||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १७ ||
||दशक सतरावा : प्रकृतिपुरुष ||१७||
समास पहिला : प्रकृतिपुरुषनाम
||श्रीराम ||
निश्चळ ब्रह्मी चंचळ आत्मा | सकळां पर जो परमात्मा |
चैतन्य साक्षी ज्ञानात्मा | शड्गुणैश्वरु ||१||
सकळ जगाचा ईश्वरु | म्हणौन नामें जगदेश्वरु |
तयापासून विस्तारु | विस्तारला ||२||
शिवशक्ती जगदेश्वरी | प्रकृतिपुरुष परमेश्वरी |
मूळमाया गुणेश्वरी | गुणक्षोभिणी ||३||
क्षेत्रज्ञ द्रष्टा कूटस्त साक्षी | अंतरात्मा सर्वसाक्षी |
सुद्धसत्व महत्तत्व परीक्षी | जाणता साधु ||४||
ब्रह्मा विष्णु महेश्वरु | नाना पिंडी जीवेश्वरु |
त्यास भासती प्राणीमात्रु | लहानथोर ||५||
देहदेउळामधें बैसला | न भजतां मारितो देहाला |
म्हणौनि त्याच्या भेणें तयाला | भजती लोक ||६||
जे वेळेसी भजन चुकले | तें तें तेव्हां पछ्याडिलें |
आवडीनें भजों लागले | सकळ लोक ||७||
जें जें जेव्हां आक्षेपिले | तें तें तत्काळचि दिधलें |
त्रैलोक्य भजों लागलें | येणें प्रकरें ||८||
पांचा विषयांचा नैव्यद्य | जेव्हां पाहिजे तेव्हां सिद्ध |
ऐसें न करितां सद्य | रोग होती ||९||
जेणें काळें नैव्यद्य पावेना | तेणें काळें देव राहेना |
भाग्य वैभव पदार्थ नाना | सांडून जातो ||१०||
जातो तों कळो देईना | कोणास ठाउकें होयेना |
देवेंविण अनुमानेना | कोणास देव ||११||
देव पाहावयकारणें | देउळें लागती पाहाणें |
कोठेंतरी देउळाच्या गुणें | देव प्रगटे ||१२||
देउळें म्हणिजे नाना शरीरें | तेथें राहिजें जीवेश्वेरे |
नाना शरीरें नाना प्रकारें | अनंत भेदें ||१३||
चालतीं बोलतीं देउळें | त्यामधें राहिजें राउळें |
जितुकीं देउळें तितुकीं सकळें | कळली पाहिजे ||१४||
मछ कूर्म वाराह देउळें | भूगोळ धरिला सर्वकाळें |
कराळें विक्राळें निर्मळें | कितियेक ||१५||
कित्येक देऊळीं सौख्य पाहे | भरतां आवघें सिंध आहे |
परी तें सर्वकाळ न राहे | अशाश्वत ||१६||
अशाश्वताचा मस्तकमणीं | जयाची येवढी करणी |
दिसेना तरी काय जालें धनी | तयासीच म्हणावें ||१७||
उद्भवोन्मुख होतां अभेद | विमुख होतां उदंड खेद |
ऐसा अधोर्ध संवाद | होत जातो ||१८||
सकळांचे मूळ दिसेना | भव्य भारी आणी भासेना |
निमिष्य येक वसेना | येके ठाइं ||१९||
ऐसा अगाध परमात्मा | कोण जाणे त्याचा महिमा |
तुझी लीळा सर्वोत्तमा | तूंच जाणसी ||२०||
संसारा आलियाचें सार्थक | जेथें नित्यानित्यविवेक |
येहलोक आणी परलोक | दोनीं साधिले ||२१||
मननसीळ लोकांपासीं | अखंड देव आहिर्निशीं |
पाहातां त्यांच्या पूर्वसंचितासी | जोडा नाहीं ||२२||
अखंड योग म्हणोनि योगी | योग नाहीं तो वियोगी |
वियोगी तोहि योगी | योगबळें ||२३||
भल्यांची महिमा ऐसी | जे सन्मार्ग लावी लोकांसी |
पोहणार असतां बुडतयासी | बुडों नेदावें ||२४||
स्थूळसूक्ष्मतत्वझाडा | पिंडब्रह्मांडाचा निवाडा |
प्रचित पाहे ऐसा थोडा | भूमंडळीं ||२५||
वेदांतीचें पंचिकर्ण | अखंड तयाचें विवर्ण |
माहांवाक्यें अंतःकरण | रहस्य पाहे ||२६||
ये पृथ्वीमधें विवेकी असती | धन्य तयांची संगती |
श्रवणमात्रें पावती गती | प्राणीमात्र ||२७||
सत्संग आणी सत्शास्त्रश्रवण | अखंड होतसे विवर्ण |
नाना सत्संग आणी उत्तम गुण | परोपकाराचे ||२८||
जे सद्कीर्तीचे पुरुष | ते परमेश्वराचे अंश |
धर्मस्थापनेचा हव्यास | तेथेंचि वसे ||२९||
विशेष सारासार विचार | तेणें होय जग्गोद्धार |
संगत्यागें निरंतर | होऊन गेले ||३०||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
देवबळात्कारनाम समास पहिला ||१||१७. १
समास दुसरा : शिवशक्तिनिरूपण
||श्रीराम ||
ब्रह्म निर्मळ निश्चळ | जैसें गगन अंतराळ |
निराकार केवळ | निर्विकारी ||१||
अंतचि नाहीं तें अनंत | शाश्वत आणी सदोदित |
असंत नव्हे तें संत | सर्वकाळ ||२||
परब्रह्म तें अविनाश | जैसें आकाश अवकाश |
न तुटे न फुटे सावकास | जैसें तैसें ||३||
तेथें ज्ञान ना अज्ञान | तेथें स्मरण ना विस्मरण |
तेथें अखंड निर्गुण | निरावलंबी ||४||
तेथें चंद्र सूर्य ना पावक | नव्हे काळोखें ना प्रकाशक |
उपाधीवेगळें येक | निरोपाधी ब्रह्म ||५||
निश्चळीं स्मरण चेतलें | त्यास चैतन्य ऐसें कल्पिलें |
गुणासमत्वें जालें | गुणसाम्य ऐसें ||६||
गगनीं आली अभ्रछ्याया | तैसी जाणिजे मूळमाया |
