||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १६ ||
||दशक सोळावा : सप्ततिन्वय ||१६||
समास पहिला : वाल्मीकि स्तवननिरूपण
||श्रीराम ||
धन्य धन्य तो वाल्मीक | ऋषीमाजी पुण्यश्लोक |
जयाचेन हा त्रिलोक्य | पावनजाला ||१||
भविष्य आणी शतकोटी | हें तों नाहीं देखिलें दृष्टीं |
धांडोळितां सकळ सृष्टि | श्रुत नव्हे ||२||
भविष्याचें येक वचन | कदाचित जालें प्रमाण |
तरी आश्चिर्य मानिती जन | भूमंडळीचे ||३||
नसतां रघुनाथअवतार | नाहीं पाहिला शास्त्राधार |
रामकथेचा विस्तार | विस्तारिला जेणें ||४||
ऐसा जयाचा वाग्विळास | ऐकोनी संतोषला महेश |
मग विभागिलें त्रयलोक्यास | शतकोटी रामायेण || ५||
ज्याचें कवित्व शंकरें पाहिलें | इतरां न वचे अनुमानलें |
रामउपासकांसी जालें | परम समाधान ||६||
ऋषी होते थोर थोर | बहुतीं केला कवित्वविचार |
परी वाल्मीकासारिखा कवेश्वर | न भूतो न भविष्यति ||७||
पूर्वीं केली दुष्ट कर्में | परी पावन जाला रामनामें |
नाम जपतां दृढ नेमें | पुण्यें सीमा सांडिली ||८||
उफराटे नाम म्हणतां वाचें | पर्वत फुटले पापाचे |
ध्वज उभारले पुण्याचे | ब्रह्मांडावरुते ||९||
वाल्मीकें जेथें तप केलें | तें वन पुण्यपावन जालें |
शुष्क काष्ठीं अंकुर फुटले | तपोबळें जयाच्या ||१०||
पूर्वी होता वाल्हाकोळी | जीवघातकी भूमंडळीं |
तोचि वंदिजे सकळीं | विबुधीं आणि ऋषेश्वरीं ||११||
उपरती आणि अनुताप | तेथें कैंचें उरेल पाप |
देह्यांततपें पुण्यरूप | दुसरा जन्म जाला ||१२||
अनुतापें आसन घातलें | देह्यांचें वारुळ जालें |
तेंचि नाम पुढें पडिलें | वाल्मीक ऐसें ||१३||
वारुळास वाल्मीक बोलिजे | म्हणोनि वाल्मीक नाम साजे |
जयाच्या तीव्र तपें झिजे | हृदय तापसाचें ||१४||
जो तापसांमाजीं श्रेष्ठ | जो कवेश्वरांमधें वरिष्ठ |
जयाचें बोलणें पष्ट | निश्चयाचें ||१५||
जो निष्ठावंतांचें मंडण | रघुनाथभक्तांचें भूषण |
ज्याची धारणा असाधारण | साधकां सदृढ करी ||१६||
धन्य वाल्मीक ऋषेश्वर | समर्थाचा कवेश्वर |
तयासी माझा नमस्कार | साष्टांगभावें ||१७||
वाल्मीक ऋषी बोलिला नसता | तरी आम्हांसी कैंची रामकथा |
म्हणोनियां समर्था | काय म्हणोनी वर्णावें ||१८||
रघुनाथकीर्ति प्रगट केली | तेणें तयाची महिमा वाढली |
भक्त मंडळी सुखी जाली | श्रवणमात्रें ||१९||
आपुला काळ सार्थक केला | रघुनाथकीर्तिमधें बुडाला |
भूमंडळीं उधरिला | बहुत लोक ||२०||
रघुनाथ भक्त थोर थोर | महिमा जयांचा अपार |
त्या समस्तांचा किंकर | रामदास म्हणे ||२१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
वाल्मीकस्तवननिरूपणनाम समास पहिला ||१||१६. १
समास दुसरा : सूर्यस्तवननिरूपण
||श्रीराम ||
धन्य धन्य हा सूर्यवौंश | सकळ वौंशामधें विशेष |
मार्तंडमंडळाचा प्रकाश | फांकला भूमंडळीं ||१||
सोमाआंगीं आहे लांछन | पक्षा येका होय क्षीण |
रविकिर्ण फांकता आपण | कळाहीन होये ||२||
याकारणें सूर्यापुढें | दुसरी साम्यता न घडे |
जयाच्या प्रकाशें उजेडे | प्राणीमात्रासी ||३||
नाना धर्म नाना कर्में | उत्तमें मध्यमें अधमें |
सुगमें दुर्गमें नित्य नेमें | सृष्टीमधें चालती ||४||
वेदशास्त्रें आणी पुराणें | मंत्र यंत्र नाना साधनें |
संध्या स्नान पूजाविधानें | सूर्येंविण बापुडीं ||५||
नाना योग नाना मतें | पाहों जातां असंख्यातें |
जाती आपुलाल्या पंथें | सूर्यउदय जालियां ||६||
प्रपंचिक अथवा परमार्थिक | कार्य करणें कोणीयेक |
दिवसेंविण निरार्थक | सार्थक नव्हे ||७||
सूर्याचें अधिष्ठान डोळे | डोळे नसतां सर्व आंधळे |
याकारणें कांहींच न चले | सूर्येंविण ||८||
म्हणाल अंध कवित्वें करिती | तरी हेहि सुर्याचीच गती |
थंड जालियां आपुली मती | मग मतिप्रकाश कैंचा ||९||
उष्ण प्रकाश तो सूर्याचा | शीत प्रकाश तो चंद्राचा |
उष्णत्व नस्तां देह्याचा | घात होये ||१०||
याकारणें सूर्येंविण | सहसा न चले कारण |
श्रोते तुम्ही विचक्षण | शोधून पाहा ||११||
हरिहरांच्या अवतारमूर्ती | शिवशक्तीच्या अनंत वेक्ती |
यापूर्वीं होता गभस्ती | आतां हि आहे ||१२||
जितुके संसारासि आले | तितुके सूर्याखालें वर्तले |
अंती देहे त्यागून गेले | प्रभाकरादेखतां ||१३||
चंद्र ऐलीकडे जाला | क्षीरसागरीं मधून काढिला |
चौदा रत्नांमधें आला | बंधु लक्षुमीचा ||१४||
