंत देह्याची मांडणी | मर्यादा कैंची ||६||
अनंत प्राणी होत जाती | त्यांचें अधिष्ठान जगती |
जगतीवेगळी स्थिती | त्यास कैंची ||७||
पुढें पाहातां पंचभूतें | पावलीं पष्टदशेतें |
कोणी विद्यमान कोणी तें | उगीच असती ||८||
अंतरात्म्याची वोळखण | तेचि जेथें चपळपण |
जाणीवेचें अधिष्ठान | सावध ऐका ||९||
सुखदुख जाणता जीव | तैसाचि जाणावा सद शिव |
अंतःकर्णपंचक अपूर्व | अंश आत्मयाचा ||१०||
स्थुळीं आकाशाचे गुण | अंश आत्मयाचे जाण |
सत्व रज तमोगुण | गुण आत्मयाचे ||११||
नाना चाळणा नाना धृती | नवविधा भक्ति चतुर्विधा मुक्ती |
अलिप्तपण सहजस्थिती | गुण आत्मयाचे ||१२||
द्रष्टा साक्षी ज्ञानघन | सत्ता चैतन्य पुरातन |
श्रवण मनन विवरण | गुण आत्मयाचे ||१३||
दृश्य द्रष्टा दर्शन | ध्येय ध्याता ध्यान |
ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान | गुण आत्मयाचे ||१४||
वेदशास्त्रपुराणअर्थ | गुप्त चालिला परमार्थ |
सर्वज्ञपणें समर्थ | गुण आत्मयाचे ||१५||
बद्ध मुमुक्षु साधक सिद्ध | विचार पाहाणें शुद्ध |
बोध आणी प्रबोध | गुण आत्मयाचे ||१६||
जागृति स्वप्न सुषुप्ति तुर्या | प्रकृतिपुरुष मूळमाया |
पिंड ब्रह्मांड अष्टकाया | गुण आत्मयाचे ||१७||
परमात्मा आणी परमेश्वरी | जगदात्मा आणी जगदेश्वरी |
महेश आणी माहेश्वरी | गुण आत्मयाचे ||१८||
सूक्ष्म जितुकें नामरूप | तितुकें आत्मयाचें स्वरूप |
संकेतनामाभिधानें अमूप | सीमा नाहीं ||१९||
आदिशक्ती शिवशक्ती | मुख्य मूळमाया सर्वशक्ती |
नाना जीनस उत्पती स्थिती | तितुके गुण आत्मयाचे ||२०||
पूर्वपक्ष आणी सिद्धांत | गाणें वाजवणें संगीत |
नाना विद्या अद्भुत | गुण आत्मयाचे ||२१||
ज्ञान अज्ञान विपरीतज्ञान | असद्वृति सद्वृति जाण |
ज्ञेप्तिमात्र अलिप्तपण | गुण आत्मयाचे ||२२||
पिंड ब्रह्मांड तत्वझाडा | नाना तत्वांचा निवाडा |
विचार पाहाणें उघडा | गुण आत्मयाचे ||२३||
नाना ध्यानें अनुसंधानें | नाना स्थिति नाना ज्ञानें |
अनन्य आत्मनिवेदनें | गुण आत्मयाचे ||२४||
तेतीस कोटी सुरवर | आठ्यासी सहश्र ऋषेश्वर |
भूत खेचर अपार | गुण आत्मयाचे ||२५||
भूतावळी औट कोटी | च्यामुंडा छपन्न कोटी |
कात्यायेणी नव कोटी | गुण आत्मयाचे ||२६||
चंद्र सूर्य तारामंडळें | नाना नक्षत्रें ग्रहमंडळें |
शेष कूर्म मेघमंडळें | गुण आत्मयाचे ||२७||
देव दानव मानव | नाना प्रकारीचे जीव |
पाहातां सकळ भावाभाव | गुण आत्मयाचे ||२८||
आत्मयाचे नाना गुण | ब्रह्म निर्विकार निर्गुण |
जाणणें येकदेसी पूर्ण | गुण आत्मयाचे ||२९||
आत्मरामउपासना | तेणें पावले निरंजना |
निसंदेहे अनुष्ठना | ठावचि नाहीं ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मागुणनिरूपणनाम समास सहावा ||६||२०. ६
समास सातवा : आत्मानिरूपण
||श्रीराम ||
अनुर्वाच्य समाधान जालें | तें पाहिजे बोलिलें |
बोलिल्यासाठीं समाधान गेलें | हें तों घडेना ||१||
कांहीं सांडावें लागत नाहीं | कांहीं मांडावें लागत नाहीं |
