||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १५ ||
||दशक पंधरावा : आत्मदशक ||१५||
समास पहिला : चातुर्यलक्षण
||श्रीराम ||
अस्तिमांशांचीं शरीरें | त्यांत राहिजे जीवेश्वरें |
नाना विकारीं विकारे | प्रविण होइजे ||१||
घनवट पोंचट स्वभावें | विवरोन जाणिजे जीवें |
व्हावें न व्हावें आघवें | जीव जाणे ||२||
येंकीं मागमागों घेणें | येकां न मागतांच देणें |
प्रचीतीनें सुलक्षणें | वोळखावीं ||३||
जीव जीवांत घालावा | आत्मा आत्म्यांत मिसळावा |
राहराहों शोध घ्यावा | परांतरांचा ||४||
जानवें हेंवडकारें जालें | ढिलेपणें हेवड आलें |
नेमस्तपणें शोभलें | दृष्टीपुढें ||५||
तैसेंचि हे मनास मन | विवेकें जावें मिळोन |
ढिलेपणें अनुमान | होत आहे ||६||
अनुमानें अनुमान वाढतो | भिडेनें कार्यभाग नासतो |
याकारणें प्रत्यये तो | आधीं पाहावा ||७||
दुसऱ्याचें जीवीचें कळेना | परांतर तें जाणवेना |
वश्य होती लोक नाना | कोण्या प्रकारें ||८||
आकल सांडून परती | लोक वश्यकर्ण करिती |
अपूर्णपणें हळु पडती | ठाईं ठाईं ||९||
जगदीश आहे जगदांतरीं | चेटकें करावीं कोणावरी |
जो कोणी विवेकें विवरी | तोचि श्रेष्ठ ||१०||
श्रेष्ठ कार्ये करी श्रेष्ठ | कृत्रिम करी तो कनिष्ठ |
कर्मानुसार प्राणी नष्ट | अथवा भले ||११||
राजे जाती राजपंथें | चोर जाती चोरपंथें |
वेडें ठके अल्पस्वार्थें | मूर्खपणें ||१२||
मूर्खास वाटे मी शहाणा | परी तो वेडा दैन्यवाणा |
नाना चातुर्याच्या खुणा | चतुर जाणे ||१३||
जो जगदांतरे मिळाला | तो जगदांतरचि जाला |
अरत्रीं परत्रीं तयाला | काय उणें ||१४||
बुद्धि देणें भगवंताचें | बुद्धिविण माणुस काचें |
राज्य सांडून फुकाचे | भीक मागे ||१५||
जें जें जेंथें निर्माण जालें | तें तें तयास मानलें |
अभिमान देऊन गोविलें | ठाईं ठाईं ||१६||
अवघेच म्हणती आम्ही थोर | अवघेचि म्हणती आम्ही सुंदर |
अवघेचि म्हणती आम्ही चतुर | भूमंडळीं ||१७||
ऐसा विचार आणितां मना | कोणीच लाहान म्हणविना |
जाणते आणिती अनुमाना | सकळ कांहीं ||१८||
आपुलाल्या साभिमानें | लोक चालिले अनुमानें |
परंतु हें विवेकानें | पाहिलें पाहिजे ||१९||
लटिक्याचा साभिमान घेणें | सत्य अवघेंच सोडणें |
मूर्खपणाचीं लक्षणें | ते हे ऐसीं ||२०||
सत्याचा जो साभिमान | तो जाणावा निराभिमान |
न्याये अन्याये समान | कदापि नव्हे ||२१||
न्याये म्हणिजे तो शाश्वत | अन्याये म्हणिजे तो अशाश्वत |
बाष्कळ आणि नेमस्त | येक कैसा ||२२||
येक उघड भाग्य भोगिती | येक तश्कर पळोन जाती |
येकांची प्रगट महंती | येकांची कानकोंडी ||२३||
आचारविचारेंविण | जें जें करणें तो तो सीण |
धूर्त आणि विचक्षण | तेचि शोधावे ||२४||
उदंड बाजारी मिळाले | परी ते धूर्तेंचि आळिले |
धूर्तांपासीं कांहीं न चले | बाजाऱ्यांचें ||२५||
याकारणें मुख्य मुख्य | तयांसी करावे सख्य |
येणेंकरितां असंख्य | बाजारी मिळती ||२६||
धूर्तासि धूर्तचि आवडे | धूर्त धूर्तींच पवाडे |
उगेंचि हिंडती वेडे | कार्येंविण ||२७||
धूर्तासि धूर्तपण कळलें | तेणें मनास मनपण मिळालें |
परी हें गुप्तरूपें केलें | पाहिजे सर्वे ||२८||
समर्थाचें राखतां मन | तेथे येती उदंड जन |
जन आणि सज्जन | आर्जव करिती ||२९||
वोळखीनें वोळखी साधावी | बुद्धीनें बुद्धि बोधावी |
नीतिन्यायें वाट रोधावी | पाषांडाची ||३०||
वेष धरावा बावळा | अंतरीं असाव्या नाना कळा |
सगट लोकांचा जिव्हाळा | मोडूं नये ||३१||
निस्पृह आणि नित्य नूतन | प्रत्ययाचें ब्रह्मज्ञान |
प्रगट जाणतां सज्जन | दुल्लभ जगीं ||३२||
नाना जिनसपाठांतरें | निवती सकळांचीं अंतरें |
चंचळपणें तदनंतरें | सकळां ठाईं ||३३||
येके ठाईं बैसोन राहिला | तरी मग व्यापचि बुडाला |
सावधपणें ज्याला त्याला | भेटि द्यावी ||३४||
भेटभेटों जरी राखणें | हे चातुर्याचीं लक्षणें |
मनुष्यमात्र उत्तम गुणें | समाधान पावे ||३५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चातुर्यलक्षणनाम समास पहिला ||१||१५. १
समास दुसरा : निःस्पृह व्यापलक्षण
||श्रीराम ||
पृथ्वीमधें मानवी शरीरें | उदंड दाटलीं लाहान थोरें |
पालटती मनोविकारें | क्षणाक्षणा ||१||
जितुक्या मूर्ती तितुक्याच प्रकृती | सारिख्या नस्ती आदिअंतीं |
नेमचि नाहीं पाहावें किती | काये म्हणोनी ||२||
कित्येक म्लेंच होऊन गेले | कित्येक फिरंगणांत आटले |
देशभाषानें रुधिले | कीतीयेक ||३||
मऱ्हाष्टदेश थोडा उरला | राजकारनें लोक रुधिला |
अवकाश नाहीं जेवायाला | उदंड कामें ||४||
कित्येक युद्धप्रसंगी गुंतले | तेणें गुणें उन्मत्त जाले |
रात्रंदिवस करूं लागले | युद्धचर्चा ||५||
उदिम्यास व्यासंग लागला | अवकाश नाहींसा जाला |
अवघा पोटधंदाच लागला | निरंतर ||६||
शडदर्शनें नाना मतें | पाषांडें वाढली बहुतें |