विश्वचक्षु हा भास्कर | ऐसें जाणती लाहानथोर |
याकारणें दिवाकर | श्रेष्ठांहून श्रेष्ठ ||१५||
अपार नभमार्ग क्रमणें | ऐसेंचि प्रत्यहीं येणें जाणें |
या लोकोपकाराकारणें | आज्ञा समर्थाची ||१६||
दिवस नस्तां अंधकार | सर्वांसी नकळे सारासार |
दिवसेंविण तश्कर | कां दिवाभीत पक्षी ||१७||
सूर्यापुढें आणिक दुसरें | कोण आणावें सामोरें |
तेजोरासी निर्धारें | उपमेरहित ||१८||
ऐसा हा सविता सकळांचा | पूर्वज होय रघुनाथाचा |
अगाध महिमा मानवी वाचा | काये म्हणोनि वर्णावी ||१९||
रघुनाथवौंश पूर्वापर | येकाहूनि येक थोर |
मज मतिमंदास हा विचार | काये कळे ||२०||
रघुनाथाचा समुदाव | तेथें गुंतला अंतर्भाव |
म्हणोनी वर्णितां महत्व | वाग्दुर्बळ मी ||२१||
सकळ दोषाचा परिहार | करितां सूर्यास नमस्कार |
स्फूर्ति वाढे निरंतर | सूर्यदर्शन घेतां ||२२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूर्यस्तवननिरूपणनाम समास दुसरा ||२||१६. २
समास तिसरा : पृथ्वीस्तवननिरूपण
||श्रीराम ||
धन्य धन्य हे वसुमती | इचा महिमा सांगों किती |
प्राणीमात्र तितुके राहाती | तिच्या आधारें ||१||
अंतरिक्ष राहाती जीव | तोहि पृथ्वीचा स्वभाव |
देहे जड नस्तां जीव | कैसे तगती ||२||
जाळिती पोळिती कुदळिती | नांगरिती उकरिती खाणती |
मळ मूत्र तिजवरी करिती | आणी वमन ||३||
नासकें कुजकें जर्जर | पृथ्वीविण कैंची थार |
देह्यांतकाळीं शरीर | तिजवरी पडे ||४||
बरें वाईट सकळ कांहीं | पृथ्वीविण थार नाहीं |
नाना धातु द्रव्य तें हि | भूमीचे पोटीं ||५||
येकास येक संव्हारिती | प्राणी भूमीवरी असती |
भूमी सांडून जाती | कोणीकडे ||६||
गड कोठ पुरें पट्टणें | नाना देश कळती अटणें |
देव दानव मानव राहाणें | पृथ्वीवरी ||७||
नाना रत्नें हिरे परीस | नाना धातु द्रव्यांश |
गुप्त प्रगट कराव्यास | पृथ्वीविण नाहीं ||८||
मेरुमांदार हिमाचळ | नाना अष्टकुळाचळ |
नाना पक्षी मछ व्याळ | भूमंडळीं ||९||
नाना समुद्रापैलीकडे | भोंवतें आवर्णोदका कडें |
असंभाव्य तुटले कडे | भूमंडळाचे ||१०||
त्यामधें गुप्त विवरें | लाहानथोरें अपारें |
तेथें निबिड अंधकारें | वस्ती कीजे ||११||
आवर्णोदक तें अपार | त्याचा कोण जाणे पार |
उदंड दाटले जळचर | असंभाव्य मोठे ||१२||
त्या जीवनास आधार पवन | निबिड दाट आणी घन |
फुटों शकेना जीवन | कोणेकडे ||१३||
त्या प्रभंजनासी आधार | कठिणपणें अहंकार |
ऐसा त्या भूगोळाचा पार | कोण जाणे ||१४||
नाना पदार्थांच्या खाणी | धातुरत्नांच्या दाटणी |
कल्पतरु चिंतामणी | अमृतकुंडें ||१५||
नाना दीपें नाना खंडें | वसती उद्वसें उदंडें |
तेथें नाना जीवनाचीं बंडें | वेगळालीं ||१६||
मेरुभोंवते कडे कापले | असंभाव्य कडोसें पडिलें |
निबिड तरु लागले | नाना जिनसी ||१७||
त्यासन्निध लोकालोक | जेथें सूर्याचें फिरे चाक |
चंद्रादि द्रोणाद्रि मैनाक | माहां गिरी ||१८||
नाना देशीं पाषाणभेद | नाना जिनसी मृत्तिकाभेद |
नाना विभूति छंद बंद | नाना खाणी ||१९||
बहुरत्न हे वसुंदरा | ऐसा पदार्थ कैचा दुसरा |
अफाट पडिलें सैरावैरा | जिकडे तिकडे ||२०||
अवघी पृथ्वी फिरोन पाहे | ऐसा प्राणी कोण आहे |
दुजी तुळणा न साहे | धरणीविषीं ||२१||
नाना वल्ली नाना पिकें | देसोदेसी अनेकें |
पाहों जातां सारिख्या सारिखें | येक हि नाहीं ||२२||
स्वर्ग मृत्यु आणिपाताळें | अपूर्व रचिलीं तीन ताळें |
पाताळलोकीं माहां व्याळें | वस्ती कीजे ||२३||
नाना वल्ली बीजांची खाणी | ते हे विशाळ धरणी |
अभिनव कर्त्याची करणी | होऊन गेली ||२४||
गड कोठ नाना नगरें | पुरें पट्टणें मनोहरें |
सकळां ठाईं जगदेश्वरें | वस्ती कीजे ||२५||
माहां बळी होऊन गेले | पृथ्वीवरी चौताळले |
सामर्थ्यें निराळे राहिले | हें तों घडेना ||२६||
असंभाव्य हे जगती | जीव कितीयेक जाती |
नाना अवतारपंगती | भूमंडळावरी ||२७||
सध्यां रोकडे प्रमाण | कांहीं करावा नलगे अनुमान |
नाना प्रकारीचें जीवन | पृथ्वीचेनि आधारें ||२८||
कित्तेक भूमी माझी म्हणती | सेवटीं आपणचि मरोन जाती |
कित्तेक काळ होतां जगती | जैसी तैसी || २९||
ऐसा पृथ्वीचा महिमा | दुसरी काये द्यावी उपमा |
ब्रह्मादिकापासुनी आम्हां | आश्रयोचि आहे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
पृथ्वीस्तवननिरूपणनाम समास तिसरा ||३||१६. ३
समास चौथा : आपनिरूपण