येक विचार शोधून पाहीं | म्हणिजे कळे ||२||
मुख्य कासीविश्वेश्वर | श्वेतबंद रामेश्वर |
मलकार्जुन भीमाशंकर | गुण आत्मयाचे ||३||
जैसीं मुख्य बारा लिंगें | यावेगळीं अनंत लिंगें |
प्रचित जाणिजेत जगें | गुण आत्मयाचे ||४||
भूमंडळीं अनंत शक्ति | नाना साक्षात्कार चमत्कार होती |
नाना देवांच्या सामर्थ्यमूर्ती | गुण आत्मयाचे ||५||
नाना सिद्धांचीं सामर्थ्यें | नाना मंत्रांचीं सामर्थ्यें |
नानामोहरेवल्लींत सामर्थ्यें | गुण आत्मयाचे ||६||
नाना तीर्थांचीं सामर्थ्यें | नाना क्षेत्रांचीं सामर्थ्यें |
नाना भूमंडळीं सामर्थ्यें | गुण आत्मयाचे || ७||
जितुके कांहीं उत्तम गुण | तितुकें आत्मयाचें लक्षण |
बरें वाईट तितुकें जाण | आत्म्याचकरितां ||८||
शुद्ध आत्मा उत्तम गुणी | सबळ आत्मा अवलक्षणी |
बरी वाईट आवघी करणी | आत्मयाची ||९||
नाना साभिमान धरणें | नाना प्रतिसृष्टी करणें |
नाना श्रापउश्रापलक्षणें आत्मयाचेनी ||१०||
पिंडाचा बरा शोध घ्यावा | तत्वांचा पिंड शोधावा |
तत्वें शोधितां पिंड आघवा | कळों येतो ||११||
जड देह भूतांचा | चंचळ गुण आत्मयाचा |
निश्चळ ब्रह्मावेगळा ठाव कैचा | जेथें तेथें ||१२||
निश्चळ चंचळ आणी जड | पिंडीं करावा निवाड |
प्रत्ययवेगळें जाड | बोलणें नाहीं ||१३||
पिंडामधून आत्मा जातो | तेव्हां निवाडा कळों येतो |
देहे जड हा पडतो | देखतदेखतां ||१४||
जड तितुकें पडिलें | चंचळ तितुकें निघोनी गेलें |
जडचंचळाचें रूप आलें | प्रत्ययासी ||१५||
निश्चळ आहे सकळां ठाईं | हें तों पाहाणें नलगे कांहीं |
गुणविकार तेथें नाहीं | निश्चळासी ||१६||
जैसें पिंड तैसें ब्रह्मांड | विचार दिसतो उघड |
जड चंचळ जातां जाड | परब्रह्मचि आहे ||१७||
माहांभूतांचा खंबीर केला | आत्मा घालून पुतळा जाला |
चालिला सृष्टीचा गल्बला | येणें रितीं ||१८||
आत्मा माया विकार करी | आळ घालिती ब्रह्मावरी |
प्रत्ययें सकळ कांहीं विवरी | तोचि भला ||१९||
ब्रह्म व्यापक अखंड | वरकड व्यापकता खंड |
शोधून पाहातां जड | कांहींच नाहीं ||२०||
गगनासी खंडता नये | गगनाचें नासेल काये |
जरी जाला माहांप्रळये | सृष्टीसंव्हार ||२१||
जें संव्हारामध्यें सापडले | तें सहजचि नासिवंत जालें |
जाणते लोकीं उगविलें | पाहिजे कोडें ||२२||
न कळतां वाटे कोडें | कळतां आवघें दिसें उघडें |
म्हणोनी येकांतीं निवाडे | विचार पाहावा ||२३||
मिळता प्रत्ययाचे संत | येकांपरीस येकांत |
केली पाहिजे सावचित | नाना चर्चा ||२४||
पाहिल्यावेगळें कळत नाहीं | कळतां कळतां संदेह नाहीं |
विवेक पाहातां कोठेंचि नाहीं | मायाजाळ ||२५||
गगनीं आभाळ आलें | मागुती सवेंचि उडालें |
आत्म्याकरितां दृश्य जालें | उडेल तैसें ||२६||
मुळापासून सेवटवरी | विवेकी विवेकें विवरी |
तोचि निश्चय थावरी | चळेना ऐसा ||२७||
वरकड निश्चय अनुमानाचे | अनुमानें बोलतां काये वेंचे |
जाणते पुरुष प्रचितीचे | ते तों मानीतना ||२८||