उद्भव आणी विलया | वेळ नाहीं ||७||
निर्गुणीं गुणविकारु | तोचि शड्गुणैश्वरु |
अर्धनारीनटेश्वरु | तयास म्हणिजे ||८||
आदिशक्ति शिवशक्ति | मुळीं आहे सर्वशक्ति |
तेथून पुढें नाना वेक्ती | निर्माण जाल्या ||९||
तेथून पुढें शुद्धसत्व | रजतमाचें गूढत्व |
तयासि म्हणिजे महत्तत्व | गुणक्षोभिणी ||१०||
मुळीं असेचिना वेक्ती | तेथें कैंची शिवशक्ती |
ऐसें म्हणाल तरी चित्तीं | सावधान असावें ||११||
ब्रह्मांडावरून पिंड | अथवा पिंडावरून ब्रह्मांड |
अधोर्ध पाहातां निवाड | कळों येतो ||१२||
बीज फोडून आणिलें मना | तेथें फळ तों दिसेना |
वाढत वाढत पुढें नाना | फळें येती ||१३||
फळ फोडितां बीज दिसे | बीज फोडितां फळ नसे |
तैसा विचार असे | पिंडब्रह्मांडीं ||१४||
नर नारी दोनी भेद | पिंडीं दिसती प्रसिद्ध |
मुळी नस्तां विशद | होतील कैसीं ||१५||
नाना बीजरूप कल्पना | तींत काये येक असेना |
सूक्ष्म म्हणोनि भासेना | येकायेकीं ||१६||
स्थूळाचें मूळ ते वासना | ते वासना आधीं दिसेना |
स्थूळावेगळें अनुमानेना | सकळ कांहीं ||१७||
कल्पनेची सृष्टी केली | ऐसीं वेदशास्त्रें बोलिलीं |
दिसेना म्हणोन मिथ्या केली | न पाहिजेत कीं ||१८||
पडदा येका येका जन्माचा | तेथें विचार कळे कैंचा |
परंतु गूढत्व हा नेमाचा | ठाव आहे ||१९||
नाना पुरुषांचे जीव | नाना स्त्रियांचे जीव |
येकचि परी देहस्वभाव | वेगळाले ||२०||
नवरीस नवरी नलगे | ऐसा भेद दिसों लागे |
पिंडावरून उमगे | ब्रह्मांडबीज ||२१||
नवरीचें मन नवऱ्यावरी | नवऱ्याचें मन नवरीवरी |
ऐसी वासनेची परी | मुळींहून पाहावी ||२२||
वासना मुळींची अभेद | देहसमंधें जाला भेद |
तुटतां देहाच समंध | भेद जेला ||२३||
नरनारीचें बीजकारण | शिवशक्तीमधें जाण |
देह धरितां प्रमाण | कळों आलें ||२४||
नाना प्रीतीच्या वासना | येकाचें येकास कळेना |
तिक्षण दृष्टीनें अनुमाना | कांहींसें येतें ||२५||
बाळकास वाढवी जननी | हें तों नव्हे पुरुषाचेनी |
उपाधी वाढे जयेचेनी | ते हे वनिता ||२६||
वीट नाहीं कंटाळानाहीं | आलस्य नाहीं त्रास नाहीं |
इतुकी माया कोठेंचि ना हीं | मातेगेगळी ||२७||
नाना उपाधी वाढऊं जाणे | नाना मायेनें गोऊं जाणे |
नाना प्रीती लाऊं जाणे | नाना प्रपंचाची ||२८||
पुरुषास स्त्रीचा विश्वास | स्त्रीस पुरुषाचा संतोष |
परस्परें वासनेस | बांधोन टकिलें ||२९||
ईश्वरें मोठें सूत्र केलें | मनुष्यमात्र गुंतोन राहिलें |
लोभाचें गुंडाळें केलें | उगवेना ऐसें ||३०||
ऐसी परस्परें आवडी | स्त्रीपुरुषांची माहां गोडी |
हे मुळींहून चालिली रोकडी | विवेकें पाहावी ||३१||
मुळीं सूक्ष्म निर्माण जालें | पुढें पष्ट दिसोन आलें |
उत्पतीचें कार्य चाले | उभयतांकरितां ||३२||
मुळीं शिवशक्ती खरें | पुढें जालीं वधुवरें |
चौऱ्यासि लक्ष विस्तारें | विस्तारली जे ||३३||
येथें शिवशक्तीचें रूप केलें | श्रोतीं मनास पाहिजे आणिलें |
विवरलियांविण बोलिलें | तें वेर्थ जाणावें ||३४||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
शिवशक्तिनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||१७. २
समास तिसरा : श्रवणनिरूपण
||श्रीराम ||
थांबाथांबा ऐका ऐका | आधींच ग्रंथ सोडूं नका |
सांगितलें तें ऐका | सावधपणें ||१||
श्रव्णनामध्यें सार श्रवण | तें हें अध्यात्मनिरूपण |
सुचित करून अंतःकर्ण | ग्रन्थामधें विवरावें ||२||
श्रवणमननाचा विचार | निजध्यासें साक्षात्कार |
रोकडा मोक्षाचा उधार | बोलोंचि नये ||३||
नाना रत्नें परीक्षितां | अथवा वजनें करितां |
उत्तम सोनें पुटीं घालतां | सावधान असावें ||४||
नाना नाणीं मोजून घेणें | नाना परीक्षा करणें |
विवेकी मनुष्यासी बोलणें | सावधपणें ||५||
जैसें लाखोलीचें धान्य | निवडून वेंचितां होते मान्य |
सगट मानितां अमान्य | देव क्षोभे ||६||
येकांतीं नाजुक कारबार | तेथें असावें अति तत्पर |
त्याच्या कोटिगुणें विचार | अध्यात्मग्रन्थीं ||७||
काहिण्या कथा गोष्टी पवाड | नाना अवतारचरित्रें वाड |
त्या समस्तांमध्यें जाड | अध्यात्मविद्या ||८||
गत गोष्टीस ऐकिलें | तेणें काये हातास आलें |
म्हणती पुण्य प्राप्त जालें | परी तें दिसेना कीं ||९||
तैसें नव्हे अध्यात्मसार | हा प्रचितीचा विचार |