पृथिवीमधें जेथ तेथें | उपदेसिती ||७||
स्मार्थीं आणि वैष्णवी | उरलीं सुरलीं नेलीं आघवी |
ऐसी पाहातां गथागोवी | उदंड जाली ||८||
कित्येक कामनेचे भक्त | ठाइं ठाइं जालें आसक्त |
युक्त अथवा अयुक्त | पाहातो कोण ||९||
या गल्बल्यामधें गल्बला | कोणीं कोणीं वाढविला |
त्यास देखों सकेनासा जाला | वैदिक लोक ||१०||
त्याहिमधें हरिकीर्तन | तेथें वोढले कित्येक जन |
प्रत्ययाचें ब्रह्मज्ञान | कोण पाहे ||११||
या कारणें ज्ञान दुल्लभ | पुण्यें घडे अलभ्य लाभ |
विचारवंतां सुल्लभ | सकळ कांहीं ||१२||
विचार कळला सांगतां नये | उदंड येती अंतराये |
उपाय योजितां अपाये | आडवे येती ||१३||
त्याहिमधें तो तिक्षण | रिकामा जाऊं नेदी क्षण |
धूर्त तार्किक विचक्षण | सकळां माने ||१४||
नाना जिनस उदंड पाठ | वदों लागला घडघडाट |
अव्हाटचि केली वाट | सामर्थ्यबळें ||१५||
प्रबोधशक्तीचीं अनंत द्वारें | जाणें सकळांची अंतरें |
निरूपणें तदनंतरें | चटक लागे ||१६||
मतें मतांतरें सगट | प्रत्यये बोलोन करी सपाट |
दंडक सांडून नीट | वेधी जना ||१७||
नेमकें भेदकें वचनें | अखंड पाहे प्रसंगमानें |
उदास वृत्तिच्या गुमानें | उठोन जातो ||१८||
प्रत्यये बोलोन उठोन गेला | चटक लागली लोकांला |
नाना मार्ग सांडून त्याला | शरण येती ||१९||
परी तो कोठें आडळेना | कोणे स्थळीं सांपडेना |
वेष पाहातां हीन दीना | सारिखा दिसे ||२०||
उदंड करी गुप्तरूपें | भिकाऱ्यासारिखा स्वरूपें |
तेथें येशकीर्तिप्रतापें | सीमा सांडिली ||२१||
ठाइं ठाइं भजन लावी | आपण तेथून चुकावी |
मछरमतांची गोवी | लागोंच नेदी ||२२||
खनाळामधें जाऊन राहे | तेथें कोणीच न पाहे |
सर्वत्रांची चिंता वाहे | सर्वकाळ ||२३||
अवघड स्थळीं कठीण लोक | तेथें राहणें नेमक |
सृष्टीमधें सकळ लोक | धुंडीत येती ||२४||
तेथें कोणाचें चालेना | अनुमात्र अनुमानेना |
कट्ट घालीन राजकारणा | लोक लावी ||२५||
लोकीं लोक वाढविले | तेणें अमर्याद जाले |
भूमंडळीं सत्ता चाले | गुप्तरूपें ||२६||
ठाइं ठाइं उदंड ताबे | मनुष्यमात्र तितुकें झोंबे |
चहुंकडे उदंड लांबे | परमार्थबुद्धी ||२७||
उपासनेचा गजर | स्थळोस्थळीं थोर थोर |
प्रत्ययानें प्राणीमात्र | सोडविले ||२८||
ऐसे कैवाडे उदंड जाणे | तेणें लोक होती शाहाणे |
जेथें जेथें प्रत्यये बाणे | प्राणीमात्रासी ||२९||
ऐसी कीर्ति करून जावें | तरीच संसारास यावें |
दास म्हणे हें स्वभावें | संकेतें बोलिलें ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
निस्पृहव्यापनाम समास दुसरा ||२||१५. २
समास तिसरा : श्रेष्ठ अंतरात्मा निरूपण
||श्रीराम ||
मुळापासून सैरावैरा | अवघा पंचीकर्ण पसारा |
त्यांत साक्षत्वाचा दोरा | तोहि तत्वरूप ||१||
दुरस्ता दाटल्या फौजा | उंच सिंहासनीं राजा |
याचा विचार समजा | अंतर्यामी ||२||
देहमात्र अस्तिमांशांचें | तैसेंचि जाणावें नृपतीचें |
मूळापासून सृष्टीचें | तत्वरूप ||३||
रायाचे सत्तेनें चालतें | परन्तु अवघीं पंचभूतें |
मुळीं आधिक जाणिवेचे तें | अधिष्ठान आहे ||४||
विवेके बहुत पैसावले | म्हणौन अवतारी बोलिले |
मनु चक्रवती जाले | येणेंचि न्यायें ||५||
जेथें उदंड जाणीव | तेचि तितुके सदेव |
थोडे जाणिवेने नर्देव | होती लोक ||६||
व्याप आटोप करिती | धके चपेटे सोसिती |
तेणें प्राणी सदेव होती | देखतदेखतां ||७||
ऐसें हें आतां वर्ततें | मुर्ख लोकांस कळेना तें |
विवेकीं मनुष्य समजतें | सकळ कांहीं ||८||
थोर लाहान बुद्धीपासी | सगट कळेना लोकांसी |
आधीं उपजलें तयासी | थोर म्हणती ||९||
वयें धाकुटा नृपती | वृद्ध तयास नमस्कार करिती |
विचित्र विवेकाची गती | कळली पाहिजे ||१०||
सामान्य लोकांचे ज्ञान | तो अवघाच अनुमान |
दीक्षादंडकाचें लक्षण | येणेंचि पाडें ||११||
नव्हें कोणास म्हणावें | सामान्यास काये ठावें |
कोणकोणास म्हणावें | किती म्हणोनी ||१२||
धाकुटा भाग्यास चढला | तरी तुछ्य करिती तयाला |
याकारणें सलगीच्या लोकांला | दूरी धरावें ||१३||
नेमस्त कळेना वचन | नेमस्त नये राजकारण |
उगेचि धरिती थोरपण | मूर्खपणें ||१४||
नेमस्त कांहींच कळेना | नेमस्त कोणीच मानिना |
आधी उपजलें त्या थोरपणा | कोण पुसे ||१५||
वडिलां वडिलपण नाहीं | धाकुट्यां धाकुटपण नाहीं |
ऐसे बोलती त्यांस नाहीं | शाहाणपण ||१६||
गुणेविण वडिलपण | हें तों आवघेंच अप्रमाण |
त्याची प्रतीत प्रमाण | थोरपणीं ||१७||
तथापि वडिलांस मानावें | वडिलें वडिलपण जाणावें |
नेणतां पुढें कष्टावें | थोरपणीं ||१८||
तस्मात वडिल अंतरात्मा | जेथें चेतला तेथें महिमा |
हें तों प्रगटचि आहे आम्हा | शब्द नाहीं ||१९||
याकारणें कोणी येकें | शाहाणपण सिकावें विवेकें |
विवेक न सिकतां तुकें | तुटोन जाती ||२०||
तुक तुटलें म्हणिजे गेलें | जन्मा येऊन काये केलें |
