||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १९ ||
||दशक एकोणिसावा : शिकवण ||१९||
समास पहिला : लेखनक्रियानिरूपण
||श्रीराम ||
ब्राह्मणें बाळबोध अक्षर | घडसुनी करावें सुंदर |
जें देखतांचि चतुर | समाधान पावती ||१||
वाटोळें सरळें मोकळें | वोतलें मसीचें काळें |
कुळकुळीत वळी चालिल्या ढाळें | मुक्तमाळा जैशा ||२||
अक्षरमात्र तितुकें नीट | नेमस्त पैस काने नीट |
आडव्या मात्रा त्या हि नीट | आर्कुलीं वेलांड्या ||३||
पहिलें अक्षर जें काढिलें | ग्रंथ संपेतों पाहात गेलें |
येका टांकेंचि लिहिलें | ऐसें वाटे ||४||
अक्षराचें काळेपण | टांकाचें ठोसरपण |
तैसेंचि वळण वांकाण | सारिखेंचि ||५||
वोळीस वोळी लागेना | आर्कुली मात्रा भेदीना |
खालिले वोळीस स्पर्शेना | अथवा लंबाक्षर ||६||
पान शिषानें रेखाटावें | त्यावरी नेमकचि ल्याहावें |
दुरी जवळी न व्हावें | अंतर वोळींचे ||७||
कोठें शोधासी आडेना | चुकी पाहातां सांपडेना |
गरज केली हें घडेना | लेखकापासुनी ||८||
ज्याचें वय आहे नूतन | त्यानें ल्याहावें जपोन |
जनासी पडे मोहन | ऐसें करावें ||९||
बहु बारिक तरुणपणीं | कामा नये म्हातारपणीं |
मध्यस्त लिहिण्याची करणी | केली पाहिजे ||१०||
भोंवतें स्थळ सोडून द्यावें | मधेंचि चमचमित ल्याहावें |
कागद झडतांहि झडावें | नलगेचि अक्षर ||११||
ऐसा ग्रंथ जपोनी ल्याहावा | प्राणी मात्रास उपजे हेवा |
ऐसा पुरुष तो पाहावा | म्हणती लोक ||१२||
काया बहुत कष्टवावी | उत्कट कीर्ति उरवावी |
चटक लाउनी सोडावी | कांहीं येक || १३||
घट्य कागद आणावे | जपोन नेमस्त खळावे |
लिहिण्याचे सामे असावे | नानापरी ||१४||
सुऱ्या कातऱ्या जागाईत | खळी घोंटाळें तागाईत |
नाना सुरंग मिश्रित | जाणोनि घ्यावें ||१५||
नाना देसीचे बरु आणावे | घटी बारिक सरळे घ्यावे |
नाना रंगाचे आणावे | नाना जिनसी ||१६||
नाना जिनसी टांकतोडणी | नाना प्रकारें रेखाटणी |
चित्रविचित्र करणी | सिसेंलोळ्या ||१७||
हिंगुळ संग्रहीं असावे | वळले आळिते पाहोन घ्यावे |
सोपें भिजउनी वाळवावे | संग्रह मसीचे ||१८||
तगटी इतिश्रया कराव्या | बंदरी फळ्या घोटाव्या |
नाना चित्रीं चिताराव्या | उंच चित्रें ||१९||
नाना गोप नाना बासनें | मेणकापडें सिंदुरवणें |
पेट्या कुलुपें जपणें | पुस्तकाकारणें ||२०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
लेखनक्रियानिरूपणनाम समास पहिला ||१||१९. १
समास दुसरा : विवरणनिरूपण
||श्रीराम ||
मागां बोलिले लेखनभेद | आतां ऐका अर्थभेद |
नाना प्रकारीचे संवाद | समजोन घ्यावे ||१||
शब्दभेद अर्थभेद | मुद्राभेद प्रबंधभेद |
नाना शब्दाचे शब्दभेद | जाणोनी पाहावे ||२||
नाना आशंका प्रत्योत्तरें | नाना प्रचित साक्षात्कारें |
जेणें करितां जगदांतरें | चमत्कारती ||३||
नाना पूर्वपक्ष सिद्धांत | प्रत्ययो पाहावा नेमस्त |
अनुमानाचे खस्तवेस्त | बोलोंचि नये ||४||
प्रवृत्ति अथवा निवृत्ती | प्रचितीविण अवघी भ्रांती |
गलंग्यांमधील जगज्जोति | चेतेल कोठें ||५||
हेत समजोन उत्तर देणें | दुसऱ्याचे जीवीचें समजणें |
मुख्य चातुर्याचीं लक्षणें | तें हें ऐसीं ||६||
चातुर्येंविण खटपट | ते विद्यादि फलकट |
सभेमधें आटघाट | समाधान कैचें ||७||
बहुत बोलणें ऐकावें | तेथें मोन्यचि धरावें |
अल्पचिन्हें समजावें | जगदांतर ||८||
बाष्कळामधें बैसो नये | उद्धटासिं तंडों नये |
आपणाकरितां खंडों नये | समाधान जनाचें ||९||
नेणतपण सोडूं नये | जाणपणें फुगो नये |
नाना जनाचें हृदये | मृद शब्दें उकलावें ||१०||
प्रसंग जाणावा नेटका | बहुतांसी जाझु घेऊं नका |
खरें असतांचि नासका | फड होतो ||११||
शोध घेतां आळसों नये | भ्रष्ट लोकीं बैसों नये |
बैसलें तरी टाकूं नये | मिथ्या दोष ||१२||
अंतर आर्ताचें शोधावें | प्रसंगीं थोडें चि वाचावें |
चटक लाउनी सोडावें | भल्या मनुष्यासी ||१३||
मज्यालसींत बैसों नये | समाराधनेसी जाऊं नये |
जातां येळीलवाणें होये | जिणें आपुलें ||१४||
उत्तम गुण प्रगटवावे | मग भलत्यासी बोलतां फावे |
भले पाहोन करावे | शोधून मित्र ||१५||