कळतां अनुमानाचा संव्हार | होत जातो ||१०||
मोठे मोठे येऊन गेले | आत्म्याकरितांच वर्तले |
त्या आत्म्याचा महिमा बोले | ऐसा कवणु ||११||
युगानयुगें येकटा येक | चालवितो तिनी लोक |
त्या आत्म्याचा विवेक | पाहिलाच पाहावा ||१२||
प्राणी आले येऊन गेले | ते जैसे जैसे वर्तले |
ते वर्तणुकेचें कथन केलें | इछेसारिखें ||१३||
जेथें आत्मा नाहीं दाट | तेथें अवघें सरसपाट |
अत्म्याविण बापुडें काष्ठ | काये जाणे ||१४||
ऐसें वरिष्ठ आत्मज्ञान | दुसरें नाहीं यासमान |
सृष्टीमधें विवेकी सज्जन | तेचि हें जाणती ||१५||
पृथ्वी आणी आप तेज | याचा पृथिवीमध्यें समज |
अंतरात्मा तत्वबीज | तें वेगळेंचि राहिलें ||१६||
वायोपासून पैलिकडे | जो कोणी विवेकें पवाडे |
जवळीच आत्मा सांपडे | त्या पुरुषासी ||१७||
वायो आकाश गुणमाया | प्रकृतिपुरुष मूळमाया |
सूक्ष्मरूपें प्रचित येया | कठीण आहे ||१८||
मायादेवीच्या धांदली | सूक्ष्मीं कोण मन घाली |
समजला त्यची तुटली | संदेहवृत्ती ||१९||
मूळमाया चौथा देह | जाला पाहिजे विदेह |
देहातीत होऊन राहे | धन्य तो साधु ||२०||
विचारें ऊर्ध चढती | तयासी च ऊर्धगती |
येरां सकळां अधोगती | पदार्थज्ञानें ||२१||
पदार्थ चांगले दिसती | परी ते सवेंचि नासती |
अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट होती | लोक तेणें ||२२||
याकारळें पदार्थज्ञान | नाना जिनसीचा अनुमान |
सर्व सांडून निरंजन | धुंडीत जावें ||२३||
अष्टांग योग पिंडदज्ञान | त्याहून थोर तत्वज्ञान |
त्याहून थोर आत्मज्ञान | तें पाहिलें पाहिजे ||२४||
मूळमायेचे सेवटीं | हरिसंकल्प मुळीं उठी |
उपासनायोगें इठी | तेथें घातली पाहिजे ||२५||
मन त्यापलिकडे जाण | निखळ ब्रह्म निर्गुण |
निर्मळ निश्चळ त्याची खूण | गगनासारिखी ||२६||
येथून तेथवरी दाटलें | प्राणीमात्रास भेटलें |
पदार्थमात्रीं लिगटलें | व्यापून आहे ||२७||
त्याऐसें नाहीं थोर | सूक्ष्माहून सूक्ष्म विचार |
पिंडब्रह्माचा संव्हार | होतां कळे ||२८||
अथवा पिंड ब्रह्मांड असतां | विवेकप्रळये पाहों जातां |
शाश्वत कोण हें तत्वता | उमजों लागे ||२९||
करून अवघा तत्वझाडा | सारासाराचा निवाडा |
सावधपणें ग्रन्थ सोडा | सुखिनावें ||३०||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
श्रवणनिरूपणनाम समास तिसरा ||३||१७. ३
समास चौथा : अनुमाननिरसन
||श्रीराम ||
बहुत जनासी उपाये | वक्तयास पुसतां त्रासों नये |
बोलतां बोलतां अन्वयें | सांडूं नये ||१||
श्रोत्यानें आशंका घेतली | ते तत्काळ पाहिजे फेडिली |
स्वगोष्टीनें सगोष्टी पेंचली | ऐसें न व्हावें ||२||
पुढें धरितां मागें पेंचला | मागें धरितां पुढें उडाला |
ऐसा सांपडतचि गेला | ठाइं ठाइं ||३||
पोहणारचि गुचक्या खातो | जनास कैसा काढूं पाहातो |
आशय लोकांच राहातो | ठाइं ठाइं ||३||
आपणचि बोलिला संव्हार | आपणचि बोलिजे सर्वसार |
दुस्तर मायेचा पार | टाकिला पाहिजे ||५||
जें जें सूक्ष्म नाम घ्यावें | त्याचें रूप बिंबऊन द्यावें |
तरीच वक्ता म्हणवावें | विचारवंत ||६||
ब्रह्म कैसें मूळमाया कैसी | अष्टधाप्रकृती शिवशक्ती कैसी |
शड्गुणेश्वराची स्थिति कैसी | गुणसाम्याची ||७||
अर्धनारीनटेश्वर | प्रकृतिपुरुषाचा विचार |
गुणक्षोभिणी तदनंतर | त्रिगुण कैसे ||८||
पूर्वपक्ष कोठून कोठवरी | वाच्यांशलक्ष्यांशाची परी |
सूक्ष्म नाना विचार करी | धन्य तो साधु ||९||
नाना पाल्हाळीं पडेना | बोलिलेंचि बोलावेना |
मौन्यगर्भ अनुमाना | आणून सोडी ||१०||
घडी येक विमळ ब्रह्म | घडी येक सर्व ब्रह्म |
द्रष्टा साक्षी सत्ता ब्रह्म | क्षण येक ||११||
निश्चळ तेंचि जालें चंचळ | चंचळ तेंचि ब्रह्म केवळ |
नाना प्रसंगीं खळखळ | निवाडा नाहीं ||१२||
चळतें आणी निश्चळ | अवघें चैतन्यचि केवळ |
रूपें वेगळालीं प्रांजळ | कदापी बोलवेना ||१३||
उगीच करी गथागोवी | तो लोकांस कैसें उगवी |
नाना निश्चयें नाना गोवी | पडत जाते ||१४||
भ्रमास म्हणे परब्रह्म | परब्रह्मास ह्मणे भ्रम |
ज्ञातेपणाचा संभ्रम | बोलोन दावी ||१५||
घाली शास्त्रांची दडपण | प्रचितिविण निरूपण |
पुसों जातां उगाच सीण | अत्यंत मानी ||१६||
ज्ञात्यास आणि पदार्थभिडा | तो काय बोलेल बापुडा |
सारासाराचा निवाडा | जाला पाहिजे ||१७||
वैद्य मात्रेची स्तुती करी | मात्रा गुण कांहींच न करी |