बळेंचि सांदीस घातलें | आपणासी ||२१||
सगट बायेका सिव्या देती | सांदीस पडिला ऐसें म्हणती |
मूर्खपणाची प्राप्ती | ठाकून आली ||२२||
ऐसें कोणीयेकें न करावें | सर्व सार्थकचि करावें |
कळेना तरी विवरावें | ग्रंथांतरीं ||२३||
शाहाण्यास कोणीतरी बाहाती | मुर्खास लोक दवडून देती |
जीवास आवडे संपत्ति | तरी शाहाणें व्हावें ||२४||
आहो या शाहाणपणाकारणें | बहुतांचे कष्ट करणें |
परंतु शाहाणपण शिकणें | हें उत्तमोत्तम ||२५||
जों बहुतांस मानला | तो जाणावा शाहाणा जाला |
जनीं शाहाण्या मनुष्याला | काये उणें ||२६||
आपलें हित न करी लोकिकीं | तो जाणावा आत्मघातकी |
या मुर्खायेवढा पातकी | आणिक नाहीं ||२७||
आपण संसारीं कष्टतो | लोकांकरवी रागेजोन घेतो |
जनामध्यें शाहाणा तो | ऐसें न करी ||२८||
साधकां सिकविलें स्वभावें | मानेल तरी सुखें घ्यावें |
मानेना तरी सांडावें | येकिकडे ||२९||
तुम्ही श्रोते परम दक्ष | अलक्षास लावितां लक्ष |
हें तों सामान्य प्रत्यक्ष | जाणतसा ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
श्रेष्ठ अंतरात्मानिरूपणनाम समास तिसरा ||३||१५. ३
समास चौथा : शाश्वतब्रह्मनिरूपण
||श्रीराम ||
पृथ्वीपासून जालीं झाडें | झाडापासून होती लांकडें |
लांकडें भस्मोन पुढें | पृथ्वीच होये ||१||
पृथ्वीपासून वेल होती | नाना जिनस फापावती |
वाळोन कुजोन मागुती | पृथ्वीच होये ||२||
नाना धान्यांचीं नाना अन्नें | मनुष्यें करिती भोजनें |
नाना विष्ठा नाना वमनें | पृथ्वीच होये ||३||
नाना पक्षादिकीं भक्षिलें | तरी पुढें तैसेंचि जालें |
वाळोन भस्म होऊन गेलें | पुन्हा पृथ्वी ||४||
मनुष्यें मरतांच ऐका | क्रिमि भस्म कां मृत्तिका |
ऐशा काया पडती अनेका | पुढें पृथ्वी ||५||
नाना तृण पदार्थ कुजती | पुढें त्याची होये माती |
नाना किडे मरोन जाती | पुढें पृथ्वी ||६||
पदार्थ दाटले अपार | किती सांगावा विस्तार |
पृथ्वीवांचून थार | कोणास आहे ||७||
झाड पाले आणि तृण | पशु भक्षितां होतें सेण |
खात मूत भस्म मिळोन | पुन्हा पृथ्वी ||८||
उत्पत्तिस्थितिसंव्हारतें | तें तें पृथ्वीस मिळोन जातें |
जितुकें होतें आणि जातें | पुन्हा पृथ्वी ||९||
नाना बीजांचिया रासी | विरढोने लागती गगनासी |
पुढें सेवटीं पृथ्वीसी | मिळोन जाती ||१०||
लोक नाना धातु पुरिती | बहुतां दिवसां होये माती |
सुवर्णपाषाणाची गती | तैसीच आहे ||११||
मातीचें होते सुवर्ण | आणी मृत्तिकेचे होती पाषाण |
माहा अग्निसंगें भस्मोन | पृथ्वीच होये ||१२||
सुवर्णाचें जर होतें | जर सेवटीं कुजोन जातें |
रस होऊन वितुळतें | पुन्हा पृथ्वी ||१३||
पृथ्वीपासून धातु निपजती | अग्निसंगें रस होती |
तया रसाची होये जगती | कठीणरूपें ||१४||
नाना जळासी गंधी सुटे | तेथें पृथ्वीचें रूप प्रगटे |
दिवसेंदिवस जळ आटे | पुढें पृथ्वी ||१५||
पत्रें पुष्पें फळें येती | नाना जीव खाऊन जाती |
ते जीव मरतां जगती | नेमस्त होये ||१६||
जितुका कांहीं जाला आकार | तितुक्यास पृथ्वीचा आधार |
होती जाती प्राणीमात्र | सेवट पृथ्वी ||१७||
हें किती म्हणौन सांगावें | विवेकें अवघेचि जाणावें |
खांजणीभाजणीचें समजावें | मूळ तैसे ||१८||
आप आळोन पृथ्वी जाली | पुन्हां आपींच विराली |
अग्नियोगें भस्म जाली | म्हणोनियां ||१९||
आप जालें तेजापासुनी | पुढें तेजें घेतलें सोखुनी |
तें तेज जालें वायोचेनी | पुढें वायो झडपी ||२०||
वायो गगनीं निर्माण जाला | पुढें गगनींच विराला |
ऐसें खांजणीभाजणीला | बरें पाहा ||२१||
जें जें जेथें निर्माण होतें | तें तें तेथें लया जातें |
येणें रितीं पंचभूतें | नाश पावती ||२२||
भूत म्हणिजे निर्माण जालें | पुन्हां मागुतें निमालें |
पुढें शाश्वत उरलें | परब्रह्म तें ||२३||
तें परब्रह्म जों कळेना | तो जन्ममृत्यु चुकेना |
चत्वार खाणी जीव ना | होणें घडे ||२४||
जडाचें मूळ तें चंचळ | चंचळाचें मूळ तें निश्चळ |
निश्चळासी नाहीं मूळ | बरें पाहा ||२५||
पूर्वपक्ष म्हणिजे जालें | सिद्धांत म्हणिजे निमालें |
पक्षातीत जें संचलें | परब्रह्म तें ||२६||
हें प्रचितीनें जाणावें | विचारें खुणेंसी बाणावें |
विचारेंविण सिणावें | तेंचि मूर्खपणें ||२७||
ज्ञानी भिडेने दडपला | निश्चळ परब्रह्म कैंचें त्याला |
उगाच करितो गल्बला | मायेंमधें ||२८||
माया निशेष नासली | पुढें स्थिति कैसी उरली |
विचक्षणें विवरिली | पाहिजे स्वयें ||२९||
निशेष मायेचें निर्शन | होतां आत्मनिवेदन |
वाच्यांश नाहीं विज्ञान | कैसें जाणावें ||३०||
लोकांचे बोलीं जो लागला | तो अनुमानेंच बुडाला |
याकारणें प्रत्ययाला | पाहिलेंच पाहावें ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
शाश्वतब्रह्मनिरूपणनाम समास चौथा ||४||१५. ४
समास पांचवा : चंचळ लक्षण