उपासनेसारिखें बोलावें | सर्व जनासि तोषवावें |
सगट बरेंपण राखावें | कोण्हीयेकासी ||१६||
ठाईं ठाईं शोध घ्यावा | मग ग्रामीं प्रवेश करावा |
प्राणीमात्र बोलवावा | आप्तपणें ||१७||
उंच नीच म्हणों नये | सकळांचें निववावें हृदये |
अस्तमानीं जाऊं नये | कोठें तऱ्ही ||१८||
जगामधें जगमित्र | जिव्हेपासीं आहे सूत्र |
कोठें तऱ्ही सत्पात्र | शोधून काढावें ||१९||
कथा होती तेथें जावें | दुरी दीनासारिखें बैसावें |
तेथील सकळ हरद्र घ्यावें | अंतर्यामीं ||२०||
तेथें भले आडळती | व्यापा ते हि कळों येती |
हळुहळु मंदगती | रीग करावा ||२१||
सकळामधें विशेष श्रवण | श्रवणाहुनी थोर मनन |
मननें होये समाधान | बहुत जनाचें ||२२||
धूर्तपणें सकळ जाणावें | अंतरीं अंतर बाणावें |
समजल्याविण सिणावें | कासयासी ||२३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
विवरणनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||१९. २
समास तिसरा : करंटलक्षणनिरूपण
||श्रीराम ||
सुचित करूनी अंतःकर्ण | ऐका करंटलक्षण |
हें त्यागितां सदेवलक्षण | आंगीं बाणें ||१||
पापाकरितां दरिद्र प्राप्त | दरिद्रें होये पापसंचित |
ऐसेंचि होत जात | क्षणक्षणा ||२||
याकारणें करंटलक्षणें | ऐकोनी त्यागचि करणें |
म्हणिजे कांहीं येक बाणें | सदेवलक्षण ||३||
करंट्यास आळस आवडे | यत्न कदापि नावडे |
त्याची वासना वावडे | अधर्मीं सदा ||४||
सदा भ्रमिष्ट निदसुरा | उगेंचि बोले सैरावैरा |
कोणीयेकाच्या अंतरा | मानेचिना ||५||
लेहों नेणे वाचूं नेणे | सवदासुत घेऊं नेणे |
हिशेब कितेब राखों नेणे | धारणा नाहीं ||६||
हारवी सांडी पाडी फोडी | विसरे चुके नाना खोडी |
भल्याचे संगतीची आवडी | कदापी नाहीं ||७||
चाट गडी मेळविले | कुकर्मी मित्र केले |
खट नट येकवटिले | चोरटे पापी ||८||
ज्यासीं त्यासीं कळकटा | स्वयें सदाचा चोरटा |
परघातकी धाटामोटा | वाटा पाडी ||९||
दीर्घ सूचना सुचेचिना | न्याय नीति हे रुचेना |
परअभिळासीं वासना | निरंतर ||१०||
आळसें शरीर पाळिलें | परंतु पोटेंविण गेलें |
सुडकें मिळेनासें जालें | पांघराया ||११||
आळसे शरीर पाळी | अखंड कुंसी कांडोळी |
निद्रेचे पाडी सुकाळीं | आपणासी ||१२||
जनासीं मीत्री करीना | कठिण शब्द बोले नाना |
मूर्खपणें आवरेना | कोणीयेकासी ||१३||
पवित्र लोकांमधें भिडावे | वोंगळामधें निशंक धांवे |
सदा मनापासून भावे | जननिंद्य क्रिया ||१४||
तेथें कैचा परोपकार | केला बहुतांचा संव्हार |
पापी अनर्थी अपस्मार | सर्वअबद्धी ||१५||
शब्द सांभाळून बोलेना | आवरितां आवरेना |
कोणीयेकासी मानेना | बोलणें त्याचें ||१६||
कोणीयेकास विश्वास नाहीं | कोणीयेकासीं सख्य नाहीं |
विद्या वैभव कांहींच नाहीं | उगाचि ताठा ||१७||
राखावीं बहुतांची अंतरें | भाग्य येतें तदनंतरें |
ऐसीं हें विवेकाचीं उत्तरें | ऐकणार नाहीं ||१८||
स्वयें आपणास कळेना | शिकविलें तें ऐकेना |
तयासी उपाय नाना | काये करिती ||१९||
कल्पना करी उदंड कांहीं | प्राप्तव्य तों कांहींच नाहीं |
अखंड पडिला संदेहीं | अनुमानाचे ||२०||
पुण्य मार्ग संडिला मनें | पाप झडावें काशानें |
निश्चय नाहीं अनुमानें | नास केला ||२१||
कांहींयेक पुर्तें कळेना | सभेमधें बोलों राहेना |
बाष्कळ लाबाड ऐसें जना | कळों आलें ||२२||
कांहीं नेमकपण आपुलें | बहुत जनासी कळों आलें |
तेंचि मनुष्य मान्य जालें | भूमंडळीं ||२३||
झिजल्यावांचून कीर्ति कैंची | मान्यता नव्हे कीं फुकाची |
जिकडे तिकडे होते ची ची | अवलक्षणें ||२४||
भल्याची संगती धरीना | आपणासी शाहाणे करीना |
तो आपला आपण वैरी जाणा | स्वहित नेणे ||२५||
लोकांसी बरें करवें | तें उसिणें सवेंचि घ्यावें |
ऐसें जयाच्या जीवें | जाणिजेना ||२६||
जेथें नाहीं उत्तम गुण | तें करंट्याचें लक्षण |
बहुतांसीं न मने तें अवलक्षण | सहजचि जालें ||२७||
कार्याकारण सकळ कांहीं | कार्येंविण तो कांहींच नाहीं |
निकामी तो दुःखप्रवाहीं | वाहातचि गेला ||२८||
बहुतांसीं मान्य थोडा | त्याच्या पापासी नाहीं जोडा |
निराश्रई पडे उघडा | जेथें तेथें ||२९||