उगेंच बोलणें अनुमानाचें | अनुमानाचें कोण्या कामाचें |
येथें सगट विचाराचें | काम नाहीं ||२९||
सगट विचार तो अविचार | कित्येक म्हणती येकंकार |
येकंकार भ्रष्टाकार | करूं नये ||३०||
कृत्रिम अवघें सांडावें | कांहीं येक शुद्ध घ्यावें |
जाणजाणों निवडावें | सारासार ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मानिरूपणनाम समास सातवा ||७||२०. ७
समास आठवा : देहेक्षेत्रनिरूपण
||श्रीराम ||
विधीप्रपंचतरु वाढला | वाढतां वाढतां विस्तीर्ण जाला |
फळें येतां विश्रांती पावला | बहुत प्राणी ||१||
नाना फळें रसाळें लागलीं | नाना जिनसी गोडीस आलीं |
गोडी पाहावया निर्माण केलीं | नाना शरीरें ||२||
निर्माण जाले उत्तम विषये | शरीरेंविण भोगितां नये |
म्हणोनी निर्मिला उपाये | नाना शरीरें ||३||
ज्ञानइंद्रियें निर्माण केलीं | भिन्न भिन्न गुणांचीं निर्मिलीं |
येका शरीरासी लागलीं | परी वेगळालीं ||४||
श्रोत्रइंद्रिंई शब्द पडिला | त्याचा भेद पाहिजे कळला |
ऐसा उपाये निर्माण केला | इंद्रियांमधें ||५||
त्वचेइंद्रियें सीतोष्ण भासे | चक्षुइंद्रियें सकळ दिसे |
इंद्रियांमधें गुण ऐसे | वेगळाले ||६||
जिव्हेमधें रस चाखणें | घ्राणामधें परिमळ घेणें |
इंद्रियांमधें वेगळाल्या गुणें | भेद केले ||७||
वायोपंचकीं अंतःकर्णपंचक | मिसळोनि फिरे निशंक |
ज्ञानइंद्रियें कर्मइंद्रियें सकळिक | सावकास पाहे ||८||
कर्मइंद्रियें लागवेगीं | जीव भोगीं विषयांलागीं |
ऐसा हा उपाये जगीं | ईश्वरें केला ||९||
निषय निर्माण जाले बरवे | शरीरेंविण कैसें भोगावे |
नाना शरीराचे गोवे | याकारणें ||१०||
अस्तीमांशाचे शरीर | त्यामधें गुणप्रकार |
शरीरासारिखें यंत्र | आणीक नाहीं ||११||
ऐसीं शरीरें निर्माण केलीं | विषयभोगें वाढविलीं |
लाहानथोर निर्माण जालीं | येणें प्रकारें ||१२||
अस्तीमांशांचीं शरीरें | निर्माण केली जगदेश्वरें |
विवेकें गुणविचारें | करूनियां ||१३||
अस्तिमौंशाचा पुतळा | जेणें ज्ञानें सकळ कळा |
शरीरभेद वेगळा | ठाईं ठाईं ||१४||
तो भेद कार्याकारण | त्याचा उदंड आहे गुण |
सकळ तीक्ष्ण बुद्धीविण | काये कळे ||१५||
सकळ करणें ईश्वराला | म्हणोनी भेद निर्माण जाला |
ऊर्धमुख होतां भेदाला | ठाव कैंचा ||१६||
सृष्टिकर्णीं आगत्य भेद | संव्हारें सहजचि अभेद |
भेद अभेद हा संवाद | मायागुणें ||१७||
मायेमधें अंतरात्मा | नकळे तयाचा महिमा |
जाला चतुर्मुख ब्रह्मा | तोहि संदेहीं पडे ||१८||
पीळ पेंच कडोविकडीं | तर्क तीक्षण घडीनें घडी |
मनासी होये तांतडी | विवरण करितां ||१९||
आत्मत्वें लागतें सकळ कांहीं | निरंजनीं हे कांहींच नाहीं |
येकांतकाळीं समजोन पाहीं | म्हणिजे बरें ||२०||
देहे सामर्थ्यानुसार | सकळ करी जगदेश्वर |
थोर सामर्थ्यें अवतार | बोलिजेती ||२१||
शेष कूर्म वऱ्हाव जाले | येवढे देहे विशाळ धरिले |
तेणें करितां रचना चाले | सकळ सृष्टीची ||२२||
ईश्वरें केवढें सूत्र केलें | सूर्यबिंब धावाया लाविलें |