||श्रीराम ||
दोघां ऐसीं तीन चालती | अगुणी अष्टधा प्रकृती |
अधोर्ध सांडून वर्तती | इंद्रफणी ऐसीं ||१||
पणतोंडें भक्षितो पणजा | मूल बापास मारी वोजा |
चुकाऱ्या गेला राजा | चौघां जणांचा ||२||
देव देवाळयामधें लपाला | देऊळ पूजितां पावे त्याला |
सृष्टिमधें ज्याला त्याला | ऐसेंचि आहे ||३||
दोनी नामें येकास पडिलीं | लोकीं नेमस्त कल्पिलीं |
विवेकें प्रत्ययें पाहिलीं | तों येकचि नाम ||४||
नाहीं पुरुष ना वनिता | लोकीं कल्पिलें तत्वता |
त्याचा बरा शोध घेतां | कांहींच नाहीं ||५||
स्त्री नदी पुरुष खळाळ | ऐसें बोलती सकळ |
विचार पाहातां निवळ | देह नाहीं ||६||
आपण आपणास कळेना | पाहों जातां आकळेना |
काशास कांहींच मिळेना | उदंडपणें ||७||
येकलाचि उदंड जाला | उदंडचि येकला पडिला |
आपणासी आपला | गल्बला सोसवेना ||८||
येक असोन फुटी पडिली | फुटी असोन स्थिति येकली |
विचित्र कळा पैसावली | प्राणीमात्रीं ||९||
वल्लिमधें जल संचरे | कोरडेपणें हें वावरे |
वोलेवांचून न थिरे | कांहीं केल्यां ||१०||
झाडांमधें केलीं आळीं | झाडें धांवती निराळीं |
कित्येक झाडें अंतराळीं | उडोन जाती ||११||
भूमीपासून वेगळीं जालीं | परी तें नाहींत वाळलीं |
निराळींच बळावलीं | जेथतेथें ||१२||
देवाकरितां चालती झाडें | देव नस्तां होती लाकडें |
नीटचि आहे कुवाडें | सर्वथा नव्हे ||१३||
झाडापासून झाडें होती | तेहि अंतरीक्ष जाती |
मुळानें भेदिली जगती | कदापि नाहीं ||१४||
झाडास झाडें खातपाणी | घालून पाळिलीं प्रतिदिनीं |
बोलकीं झाडें शब्दमथनीं | विचार घेती ||१५||
होणार तितुकें आधींच जालें | मग कल्पकल्पून बोलिलें |
जाणतयासी समजलें | सकळ कांहीं ||१६||
समजलें तरी उमजेना | उमजलें तरी समजेना |
प्रत्ययेंविण अनुमानेना | सकळ कांहीं ||१७||
सर्वत्रांचा वडिल कोण | हेचि पाहावी वोळखण |
भेटे आपणास आपण | जगदांतरें ||१८||
अंतरनिष्ठांची उंच कोटी | बाहेरमुद्र्याची संगती खोटी |
मूर्ख काये समजेल गोष्टी | शाहाणे जाणती ||१९||
अंतरें राखतां राजी | भलत्यास भलताच नवाजी |
अंतरें न राखतां भाजी | मिळणार नाहीं ||२०||
ऐसें वर्ततें प्रत्यक्ष | अलक्षीं लावावें लक्ष |
दक्षास भेटतां दक्ष | समाधान होतें ||२१||
मनास मिळतां मन | पाहोन येती निरंजन |
चंचळचक्र उलंघून | पैलाड जाती ||२२||
येकदा जाऊन पाहोन आले | मग तें सन्निध देखिलें |
चर्मचक्षी लक्षिलें | न वचे कदा ||२३||
नाना शरीरीं चंचळ | अखंड करी चळवळ |
परब्रह्म तें निश्चळ | सर्वां ठाईं ||२४||
चंचळ धांवे येकीकडे | वोस पडे दुसरेकडे |
चंचळ पुरे सर्वांकडे | हें तो घडेना ||२५||
चंचळ चंचळास पुरेना | आवघें चंचळ विवरेना |
निश्चळ अपार अनुमाना | कैसें येतें ||२६||
गगनीं चालिली हवावी | कैसी पावेल पार पदवी |
जातां मधेंचि विझावी | हा स्वभावचि तिचा ||२७||
मनोधर्म येकदेशी | कैसा आकळिल वस्तुसी |
निर्गुण सांडून अपेसी | सर्व ब्रह्म म्हणे ||२८||
नाहीं सारासार विचार | तेथें अवघा अंधकार |
खरें सांडून खोटें पोर | नेणतें घेतें ||२९||
ब्रह्मांडाचें माहाकारण | तेथून हें पंचीकर्ण |
माहावाक्याचें विवर्ण | वेगळें असे ||३०||
महत्तत्व महद्भूत | तोचि जाणावा भगवंत |
उपासना हे समाप्त | येथून जाली ||३१||
कर्म उपासना आणि ज्ञान | त्रिकांड वेद हें प्रमाण |
ज्ञानाचें होतें विज्ञान | परब्रह्मी ||३२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चंचळलक्षणनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||१५. ५
समास सहावा : चातुर्य विवरण
||श्रीराम ||
पीतापासून कृष्ण जालें | भूमंडळीं विस्तारलें |
तेणेंविण उमजलें | हें तों घडेना || १||
आहे तरी स्वल्प लक्षण | सर्वत्रांची सांठवण |
अद्धम आणी उत्तम गुण | तेथेंचि असती ||२||
महीसुत सरसाविला | सरसाऊन द्विधा केला |
उभयेता मिळोन चालिला | कार्येभाग ||३||
स्वेतास्वेतास गांठीं पडतां | मधें कृष्ण मिश्रित होतां |
इहलोकसार्थकता | होत आहे ||४||
विवरतां याचा विचार | मूर्ख तोचि होये चतुर |
सद्यप्रचित साक्षात्कार | परलोकींचा ||५||
सकळांस जे मान्य | तेंचि होतसे सामान्य |
सामान्यास अनन्य | होईजेत नाहीं ||६||
उत्तम मध्यम कनिष्ठ रेखा | अदृष्टीची गुप्त रेखा |
चत्वार अनुभव सारिखा | होत नाहीं ||७||
चौदा पिड्यांचे पवाडे | सांगती ते शाहाणे कीं वेडे |
ऐकत्यानें घडे कीं न घडे | ऐसें पाहावें ||८||
रेखा तितुकी पुसोन जाते | प्रत्यक्ष प्रत्यया येतें |
डोळेझांकणी करावी तें | कायेनिमित्य ||९||
बहुतांचे बोलीं लागलें | तें प्राणी अनुमानीं बुडालें |
मुख्य निश्चये चुकलें | प्रत्ययाचा ||१०||
उदंडाचें उदंड ऐकावें | परी तें प्रत्ययें पाहावे |
खरेंखोटें निवडावें | अंतर्यामीं ||११||
कोणासी नव्हे म्हणों नये | समजावे अपाये उपाये |