याकारणें अवगुण त्यागावे | उत्तम गुण समजोन घ्यावें |
तेणें मनासारिखें फावे | सकळ कांहीं ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
करंटलक्षणनिरूपणनाम समास तिसरा ||३||१९. ३
समास चौथा : सदेवलक्षणनिरूपण
||श्रीराम ||
मागां बोलिले करंटलक्षण | तें विवेकें सांडावें संपूर्ण |
आतां ऐका सदेवलक्षण | परम सौख्यदायेक ||१||
उपजतगुण शरीरीं | परोपकारी नानापरी |
आवडे सर्वांचे अंतरीं | सर्वकाळ ||२||
सुंदर अक्षर लेहो जाणे | चपळ शुद्ध वाचूं जाणे |
अर्थांतर सांगों जाणे | सकळ कांहीं ||३||
कोणाचें मनोगत तोडिना | भल्यांची संगती सोडिना |
सदेवलक्षण अनुमाना | आणून ठेवी ||४||
तो सकळ जनासी व्हावा | जेथें तेथें नित्य नवा |
मूर्खपणें अनुमानगोवा | कांहींच नाहीं ||५||
नाना उत्तम गुण सत्पात्र | तेचि मनुष्य जगमित्र |
प्रगट कीर्ती स्वतंत्र | पराधेन नाहीं ||६||
राखे सकळांचें अंतर | उदंड करी पाठांतर |
नेमस्तपणाचा विसर | पडणार नाहीं ||७||
नम्रपणें पुसों जाणे | नेमस्त अर्थ सांगों जाणे |
बोलाऐसें वर्तों जाणे | उत्तम क्रिया ||८||
तो मानला बहुतांसी | कोणी बोलों न शके त्यासी |
धगधगीत पुण्यरासी | माहांपुरुष ||९||
तो परोपकार करितांचि गेला | पाहिजे तो ज्याला त्याला |
मग काय उणें तयाला | भूमंडळीं ||१०||
बहुत जन वास पाहे | वेळेसी तत्काळ उभा राहे |
उणें कोणाचें न साहे | तया पुरुषासी ||११||
चौदा विद्या चौसष्टी कळा | जाणे संगीत गायेनकळा |
आत्मविद्येचा जिव्हाळा | उदंड तेथें ||१२||
सकळांसी नम्र बोलणें | मनोगत राखोन चालणें |
अखंड कोणीयेकाचे उणें | पडोंचि नेदी ||१३||
न्याय नीति भजन मर्याद | काळ सार्थक करी सदा |
दरिद्रपणाची आपदा | तेथें कैची ||१४||
उत्तम गुणें शृंघारला | तो बहुतांमधें शोभला |
प्रगट प्रतापें उगवला | मार्तंड जैसा ||१५||
जाणता पुरुष असेल जेथें | कळहो कैचा उठेल तेथें |
उत्तम गुणाविषीं रितें | तें प्राणी करंटे ||१६||
प्रपंची जाणे राजकारण | परमार्थीं साकल्य विवरण |
सर्वांमधें उत्तम गुण | त्याचा भोक्ता ||१७||
मागें येक पुढें येक | ऐसा कदापी नाहीं दंडक |
सर्वत्रांसीं अलोलिक | तया पुरुषाची ||१८||
अंतरासी लागेल ढका | ऐसी वर्तणूक करूं नका |
जेथें तेथें विवेका | प्रगट करी ||१९||
कर्मविधी उपासनाविधी | ज्ञानविधी वैराग्यविधी |
विशाळ ज्ञात्रुत्वाची बुद्धी | चळेल कैसी ||२०||
पाहातां अवघे उत्तम गुण | तयास वाईट म्हणेल कोण |
जैसा आत्मा संपूर्ण | सर्वां घटीं ||२१||
आपल्या कार्यास तत्पर | लोक असती लाहानथोर |
तैसाचि करी परोपकार | मनापासुनी ||२२||
दुसऱ्याच्या दुःखें दुखवे | दुसऱ्याच्या सुखें सुखावे |
आवघेचि सुखी असावे | ऐसी वासना ||२३||
उदंड मुलें नानापरी | वडिलांचें मन अवघ्यांवरी |
तैसी अवघ्यांची चिंता करी | माहांपुरुष ||२४||
जयास कोणाचें सोसेना | तयाची निःकांचन वासना |
धीकारिल्या धीकारेना | तोचि माहापुरुष ||२५||
मिथ्या शरीर निंदलें | तरी याचें काये गेलें |
ज्ञात्यासी आणि जिंतिलें | देहेबुद्धीनें ||२६||
हें अवघें अवलक्षण | ज्ञाता देहीं विलक्षण |
कांहीं तऱ्ही उत्तम गुण | जनीं दाखवावे ||२७||
उत्तम गुणास मनुष्य वेधे | वाईट गुणासी प्राणी खेदे |
तीक्षण बुद्धि लोक साधें | काये जाणती ||२८||
लोकीं अत्यंत क्षमा करिती | आलियां लोकांचे प्रचिती |
मग ते लोक पाठी राखती | नाना प्रकारीं ||२९||
बहुतांसी वाटे मी थोर | सर्वमान्य पाहिजे विचार |
धीर उदार गंभीर | माहांपुरुष ||३०||
जितुके कांहीं उत्तम गुण | तें समर्थाचें लक्षण |
अवगुण तें करंटलक्षण | सहजचि जालें ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सदेवलक्षणनिरूपणनाम समास चौथा ||४||१९. ४
समास पांचवा : देहमान्यनिरूपण
||श्रीराम ||
मातीचे देव धोंड्याचे देव | सोन्याचे देव रुप्याचे देव |
काशाचे देव पितळेचे देव | तांब्याचे देव चित्रलेपे ||१||
रुविच्या लांकडाचे देव पोंवळ्यांचे देव | बाण तांदळे नर्मदे देव |
शालिग्राम काश्मिरी देव | सूर्यकांत सोमकांत ||२||
तांब्रनाणीं हेमनाणी | कोणी पूजिती देवार्चनीं |