प्रचितिविण तैसी परी | ज्ञानाची जाली ||१८||
तेथें नाहीं सारासार | तेथें अवघा अंधकार |
नाना परीक्षेचा विचार | राहिला तेथें ||१९||
पाप पुण्य स्वर्ग नर्क | विवेक आणि अविवेक |
सर्वब्रह्मीं काये येक | सांपडलें नाहीं ||२०||
पावन आणि तें पतन | दोनीं मानिलीं तत्समान |
निश्चये आणि अनुमान | ब्रह्मरूप ||२१||
ब्रह्मरूप जालें आघवें | तेथें काये निवडावें |
आवघी साकरचि टाकावें | काये कोठें ||२२||
तैसें सार आणि असार | अवघा जाला येकंकार |
तेथें बळावळा अविचार | विचार कैंचा ||२३||
वंद्य निंद्य येक जालें | तेथें काये हाता आलें |
उन्मत्त द्रव्यें जें भुललें | तें भलतेंच बोले ||२४||
तैसा अज्ञान भ्रमें भुलला | सर्व ब्रह्म म्हणोन बैसला |
माहांपापी आणि भला | येकचि मानी ||२५||
सर्वसंगपरित्याग | अव्हासवा विषयेभोग |
दोघे येकचि मानितां मग | काये उरलें ||२६||
भेद ईश्वर करून गेला | त्याच्या वाचेन न वचे मोडिला |
मुखामधें घांस घातला | तो अपानीं घालावा ||२७||
ज्या इंद्रियास जो भोग | तो तो करी येथासांग |
ईश्वराचें केलें जग | मोडितां उरेना ||२८||
अवघी भ्रांतीची भुटाटकी | प्रचितिविण गोष्टी लटकी |
वेड लागलें जे बटकी | ते भलतेंचि बोले ||२९||
प्रत्ययज्ञाता सावधान | त्याचें ऐकावें निरूपण |
आत्मसाक्षात्काराची खूण | तत्काळ बाणें ||३०||
वेडें वांकडे जाणावें | आंधळें पाउलीं वोळखावें |
बाश्कळ बोलणें सांडावें | वमक जैसें ||३१||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
अनुमाननिर्शननाम समास चौथा ||४||१७. ४
समास पांचवा : अजपानिरूपण
||श्रीराम ||
येकवीस सहश्र सासें जपा | नेमून गेली ते अजपा |
विचार पाहातां सोपा | सकळ कांहीं ||१||
मुखीं नासिकीं असिजे प्राणें | तयास अखंड येणें जाणें |
याचा विचार पाहाणें | सूक्ष्मदृष्टीं ||२||
मुळीं पाहातां येक स्वर | त्याचा तार मंद्र घोर |
त्या घोराहून सूक्ष्म विचार | अजपाचा ||३||
सरिगमपदनिस | सरिं मात्रुका सायास |
प्रथम स्वरें मात्रुकांस | म्हणोन पाहावें ||४||
परेवाचेहून आर्तें | आणि पश्यंती खालतें |
स्वराचे जन्मस्थान तें | तेथून उठे ||५||
येकांतीं उगेंच बैसावें | तेथें हें समजोन पाहावें |
अखंड घ्यावें सांडावें | प्रभंजनासी ||६||
येकांतीं मौन्य धरून बैसे | सावध पाहातां कैसें भासे |
सोहं सोहं ऐसे | शब्द होती ||७||
उच्चारेंविण जे शब्द | ते जाणावे सहजशब्द |
प्रत्ययायेती परंतु नाद | कांहींच नाहीं ||८||
ते शब्द सांडून बैसला | तो मौनी म्हणावा भला |
योगाभ्यासाचा गल्बला | याकारणें ||९||
येकांतीं मौन्य धरून बैसला | तेणें कोण शब्द जाला |
सोहं ऐसा भासला | अंतर्यामीं ||१०||
धरितां सो सांडितां हं | अखंड चाले सोहं सोहं |
याचा विचार पाहातां बहु | विस्तारला ||११||
देहधारक तितुका प्राणी | श्वेतजउद्विजादिक खाणी |
स्वासोस्वास नस्तां प्राणी | कैसे जिती ||१२||
ऐसी हे अजपा सकळासी | परंतु कळे जाणत्यासी |
सहज सांडून सायासी | पडोंच नये ||१३||
सहज देव असतचि असे | सायासें देव फुटे नासे |
नासिवंत देवास विश्वासे | ऐसा कवणु ||१४||
जगदांतराचें दर्शन | सहज घडे अखंड ध्यान |
आत्मइछेनें जन | सकळ वर्तती ||१५||
आत्मयाचें समाधान | घडे तैसेंचि आशन |
सांडिलें फिटले समर्पण | तयासीच होये ||१६||
अग्नपुरुष पोटीं वसती | तयास अवदानें सकळ देती |
लोक आज्ञेमधें असती | आत्मयांचे ||१७||
सहज देवजपध्यानें | सहज चालणें स्तुती स्तवनें |
सहज घडे तें भगवान्नें | मान्य कीजे ||१८||
सहज समजायाकारणें | नाना हटयोग करणें |
परंतु येकायेकीं समजणें | घडत नाहीं ||१९||
द्रव्य चुकतें दरिद्र येतें | तळीं लक्ष्मी वरी वर्ततें |
प्राणी काये करील तें | ठाउकें नाहीं ||२०||
तळघरामधें उदंड द्रव्य | भिंतीमधें घातलें द्रव्य |
स्तंभीं तुळवटीं द्रव्य | आपण मधें ||२१||
लक्ष्मीमध्यें करंटा नांदे | त्याचें दरिद्र अधिक सांदे |
नवल केलें परमानंदें | परमपुरुष ||२२||
येक पाहाती येक खाती | ऐसी विवेकाची गती |
प्रवृत्ति अथवा निवृत्ती | येणेंचि ज्ञायें ||२३||
अंतरीं वसतां नारायेणें | लक्ष्मीस काये उणें |
ज्याची लक्ष्मी तो आपणें | बळकट धरावा ||२४||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
अजपानिरूपणनाम समास पांचवा ||५||१७. ५