||श्रीराम ||
आतां सकळांचे जन्मस्थान | सकळ जीवांचे जीवन |
जयास आपोनारायेण | ऐसें बोलिजे ||१||
पृथ्वीस आधार आवर्णोदक | सप्तसिंधूचें सिंधोदक |
नाना मेघीचें मेघोदक | भूमंडळीं चालिलें ||२||
नाना नद्या नाना देसीं | वाहात मिळाल्या सागरासी |
लाहानथोर पुण्यरासी | अगाध महिमे ||३||
नद्या पर्वतींहून कोंसळल्या | नाना सांकडीमधें रिचविल्या |
धबाबां खळाळां चालिल्या | असंभाव्य ||४||
कूप बावी सरोवरें | उदंड तळीं थोरथोरें |
निर्मळें उचंबळती नीरें | नाना देसीं ||५||
गायेमुखें पाट जाती | नाना कालवे वाहती |
नाना झऱ्या झिरपती | झरती नीरें ||६||
डुरें विहीरें पाझर | पर्वत फुटोन वाहे नीर |
ऐसे उदकाचे प्रकार | भूमंडळीं ||७||
जितुके गिरी तितुक्या धारा | कोंसळती भयंकरा |
पाभळ वाहाळा अपारा | उकळ्या सांडिती ||८||
भूमंडळीचें जळ आघवें | किती म्हणोनी सांगावें |
नाना कारंजीं आणावें | बांधोनी पाणी ||९||
डोहो डवंके खबाडीं टांकीं | नाना गिरिकंदरीं अनेकीं |
नाना जळें नाना लोकीं | वेगळालीं ||१०||
तीर्थें येकाहून येक | माहां पवित्र पुण्यदायक |
अगाध महिमा शास्त्रकारक | बोलोनि गेले ||११||
नाना तीर्थांची पुण्योदकें | नाना स्थळोस्थळीं सीतळोदकें |
तैसींच नाना उष्णोदकें | ठाईं ठाईं ||१२||
नाना वल्लीमधें जीवन | नाना फळीं फुलीं जीवन |
नाना कंदीं मुळीं जीवन | गुणकारकें ||१३||
क्षीरोदकें सिंधोदकें | विषोदकें पीयूषोदकें |
नाना स्थळांतरीं उदकें | नाना गुणाचीं ||१४||
नाना युक्षदंडाचे रस | नाना फळांचे नाना रस |
नाना प्रकारीचे गोरस | मद पारा गुळत्र ||१५||
नाना मुक्तफळांचें पाणी | नाना रत्नी तळपें पाणी |
नाना शस्त्रामधें पाणी | नाना गुणाचें ||१६||
शुक्लीत श्रोणीत लाळ मूत्र स्वेद | नाना उदकाचे नाना भेद |
विवरोन पाहातां विशद | होत जातें ||१७||
उदकाचे देह केवळ | उदकाचेंचि भूमंडळ |
चंद्रमंडळ सूर्यमंडळ | उदकाकरितां ||१८||
क्षारसिंधु क्षीरसिंधु | सुरासिंधु आज्यसिंधु |
दधिसिंधु युक्षरससिंधु | शुद्ध सिंधु उदकाचा ||१९||
ऐसें उदक विस्तारलें | मुळापासून सेवटा आलें |
मधेहि ठाईं ठाईं उमटलें | ठाईं ठाईं गुप्त ||२०||
जे जे बीजीं मिश्रीत जालें | तो तो स्वाद घेऊन उठिलें |
उसामधें गोडीस आलें | परम सुंदर ||२१||
उदकाचें बांधा हें शरीर | उदक चि पाहिजे तदनंतर |
उदकचि उत्पत्तिविस्तार | किती म्हणोनी सांगावा ||२२||
उदक तारक उदक मारक | उदक नाना सौख्यदायेक |
पाहातां उदकाचा विवेक | अलोलीक आहे ||२३||
भूमंडळीं धांवे नीर | नाना ध्वनी त्या सुंदर |
धबाबां धबाबां थोर | रिचवती धारा ||२४||
ठाईं ठाईं डोहो तुंबती | विशाळ तळीं डबाबिती |
चबाबिती थबाबिती | कालवे पाट ||२५||
येकी पालथ्या गंगा वाहाती | उदकें सन्निधचि असती |
खळाळां झरे वाहाती | भूमीचे पोटीं ||२६||
भूगर्भीं डोहो भरलें | कोण्ही देखिले ना ऐकिले |
ठाईं ठाईं झोवीरे जाले | विदुल्यतांचे ||२७||
पृथ्वीतळीं पाणी भरलें | पृथ्वीमधें पाणी खेळे |
पृथ्वीवरी प्रगटलें | उदंड पाणी ||२८||
स्वर्गमृत्यपाताळीं | येक नदी तीन ताळीं |
मेघोदक अंतराळीं | वृष्टी करी ||२९||
पृथ्वीचें मूळ जीवन | जीवनाचें मूळ दहन |
दहनाचें मूळ पवन | थोराहून थोर ||३०||
त्याहून थोर परमेश्वर | महद्भूतांचा विचार |
त्याहून थोर परात्पर | परब्रह्म जाणावें ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आपनिरूपणनाम समास चौथा ||४||१६. ४
समास पांचवा : अग्निनिरूपण
||श्रीराम ||
धन्य धन्य हा वैश्वानरु | होये रघुनाथाचा श्वशुरु |
विश्वव्यापक विश्वंभरु | पिता जानकीचा ||१||
ज्याच्या मुखें भगवंत भोक्ता | जो ऋषीचा फळदाता |
तमहिमरोगहर्ता | भर्ता विश्वजनाचा ||२||
नाना वर्ण नाना भेद | जीवमात्रास अभेद |
अभेद आणी परम शुध | ब्रम्हादिकासी ||३||
अग्नीकरितां सृष्टी चाले | अग्नीकरितां लोक धाले |
अग्नीकरितां सकळ ज्याले | लाहानथोर ||४||
अग्नीनें आळलें भूमंडळ | लोकांस राहव्या जालें स्थळ |
दीप दीपिका नाना ज्वाळ | जेथें तेथें ||५||
पोटामधें जठराग्नी | तेणें क्षुधा लागे जनीं |
अग्नीकरितां भोजनीं | रुची येते ||६||
अग्नी सर्वांगीं व्यापक | उष्णें राहे कोणी येक |
उष्ण नस्तां सकळ लोक | मरोन जाती ||७||
आधीं अग्नी मंद होतो | पुढें प्राणी तो नासतो |
ऐसा हा अनुभव येतो | प्राणीमात्रासी ||८||