चक्रांगीत चक्रतीर्थाहुनी | घेऊन येती ||३||
उदंड उपासनेचे भेद | किती करावे विशद |
आपलाले आवडीचा वेध | लागला जनीं ||४||
परी त्या सकळांचें हि कारण | मुळीं पाहावें स्मरण |
तया स्मरणाचे अंश जाण | नाना देवतें ||५||
मुळीं द्रष्टा देव तो येक | त्याचे जाहाले अनेक |
समजोन पाहातां विवेक | उमजों लागे ||६||
देह्यावेगळी भक्ति फावेना | देह्यावेगळा देव पावेना |
याकारणें मूळ भजना | देहेचि आहे ||७||
देहे मुळींच केला वाव | तरी भजनासी कैंचा ठाव |
म्हणोनी भजनाचा उपाव | देह्यात्मयोगें ||८||
देहेंविण देव कैसा भजावा | देहेंविण देव कैसा पुजावा |
देह्याविण मोहछाव कैसा करावा | कोण्या प्रकारें ||९||
अत्र गंध पत्र पुष्प | फल तांबोल धूप दीप |
नाना भजनाचा साक्षेप | कोठें करावा ||१०||
देवाचें तीर्थ कैसें घ्यावें | देवासी गंध कोठें लावावें |
मंत्रपुष्प तरी वावें | कोणें ठाईं ||११||
म्हणोनी देह्याविण आडतें | अवघें सांकडेंचि पडतें |
देह्याकरितां घडतें | भजन कांहीं ||१२||
देव देवता भूतें देवतें | मुळींचे सामर्थ्ये आहे तेथें |
अधिकारें नाना देवतें | भजत जावीं ||१३||
नाना देवीं भजन केलें | तें मूळ पुरुषासी पावलें |
याकारणें सन्मानिलें | पाहिजे सकळ कांहीं ||१४||
मायावल्ली फांपावली | नाना देहेफळीं लगडली |
मुळींची जाणीव कळों आली | फळामधें ||१५||
म्हणोनी येळील न करावें | पाहाणें तें येथेंचि पाहावें |
ताळा पडतां राहावें | समाधानें ||१६||
प्राणी संसार टाकिती | देवास धुंडीत फिरती |
नाना अनुमानीं पडती | जेथ तेथें ||१७||
लोकांची पाहातां रिती | लोक देवार्चनें करिती |
अथवा क्षत्रदेव पाहाती | ठाईं ठाईं ||१८||
अथवा नाना अवतार | ऐकोनी धरिती निर्धार |
परी तें अवघें सविस्तर | होऊन गेलें ||१९||
येक ब्रह्माविष्णुमहेश | ऐकोन म्हणतीं हे विशेष |
गुणातीत जो जगदीश | तो पाहिला पाहिजे ||२०||
देवासी नाहीं थानमान | कोठें करावें भजन |
हा विचार पाहातां अनुमान | होत जातो ||२१||
नसतां देवाचें दर्शन | कैसेन होईजे पावन |
धन्य धन्य ते साधुजन | सकळ जाणती ||२२||
भूमंडळी देव नाना | त्यांची भीड उलंघेना |
मुख्य देव तो कळेना | कांहीं केल्यां ||२३||
कर्तुत्व वेगळें करावें | मग त्या देवासी पाहावें |
तरीच कांहींयेक पडे ठावें | गौप्यगुह्य ||२४||
तें दिसेना ना भासेना | कल्पांतीं हि नासेना |
सुकृतावेगळें विश्वासेना | तेथें मन ||२५||
उदंड कल्पिते कल्पना | उदंड इछिते वासना |
अभ्यांतरीं तरंग नाना | उदयातें पावती ||२६||
म्हणोनी कल्पनारहित | तेचि वस्तु शाश्वत |
अंत नाहीं म्हणोनी अनंत | बोलिजे तया ||२७||
हें ज्ञानदृष्टीनें पाहावें | पाहोनी तेथेंचि राहावें |
निजध्यासें तद्रूप व्हावें | संगत्यागें ||२८||
नाना लीळा नाना लाघवें | तें काये जाणिजे बापुड्या जीवें |
संतसंगें स्वानुभवें | स्थिति बाणे ||२९||
ऐसी सूक्ष्म स्थिति गती | कळतां चुके अधोगती |
सद्गुरुचेनि सद्गती | तत्काळ होते ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देहमान्यनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||१९. ५
समास सहावा : बुद्धिवादनिरूपण
||श्रीराम ||
परमार्थी आणि विवेकी | त्याचें करणें माने लोकीं |
कां जे विवरविवरों चुकी | पडोंचि नेदी ||१||
जो जो संदेह वाटे जना | तो तो कदापी करीना |
आदिअंत अनुमाना | आणून सोडी ||२||
स्वतां निस्पृह असेना | त्याचें बोलणेंचि मानेना |
कठिण आहे जनार्दना | राजी राखणें ||३||
कोणी दाटून उपदेश देती | कोणी मध्यावर्ती घालिती |
ते सहजचि हळु पडती | लालचीनें ||४||
जयास सांगावा विवेक | तोचि जाणावा प्रतिकुंचक |
पुढें पुढें नासक | कारबार होतो ||५||
भावास भाऊ उपदेश देती | पुढें पुढें होते फजिती |
वोळकीच्या लोकांत महंती | मांडूंचि नये ||६||
पहिलें दिसे परी नासे | विवेकी मान्य करिती कैसे |
अविवेकी ते जैसे तैसें | मिळती तेथें ||७||
भ्रतार शिष्य स्त्री गुरु | हाहि फटकाळ विचारु |
नाना भ्रष्टाकारी प्रकारु | तैसाचि आहे ||८||
प्रगट विवेक बोलेना | झांकातापा करी जना |