प्रत्यये घ्यावा बहुत काये | बोलोनियां ||१२||
माणुस हेंकाड आणी कच्चें | मान्य करावें तयाचें |
येणेंप्रकारें बहुतांचें | अंतर राखावें ||१३||
अंतरीं पीळ पेच वळसा | तोचि वाढवी बहुवसा |
तरी मग शाहाणा कैसा | निवऊं नेणें ||१४||
वेडें करावें शाहाणें | तरीच जिणें श्लाघ्यवाणें |
उगेंच वादांग वाढविणें | हें मूर्खपण ||१५||
मिळोन जाऊन मेळवावें | पडी घेऊन उलथावें |
कांहींच कळों नेदावें | विवेकबळें ||१६||
दुसऱ्याचे चालणीं चालावें | दुसऱ्याचे बोलणीं बोलावें |
दुसऱ्याचे मनोगतें जावें | मिळोनियां ||१७||
जो दुसऱ्याच्या हितावरी | तो विपट कहिंच न करी |
मानत मानत विवरी | अंतर तयाचें ||१८||
आधीं अंतर हातीं घ्यावें | मग हळुहळु उकलावें |
नाना उपायें न्यावें | परलोकासी ||१९||
हेंकाडास हेंकाड मिळाला | तेथें गल्बलाचि जाला |
कळहो उठतां च्यातुर्याला | ठाव कैंचा ||२०||
उगीच करिती बडबड | परी करून दाखविणें हें अवघड |
परस्थळ साधणें जड | कठिण आहे ||२१||
धके चपेटे सोसावे | नीच शब्द साहात जावे |
प्रस्तावोन परावे | आपले होती ||२२||
प्रसंग जाणोनि बोलावें | जाणपण कांहींच न घावें |
लीनता धरून जावें | जेथतेथें ||२३||
कुग्रामें अथवा नगरें | पाहावीं घरांचीं घरें |
भिक्षामिसें लाहानथोरें | परीक्षून सोडावीं ||२४||
बहुतीं कांहींतरी सांपडे | विचक्षण लोकीं मित्री घडे |
उगेच बैसतां कांहींच न घडे | फिर्णें विवरणें ||२५||
सावधपणें सर्व जाणावें | वर्तमान आधींच घ्यावें |
जाऊं ये तिकडे जावें | विवेकें सहित ||२६||
नाना जिनसपाठांतरें | निवती सकळांचीं अंतरें |
लेहोन देतां परोपकारें | सीमा सांडावी ||२७||
जैसें जयास पाहिजे | तैसें तयास दीजे |
तरी मग श्रेष्ठचि होइजे | सकळां मान्ये ||२८||
भूमंडळीं सकळांस मान्य | तो म्हणों नये सामान्य |
कित्येक लोक अनन्य | तया पुरुषासी ||२९||
ऐसीं चातुर्याचीं लक्षणें | चातुर्यें दिग्विजये करणें |
मग तयास काये उणें | जेथतेथें ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चातुर्यविवरणनाम समास सहावा ||६||१५. ६
समास सातवा : अधोर्धनिरूपण
||श्रीराम ||
नाना विकाराचें मूळ | ते हे मूळमायाच केवळ |
अचंचळीं जे चंचळ | सूक्ष्मरूपें ||१||
मूळामाया जाणीवेची | मुळींच्या मुळ संकल्पाची |
वोळखी शडगुणैश्वराची | येणेंचि न्यावें ||२||
प्रकृतिपुरुष शिवशक्ति | आर्धनारीनटेश्वर म्हणती |
परी ते आवघी जगज्जोती | मूळ त्यासी ||३||
संकल्पाचें जें चळण | तेंचि वायोचें लक्षण |
वायो आणी त्रिगुण | आणी पंचभूतें ||४||
पाहातां कोणीयेक वेल | त्याच्या मुळ्या असती खोल |
पत्रें पुष्पें फळें केवळ | मुळाचपासी ||५||
याहिवेगळे नाना रंग | आकार विकार तरंग |
नाना स्वाद अंतरंग | मुळामध्यें ||६||
तेंचि मूळ फोडून पाहातां | कांहींच नाहीं वाटे आतां |
पुढें वाढतां वाढतां | दिसों लागे ||७||
कड्यावरी वेल निघाला | अधोमुखें बळें चालिला |
फांपावोन पुढें आला | भूमंडळीं ||८||
तैसीं मुळमाया जाण | पंचभूतें आणी त्रिगुण |
मुळीं आहेत हें प्रमाण | प्रत्ययें जाणावें ||९||
अखंड वेल पुढें वाढला | नाना विकारीं शोभला |
विकारांचा विकार जाला | असंभाव्य ||१०||
नाना फडगरें फुटलीं | नाना जुंबाडें वाढली |
अनंत अग्रें चालिलीं | सृष्टीमधें ||११||
कित्येक फळें तीं पडती | सवेंचि आणीक निघती |
ऐसीं होती आणि जाती | सर्वकाळ ||१२||
येक वेलचि वाळले | पुन्हां तेथेंचि फुटले |
ऐसे आले आणि गेले | कितीयेक ||१३||
पानें झडती आणि फुटती | पुष्पें फळें तेणेंचि रितीं |
मध्यें जीव हे जगती | असंभाव्य ||१४||
अवघा वेलचि कर्पतो | मुळापासून पुन्हा होतो |
ऐसा अवघा विचार जो तो | प्रत्यक्ष जाणावा ||१५||
मूळ खाणोन काढिलें | प्रत्ययेज्ञानें निर्मूळ केलें |
तरी मग वाढणेंचि राहिलें | सकळ कांहीं ||१६||
मुळीं बीज सेवटीं बीज | मध्यें जळरूप बीज |
ऐसा हा स्वभाव सहज | विस्तारला ||१७||
मुळामधील ज्या गोष्टी | सांगताहे बीजसृष्टी |
जेथील अंश तेथें कष्टी | न होतां जातो ||१८||
जातो येतो पुन्हा जातो | ऐसा प्रत्यावृत्ति करितो |
परंतु आत्मज्ञानी जो तो | अन्यथा न घडे ||१९||
न घडे ऐसें जरी म्हणावें | तरी कांहींतरी लागे जाणावें |
अंतरींच परी ठावें | सकळांस कैचें ||२०||
तेणेंसींच कार्यभाग करिती | परंतु तयास नेणती |
दिसेना ते काये करिती | बापुडे लोक ||२१||
विषयेभोग तेणेंचि घडे | तेणेंविण कांहींच न घडे |
स्थूळ सांडून सूक्ष्मीं पवाडे | ऐसा पाहिजे ||२२||
जें आपलेंचि अंतर | तद्रूपचि जगदांतर |
शरीरभेदाचे विकार | वेगळाले ||२३||
आंगोळीची आंगोळीस वेधना | येकीची येकीस कळेना |
हात पाये अवेव नाना | येणेंचि न्यायें ||२४||
अवेवाचें अवेव नेणे | मा तो परांचें काये जाणे |
परांतर याकारणें | जाणवेना ||२५||