असतां अग्नीचें बळ | शत्रु जिंके तात्काळ |
अग्नी आहे तावत्काळ | जिणें आहे ||९||
नाना रस निर्माण जाले | अग्नीकरितां निपजले |
माहांरोगी आरोग्य जाले | निमिषमात्रें ||१०||
सूर्य सकळांहून विशेष | सूर्याउपरी अग्नीप्रकाश |
रात्रभागीं लोक अग्नीस | साहें करिती ||११||
अंत्यजगृहींचा अग्नी आणिला | त्यास दोष नाहीं बोलिला |
सकळां गृहीं पवित्र जाला | वैश्वानरु ||१२||
अग्नीहोत्र नाना याग | अग्नीकरितां होती सांग |
अग्नी त्रुप्त होतां मग | सुप्रसन्न होतो ||१३||
देव दानव मानव | अग्नीकरितां चाले सर्व |
सकळ जनासी उपाव | अग्नी आहे ||१४||
लग्नें करिती थोर थोर | नाना दारूचा प्रकार |
भूमंडळीं यात्रा थोर | दारूनें शोभती ||१५||
नाना लोक रोगी होती | उष्ण औशधें सेविती |
तेणे लोक आरोग्य होती | वन्हीकरितां ||१६||
ब्राह्मणास तनुमनु | सूर्यदेव हुताशनु |
येतद्विषईं अनुमानु | कांहींच नाहीं ||१७||
लोकामध्यें जठरानळु | सागरीं आहे वडवनाळु |
भूगोळाबाहेर आवर्णानळु | शिवनेत्रीं विदुल्यता ||१८||
कुपीपासून अग्नी होतो | उंचदर्पणीं अग्नी निघतो |
काष्ठमंथनी प्रगटतो | चकमकेनें ||१९||
अग्नी सकळां ठाईं आहे | कठीण घिसणीं प्रगट होये |
आग्यासर्पें दग्ध होये | गिरिकंदरें ||२०||
अग्नीकरितां नाना उपाये | अग्नीकरितां नाना अपाय |
विवेकेंविण सकल होये | निरार्थक ||२१||
भूमंडळीं लाहानथोर | सकळांस वन्हीचा आधार |
अग्निमुखें परमेश्वर | संतुष्ट होये ||२२||
ऐसा अग्नीचा महिमा | बोलिजे तितुकी उणी उपमा |
उत्तरोत्तर अगाध महिमा | अग्नीपुरुषाचा ||२३||
जीत असतां सुखी करी | मेल्यां प्रेत भस्म करी |
सर्वभक्षकु त्याची थोरी | काये म्हणोनी सांगावी ||२४||
सकळ सृष्टीचा संव्हार | प्रळय करी वैश्वानर |
वैश्वानरें पदार्थमात्र | कांहींच उरेना ||२५||
नाना होम उदंड करिती | घरोघरीं वैशदेव चालती |
नाना क्षेत्रीं दीप जळती | देवापासीं ||२६||
दीपाराधनें निलांजनें | देव वोवाळिजे जनें |
खरें खोटें निवडणें | दिव्य होतां ||२७||
अष्टधा प्रकुर्ती लोक तिन्ही | सकळ व्यापून राहिला वन्ही |
अगाध महिमा वदनीं | किती म्हणोनी बोलावा ||२८||
च्यारी शृंगें त्रिपदीं जात | दोनी शिरें सप्त हात |
ऐसा बोलिला शास्त्रार्थ | प्रचितीविण ||२९||
ऐसा वन्ही उष्णमूर्ती | तो मी बोलिलों येथामती |
न्यून्यपूर्ण क्षमा श्रोतीं | केलें पाहिजे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अग्निनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||१६. ५
समास सहावा : वायुस्तवन
||श्रीराम ||
धन्य धन्य हा वायुदेव | याचा विचित्र स्वभाव |
वायोकरितां सकळ जीव | वर्तती जनीं ||१||
वायोकरितां श्वासोश्वास | नाना विद्यांचा अभ्यास |
वायोकरितां शरीरास | चळण घडे ||२||
चळण वळण प्रासारण | निरोधन आणी आकोचन |
प्राण अपान व्यान उदान | समान वायु ||३||
नाग कूर्म कर्कश वायो | देवदत्त धनंजयो |
ऐसे हे वायोचे स्वभावो | उदंड असती ||४||
वायो ब्रह्मांडीं प्रगटला | ब्रह्मांडदेवतांस पुरवला |
तेथुनी पिंडी प्रगटला | नाना गुणें ||५||
स्वर्गलोकीं सकळ देव | तैसेचि पुरुषार्थी दानव |
मृत्यलोकींचे मानव | विख्यात राजे ||६||
नरदेहीं नाना भेदे | अनंत भेदाचीं श्वापदें |
वनचरें जळचरें आनंदें | क्रीडा करिती ||७||
त्या समस्तांमधें वायु खेळे | खेचरकुळ अवघें चळे |
उठती वन्हीचे उबाळे | वायोकरितां ||८||
वायो मेघाचें भरण भरी | सवेंच पिटून परतें सारी |
वायो ऐसा कारबारी | दुसरा नाहीं ||९||
परी ते आत्मयाची सत्ता | वर्ते शरीरीं तत्वता |
परी व्यापकपणें या समर्था | तुळणा नाहीं ||१०||
गिरीहून दाट फौजा | मेघ उठिले लोककाजा |
गर्जगर्जों तडक विजा | वायोबळें ||११||
चंद्रसूर्य नक्षत्रमाळा | ग्रहमंडळें मेघमाळा |
यें ब्रह्मांडीं नाना कळा | वायोकरितां ||१२||
येकवटलें तें निवडेना | कालवलें तें वेगळें होयेना |
तैसें हे बेंचाड नाना | केवी कळे ||१३||
वायो सुटे सरारां | असंभाव्य पडतीगारा |
तैसे जीव हे नीरा-| सरिसे पडती ||१४||
वायुरूपें कमळकळा | तोचि आधार जळा |
तया जळाच्या आधारें भूगोळा | शेषें धरिलें ||१५||
शेषास पवनाचा आहार | आहारें फुगे शरीर |
तरी मग घेतला भार | भूमंडळाचा ||१६||
माहांकूर्माचें शरीर भलें | नेणों ब्रह्मांड पालथें घातलें |
येवढें शरीर तें राहिलें | वायोचेनी ||१७||