मुख्य निश्चय अनुमाना | आणूंच नेदी ||९||
हुकीसरिसा भरीं भरे | विवेक सांगतां न धरे |
दुरीदृष्टीचे पुरे | साधु नव्हेती ||१०||
कोण्हास कांहींच न मागावें | भगवद्भजन वाढवावें |
विवेकबळें जन लावावे | भजनाकडे ||११||
परांतर रक्षायाचीं कामें | बहुत कठीण विवेकवर्में |
स्वइछेनें स्वधर्में | लोकराहाटी ||१२||
आपण तुरुक गुरु केला | शिष्य चांभार मेळविला |
नीच यातीनें नासला | समुदाव ||१३||
ब्राह्मणमंडळ्या मेळवाव्या | भक्तमंडळ्या मानाव्या |
संतमंडळ्या शोधाव्या | भूमंडळीं ||१४||
उत्कट भव्य तेंचि घ्यावें | मळमळीत अवघेंचि टाकावें |
निस्पृहपणें विख्यात व्हावें | भूमंडळीं ||१५||
अक्षर बरें वाचणें बरें | अर्थांतर सांगणें बरें |
गाणें नाचणें अवघेंचि बरें | पाठांतर ||१६||
दीक्षा बरी मित्री बरी | तीक्षण बुधी राजकारणी बरी |
आपणास राखे नानापरी | अलिप्तपणें ||१७||
अखंड हरिकथेचा छंदु | सकळांस लागे नामवेदु |
प्रगट जयाचा प्रबोधु | सूर्य जैसा ||१८||
दुर्जनासी राखों जाणे | सज्जनासी निवऊं जाणे |
सकळांचे मनीचें जाणे | ज्याचें त्यापरीं ||१९||
संगतीचें मनुष्य पालटे | उत्तम गुण तत्काळ उठे |
अखंड अभ्यासीं लगटे | समुदाव ||२०||
जेथें तेथें नित्य नवा | जनासी वाटे हा असावा |
परंतु लालचीचा गोवा | पडोंचि नेदी ||२१||
उत्कट भक्ति उत्कट ज्ञान | उत्कट च्यातुर्य उत्कट भजन |
उत्कट योग अनुष्ठान | ठाईं ठाईं ||२२||
उत्कट निस्पृहता धरिली | त्याची कीर्ति दिगांतीं फांकली |
उत्कट भक्तीनें निवाली | जनमंडळी ||२३||
कांहीं येक उत्कटेविण | कीर्ति कदापि नव्हे जाण |
उगेंच वणवण हिंडोन | काये होतें ||२४||
नाहीं देह्याचा भरंवसा | केव्हां सरेल वयसा |
प्रसंग पडेल कैसा | कोण जाणे ||२५||
याकारणें सावधान असावें | जितुकें होईल तितुकें करावें |
भगवत्कीर्तीनें भरावें | भूमंडळ ||२६||
आपणास जें जें अनुकूळ | तें तें करावें तत्काळ |
होईना त्यास निवळ | विवेक उमजावा ||२७||
विवेकामधें सापडेना | ऐसें तो कांहींच असेना |
येकांतीं विवेक अनुमाना | आणून सोडी ||२८||
अखंड तजवीजा चाळणा जेथें | पाहातां काय उणें तेथें |
येकांतेंविण प्राणीयांतें | बुद्धि कैसी ||२९||
येकांती विवेक करावा | आत्माराम वोळखावा |
येथून तेथवरी गोवा | कांहींच नाहीं ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
बुद्धिवादनिरूपणनाम समास सहावा ||६||१९. ६
समास सातवा : यत्ननिरूपण
||श्रीराम ||
कथेचें घमंड भरून द्यावें | आणी निरूपणीं विवरावें |
उणें पडोंचि नेदावें | कोणीयेकविषीं ||१||
भेजणार खालें पडिला | तो भेजणारी जाणितला |
नेणता लोक उगाच राहिला | टकमकां पाहात ||२||
उत्तर विलंबीं पडिलें | श्रोतयांस कळों आलें |
म्हणिजे महत्व उडालें | वक्तयाचें ||३||
थोडें बोलोनि समाधान करणें | रागेजोन तरी मन धरणें |
मनुष्य वेधींच लावणें | कोणीयेक ||४||
सोसवेना चिणचिण केली | तेथें तामसवृत्ती दिसोन आली |
आवघी आवडी उडाली | श्रोतयाची ||५||
कोण कोण राजी राखिले | कोण कोण मनी भंगिले |
क्षणक्षणा परीक्षिले | पाहिजे लोक ||६||
शिष्य विकल्पें रान घेतो | गुरु मागें मागें धांवतो |
विचार पाहों जातां तो | विकल्पचि अवघा ||७||
आशाबद्धी क्रियाहीन | नाहीं च्यातुर्याचें लक्षण |
ते महंतीची भणभण | बंद नाहीं ||८||
ऐसे गोसावी हळु पडती | ठाईं ठाईं कष्टी होती |
तेथें संगतीचे लोक पावती | सुख कैचें ||९||
जिकडे तिकडे कीर्ति माजे | सगट लोकांस हव्यास उपजे |
लोक राजी राखोन कीजे | सकळ कांहीं ||१०||
परलोकीं वास करावा | समुदाव उगाच पाहावा |
मागण्याचा तगादा न लवावा | कांहीं येक ||११||
जिकडे जग तिकडे जगन्नायेक | कळला पाहिजे विवेक |
रात्रीदिवस विवेकी लोक | सांभाळीत जाती ||१२||
जो जो लोक दृष्टीस पडिला | तो तो नष्ट ऐसा कळला |
अवघेच नष्ट येकला भला | काशावरुनी ||१३||
वोस मुलकीं काये पाहावें | लोकांवेगळें कोठें राहावें |
तऱ्हे खोटी सांडतें घ्यावें | कांहीं येक ||१४||
तस्मात लोकिकीं वर्ततां नये | त्यास महंती कामा नये |
परत्र साधनाचा उपाये | श्रवण करून असावें ||१५||