समास सहावा : देहात्मनिरूपण
||श्रीराम ||
आत्मा देहाध्यें असतो | नाना सुखदुखें भोगितो |
सेवटीं शरीर सांडून जातो | येकायेकीं ||१||
शरीरीं शक्ति तारुण्यपणीं | नाना सुखें भोगी प्राणी |
अशक्त होतां वृद्धपणीं | दुःखें भोगी ||२||
मरावेना ऐसी आवडी | हातपाये खोडून प्राण सोडी |
नाना दुःखें अवघडी | वृद्धपणीं ||३||
देहआत्मयांची संगती | कांहींयेक सुख भोगिती |
चर्फडचर्फडून जाती | देहांतकाळीं ||४||
ऐसा आत्मा दुःखदायेक | येकांचे प्राण घेती येक |
आणी सेवटीं निरार्थक | कांहींच नाहीं ||५||
ऐसा दों दिसांचा भ्रम | त्यास म्हणती परब्रह्म |
नाना दुःखाचा संभ्रम | मानून घेतला |||६||
दुःखी होऊन चर्फडून गेले | तेथें कोण समाधान जालें |
कांहींयेकसुख भोगिलें | तों सवेंचि दुःख ||७||
जन्म दारभ्य आठवावें | म्हणिजे अवघें पडेल ठावें |
नाना दुःख मोजावें | काये म्हणोनी ||८||
ऐसी आत्मयाची संगती | नाना दुःखें प्राप्त होती |
दैन्यवाणे होऊन जाती | प्राणीमात्र ||९||
कांहीं आनंद कांहीं खेद | जन्मवरी पडिला समंध |
नाना प्रकरीं विरुद्ध | तडातोडी ||१०||
निद्राकाळीं ढेकुण पिसा | नाना प्रकारीं वळसा |
नाना उपायें वळसा | त्यांस होये ||११||
भोजनकाळी माश्या येती | नाना पदार्थ उंदीर नेती |
पुढें त्यांची हि फजिती | मार्जरें करिती ||१२||
वा चामवा गोंचिड | गांधेलें कानटें उदंड |
येकास येक चर्फड | दोहिकडे ||१३||
विंचु सर्प वाग रिसें | सुसरी लांडिगे माणसास माणसें |
परस्परें सुखसंतोषें | येकहि नाहीं ||१४||
चौऱ्यासि लक्ष उत्पत्ती | येकास येक भक्षिती |
नाना पीडा दुःखणी किती | म्हणौन सांगावें ||१५||
ऐसी अंतरात्म्याची करणी | नाना जीव दाटले धरणीं |
परस्परें संव्हारणी | येकयेकांची ||१६||
अखंड रडती | चर्फडिती | विवळविवळों प्राण देती |
मूर्ख प्राणी त्यास म्हणती | परब्रह्म ||१७||
परब्रह्म जाणार नाहीं | कोणास दुःख देणार नाहीं |
स्तुती निंदा दोनी नाहीं | परब्रह्मीं ||१८||
उदंड शिव्या दिधल्या | तितुक्या अंतरात्म्यास लागल्या |
विचार पाहातां प्रत्यया आल्या | येथातथ्य ||१९||
धगडीचा बटकीचा लवंडीचा | गधडीचा कुतरीचा वोंगळीचा |
ऐसा हिशेब सिव्यांचा | किती म्हणोनि सांगावा ||२०||
इतुकें परब्रह्मीं लागेना | तेथें कल्पनाचि चालेना |
तडातोडीचें ज्ञान मानेना | कोणीयेकासी ||२१||
सृष्टीमधें सकळ जीव | सकळांस कैचें वैभव |
याकारणें ठायाठाव | निर्मिला देवें ||२२||
उदंड लोक बाजारीचे | जें जें आलें तें तें वेंचे |
उत्तम तितुके भाग्याचें | लोक घेती ||२३||
येणें न्यायें अन्न वसन | येणेंचि न्यायें देवतार्चन |
येणेंचि न्यायें ब्रह्मज्ञान | प्राप्तव्यासारिखें ||२४||
अवघेच लोक सुखी असती | संसार गोड करून नेती |
माहाराजे वैभव भोगती | तें करंट्यास कैचें ||२५||
परंतु अंतीं नाना दुःखें | तेथें होतें सगट सारिखें |
पूर्वीं भोगिलीं नाना सुखें | अंतीं दुःख सोसवेना ||२६||
कठिण दुःख सोसवेना | प्राण शरीर सोडिना |
मृत्यदुःख सगट जना | कासाविस करी ||२७||
नाना अवेवहीन जालें | तैसेंचि पाहिजे वर्तलें |
प्राणीं अंतकाळीं गेलें | कासाविस होउनी ||२८||
रूप लावण्य अवघें जातें | शरीरसामर्थ्य अवघें राहातें |
कोणी नस्तां मरतें | आपदआपदों ||२९||
अंतकाळ दैन्य दीन | सकळिकांस तत्समान |
ऐसें चंचळ अवलक्षण | दुःखकारी ||३०||
भोगून अभोक्ता म्हणती | हे तों अवघीच फजिती |
लोक उगेच बोलती | पाहिल्याविण ||३१||
अंतकाळ आहे कठिण | शेरीर सोडिना प्राण |
बराड्यासारिखें लक्षण | अंतकाळीं ||३२||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
देहात्मनिरूपणनाम समास सहावा ||६||१७. ६
समास सातवा : जगजीवननिरूपण
||श्रीराम ||
मुळीं उदक निवळ असतें | नाना वल्लिमधें जातें |
संगदोषें तैसें होतें | आंब्ल तिक्षण कडवट ||१||
आत्मा आत्मपणें असतो | देहसंगें विकारतो |
साभिमानें भरीं भरतो | भलतिकडे ||२||
बरी संगती सांपडली | जैसी उंसास गोडी आली |
विषवल्ली फांपावली | घातकी प्राणी ||३||
अठराभार वनस्पती | गुण सांगावे ते किती |
नाना देहाचे संगती | आत्मयास होये ||४||
त्यामधें कोणी भले | ते संतसंगें निघाले |
देहाभिमान सांडून गेले | विवेकबळें ||५||
उदकाचा नाशचि होतो | आत्मा विवेकें निघतो |
ऐसा आहे प्रत्यय तो | विवेकें पाहा ||६||