येकाचि उदकें सकळ वनस्पती | नाना अग्रेंभेद दिसती |
खुडिलीं तितुकींच सुकती | येर ते टवटवीत ||२६||
येणेंचि न्यायें भेद जाला | कळेना येकाचें येकाला |
जाणपणें आत्मयाला | भेद नाहीं ||२७||
आत्मत्वीं भेद दिसे | देहप्रकृतिकरितां भासे |
तरी जाणतचि असे | बहुतेक ||२८||
देखोन ऐकोन जाणती | शाहाणे अंतर परीक्षिती |
धूर्त ते अवघेंच समजती | गुप्तरूपें ||२९||
जो बहुतांचें पाळण करी | तो बहुतांचें अंतर विवरी |
धूर्तपणें ठाउकें करी | सकळ कांहीं ||३०||
आधी मनोगत पाहातीं | मग विश्वास धरिती |
प्राणीमात्र येणें रितीं | वर्तताहे ||३१||
स्मरणामागें विस्मरण | रोकडी प्रचित प्रमाण |
आपलें ठेवणें आपण | चुकताहे ||३२||
आपलेंच आपणा स्मरेना | बोलिलें तें आठवेना |
उठती अनंत कल्पना | ठाउक्या कैंच्या ||३३||
ऐसें हें चंचळ चक्र | कांहीं नीट कांहीं वक्र |
जाला रंक अथवा शक्र | तरी स्मरणास्मरणें ||३४||
स्मरण म्हणिजे देव | विस्मरण म्हणिजे दानव |
स्मरणविस्मरणें मानव | वर्तती आतां ||३५||
म्हणोनि देवी आणि दानवी | संपत्ति द्विधा जाणावी |
प्रचित मानसीं आणावी | विवेकेंसहित ||३६||
विवेकें विवेक जाणावा | आत्म्यानें आत्मा वोळखावा |
नेत्रें नेत्रचि पाहावा | दर्पणींचा ||३७||
स्थूळें स्थूळ खाजवावें | सुक्ष्में सुक्ष्म समजावें |
खुणेनें खुणेसी बाणावें | अंतर्यामीं ||३८||
विचारें जाणाव विचार | अंतरें जाणावे अंतर |
अंतरें जाणावे परांतर | होउनियां ||३९||
स्मरणामाजीं विस्मरण | हेंचि भेदाचें लक्षण |
येकदेसी | परिपूर्ण | होत नाहीं ||४०||
पुढें सिके मागें विसरे | पुढें उजेडे मागें अंधारें |
पुढें स्मरे मागें विस्मरे | सकळ कांहीं ||४१||
तुर्या जाणावी स्मरण | सुषुप्ती जाणावी विस्मरण |
उभयेता शरीरीं जाण | वर्तती आतां ||४२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अधोर्धनिरूपणनाम समास सातवा ||७||१५. ७
समास आठवा : सूक्ष्मजीवनिरूपण
||श्रीराम ||
रेणूहून सूक्ष्म किडे | त्यांचें आयुष्य निपटचि थोडें |
युक्ति बुद्धि तेणेंचि पाडें | तयामधें ||१||
ऐसे नाना जीव असती | पाहों जातां न दिसती |
अंतःकर्णपंचकाची स्थिती | तेथेंचि आहे ||२||
त्यांपुरतें त्यांचें ज्ञान | विषये इंद्रियें समान |
सूक्ष्म शरीरें विवरोन | पाहातो कोण ||३||
त्यास मुंगी माहा थोर | नेणोंचालिला कुंजर |
मुंगीस मुताचा पूर | ऐसें बोलती ||४||
तें मुंगीसमान शरीरें | उदंड असती लाहानथोरें |
समस्तांमध्यें जीवेश्वरें | वस्ति कीजे ||५||
ऐसिया किड्यांचा संभार | उदंड दाटला विस्तार |
अत्यंत साक्षपी जो नर | तो विवरोन पाहे ||६||
नाना नक्षत्रीं नाना किडे | त्यांस भासती पर्वतायेवढे |
आयुष्यहि तेणेंचि पाडें | उदंड वाटे ||७||
पक्षायेवढें लाहान नाहीं | पक्षायेवढें थोर नाहीं |
सर्प आणि मछ पाहीं | येणेंचि पाडे ||८||
मुंगीपासून थोरथोरें | चढतीं वाढतीं शरीरें |
त्यांची निर्धारितां अंतरें | कळों येती ||९||
नाना वर्ण नाना रंग | नाना जीवनाचे तरंग |
येक सुरंग येक विरंग | किती म्हणौनि सांगावे ||१०||
येकें सुकुमारें येकें कठोरें | निर्माण केलीं जगदेश्वरें |
सुवर्णासारिखीं शरीरें | दैदिप्यमानें ||११||
शरीरभेदें आहारभेदें | वाचाभेदें गुणभेदें |
अंतरीं वसिजे अभेदें | येकरूपें ||१२||
येक त्रासकें येकमारकें | पाहो जातां नाना कौतुकें |
कितीयेक आमोलिकें | सृष्टीमध्यें ||१३||
ऐसीं अवघीं विवरोन पाहे | ऐसा प्राणी कोण आहे |
आपल्यापरतें जाणोन राहे | किंचितमात्र ||१४||
नवखंड हे वसुंधरा | सप्तसागरांचा फेरा |
ब्रह्मांडाबाहेरील नीरा | कोण पाहे ||१५||
त्या नीरामध्यें जीव असती | पाहों जातां असंख्याती |
त्या विशाळ जीवांची स्थिती | कोणजाणे ||१६||
जेथें जीवन तेथें जीव | हा उत्पत्तीचा स्वभाव |
पाहातां याचा अभिप्राव | उदंड असे ||१७||
पृथ्वीगर्भीं नाना नीरें | त्या नीरामधें शरीरें |
नाना जिनस लाहानथोरें | कोण जाणें ||१८||
येक प्राणी अंतरिक्ष असती | तेहीं नाहीं देखिली क्षिती |
वरीच्यावरी उडोन जाती | पक्ष फुटल्यानंतरें ||१९||
नाना खेचरें आणि भूचरें | नाना वनचरें आणि जळचरें |
चौऱ्यासि योनीप्रकारें | कोण जाणे ||२०||
उष्ण तेज वेगळे करुनी | जेथें तेथें जीवयोनी |
कल्पनेपासुनी होती प्राणी | कोण जाणे ||२१||
येक नाना सामर्थ्यें केले | येक इच्छेपासून जाले |
येक शब्दासरिसे पावले | श्रापदेह ||२२||
येक देह बाजीगिरीचे | येक देह वोडंबरीचे |
येक देह देवतांचे | नानाप्रकारें ||२३||
येक क्रोधापासून जाले | येक तपा पासून जन्मले |
येक उश्रापें पावले | पूर्वदेह ||२४||
ऐसें भगवंताचें करणें | किती म्हणौन सांगणें |
विचित्र मायेच्या गुणें | होत जातें ||२५||
नाना अवघड करणी केली | कोणीं देखिली ना ऐकिली |
विचित्र कळा समजली | पाहिजे सर्वें ||२६||