आपणासी बरें पोहतां नये | लोक बुडवावयाचें कोण कार्य |
गोडी आवडी वायां जाये | विकल्पचि अवघा ||१६||
अभ्यासें प्रगट व्हावें | नाहीं तरी झांकोन असावें |
प्रगट होऊन नासावें | हें बरें नव्हे ||१७||
मंद हळु हळु चालतो | चपळ कैसा अटोपतो |
अरबी फिरवणार तो | कैसा असावा ||१८||
हे धकाधकीचीं कामें | तिक्षण बुद्धीचीं वर्में |
भोळ्या भावार्थें संभ्रमें | कैसें घडे ||१९||
सेत केलें परी वाहेना | जवार केलें परी फिरेना |
जन मेळविलें परी धरेना | अंतर्यामीं ||२०||
जरी चढती वाढती आवडी उठे | तरी परमार्थ प्रगटे |
घसघस करितां विटे | सगट लोकु ||२१||
आपलें लोकांस मानेना | लोकांचें आपणांस मानेना |
अवघा विकल्पचि मना | समाधान कैचें ||२२||
नासक दीक्षा सिंतरु लोक | तेथें कैचा असेल विवेक |
जेथें बळावला अविवेक | तेथें राहणें खोटें ||२३||
बहुत दिवस श्रम केला | सेवटीं अवघाचि वेर्थ गेला |
आपणास ठाकेना गल्बला | कोणें करावा ||२४||
संगीत चालिला तरी तो व्याप | नाहीं तरी अवघाचि संताप |
क्षणक्षणा विक्षेप | किती म्हणौनि सांगावा ||२५||
मूर्ख मूर्खपणें भरंगळती | ज्ञाहे ज्ञातेपणें कळ्हो करिती |
होते दोहींकडे फजिती | लोकांमधें ||२६||
कारबार आटोपेना करवेना | आणि उगेंहि राहेना |
याकारणें सकळ जना | काये म्हणावें ||२७||
नासक उपाधीस सोडावें | वय सार्थकीं घालावें |
परिभ्रमणें कंठावें | कोठें तरी ||२८||
परिभ्रमण करीना | दुसऱ्याचें कांहींच सोसीना |
तरी मग उदंड यतना | विकल्पाची ||२९||
आतां हें आपणाचिपासीं | बरें विचारावें आपणासी |
अनुकुळ पडेल तैसी | वर्तणूक करावी ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
येत्ननिरूपणनाम समास सातवा ||७||१९. ७
समास आठवा : उपाधिलक्षणनिरूपण
||श्रीराम ||
सृष्टीमधें बहू लोक | परिभ्रमणें कळे कौतुक |
नाना प्रकारीचे विवेक | आडळों लागती ||१||
किती प्रपंची जन | अखंड वृत्ति उदासीन |
सुखदुःखें समाधान | दंडळेना ||२||
स्वभावेंचि नेमक बोलती | सहजचि नेमक चालती |
अपूर्व बोलण्याची स्थिती | सकळांसी माने ||३||
सहजचि ताळज्ञान येतें | स्वभावेंचि रागज्ञान उमटतें |
सहजचि कळत जातें | न्यायेनीतिलक्षण ||४||
येखादा आडळे गाजी | सकळ लोक अखंड राजी |
सदा सर्वदा आवडी ताजी | प्राणीमात्राची ||५||
चुकोन उदंड आढळतें | भारी मनुष्य दृष्टीस पडतें |
महंताचें लक्षणसें वाटतें | अकस्मात ||६||
ऐसा आडळतां लोक | चमत्कारें गुणग्राहिक |
क्रिया बोलणें नेमक | प्रत्ययाचें ||७||
सकळ अवगुणामधें अवगुण | आपले अवगुण वाटती गुण |
मोठें पाप करंटपण | चुकेना कीं ||८||
ढाळेंचि काम होतें सदा | जें जपल्यानें नव्हे सर्वदा |
तेथें पीळपेंचाची आपदा | आडळेचिना ||९||
येकासी अभ्यासितां न ये | येकासी स्वभावेंचि ये |
ऐसा भगवंताचा महिमा काये | कैसा कळेना ||१०||
मोठीं राजकारणें चुकती | राजकारणा वढा लागती |
नाना चुकीची फजिती | चहुंकडे ||११||
याकारणें चुकों नये | म्हणिजे उदंड उपाये |
उपायाचा अपाये | चुकतां होये ||१२||
काये चुकलें तें कळेना | मनुष्याचें मनचि वळेना |
खवळला अभिमान गळेना | दोहिंकडे ||१३||
आवघे फडचि नासती | लोकांचीं मनें भंगती |
कोठें चुकते युक्ती | कांहीं कळेना ||१४||
व्यापेंविण आटोप केला | तो अवघा घसरतचि गेला |
अकलेचा बंद नाहीं घातला | दुरीदृष्टीनें ||१५||
येखादें मनुष्य तें सिळें | त्याचें करणेंचि बावळें |
नाना विकल्पाचें जाळें | करून टाकी ||१६||
तें आपणासी उकलेना | दुसऱ्यास कांहींच कळेना |
नाचे विकल्पें कल्पना | ठाईं ठाईं ||१७||
त्या गुप्त कल्पना कोणास कळाव्या | कोणें येऊन आटोपाव्या |
ज्याच्या त्यानें कराव्या | बळकट बुद्धि ||१८||
ज्यासी उपाधी आवरेना | तेणें उपाधी वाढवावीना |
सावचित करूनियां मना | समाधानें असावें ||१९||
धांवधावों उपाधी वेष्टी | आपण कष्टी लोक हि कष्टी |
हे कामा नये गोष्टी | कुसमुसेची ||२०||
लोक बहुत कष्टी जाला | आपणहि अत्यंत त्रासला |
वेर्थचि केला गल्बला | कासयासी ||२१||
असो उपाधीचें काम ऐसें | कांहीं बरें कांहीं काणोंसें |
सकळ समजोन ऐसें | वर्ततां बरें ||२२||