धुकटाकरवीं धरविलें | अगाध पाणी ||२३||
पर्वताऐसे ढग उचलिती | सूर्यबिंबासी अछ्यादिति |
तेथें सवेंचि वायोची गती | प्रगट होये ||२४||
झिडकझिडकुं धांवे वारा | जैसा काळाचा म्हणियारा |
ढग मारुनी दिनकरा | मोकळे करी ||२५||
बैसती विजांचे तडाखे | प्राणीमात्र अवचिता धाके |
गगन कडकडून तडके | स्थळांवरी ||२६||
येहलोकासी येक वर्म केलें | महद्भूतें महद्भूत आळिलें |
सकळां समभागें चालिलें | सृष्टिरचनेसी ||२७||
ऐसे अनंत भेद आत्मयाचे | सकळ जाणती ऐसे कैंचें |
विवरतां विवरतां मनाचे | फडके होती ||२८||
ऐसी माझी उपासना | उपासकीं आणावी मना |
अगाध महिमा चतुरानना | काये कळे ||२९||
आवाहन विसर्जन | हें चि भजनाचें लक्षण |
सकळ जाणती सज्जन | मी काय सांगों ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देहेक्षेत्रनिरूपणनाम समास आठवा ||८||२०. ८
समास नववा : सूक्ष्मनिरूपण
||श्रीराम ||
मृतिकापूजन करावें | आणी सवेंचि विसर्जावें |
हें मानेना स्वभावें | अंतःकर्णासी ||१||
देव पूजावा आणी टाकावा | हें प्रशस्त न वटे जीवा |
याचा विचार पाहावा | अंतर्यामीं ||२||
देव करिजे ऐसा नाहीं | देव टाकिजे ऐसा नाहीं |
म्हणोनि याचा कांहीं | विचार पाहावा ||३||
देव नाना शरीरें धरितो | धरुनी मागुती सोडितो |
तरी तो देव कैसा आहे तो | विवेकें वोळखावा ||४||
नाना साधनें निरूपणें | देव शोधायाकारणें |
सकळ आपुले अंतःकर्णें | समजलें पाहिजे ||५||
ब्रह्मज्ञानाचा उपाये | समजल्याविण देतां नये |
पदार्थ आहे मा घे जाये | ऐसें म्हणावें ||६||
सगट लोकांचे अंतरींचा भाव | मज प्रतक्ष भेटवावा देव |
परंतु विवेकाचा उपाव | वेगळाचि आहे ||७||
विचार पाहातां तगेना | त्यास देव ऐसें म्हणावेना |
परंतु जन राहेना | काये करावें ||८||
थोर लोक मरोनि जाती | त्यांच्या सुरता करुनी पाहाती |
तैसीच आहे हेहि गती | उपासनेची ||९||
थोर व्यापार ठाकेना जनीं | म्हणोनि केली रखतवानी |
राजसंपदा तयाचेनी | प्राप्त कैची ||१०||
म्हणोनि जितुका भोळा भाव | तितुका अज्ञानाचा स्वभाव |
अज्ञानें तरी देवाधिदेव | पाविजेल कैचा ||११||
अज्ञानासी ज्ञान न माने | ज्ञात्यास अनुमान न माने |
म्हणोनि सिद्धांचीये खुणें | पावलें पाहिजे ||१२||
माया सांडून मुळास जावें | तरीच समाधान पावावें |
ऐसें न होतां भरंगळावें | भलतीकडे ||१३||
माया उलंघायाकारणें | देवासी नाना उपाय करणें |
अध्यात्मश्रवणपंथेंचि जाणें | प्रत्ययानें ||१४||
ऐसें न करितां लोकिकीं | अवघीच होते चुकामुकी |
स्थिति खरी आणि लटकी | ऐसी वोळखावी ||१५||
खोट्याचे वाटे जाऊं नये | खोट्याची संगती धरूं नये |
खोटें संग्रहीं करूं नये | कांहींयेक ||१६||
खोटें तें खोटेंचि खोटें | खऱ्यासी तगेनात बालटें |
मन अधोमुख उफराटें | केलें पाहिजे ||१७||
अध्यात्मश्रवण करीत जावें | म्हणिजे सकळ कांहीं फावे |
नाना प्रकारीचे गोवे | तुटोनी जाती ||१८||
सूत गुंतलें तें उकलावें | तैसे मन उगवावें |