थोडें बहुत समजलें | पोटापुरती विद्या सिकलें |
प्राणी उगेंच गर्वें गेलें | मी ज्ञाता म्हणोनी ||२७||
ज्ञानी येक अंतरात्मा | सर्वांमधें सर्वात्मा |
त्याचा कळावया महिमा | बुद्धि कैंची ||२८||
सप्तकंचुक ब्रह्मांड | त्यांत सप्तकंचुक पिंड |
त्या पिंडामधें उदंड | प्राणी असती ||२९||
आपल्य देहांतील न कळे | मा तें अवघें कैंचें कळे |
लोक होती उतावळे | अल्पज्ञानें ||३०||
अनुरेणाऐसें जिनस | त्यांचे आम्ही विराट पुरुष |
आमचें उदंडचि आयुष्य | त्यांच्या हिसेबें ||३१||
त्यांच्या रिती त्यांचे दंडक | वर्तायाचे असती अनेक |
जाणे सर्वहि कौतुक | ऐसा कैंचा ||३२||
धन्य परमेश्वराची करणी | अनुमानेना अंतःकरणीं |
उगीच अहंता पापिणी | वेढा लावी ||३३||
अहंता सांडून विवरणें | कित्येक देवांचे करणें |
पाहातां मनुष्याचें जिणें | थोडें आहे ||३४||
थोडें जिणें अर्धपुडी काया | गर्व करिती रडाया |
शरीर आवघें पडाया | वेळ नाहीं ||३५||
कुश्चीळ ठाईं जन्मलें | आणि कुश्चीळ रसेंचि वाढलें |
यास म्हणती थोरलें | कोण्या हिसेबें ||३६||
कुश्चीळ आणि क्ष्णभंगुर | अखंड वेथा चिंतातुर |
लोक उगेच म्हणती थोर | वेडपणें ||३७||
कायामाया दों दिसांची | आदिअंतीं अवघी ची ची |
झांकातापा करून उगीचि | थोरीव दाविती ||३८||
झांकिलें तरी उपंढर पडे | दुर्गंधी सुटे जिकडे तिकडे |
जो कोणी विवेकें पवाडे | तोचि धन्य ||३९||
उगेंचि कायसा तंडावें | मोडा अहंतेचें पुंडावें |
विवेकें देवास धुंडावें | हें उत्तमोत्तम ||४०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूक्ष्मजीवनिरूपणनाम समास आठवा ||८||१५. ८
समास नववा : पिंडोत्पत्तिनिरूपण
||श्रीराम ||
चौंखाणीचे प्राणी असती | अवघे उदकेंचि वाढती |
ऐसे होतीआणी जाती | असंख्यात ||१||
तत्वांचें शरीर जालें | अंतरात्म्यासगट वळलें |
त्यांचें मूळ जों शोधिलें | तों उदकरूप ||२||
शरत्काळींचीं शरीरें | पीळपीळों झिरपती नीरें |
उभये रेतें येकत्रें | मिसळती रक्तीं ||३||
अन्नरस देहरस | रक्तरेतें बांधे मूस |
रसद्वयें सावकास | वाढों लागे ||४||
वाढतां वाढतां वाढलें | कोमळाचें कठीण जालें |
पुढें उदक पैसावलें | नाना अवेवीं ||५||
संपूर्ण होतां बाहेरी पडे | भूमीस पडतां मग तें रडे |
अवघ्याचें अवघेंच घडे | ऐसें आहे ||६||
कुडी वाढे कुबुद्धि वाढे | मूळापासून अवघें घडे |
अवघेंचि मोडे आणि वाढे | देखतदेखतां ||७||
पुढें अवघियांचें शरीर | दिवसेंदिवस जालें थोर |
सुचों लागला विचार | कांहीं कांहीं ||८||
फळामधें बीज आलें | तेणें न्यायें तेथें जालें |
ऐकतां देखतां उमजलें | सकळ कांहीं ||९||
बीजें उदकें अंकुरती | उदक नस्तां उडोन जाती |
येके ठाईं उदक माती | होतां बरें ||१०||
दोहिंमधें असतां बीज | भिजोन अंकुर सहज |
वाढतां वाढतां पुढें रीझ | उदंड आहे ||११||
इकडे मुळ्या धावा घेती | तिकडे अग्रें हेलावती |
मुळें अग्र द्विधा होती | बीजापासून ||१२||
मुळ्या चालिल्या पाताळीं | अग्रें धावतीं अंतराळीं |
नाना पत्रीं पुष्पीं फळीं | लगडलीं झाडें ||१३||
फळावडिल सुमनें | सुमनांवडिल पानें |
पानांवडिल अनुसंधानें | काष्ठें आघवीं ||१४||
काष्ठांवडिल मुळ्या बारिक | मुळ्यां वडिल तें उदक |
उदक आळोन कौतुक | भूमंडळाचें ||१५||
याची ऐसी आहे प्रचिती | तेव्हां सकळां वडिल जगती |
जगतीवडिल मूर्ती | आपोनारायेणाची ||१६||
तयावडिल अग्निदेव | अग्निवडिल वायेदेव |
वायेदेवावडिल स्वभाव | अंतरात्म्यांचा ||१७||
सकळांवडिल अंतरात्मा | त्यासि नेणे तो दुरात्मा |
दुरात्मा म्हणिजे दुरी आत्मा | अंतरला तया ||१८||
जवळी असोन चुकलें | प्रत्ययास नाहीं सोकलें |
उगेंचि आलें आणी गेलें | देवाचकरितां ||१९||
म्हणौन सकळांवडिल देव | त्यासी होतां अनन्यभाव |
मग हे प्रकृतीचा स्वभाव | पालटों लागे ||२०||
करी आपुला व्यासंग | कदापि नव्हे ध्यानभंग |
बोलणें चालणें वेंग | पडोंच नेदी ||२१||
जें वडिलीं निर्माण केलें | तें पाहिजे पाहिलें |
काये काये वडिलीं केलें | कीती पाहावें ||२२||
तो वडिल जेथें चेतला | तोचि भाग्यपुरुष जाला |
अल्प चेतनें तयाला | अल्पभाग्य ||२३||
तया नारायेणाला मनीं | अखंड आठवावें ध्यानीं |
मग ते लक्ष्मी तयापासूनी | जाईल कोठें ||२४||
नारायेण असे विश्वीं | त्याची पूजा करीत जावी |
याकारणें तोषवावी | कोणीतरी काया ||२५||
उपासना शोधून पाहिली | तों ते विश्वपाळिती जाली |
न कळे लीळा परीक्षिली | न वचे कोणा ||२६||
देवाची लीळा देवेंविण | आणीक दुसरा पाहे कोण |
पाहाणें तितुकें आपण | देवचि असे ||२७||
उपासना सकळां ठाईं | आत्माराम कोठें नाहीं |
याकारणें ठाइं ठाइं | रामे आटोपिलें ||२८||
ऐसी माझी उपासना | आणितां नये अनुमाना |
नेऊन घाली निरंजना | पैलिकडे ||२९||
देवाकरितां कर्में चालती | देवाकरितां उपासक होती |