ज्यास स्वहितचि करणें | त्यास किती म्हणौन सांगणें |
हें ज्याचें त्यानें समजणें | सकळ कांहीं ||७||
आपला आपण करी कुडावा | तो आपला मित्र जाणावा |
आपला नाश करी तो समजावा | वैरी ऐसा ||८||
आपलें आपण अन्हित करावें | त्यास आडवें कोणें निघावें |
येकांती जाऊन जीवें | मारी आपणासी ||९||
जो आपला आपण घातकी | तो आत्महत्यारा पातकी |
याकारणें विवेकी | धन्य साधु ||१०||
पुण्य्वंतां सत्संगती | पापिष्टां असत्संगती |
गति आणि अवगती | संगतीयोगें ||११||
उत्तम संगती धरावी | आपली आपण चिंता करावी |
अंतरी बरी विवरावी | बुद्धि जाणत्याची ||१२||
इहलोक आणि परलोक | जाणता तो सुखदायेक |
नेणत्याकरितां अविवेक | प्राप्त होतो ||१३||
जाणता देवाचा अंश | नेणता म्हणिजे तो राक्षस |
यामधें जें विशेष | तें जाणोन घ्यावें ||१४||
जाणतां तो सकळां मान्य | नेणता होतो अमान्य |
जेणेंकरितां होईजे धन्य | तेंचि घ्यावें ||१५||
साक्षपी शाहाण्याची संगती | तेणें साक्षपी शाहाणे होती |
आळसी मूर्खाची संगती | आळसी मूर्ख ||१६||
उत्तम संगतीचें फळ सुख | अद्धम संगतीचें फळ दुःख |
आनंद सांडुनियां शोक | कैसा घावा ||१७||
ऐसें हें प्रगट दिसे | जनामधें उदंड भासे |
प्राणीमात्र वर्ततसे | उभयेयोगें ||१८||
येका योगें सकळ योग | येका योगें सकळ वियोग |
विवेकयोगें सकळ प्रयोग | करीत जवे ||१९||
अवचितें सांकडींत पडिलें | तरी तेथून पाहिजे निघालें |
निघोन जातां जालें | परम समाधान ||२०||
नाना दुर्जनांचा संग | क्षणक्षणा मनभंग |
याकारणें कांहीं रंग | राखोन जावें ||२१||
शाहाणा येत्न त्याच्या गुणें | पाहों जातां काये उणें |
सुख संतोष भोगणें | नाना श्लाघ्यता ||२२||
अतां लोकीं ऐसें आहे | सृष्टीमधें वर्तताहे |
जो कोणी समजोन पाहे | त्यास घडे ||२३||
बहुरत्न वसुंधरा | जाणजाणों विचार करा |
समजल्यां प्रत्ययो अंतरा-| माजीं येतो ||२४||
दुर्बळ अणि संपन्न | वेडें आणि वित्पन्न |
हें अखंड दंडायमान | असतचि असे ||२५||
येक भाग्यपुरुष मोडती | येक नवे भाग्यवंत होती |
तैसीच विद्या वित्पती | होत जाते ||२६||
येक भरे येक रितें | रितें मागुतें भरतें |
भरतेंहि रितें होतें | काळांतरीं ||२७||
ऐसी हे सृष्टीची चाली | संपत्ति दुपारची साउली |
वयेसा तरी निघोन गेली | हळुहळु ||२८||
बाळ तारुण्य आपुलें | वृधाप्य प्रचितीस आलें |
ऐसें जाणोन सार्थक केलें | पाहिजे कोणियेकें ||२९||
देह जैसें केलें तैसें होतें | येत्न केल्यां कार्ये साधतें |
तरी मग कष्टावें तें | काय निमित्य ||३०||
इति श्रीदासभोधे गुरुशिष्यसंवादे
जगजीवननिरूपणनाम समास सातवा ||७||१७. ७
समास आठवा : तत्त्वनिरसन
||श्रीराम ||
नाभीपासून उन्मेषवृत्ती | तेचि परा जाणिजे श्रोतीं |
ध्वनिरूप पश्यंती | हृदईं वसे ||१||
कंठापासून नाद जाला | मध्यमा वाचा बोलिजे त्याला |
उच्चर होतां अक्षराला | वैखरी बोलिजे ||२||
नाभिस्थानीं परा वाचा | तोचि ठाव अंतःकर्णाचा |
अंतःकर्णपंचकाचा | निवाडा ऐसा ||३||
निर्विकल्प जें स्फुरण | उगेंच असतां आठवण |
तें जाणावें अंतःकर्ण | जाणतीकळा ||४||
अंतःकर्ण आठवलें | पुढें होये नव्हेसें गमलें |
करूं न करू ऐसें वाटलें | तेंचि मन ||५||
संकल्प विकल्प तेंचि मन | जेणें करितां अनुमान |
पुढें निश्चयो तो जाण | रूप बुद्धीचें ||६||
करीनचि अथवा न करी | ऐसा निश्चयोचि करी |
तेचि बुद्धि हे अंतरीं | विवेकें जाणावी ||७||
जे वस्तुचा निश्चये केला | पुढें तेचि चिंतूं लागला |
तें चित्त बोलिल्या बोला | येथार्थ मानावें ||८||
पुढें कार्याचा अभिमान धरणें | हें कार्ये तों अगत्य करणें |
ऐस्या कार्यास प्रवर्तणें | तोचि अहंकारु ||९||
ऐसें अंतःकर्णपंचक | पंच वृत्ती मिळोन येक |
कार्येभागें प्रकारपंचक | वेगळाले ||१०||
जैक्षे पांचहि प्राण | कार्येभागें वेगळाले जाण |
नाहीं तरी वायोचें लक्षण | येकचि असे ||११||
सर्वांगीं व्यान नाभी समान | कंठी उदान गुदीं अपान |
मुखीं नासिकीं प्राण | नेमस्त जाणावा ||१२||
बोलिलें हें प्राणपंचक | आतां ज्ञानइंद्रियेंपंचक |
श्रोत्र त्वचा चक्षु जिव्हा नासिक | ऐसीं हें ज्ञानेंद्रियें ||१३||
वाचा पाणी पाद शिस्न गुद | हे कर्मइंद्रियें प्रसिद्ध |
शब्द स्परुष रूप रस गंध | ऐसें हें विषयपंचक ||१४||