वाराहें आपुलें दंतीं | पृथ्वी धरिली होती |
तयाची येवढी शक्ती | वायुबळें ||१८||
ब्रह्म विष्णु महेश्वर | चौथा आपण जगदेश्वर |
वायोस्वरूप विचार | विवेकी जाणती ||१९||
तेतिस कोटी सुरवर | अठ्यासी सहस्र ऋषेश्वर |
सिध योगी भारेंभार | वायोकरितां ||२०||
नव कोटी कात्यायणी | छेपन कोटी च्यामुंडिणी |
औट कोटी भूतखाणी | वायोरूपें ||२१||
भूतें देवतें नाना शक्ती | वायोरूप त्यांच्या वेक्ती |
नाना जीव नेणो किती | भूमंडळीं ||२२||
पिंडीं ब्रह्मांडीं पुरवला | बाहेर कंचुकास गेला |
सकळां ठाईं पुरवला | समर्थ वायु ||२३||
ऐसा हा समर्थ पवन | हनुमंत जयाचा नंदन |
रघुनाथस्मरणीं तनमन | हनुमंताचें ||२४||
हनुमंत वायोचा प्रसीध | पित्यापुत्रांस नाहीं भेद |
म्हणोनि दोघेहि अभेद | पुरुषार्थविषीं ||२५||
हनुमंतास बोलिजे प्राणनाथ | येणें गुणें हा समर्थ |
प्राणेंविण सकळ वेर्थ | होत जातें ||२६||
मागें मृत्य आला हनुमंता | तेव्हां वायो रोधला होता |
सकळ देवांस आवस्ता | प्राणांत मांडलें ||२७||
देव सकळ मिळोन | केलें वायुचें स्तवन |
वायो प्रसन्न होऊन | मोकळें केलें ||२८||
म्हणोनि प्रतापी थोर | हनुमंत ईश्वरी अवतार |
याचा पुरुषार्थ सुरवर | पाहातचि राहिले ||२९||
देव कारागृहीं होते | हनुमंतें देखिलें अवचितें |
संव्हार करूनी लंकेभोंवतें | विटंबून पाडिलें ||३०||
उसिणें घेतलें देवांचें | मूळ शोधिलें राक्षसांचें |
मोठें कौतुक पुछ्यकेताचें | आश्चर्य वाटे ||३१||
रावण होता सिंह्यासनावरी | तेथें जाऊन ठोंसरे मारी |
लंकेमधें निरोध करी | उदक कैचें ||३२||
देवास आधार वाटला | मोठा पुरुषार्थ देखिला |
मनामधें रघुनाथाला | करुणा करिती ||३३||
दैत्य आवघे संव्हारिले | देव तत्काळ सोडिले |
प्राणीमात्र सुखी जाले | त्रयलोक्यवासी ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
वायोस्तवननिरूपणनाम समास सहावा ||६||१६. ६
समास सातवा : महद्भूतनिरूपण
||श्रीराम ||
पृथ्वीचें मूळ जीवन | जीवनाचें मूळ अग्न |
अग्नीचें मूळ पवन | मागां निरोपिलें ||१||
आतां ऐका पवनाचें मूळ | तो हा अंतरात्माचि केवळ |
अत्यंतचि चंचळ | सकळांमधें ||२||
तो येतो जातो दिसेना | स्थिर होऊन बैसेना |
ज्याचें रूप अनुमानेना | वेदश्रुतीसी ||३||
मुळीं मुळींचें स्फुर्ण | तेंचि अंतरात्म्याचें लक्षण |
जगदेश्वरापासून त्रिगुण | पुढें जालें ||४||
त्रिगुणापासून जालीं भूतें | पावलीं पष्ट दशेतें |
त्या भूतांचें स्वरूप तें | विवेकें वोळखावें ||५||
त्यामधें मुख्य आकाश | चौ भूतांमधें विशेष |
याच्या प्रकाशें प्रकाश | सकळ कांहीं ||६||
येक विष्णु महद्भूत | ऐसा भूतांचा संकेत |
परंतु याची प्रचीत | पाहिली पाहिजे ||७||
विस्तारें बोलिलीं भूतें | त्या भूतामधें व्यापक तें |
विवरोन पाहातां येतें | प्रत्ययासी ||८||
आत्मयाच्या चपळपणापुढें | वायो तें किती बापुडें |
आत्म्याचें चपळपण रोकडें | समजोन पाहावें ||९||
आत्म्यावेगळें काम चालेना | आत्मा दिसेना ना आडळेना |
गुप्तरूपें विचार नाना | पाहोन सोडी ||१०||
पिंड ब्रह्मांड व्यापून धरिलें | नाना शरीरीं विळासलें |
विवेकी जनासी भासलें | जगदांतरी ||११||
आत्म्याविण देहे चालती | हें तों न घडे कल्पांतीं |
अष्टधा प्रकृर्तीच्या वेक्ती | रूपासी आल्या ||१२||
मूळापासून सेवटवरी | सकळ कांहीं आत्माच करी |
आत्म्यापैलीकडे निर्विकारी | परब्रह्म तें ||१३||
आत्मा शरीरीं वर्ततो | इंद्रियेंग्राम चेष्टवितो |
नाना सुखदुःखें भोगितो | देह्यात्मयोगें ||१४||
सप्तकंचुक हें ब्रह्मांड | त्यामधें सप्तकंचुक पिंड |
त्या पिंडामधें आत्मा जाड | विवेकें वोळखा ||१५||
शब्द ऐकोन समजतो | समजोन प्रत्योत्तर देतो |
कठीण मृद सीतोष्ण जाणतो | त्वचेमधें ||१६||
नेत्रीं भरोनी पदार्थ पाहाणें | नाना पदार्थ परीक्षणें |
उंच नीच समजणें | मनामधें ||१७||
क्रूरदृष्टी सौम्यदृष्टी | कपटदृष्टी कृपादृष्टी |
नाना प्रकारींच्या दृष्टी | भेद जाणे ||१८||
जिव्हेमधें नाना स्वाद | निवडून जाणे भेदाभेद |
जें जें जाणें तें तें विशद | करुनी बोले ||१९||
उत्तम अन्नाचे परिमळ | नाना सुगंध परिमळ |
नाना फळांचे परिमळ | घ्राणइंद्रियें जाणे ||२०||
जिव्हेनें स्वाद घेणें बोलणें | पाणीइंद्रियें घेणें देणें |
पादइंद्रियें येणें जाणें | सर्वकाळ ||२१||