देवाकरितां ज्ञानी असती | कितियेक ||३०||
नाना शास्त्रें नाना मतें | देवचि बोलिला समस्तें |
नेमकांनेमक वेस्तावेस्तें | कर्मानुसार ||३१||
देवास अवघें लागे करावें | त्यांत घेऊं ये तितुकें घ्यावें |
अधिकारासारिखें चालावें | म्हणिजे बरें ||३२||
आवाहन विसर्जन | ऐसेंचि बोलिलें विधान |
पूर्वपक्ष जाला येथून | सिद्धांत पुढें ||३३||
वेदांत सिद्धांत धादांत | प्रचित प्रमाण नेमस्त |
पंचिकर्ण सांडून हित | वाक्यार्थपाहावा ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
पिंडोत्पत्तिनिरूपणनाम समास नववा ||९||१५. ९
समास दहावा : सिद्धांतनिरूपण
||श्रीराम ||
गगनीं अवघेंचि होत जातें | गगनाऐसें तगेना तें |
निश्चळीं चंचळ नाना तें | येणेंचि न्यायें ||१||
अंधार दाटला बळें | वाटे गगन जालें काळें |
रविकिर्णें तें पिवळें | सवेंचि वाटे ||२||
उदंड हिंव जेव्हां पडिले | गमे गगन थंड जालें |
उष्ण झळेनें वाळलें | ऐसें वाटे ||३||
ऐसें जें कांहीं वाटलें | तें तें जालें आणि गेलें |
आकाशासारिखें तगलें | हें तों घडेना ||४||
उत्तम जाणिवेचा जिनस | समजोन पाहे सावकास |
निराभास तें आकाश | भास मिथ्या ||५||
उदक पसरे वायो पसरे | आत्मा अत्यंतचि पसरे |
तत्वें तत्व अवघेंचि पसरे | अंतर्यामीं ||६||
चळतें आणि चळेना तें | अंतरीं अवघेंच कळतें |
विवरणेंचि निवळतें | प्राणिमात्रासी || ७||
विवरतां विवरतां शेवटीं | निवृत्तिपदीं अखंड भेटी |
जालियानें तुटी | होणार नाहीं ||८||
जेथें ज्ञानाचें होतें विज्ञान | आणि मनाचें होतें उन्मन |
तत्वनिर्शनीं अनन्य | विवेकें होतें ||९||
वडिलांस शोधून पाहिलें | तों चंचळाचें निश्चळ जालें |
देवभक्तपण गेलें | तये ठाइं ||१०||
ठाव म्हणतां पदार्थ नाहीं | पदार्थमात्र मुळीं नाहीं |
जैसें तैसें बोलों कांहीं | कळावया ||११||
अज्ञानशक्ति निरसली | ज्ञानशक्ति मावळली |
वृत्तिशून्यें कैसी जाली | स्थिती पाहा ||१२||
मुख्य शक्तिपात तो ऐसा | नाहीं चंचळाचा वळसा |
निवांतीं निवांत कैसा | निर्विकारी ||१३||
चंचळाचीं विकार बालटें | तें चंचळचि जेथें आटे |
चंचळ निश्चळ घनवटे | हें तों घडेना ||१४||
माहावाक्याचा विचारु | तेथें संन्याशास अधिकारु |
दैवीकृपेची जो नरु | तोहि विवरोन पाहे ||१५||
संन्यासी म्हणिजे शडन्यासी | विचारवंत सर्व संन्यासी |
आपली करणी आपणासी | निश्चयेंसीं ||१६||
जगदीश वोळल्यावरी | तेथें कोण अनुमान करी |
आतां असो हें विचारी | विचार जाणती ||१७||
जे जे विचारी समजले | ते ते निःसंग होऊन गेले |
देहाभिमानी जे उरले | ते देहाभिमान रक्षिती ||१८||
लक्षीं बैसले अलक्ष | उडोन गेला पूर्वपक्ष |
हेतुरूपें अंतरसाक्ष | तोहि मावळला ||१९||
आकाश आणि पाताळ | दोनी नामें अंतराळ |
काढितां दृश्याचें चडळ | अखंड जालें ||२०||
तें तों अखंडचि आहे | मन उपाधी लक्षून पाहे |
उपाधिनिरासें साहे | शब्द कैसा ||२१||
शब्दपर कल्पनेपर | मन बुद्धि अगोचर |
विचारें पाहावा विचार | अंतर्यामीं ||२२||
पाहातां पाहातां कळों येतें | कळलें तितुकें वेर्थ जातें |
अवघड कैसें बोलावें तें | कोण्या प्रकारें ||२३||
वाक्यार्थवाच्यांश शोधिला | अलक्षीं लक्ष्यांश बुडाला |
पुढें समजोन बोला | कोणीतरी ||२४||
शाश्वतास शोधीत गेला | तेणें ज्ञानी साच जाला |
विकार सांडून मिळाला | निर्विकारीं ||२५||
दुःस्वप्न उदंड देखिलें | जागें होतां लटिकें जालें |
पुन्हां जरी आठवलें | तरी तें मिथ्या ||२६||
प्रारब्धयोगें देह असे | असे अथवा नासे |
विचार अंतरीं बैसे | चळेना ऐसा ||२७||
बीज अग्नीनें भाजलें | त्याचें वाढणें खुंटलें |
ज्ञात्यास तैसे जालें | वासनाबीज ||२८||
विचारें निश्चळ जाली बुद्धि | बुद्धिपासीं कार्यसिद्धि |
पाहातां वडिलांची बुद्धि | निश्चळीं गेलीं ||२९||
निश्चळास ध्यातो तो निश्चळ | चंचळास ध्यातो तो चंचळ |
भूतास ध्यातो तो केवळ | भूत होये ||३०||
जो पावला सेवटवरी | तयास हें कांहींच न करी |
अंतरिनिष्ठा बाजीगरी | तैसी माया ||३१||
मिथ्या ऐसें कळों आलें | विचारानें सदृढ जालें |
अवघें भयेंचि उडालें | अकस्मात ||३२||
उपासनेचें उत्तिर्ण व्हावें | भक्तजनें वाढवावें |
अंतरीं विवेकें उमजावें | सकळ कांहीं ||३३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सिद्धांतनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१५. १०
||दशक पंधरावा समाप्त ||
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% File name : dAsabodh15.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 15
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
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% Latest update : August 6, 2014
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