अंतःकर्ण प्राणपंचक | ज्ञानेंद्रियें कर्मेंद्रिये पंचक |
पांचवें विषयपंचक | ऐसीं हे पांच पंचकें ||१५||
ऐसें हे पंचविस गुण | मिळोन सूक्ष्म देह जाण |
याच कर्दम बोलिला श्रवण | केलें पाहिजे ||१६||
अंतःकर्ण व्यान श्रवण वाचा | शब्द विषये आकाशाचा |
पुढें विस्तार वायोचा | बोलिला असे ||१७||
मन समान त्वचा पाणी | स्पर्श रूप हा पवनीं |
ऐसे हे अडाखे साधुनी | कोठा करावा ||१८||
बुद्धि उदान नयेन चरण | रूपविषयाचें दर्शन |
संकेतें बोलिलें मन | घालून पाहिजे ||१९||
चित्त अपान जिव्हा शिस्न | रसविषये आप जाण |
पुढें ऐका सावधान | पृथ्वीचें रूप ||२०||
अहंकार प्राण घ्राण | गुद गंधविषये जाण |
ऐसे केलें निरूपण | शास्त्रमतें ||२१||
ऐसा हा सूक्ष्म देहे | पाहातां होईजे निसंदेहे |
येथें मन घालून पाहे | त्यासीच हें उमजे ||२२||
ऐसें सूक्ष्म देहे बोलिलें | पुढें स्थूळ निरोपिलें |
आकाश पंचगुणें वर्तलें | कैसें स्थुळीं ||२३||
काम क्रोध शोक मोहो भये | हा पंचविध आकाशाचा अन्वये |
पुढें पंचविध वायो | निरोपिला ||२४||
चळण वळण प्रासारण | निरोध आणि आकोचन |
हें पंचविध लक्षण | प्रभंजनाचें ||२५||
क्षुधा त्रुषा आलस्य निद्रा मैथुन | हे तेजाचे पंचविध गुण |
आतां पुढें आपलक्षण | निरोपिलें पाहिजे ||२६||
शुक्लीत श्रोणीत लाळ मूत्र स्वेद | हा पंचविध आपाचा भेद |
पुढें पृथ्वी विशद | केली पाहिजे ||२७||
अस्ति मांष त्वचा नाडी रोम | हे पृथ्वीचे पंचविध धर्म |
ऐसे स्थूळ देहाचें वर्म | बोलिलें असे ||२८||
पृथ्वी आप तेज वायो आकाश | हे पांचाचे पंचविस |
ऐसें मिळोन स्थूळ देहास | बोलिजेतें ||२९||
तिसरा देह कारण अज्ञान | चौथा माहांकारण ज्ञान |
हे च्यारी देह निर्शितां विज्ञान | परब्रह्म तें ||३०||
विचारें चौदेहावेगळें केलें | मीपण तत्वासरिसें गेलें |
अनन्य आत्मनिवेदन जालें | परब्रह्मीं ||३१||
विवेकें चुकला जन्म मृत्य | नरदेहीं साधिलें महत्कृत्य |
भक्तियोगें कृत्यकृत्य | सार्थक जालें ||३२||
इति श्री पंचीकर्ण | केलेंचि करावें विवर्ण |
लोहाचें जालें सुवर्ण | परिसाचेनयोगें ||३३||
हाहि दृष्टांत घडेना | परिसाचेन परीस करवेना |
शरण जातां साधुजना | साधुच होइजे ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे तत्त्वनिरूपणनाम समास आठवा ||८||१७. ८
समास नवना : तनुचतुष्टयनिरूपण
||श्रीराम ||
स्थूळ सूक्ष्म कारण माहाकारण | ऐसे हे चत्वार देह जाण |
जागृति स्वप्न सुषुप्ति पूर्ण | तुर्या जाणावी ||१||
विश्व तैजस प्राज्ञ | प्रत्यगात्मा हे अभिमान |
नेत्रस्थान कंठस्थान हृदयस्थान | मूर्धनी ते ||२||
स्थूळभोग प्रविक्तभोग | आनंदभोग आनंदावभासभोग |
ऐसे हे चत्वार भोग | चौंदेहाचे ||३||
अकार उकार मकार | अर्धमात्रा तो ईश्वर |
ऐस्या मात्रा चत्वार | चौंदेहाच्या ||४||
तमोगुण रजोगुण | सत्त्वगुण शुद्धसत्वगुण |
ऐसे हे चत्वार गुण | चौंदेहाचे ||५||
क्रियाशक्ति द्रव्याशक्ती | इछाशक्ति ज्ञानशक्ती |
ऐशा चत्वार शक्ती | चौंदेहाच्या ||६||
ऐसीं हे बत्तिस तत्वें | दोहींचीं पन्नास तत्वें |
अवघीं मिळोन ब्यासि तत्वें | अज्ञान आणी ज्ञान ||७||
ऐसीं हे तत्वें जाणावीं | जाणोन माइक वोळखावीं |
आपण साक्षी निरसावीं | येणें रितीं ||८||
साक्षी म्हणिजे ज्ञान | ज्ञानें वोळखावें अज्ञान |
ज्ञानाज्ञानाचें निर्शन | देहासरिसें ||९||
ब्रह्मांडीं देह कल्पिले | विराट हिरण्यगर्भ बोलिले |
ते हे विवेकें निर्शले | आत्मज्ञानें ||१०||
आत्मानात्माविवेक करितां | सारासारविचार पाहातां |
पंचभूतांची माइक वार्ता | प्रचित आली ||११||
अस्ति मांष त्वचा नाडी रोम | हे पांचहि पृथ्वीचे गुणधर्म |
प्रत्यक्ष शरीरीं हें वर्म | शोधून पाहावें ||१२||
शुक्लीत श्रोणीत लाळ मूत्र स्वेद | हे आपाचे पंचकभेद |
तत्वें समजोन विशद | करून घावीं ||१३||
क्षुधा त्रुषा आलस्य निद्रा मैथुन | हे पांचहि तेजाचे गुण |
या तत्वांचें निरूपण | केलेंचि करावें ||१४||
चळण वळण प्रासारण | निरोध आणि आकोचन |
हें पंचहि वायोचे गुण | श्रोतीं जाणावे ||१५||
काम क्रोध शोक मोहो भये | हा आकाशाचा परिपाये |
हें विवरल्याविण काये | समजों जाणें ||१६||
असो ऐसें हें स्थूळ शरीर | पंचविस तत्वांचा विस्तार |
आतां सूक्ष्मदेहाचा विचार | बोलिजेल ||१७||