मानत मानत घालावें | मुळाकडे ||१९||
सकळ कांहीं कालवलें | त्या सकळाचें सकळ जालें |
शरीरीं विभागले | सकळ कांहीं ||२०||
काये तें येथेंचि पाहावें | कैसें तें येथेंचि शोधावें |
सूक्ष्माचीं चौदा नांवें | येथेंचि समजावी ||२१||
निर्गुण निर्विकारी येक | तें सर्वां ठाईं व्यापक |
देह्यामधें तें निष्कळंक | आहे कीं नाहीं ||२२||
मूळमाया संकल्परूप | तें अंतःकर्णाचें स्वरूप |
जड चेतवी चैतन्यरूप | तें हि शरीरीं आहे ||२३||
समानगुण गुणसाम्य | सूक्ष्म विचार तो अगम्य |
सूक्ष्म साधु जाणते प्रणम्य | तया समस्तांसी ||२४||
द्विधा भासतें शरीर | वामांग दक्षिणांग विचार |
तोंचि अर्धनारीनटेश्वर | पिंडीं वोळखावा ||२५||
तोचि प्रकृतिपुरुष जाणिजे | शिवशक्ती वोळखिजे |
शडगुणईश्वर बोलिजे | तया कर्दमासी ||२६||
तयासीच म्हणिजे महत्तत्व | जेथें त्रिगुणाचें गूढत्व |
अर्धमात्रा शुद्धसत्व | गुणक्षोभिणा ||२७||
त्रिगुणें चालतें शरीर | प्रतक्ष दिसतो विचार |
मुळींच्या कर्दमाचें शरीर | ऐसें जाणावें ||२८||
मन माया आणि जीव | हाहि दिसतो स्वभाव |
चौदा नामांचा अभिप्राव | पिंडीं पाहावा ||२९||
पिंड पडतां अवघेंचि जातें | परंतु परब्रह्म राहातें |
शाश्वत समजोन मग तें | दृढ धरावें ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूक्ष्मनिरूपणनाम समास नववा ||९||२०. ९
समास दहावा : विमळब्रह्मनिरूपण
||श्रीराम ||
धरूं जातां धरितां न ये | टाकूं जातां टाकितां न ये |
जेथें तेथें आहेच आहे | परब्रह्म तें ||१||
जिकडे तिकडे जेथें तेथें | विन्मुख होतां सन्मुख होतें |
सन्मुखपण चुकेना तें | कांहीं केल्या ||२||
बैसलें माणूस उठोन गेलें | तेथें आकाशचि राहिलें |
आकाश चहुंकडे पाहिलें | तरी सन्मुखचि आहे ||३||
जिकडेतिकडे प्राणी पळोन जातें | तिकडे आकाशचि भोवतें |
बळें आकाशाबाहेर | कैसें जावें ||४||
जिकडेतिकडे प्राणी पाहे | तिकडे तें सन्मुखचि आहे |
समस्तांचें मस्तकीं राहे | माध्यानीं मार्तंड जैसा ||५||
परी तो आहे येकदेसी | दृष्टांत न घडे वस्तुसी |
कांहीं येक चमत्कारासी | देउनी पाहिलें ||६||
नाना तीर्थें नाना देसीं | कष्टत जावें पाहाव्यासी |
तैसें न लगे परब्रह्मासी | बैसलें ठाईं ||७||
प्राणी बैसोनीच राहातां | अथवा बहुत पळोन जातां |
परब्रह्म तें तत्वतां | समागमें ||८||
पक्षी अंतराळीं गेलां | भोवतें आकाशचि तयाला |
तैसे ब्रह्म प्राणीयाला | व्यापून आहे ||९||
परब्रह्म पोकळ घनदाट | ब्रह्म सेवटाचा सेवट |
ज्यासी त्यासी ब्रह्म नीट | सर्वकाळ ||१०||
दृश्या सबाहे अंतरीं | ब्रह्म दाटलें ब्रह्मांडोदरीं |
आरे त्या विमळाची सरी | कोणास द्यावी ||११||
वैकुंठकैळासस्वर्गलोकीं | इंद्रलोकीं चौदा लोकीं |
पन्नगादिकपाताळलोकीं | तेथेंचि आहे ||१२||
कासीपासून रामेश्वर | आवघें दाटलें अपार |
परता परता पारावार | त्यास नाहीं ||१३||
परब्रह्म तें येकलें | येकदांचि सकळांसी व्यापिले |