शिस्नइंद्रियें सुरतभोग | गुदइंद्रियें मळोत्सर्ग |
मनेंकरूनी सकळ सांग | कल्पून पाहे ||२२||
ऐसें व्यापार परोपरी | त्रिभुवनीं येकलाचि करी |
त्याची वर्णावया थोरी | दुसरा नाहीं ||२३||
त्याविण दुसरा कैचा | जे महिमा सांगावा तयाचा |
व्याप आटोप आत्मयाचा | न भूतो न भविष्यति ||२४||
चौदा विद्या चौसष्टी कळा | धूर्तपणाच्या नाना कळा |
वेद शास्त्र पुराण जिव्हाळा | तेणेंविण कैचा ||२५||
येहलोकींचा आचार | परलोकीं सारासारविचार |
उभय लोकींचा निर्धार | आत्माच करी ||२६||
नाना मतें नाना भेद | नाना संवाद वेवाद |
नाना निश्चय भेदाभेद | आत्माच करी ||२७||
मुख्यतत्व विस्तारलें | तेणें तयास रूप आणिलें |
येणेंकरितां सार्थक जालें | सकळ कांहीं ||२८||
लिहिणें वाचणें पाठांतर करणें | पुसणें सांगणें अर्थ करणें |
गाणें बाजवणें नाचणें | आत्म्याचकरितां ||२९||
नाना सुखें आनंदतो | नाना दुःखें कष्टी होतो |
देहे धरितो आणी सोडितो | नानाप्रकारें ||३०||
येकलाचि नाना देहे धरी | येकलाचि नटे परोपरी |
नट नाट्यकळा कुसरी | त्याविण नाहीं ||३१||
येकलाचि जाला बहुरूपी | बहुरूपी बहुसाक्षपी |
बहुरूपें बहुप्रतापी | आणी लंडी ||३२||
येकलाचि विस्तारला कैसा | पाहे बहुविध तमासा |
दंपत्येंविण कैसा | विस्तारला ||३३||
स्त्रियांस पाहिजे पुरुष | पुरुषासी पाहिजे स्त्रीवेष |
ऐसा आवडीचा संतोष | परस्परें ||३४||
स्थूळाचें मूळ तें लिंग | लिंगामधें हें प्रसंग |
येणें प्रकारें जग | प्रत्यक्ष चाले ||३५||
पुरुषांचा जीव स्त्रियांची जीवी | ऐसी होते उठाठेवी |
परी या सूक्ष्माची गोवी | समजली पाहिजे ||३६||
स्थूळांकरितां वाटे भेद | सूक्षमीं आवघेंचि अभेद |
ऐसें बोलणें निरुध | प्रत्यया आलें ||३७||
बायकोनें बायकोस भोगिलें | ऐसें नाहीं कीं घडलें |
बायकोस अंतरी लागलें | ध्यान पुरुषाचें ||३८||
स्त्रीसी पुरुष पुरुषास वधु | ऐसा आहे हा समंधु |
याकारणें सूक्ष्म संवादु | सुक्ष्मीं च आहे ||३९||
पुरुषइछेमधें प्रकृती | प्रकृतीमधें पुरुषवेक्ती |
प्रकृतीपुरुष बोलती | येणें न्यायें ||४०||
पिंडावरून ब्रह्मांड पाहावें | प्रचीतीनें प्रचीतीस घ्यावें |
उमजेना तरी उमजावें | विवरविवरों ||४१||
द्वैतइछा होते मुळीं | तरी ते आली भूमंडळीं |
भूमंडळीं आणी मुळीं | रुजु पाहावें ||४२||
येथें मोठा जाला साक्षेप | फिटला श्रोतयांचा आक्षेप |
जे प्रकृतीपुरुषाचें रूप | निवडोन गेलें ||४३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
महद्भूतनिरूपणनाम समास सातवा ||७||१६. ७
समास आठवा : आत्मारामनिरूपण
||श्रीराम ||
नमूं गणपती मंगळमूर्ती | जयाचेनि मतिस्फूर्ती |
लोक भजनी स्तवन करिती | आत्मयाचें ||१||
नमूं वैखरी वागेश्वरी | अभ्यांतरीं प्रकाश करी |
नाना भरोवरी विवरी | नाना विद्या ||२||
सकळ जनांमधें नाम | रामनाम उत्तमोत्तम |
श्रम जाउनी विश्राम | चंद्रमौळी पावला ||३||
नामाचा महिमा थोर | रूप कैसें उत्तरोत्तर |
परात्पर परमेश्वर | त्रयलोक्यधर्ता ||४||
आत्माराम चहुंकडे | लोक वावडे जिकडे तिकडे |
देहे पडे मृत्य घडे | आत्मयाविण ||५||
जीवात्मा शिवात्मा परमात्मा | जगदात्मा विश्वात्मा गुप्तात्मा |
आत्मा अंतरत्मा सूक्ष्मात्मा | देवदानवमानवीं ||६||
सकळ मार्ग चालती बोलती | अवतारपंगतीची गती |
आत्म्याकरितां होत जाती | ब्रह्मादिक ||७||
नादरूप जोतीरूप | साक्षरूप सत्तारूप |
चैतन्यरूप सस्वरूप | द्रष्टारूप जाणिजे ||८||
नरोत्तमु विरोत्तमु | पुरुषोत्तमु रघोत्तमु |
सर्वोत्तमु उत्तमोत्तमु | त्रयलोक्यवासी ||९||
नाना खटपट आणी चटपट | नाना लटपट आणि झटपट |
आत्मा नसतां सर्व सपाट | चहुंकडे ||१०||
आत्म्याविण वेडें कुडें | अत्म्याविण मडें बापुडें |
आत्म्याविण थडें रोकडें | शरीराचें ||११||
आत्मज्ञानी समजे मनीं | पाहे जनी आत्मयालागुनी |
भुवनी अथवा त्रिभुवनीं | अत्म्याविणें वोस ||१२||
परम सुंदर आणि चतुर | जाणे सकळ सारासार |
आत्म्याविण अंधकार | उभय लोकीं ||१३||
सर्वांगीं सिध सावध | नाना भेद नाना वेध |
नाना खेद आणी आनंद | तेणेंचिकरितां ||१४||
रंक अथवा ब्रह्मादिक | येकचि चालवी अनेक |
पाहावा नित्यानित्यविवेक | कोण्हियेकें ||१५||
ज्याचे घरी पद्मिणी नारी | आत्मा तंवरी आवडी धरी |
आत्मा गेलियां शरीरीं | तेज कैचें ||१६||
आत्मा दिसेना ना भासेना | बाह्याकारें अनुमानेना |