अंतःकर्ण मन बुद्धि चित्त अहंकार | आकाशपंचकाचा विचार |
पुढें वायो निरोत्तर | होऊन ऐका ||१८||
व्यान समान उदान | प्राण आणी अपान |
ऐसे हे पांचहि गुण | वायोतत्वाचे ||१९||
श्रोत्र त्वचा चक्षु जिव्हा घ्राण | हें पांचहि तेजाचे गुण |
आतां आप सावधान | होऊन ऐका ||२०||
वाचा पाणी पाद शिस्न गुद | हे आपाचे गुण प्रसिद्ध |
आतां पृथ्वी विशद | निरोपिली ||२१||
शब्द स्पर्श रूप रस गंध | हे पृथ्वीचे गुण विशद |
ऐसे हे पंचवीस तत्वभेद | सूक्ष्म देहाचे ||२२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे तनुचतुष्टयेनाम समास नववा ||९||१७. ९
समास दहावा : टोणपसिद्धलक्षण
||श्रीराम ||
आवर्णोदकीं हटकेश्वर | त्यास घडे नमस्कार |
महिमा अत्यंतचि थोर | तया पाताळलिंगाचा ||१||
परंतु तेथें जाववेना | शरीरें दर्शन घडेना |
विवेकें आणावें अनुमाना | तया ईश्वरासी ||२||
सातां समुद्रांचे वेडे | उदंड भूमि पैलिकडे |
सेवटीं तुटले कडे | भूमंडळाचे ||३||
सात समुद्र वोलांडावे | तेथें जाणें कैसें फावे |
म्हणोन विवेकी असावे | साधुजन ||४||
जें आपणास नव्हे ठावें | तें जाणतयास पुसावें |
मनोवेगें तनें फिरावें | हें तों घडेना ||५||
जें चर्मदृष्टीस नव्हे ठावें | तें ज्ञानदृष्टीनें पाहावें |
ब्रह्मांड विवरोन राहावें | समाधानें ||६||
मध्यें आहे भूमीचें चडळ | म्हणौन आकाश आणि पाताळ |
तें चडळ नस्तां अंतराळ | चहुंकडे ||७||
तयास परब्रह्म म्हणावें | जें उपाधीवेगळें स्वभावें |
जेथें दृश्यमायेच्या नांवें | सुन्याकार ||८||
दृष्टीचें देखणें दृश्य | मनाचें देखणें भास |
मनातीत निराभास | विवेकें जाणावें ||९||
दृश्य भास अवघा विघडे | विवेक तेथें पवाडे |
भूमंडळीं ज्ञाते थोडे | सूक्ष्मदृष्टीचे ||१०||
वाच्यांश वाचेनें बोलावा | न बोलतां लक्ष्यांश जाणावा |
निर्गुण अनुभवास आणावा | गुणाचेनयोगें ||११||
नाना गुणास आहे नाश | निर्गुण तें अविनाश |
ढोबळ्याहून विशेष | सूक्ष्म देखणें ||१२||
जें दृष्टीस न पडे ठावें | तें ऐकोन जाणावें |
श्रवणमननें पडे ठावें | सकळ कांहीं ||१३||
अष्टधेचे जिनस नाना | उदंड पाहातां कळेना |
अवघें सगट पिटावेना | कोणियेकें ||१४||
सगट सारिखी स्थिती जाली | तेथें परीक्षाच बुडाली |
चविनटानें कालविलीं | नाना अन्नें ||१५||
टोणपा नव्हे गुणग्राहिक | मुर्खास कळेना विवेक |
विवेक आणि अविवेक | येकचि म्हणती ||१६||
उंच नीच कळेना ज्याला | तेथें अभासचि बुडाला |
नाना अभ्यासें प्राणियाला | सुटिका कैंची ||१७||
वेड लागोन जालें वोंगळ | त्यास सारिखेंच वाटे सकळ |
तें जाणावें बाश्कळ | विवेकी नव्हेती ||१८||
ज्यास अखंड होतो नाश | त्यासीच म्हणती अविनाश |
बहुचकीच्या लोकांस | काये म्हणावें ||१९||
ईश्वरें नाना भेद केले | भेदें सकळ सृष्टी चाले |
आंधळे परीक्षवंत मिळाले | तेथें परीक्षा कैंची ||२०||
जेथें परीक्षेचा अभाव | तो टोणपा समुदाव |
गुणचि नाहीं गौरव | येईल कैंचें ||२१||
खरें खोटें येकचि जालें | विवेकानें काय केलें |
असार सांडून सार घेतलें | साधुजनीं ||२२||
उत्तम वस्तूचि परीक्षा | कैसी घडे नतद्रक्षा |
दीक्षाहीनापासीं दीक्षा | येईल कैंची ||२३||
आपलेन वोंगळपणें | दिशाकरून शौच्य नेणे |
वेद शास्त्रें पुराणें | त्यास काये करिती ||२४||
आधीं राखावा आचार | मग पाहावा विचार |
आचारविचारें पैलपार | पाविजेतो ||२५||
जे नेमकास न कळे | तें बश्कळास केवी कळे |
डोळस ठकती आंधळे | कोण्या कामाचे ||२६||
पापपुण्य स्वर्ग नर्क | अवघेंच मानिलें येक |
विवेक आणी अविवेक | काये मानावें ||२७||
अमृत विष येक म्हणती | परी विष घेतां प्राण जाती |
कुकर्में होते फजिती | सत्कर्में कीर्ति वाढे ||२८||
इहलोक आणि परलोक | जेथें नाहीं साकल्प विवेक |
तेथें अवघेच निरार्थक | सकळ कांहीं ||२९||
म्हणौन संतसंगेंचि जावें | सत्शास्त्रचि श्रवण करावें |
उत्तम गुणास अभासावें | नाना प्रयेत्नें ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
टोणपसिद्धलक्षणनाम समास दहावा ||१०||१७. १०
||दशक सतरावा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh17.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 17
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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