लोकांपासीं भावार्थ कैचा | आपण जगवावा तयांचा |
सेवट उपंढर कोणाचा | पडोंचि नये ||२३||
अंतरात्म्याकडे सकळ लागे | निर्गुणीं हें कांहींच न लगे |
नाना प्रकारीचे दगे | चंचळामधें ||२४||
शुद्ध विश्रांतीचें स्थळ | तें येक निर्मळ निश्चळ |
तेथें विकारचि सकळ | निर्विकार होती ||२५||
उद्वेग अवघे तुटोनि जाती | मनासी वाटे विश्रांती |
ऐसी दुल्लभ परब्रह्मस्थिती | विवेकें सांभाळावी ||२६||
आपणास उपाधी मुळींच नाहीं | रुणानुबंधें मिळाले सर्वहि |
आल्यागेल्याची क्षिती नाहीं | ऐसें जालें पाहिजे ||२७||
जो उपाधीस कंटाळला | तो निवांत होऊन बैसला |
आटोपेना तो गल्बला | कासयासी ||२८||
कांहीं गल्बला कांहीं निवळ | ऐसा कंठीत जावा काळ |
जेणेंकरितां विश्रांती वेळ | आपणासी फावे ||२९||
उपाधी कांहीं राहात नाहीं | समाधानायेवढें थोर नाहीं |
नरदेहे प्राप्त होत नाहीं | क्षणक्षणा ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
उपाधिलक्षणनिरूपणनाम समास आठवा ||८||१९. ८
समास नववा : राजकारणनिरूपण
||श्रीराम ||
ज्ञानी आणी उदास | समुदायाचा हव्यास |
तेणें अखंड सावकाश | येकांत सेवावा ||१||
जेथें तजवीजा कळती | अखंड चाळणा निघती |
प्राणीमात्राची स्थिती गती | कळों येते ||२||
जरी हा चाळणाचि करीना | तरी कांहींच उमजेना |
हिसेबझाडाचि पाहीना | दिवाळखोर ||३||
येक मिरासी साधिती | येक सीध्या गवाविती |
व्यापकपणाची स्थिती | ऐसी आहे ||४||
जेणें जें जें मनीं धरिलें | तें तें आधींच समजलें |
कृत्रिम अवघेंचि खुंटलें | सहजचि येणें ||५||
अखंड राहतां सलगी होते | अतिपरिचयें अवज्ञा घडते |
याकारणें विश्रांती ते | घेतां नये ||६||
आळसें आळस केला | तरी मग कारबारचि बुडाला |
अंतरहेत चुकत गेला | समुदायाचा ||७||
उदंड उपासनेचीं कामें | लावीत जावीं नित्यनेमें |
अवकाश कैंचा कृत्रिमें | करावयासी ||८||
चोर भांडारी करावा | घसरतांच सांभाळावा |
गोवा मूर्खपणाचा काढावा | हळु हळु ||९||
या अवघ्या पहिल्याच गोष्टी | प्राणी कोणी नव्हता कष्टी |
राजकारणें मंडळ वेष्टी | चहुंकडे ||१०||
नष्टासी नष्ट योजावे | वाचळासी वाचाळ आणावे |
आपणावरी विकल्पाचे गोवे | पडोंच नेदी ||११||
कांटीनें कांटी झाडावी | झाडावी परी ते कळों नेदावी |
कळकटेपणाची पदवी | असों द्यावी ||१२||
न कळतां करी कार्य जें तें | तें काम तत्काळचि होतें |
गचगचेंत पडतां तें | चमत्कारें नव्हे ||१३||
ऐकोनी आवडी लागावी | देखोनी बळकटचि व्हावी |
सलगीनें आपली पदवी | सेवकामधें ||१४||
कोणीयेक काम करितां होतें | न करितां तें मागें पडतें |
या कारणें ढिलेपण तें | असोंचि नये ||१५||
जो दुसऱ्यावरी विश्वासला | त्याचा कार्यभाग बुडाला |
जो आपणचि कष्टत गेला | तोचि भला ||१६||
अवघ्यास अवघें कळलें | तेव्हां तें रितें पडिलें |
याकारणें ऐसें घडलें | न पाहिजे कीं ||१७||
मुख्य सूत्र हातीं घ्यावें | करणें तें लोकांकरवीं करवावें |
कित्तेक खलक उगवावे | राजकारणामधें ||१८||
बोलके पहिलवान कळकटे | तयासीच घ्यावे झटे |
दुर्जनें राजकारण दाटे | ऐसें न करावें ||१९||
ग्रामण्य वर्मीं सांपडावें | रगडून पीठचि करावें |
करूनि मागुती सांवरावें | बुडऊं नये ||२०||
खळदुर्जनासी भ्यालें | राजकारण नाहीं राखिलें |
तेणें अवघें प्रगट जालें | बरें वाईट ||२१||
समुदाव पाहिजे मोठा | तरी तनावा असाव्या बळकटा |
मठ करुनी ताठा | धरूं नये ||२२||
दुर्जन प्राणी समजावे | परी ते प्रगट न करावे |
सज्जनापरीस आळवावे | महत्व देउनी ||२३||
जनामधें दुर्जन प्रगट | तरी मग अखंड खटखट |
याकारणें ते वाट | बुझूनि टाकावी ||२४||
गनीमाच्या देखतां फौजा | रणशूरांच्या फुर्फुरिती भुजा |
ऐसा पाहिजे किं राजा | कैपक्षी परमार्थी ||२५||
तयास देखतां दुर्जन धाके | बैसवी प्रचितीचे तडाखे |
बंडपाषांडाचे वाखे | सहजचि होती ||२६||
हे धूर्तपणाचीं कामें | राजकारण करावें नेमें |
ढिलेपणाच्या संभ्रमें | जाऊं नये ||२७||
कोठेंच पडेना दृष्टीं | ठाईं ठाईं त्याच्या गोष्टी |
वाग्विळासें सकळ सृष्टी | वेधिली तेणें ||२८||