नाना मनाच्या कल्पना | आत्मयाचेनी ||१७||
आत्मा शरीरीं वास्तव्य करी | अवघें ब्रह्मांड विवरी भरी |
वासना भावना परोपरीं | किती म्हणोनी सांगाव्या ||१८||
मनाच्या अनंत वृत्ती | अनंत कल्पना धरिती |
अनंत प्राणी सांगो किती | अंतर त्यांचें ||१९||
अनंत राजकारणें धरणें | कुबुधी सुबुधी विवरणें |
कळों नेदणें चुकावणें | प्राणीमात्रासी ||२०||
येकास येक जपती टपती | येकास येक खपती लपती |
शत्रुपणाची स्थिती गती | चहुंकडे ||२१||
पृथ्वीमधें परोपरीं | येकास येक सिंतरी |
कित्तेक भक्त परोपरीं | परोपकार करिती ||२२||
येक आत्मा अनंत भेद | देहेपरत्वें घेती स्वाद |
आत्मा ठाईंचा अभेद | भेद हि धरी ||२३||
पुरुषास स्त्री पाहिजे | स्त्रीस पुरुष पाहिजे |
नवरीस नवरी पाहिजे | हें तों घडेना ||२४||
पुरुषाचा जीव स्त्रीयांची जीवी | ऐसी नाहीं उठाठेवी |
विषयसुखाची गोवी | तेथें भेद आहे ||२५||
ज्या प्राण्यास जो आहार | तेथेंचि होती तत्पर |
पशूचे आहारीं नर | अनादरें वर्तती ||२६||
आहारभेद देहेभेद | गुप्त प्रगट उदंड भेद |
तैसाचि जाणावा आनंद | वेगळाला ||२७||
सिंधु भूगर्भींचीं नीरें | त्या नीरामधील शरीरें |
आवर्णोदकाचीं जळचरें | अत्यंत मोठी ||२८||
सूक्ष्म दृष्टीं आणितां मना | शरीराचा अंत लागेना |
मा तो अंतरात्मा अनुमाना | कैसा येतो ||२९||
देह्यात्मयोग शोधून पाहिला | तेणें कांहीं अनुमानला |
स्थूळसूक्ष्माचा गलबला | गथागोवी ||३०||
गथागोवी उगवाव्याकारणें | केलीं नाना निरूपणें |
अंतरात्मा कृपाळुपणें | बहुतां मुखें बोलिला ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मारामनिरूपणनाम समास आठवा ||८||१६. ८
समास नववा : नाना उपासनानिरूपण
||श्रीराम ||
पृथ्वीमधें लोक नाना | त्यास नाना उपासना |
भावार्थें प्रवर्तले भजना | ठाईं ठाईं ||१||
अपुल्या देवास भजती | नाना स्तुती स्तवनें करिती |
जे जे निर्गुण म्हणिती | उपासनेसी ||२||
याचा कैसा आहे भाव | मज सांगिजे अभिप्राव |
अरे हा स्तुतीचा स्वभाव | ऐसा आहे ||३||
निर्गुण म्हणिजे बहुगुण | बहुगुणी अंतरात्मा जाण |
सकळ त्याचे अंश हें प्रमाण | प्रचित पाहा ||४||
सकळ जनासी मानावें तें | येका अंतरात्म्यास पावतें |
अधिकारपरत्वें तें | मान्य कीजे ||५||
श्रोता म्हणे हा अनुमान | मुळीं घालावें जीवन |
तें पावे पानोपान | हे सध्या प्रचिती ||६||
वक्ता म्हणे तुळसीवरी | उदक घालावें पात्रभरी |
परी न थिरे निमिषभरी | भूमीस भेदे ||७||
थोरा वृक्षास कैसें करावें | सेंड्या पात्र कैसें न्यावें |
याचा अभिप्राव देवें | मज निरोपावा ||८||
प्रजन्याचें उदक पडतें | तें तों मुळाकडे येतें |
हात चि पावेना तेथें | काये करिती ||९||
सकळास मूळ सांपडे | ऐसें पुण्य कैचें घडे |
साधुजनाचें पवाडे | विवेकीं मन ||१०||
तथापी वृक्षांचेनि पडिपाडें | जीवन घालितां कोठें पडे |
ये गोष्टीचें सांकडें | कांहींच नाहीं ||११||
मागील आशंकेचें निर्शन | होतां जालें समाधान |
आतां गुणास निर्गुण | कैसें म्हणती ||१२||
चंचळपणें विकारलें | सगुण ऐसें बोलिलें |
येर तें निर्गुण उरलें | गुणातीत ||१३||
वक्ता म्हणे हा विचार | शोधून पाहावें सारासार |
अंतरीं राहातां निर्धार | नांव नाहीं ||१४||
विवेकेंचि तो मुख्य राजा | आणि सेवकाचें नांव राजा |
याचा विचार समजा | वेवाद खोटा ||१५||
कल्पांतप्रळईं जें उरलें | तें निर्गुण ऐसें बोलिलें |
येर तें अवघेंचि जालें | मायेमधें ||१६||
सेना शाहार बाजार | नाना यात्रा लाहानथोर |
शब्द उठती अपार | कैसे निवडावे ||१७||
काळामधें प्रज्यन्यकाळ | मध्यरात्रीं होतां निवळ |
नाना जीव बोलती सकळ | कैसे निवडावे ||१८||
नाना देश भाषा मतें | भूमंडळीं असंख्यातें |
बहु ऋषी बहु मतें | कैसीं निवडावीं ||१९||
वृष्टी होतां च अंकुर | सृष्टीवरी निघती अपार |
नाना तरु लाहानथोर | कैसे निवडावे ||२०||
खेचरें भूचरें जळचरें | नाना प्रकारींचीं शरीरें |
नाना रंग चित्रविचित्रें | कैसी निवडावीं ||२१||
कैसें दृश्य आकारलें | नानापरीं विकारलें |
उदंडचि पैसावलें | कैसें निवडावें ||२२||
पोकळीमधें गंधर्वनगरें | नाना रंग लाहनथोरें |
बहु वेक्ति बहु प्रकारें | कैसीं निवडावीं ||२३||
दिवसरजनीचे प्रकार | चांदिणें आणी अंधकार |
विचार आणी अविचार | कैसा निवडावा ||२४||
विसार आणी आठवण | नेमस्त आणी बाष्कळपण |