सकळांस स्पर्शोन राहिलें | सकळां ठाईं ||१४||
परब्रह्म पाउसें भिजेना | अथवा चिखलानें भरेना |
पुरामधें परी वाहेना | पुरासमागमें ||१५||
येकसरें सन्मुक विमुख | वाम सव्य दोहिंकडे येक |
आर्धऊर्ध प्राणी सकळीक | व्यापून आहे ||१६||
आकाशाचा डोहो भरला | कदापी नाहीं उचंबळला |
असंभाव्य पसरला | जिकडे तिकडे ||१७||
येकजिनसि गगन उदास | जेथें नाहीं दृश्यभास |
भासेंविण निराभास | परब्रह्म जाणावें || १८||
संतसाधुमाहानुभावां | देवदानवमानवां |
ब्रह्म सकळांसी विसांवा | विश्रांतिठाव ||१९||
कोणेकडे सेवटा जावें | कोणेकडे काये पाहावें |
असंभाव्य तें नेमावें | काये म्हणोनी ||२०||
स्थूळ नव्हे सूक्ष्म नव्हे | कांहीं येकासारिखें नव्हे |
ज्ञानदृष्टीविण नव्हे | समधान ||२१||
पिंडब्रह्मांडनिरास | मग तें ब्रह्म निराभास |
येथून तेथवरी अवकास | भकासरूप ||२२||
ब्रह्म व्यापक हें तो खरें | दृश्य आहे तों हें उत्तरें |
व्यापेंविण कोण्या प्रकारें | व्यापक म्हणावें ||२३||
ब्रह्मासी शब्दचि लागेना | कल्पना कल्पूं शकेना |
कल्पनेतीत निरंजना | विवेकें वोळखावें ||२४||
शुद्ध सार श्रवण | शुद्ध प्रत्ययाचें मनन |
विज्ञानी पावतां उन्मन | सहजचि होतें ||२५||
जालें साधनाचें फळ | संसार जाला सफळ |
निर्गुण ब्रह्म तें निश्चळ | अंतरीं बिंबलें ||२६||
हिसेब जाला मायेचा | जाला निवाडा तत्वांचा |
साध्य होतां साधनाचा | ठाव नाहीं ||२७||
स्वप्नीं जें जें देखिलें | तें तें जागृतीस उडालें |
सहजचि अनुर्वाच्य जालें | बोलतां न ये ||२८||
ऐसें हें विवेकें जाणावें | प्रत्ययें खुणेंसी बाणावें |
जन्ममृत्याच्या नांवें | सुन्याकार ||२९||
भक्तांचेनि साभिमानें | कृपा केली दाशरथीनें |
समर्थकृपेचीं वचनें | तो हा दासबोध ||३०||
वीस दशक दासबोध | श्रवणद्वारें घेतां शोध |
मनकर्त्यास विशद | परमार्थ होतो ||३१||
वीस दशक दोनीसें समास | साधकें पाहावें सावकास |
विवरतां विशेषाविशेष | कळों लागे ||३२||
ग्रंथाचें करावेंस्तवन | स्तवनाचें काये प्रयोजन |
येथें प्रत्ययास कारण | प्रत्ययो पाहावा ||३३||
देहे तंव पांचा भूतांचा | कर्ता आत्मा तेथींचा |
आणी कवित्वप्रकार मनुशाचा | काशावरुनी ||३४||
सकळ करणें जगदीशाचें | आणी कवित्वचि काय मानुशाचें |
ऐशा अप्रमाण बोलण्याचें | काये घ्यावें ||३५||
सकळ देह्याचा झाडा केला | तत्वसमुदाव उडाला |
तेथें कोण्या पदार्थाला | आपुलें म्हणावें ||३६||
ऐसीं हें विचाराचीं कामें | उगेंच भ्रमों नये भ्रमें |
जगदेश्वरें अनुक्रमें | सकळ केलें ||३७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
विमळब्रह्मनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||२०. १०
||दशक विसावा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh20.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 20
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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