हुंब्यासीं हुंबा लाऊन द्यावा | टोणप्यास टोणपा आणावा |
लौंदास पुढें उभा करावा | दुसरा लौंद ||२९||
धटासी आणावा धट | उत्धटासी पाहिजे उत्धट |
खटनटासी खटनट | अगत्य करी ||३०||
जैशास तैसा जेव्हां भेटे | तेव्हां मज्यालसी थाटे |
इतुकें होतें परी धनी कोठें | दृष्टीस न पडे ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
राजकारणनिरूपणनाम समास नववा ||९||१९. ९
समास दहावा : विवेकलक्षणनिरूपण
||श्रीराम ||
जेथें अखंड नाना चाळणा | जेथें अखंड नाना धारणा |
जेथें अखंड राजकारणा | मनासी आणिती ||१||
सृष्टीमधें उत्तम गुण | तितुकें चाले निरूपण |
निरूपणाविण क्षण | रिकामा नाहीं ||२||
चर्चा आशंका प्रत्योत्तरें | कोण खोटें कोण खरें |
नाना वगत्रुत्वें शास्त्राधारें | नाना चर्चा ||३||
भक्तिमार्ग विशद कळे | उपासनामार्ग आकळे |
ज्ञानविचार निवळे | अंतर्यामीं ||४||
वैराग्याची बहु आवडी | उदास वृत्तीची गोडी |
उदंड उपाधी तरी सोडी | लागोंच नेदी ||५||
प्रबंदाचीं पाठांतरें | उत्तरासी संगीत उत्तरें |
नेमक बोलतां अंतरें | निववी सकळांचीं ||६||
आवडी लागली बहु जना | तेथें कोणाचें कांहीं चालेना |
दळवट पडिला अनुमाना | येईल कैसा ||७||
उपासना करूनियां पुढें | पुरवलें पाहिजे चहुंकडे |
भूमंडळीं जिकडे तिकडे | जाणती तया ||८||
जाणती परी आडळेना | काये करितो तें कळेना |
नाना देसीचे लोक नाना | येऊन जाती ||९||
तितुक्यांचीं अंतरें धरावीं | विवेकें विचारें भरावीं |
कडोविकडीचीं विवरावीं | अंतःकर्णें ||१०||
किती लोक तें कळेना | किती समुदाव आकळेना |
सकळ लोक श्रवणमनना | मध्यें घाली ||११||
फड समजाविसी करणें | गद्यपद्य सांगणें |
परांतरासी राखणें | सर्वकाळ ||१२||
ऐसा ज्याचा दंडक | अखंड पाहाणें विवेक |
सावधापुढें अविवेक | येईल कैचा ||१३||
जितुकें कांहीं आपणासी ठावें | तितुकें हळुहळु सिकवावें |
शाहाणें करूनी सोडावे | बहुत जन ||१४||
परोपरीं सिकवणें | आडणुका सांगत जाणें |
निवळ करुनी सोडणें | निस्पृहासी ||१५||
होईल तें आपण करावें | न होतां जनाकरवीं करवावें |
भगवद्भजन राहावें | हा धर्म नव्हे ||१६||
आपण करावें करवावें | आपण विवरावें विवरवावें |
आपण धरावें धरवावें | भजनमार्गासी ||१७||
जुन्या लोकांचा कंटाळा आला | तरी नूतन प्रांत पाहिजे धरिला |
जितुकें होईल तितुक्याला | आळस करूं नये ||१८||
देह्याचा अभ्यास बुडाला | म्हणिजे महंत बुडाला |
लागवेगें नूतन लोकांला | शाहाणे करावें ||१९||
उपाधींत सांपडों नये | उपाधीस कंटाळों नये |
निसुगपण कामा नये | कोणीयेकविषीं ||२०||
काम नासणार नासतें | आपण वेडें उगें च पाहातें |
आळसी हृदयसुन्य तें | काये करूं जाणें ||२१||
धकाधकीचा मामला | कैसा घडे अशक्ताला |
नाना बुद्धि शक्ताला | म्हणोनी शिकवाव्या ||२२||
व्याप होईल तों राहावें | व्याप राहातां उठोन जावें |
आनंदरूप फिरावें | कोठें तऱ्ही ||२३||
उपाधीपासून सुटला | तो निस्पृहपणें बळावला |
जिकडे अनकूळ तिकडे चालिला | सावकास ||२४||
कीर्ति पाहातां सुख नाहीं | सुख पाहातां कीर्ति नाहीं |
केल्याविण कांहींच नाहीं | कोठें तऱ्ही ||२५||
येरवीं काय राहातें | होणार तितुकें होऊन जातें |
प्राणी मात्र अशक्त तें | पुढें आहे ||२६||
अधींच तकवा सोडिला | मधेंचि धीवसा सांडिला |
तरी संसार हा सेवटाला | कैसा पावे ||२७||
संसार मुळींच नासका | विवेकें करावा नेटका |
नेटका करितां फिका | होत जातो ||२८||
ऐसा याचा जिनसाना | पाहातां कळों येतें मना |
परंतु धीर सांडावाना | कोणीयेकें ||२९||
धीर सांडितां काये होतें | अवघें सोसावें लागतें |
नाना बुद्धि नाना मतें | शाहाणा जाणे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
विवेकलक्षणनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१९. १०
||दशक एकोणविसावा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh19.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 19
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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