प्रचित आणी अनुमान | येणें रितीं ||२५||
न्याय आणी अन्याय | होय आणी न होये |
विवेकेंविण काये | उमजों जाणे ||२६||
कार्यकर्ता आणी निकामी | शूर आणी कुकर्मी |
धर्मी आणी अधर्मी | कळला पाहिजे ||२७||
धनाढ्य आणि दिवाळखोर | साव आणि तश्कर |
खरें खोटें हा विचार | कळला पाहिजे ||२८||
वरिष्ठ आणि कनिष्ठ | भ्रष्ट आणी अंतरनिष्ठ |
सारासार विचार पष्ट | कळला पाहिजे ||२९||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
नाना उपासनानिरूपणनाम समास नववा ||९||१६. ९
समास दहावा : गुणभूतनिरूपण
||श्रीराम ||
पंचभूतें चाले जग | पंचभूतांची लगबग |
पंचभूतें गेलियां मग | काये आहे ||१||
श्रोता वक्तयास बोले | भूतांचे महिमे वाढविले |
आणि त्रिगुण कोठें गेले | सांगा स्वामी ||२||
अंतरात्मा पांचवे भूत | त्रिगुण त्याचें अंगभूत |
सावध करूनियां चित्त | बरें पाहें ||३||
भूत म्हणिजे जितुकें जालें | त्रिगुण जाल्यांत आले |
इतुकेन मूळ खंडलें | आशंकेचें ||४||
भूतांवेगळें कांहीं नाहीं | भूतजात हें सर्व हि |
येकावेगळें येक कांहीं | घडेचिना ||५||
आत्म्याचेनी जाला पवन | पवनाचेन प्रगटे अग्न |
अग्नीपासून जीवन | ऐसें बोलती ||६||
जीवन आवघें डबाबिलें | तें रविमंडळें आळलें |
वन्हीवायोचेन जालें | भूमंडळ ||७||
वन्ही वायो रवी नस्तां | तरी होते उदंड सीतळता |
ते सीतळतेमधें उष्णता | येणें न्यायें ||८||
आवघें वर्मासी वर्म केलें | तरीच येवढें फांपावलें |
देहेमात्र तितुकें जालें | वर्माकरितां ||९||
आवघें सीतळचि असतें | तरी प्राणीमात्र मरोनी जातें |
आवघ्या उष्णेंचि करपते | सकळ कांहीं ||१०||
भूमंडळ आळोन गोठलें | तें रविकिर्णें वाळोन गेलें |
मग सहज चि देवें रचिलें | उपायासी ||११||
म्हणोनी केला प्रज्यन्यकाळ | थंड जालें भूमंडळ |
पुढेंउष्ण कांहीं सीतळ | सीतकाळ जाणावा ||१२||
सीतकाळें कष्टले लोक | कर्पोन गेलें वृक्षादिक |
म्हणोन पुढें कौतुक | उष्णकाळाचें ||१३||
त्याहिमधें प्रातःकाळ | माध्यानकाळ सायंकाळ |
सीतकाळ उष्णकाळ | निर्माण केले ||१४||
ऐसें येकामागें येक केलें | विलेनें नेमस्त लाविलें |
येणेंकरितां जगले | प्राणीमात्र ||१५||
नाना रसें रोग कठिण | म्हणोनी औषधी केल्या निर्माण |
परंतु सृष्टीचें विवरण | कळलें पाहिजे ||१६||
देहेमूळ रक्त रेत | त्या आपाचे होती दात |
ऐसीच भूमंडळीं प्रचित | नाना रत्नांची ||१७||
सकळांसी मूळ जीवन बांधा | जीवनें चाले सकळ धंदा |
जीवनेंविण हरिगोविंदा | प्राणी कैचे ||१८||
जीवनाचें मुक्ताफळ | शुक्रासारिखें सुढाळ |
हिरे माणिके इंद्रनीळ | ते जळें जाले ||१९||
महिमा कोणाचा सांगावा | जाला कर्दमुचि आघवा |
वेगळवेगळु निवडावा | कोण्या प्रकारें ||२०||
परंतु बोलिलें कांहींयेक | मनास कळावया विवेक |
जनामधें तार्किक लोक | समजती आघवें ||२१||
आवघें समजलें हें घडेना | शास्त्रांशास्त्रांसीं पडेना |
अनुमानें निश्चय होयेना | कांहींयेक ||२२||
अगाध गुण भगवंताचे | शेष वर्णूं न शके वाचें |
वेदविधी तेहि काचे | देवेंविण ||२३||
आत्माराम सकळां पाळी | आवघें त्रयलोक्य सांभाळी |
तया येकेंविण धुळी | होये सर्वत्रांची ||२४||
जेथें आत्माराम नाहीं | तेथें उरों न शके कांहीं |
त्रयलोकीचे प्राणी सर्व हि | प्रेतरूपी ||२५||
आत्मा नस्तां येती मरणें | आत्म्याविण कैचें जिणें |
बरा विवेक समजणें | अंतर्यामीं ||२६||
समजणें जें विवेकाचें | तेंहि आत्म्याविण कैचें |
कोणीयेकें जगदीशाचें | भजन करावें ||२७||
उपासना प्रगट जाली | तरी हे विचारणा कळली |
याकारणें पाहिजे केली | विचारणा देवाची ||२८||
उपासनेचा मोठा आश्रयो | उपासनेविण निराश्रयो |
उदंड केलें तरी तो जयो | प्राप्त नाहीं ||२९||
समर्थाची नाहीं पाठी | तयास भलताच कुटी |
याकारणें उठाउठी | भजन करावें ||३०||
भजन साधन अभ्यास | येणें पाविजे परलोकास |
दास म्हणे हा विश्वास | धरिला पाहिजे ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
गुणभूतनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१६. १०
||दशक सोळावा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh16.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 16
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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