||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १४ ||
||दशक चौदावा : अखंडध्यान ||१४||
समास पहिला : निस्पृह लक्षणनाम
||श्रीराम ||
ऐका स्पृहाची सिकवण | युक्ति बुद्धि शाहाणपण |
जेणें राहे समाधान | निरंतर ||१||
सोपा मंत्र परी नेमस्त | साधें वोषध गुणवंत |
साधें बोलणें सप्रचित | तैसें माझें ||२||
तत्काळचि अवगुण जाती | उत्तम गुणाची होये प्राप्ती |
शब्दवोषध तीव्र श्रोतीं | साक्षपें सेवावें ||३||
निस्पृहता धरूं नये | धरिली तरी सोडूं नये |
सोडिली तरी हिंडों नये | वोळखीमधें ||४||
कांता दृष्टी राखों नये | मनास गोडी चाखऊं नये |
धारिष्ट चळतां दाखऊं नये | मुख आपुलें ||५||
येकेस्थळीं राहों नये | कानकोंडें साहों नये |
द्रव्य दारा पाहों नये | आळकेपणें ||६||
आचारभ्रष्ट होऊं नये | दिल्यां द्रव्य घेऊं नये |
उणा शब्द येऊं नये | आपणावरी ||७||
भिक्षेविषीं लाजों नये | बहुत भिक्षा घेऊं नये |
पुसतांहि देऊं नये | वोळखी आपली ||८||
धड मळिन नेसों नये | गोड अन्न खाऊं नये |
दुराग्रह करूं नये | प्रसंगें वर्तावें ||९||
भोगीं मन असों नये | देहदुःखें त्रासों नये |
पुढें आशा धरूं नये | जीवित्वाची ||१०||
विरक्ती गळों देऊं नये | धारिष्ट चळों देऊं नये |
ज्ञान मळिण होऊं नये | विवेकबळें ||११||
करुणाकीर्तन सोडूं नये | अंतर्ध्यान मोडूं नये |
प्रेमतंतु तोडूं नये | सगुणमूर्तीचा ||१२||
पोटीं चिंता धरूं नये | कष्टें खेद मानूं नये |
समइं धीर सांडूं नये | कांहीं केल्या ||१३||
अपमानितां सिणों नये | निखंदितां कष्टों नये |
धिःकारितां झुरों नये | कांहीं केल्या ||१४||
लोकलाज धरूं नये | लाजवितां लाजों नये |
खिजवितां खिजों नये | विरक्त पुरुषें ||१५||
शुद्ध मार्ग सोडूं नये | दुर्जनासीं तंडों नये |
समंध पडों देऊं नये | चांडाळासी ||१६||
तपीळपण धरूं नये | भांडवितां भांडों नये |
उडवितां उडऊं नये | निजस्थिती आपुली ||१७||
हांसवितां हासों नये | बोलवितां बोलों नये |
चालवितां चालों नये | क्षणक्ष्णा ||१८||
येक वेष धरूं नये | येक साज करूं नये |
येकदेसी होऊं नये | भ्रमण करावें ||१९||
सलगी पडों देऊं नये | प्रतिग्रह घेऊं नये |
सभेमध्यें बैसों नये | सर्वकाळ ||२०||
नेम आंगीं लाऊं नये | भरवसा कोणास देऊं नये |
अंगीकार करूं नये | नेमस्तपणाचा ||२१||
नित्यनेम सांडूं नये | अभ्यास बुडों देऊं नये |
परतंत्र होऊं नये | कांहीं केल्यां ||२२||
स्वतंत्रता मोडूं नये | निरापेक्षा तोडूं नये |
परापेक्षा होऊं नये | क्षणक्ष्णा ||२३||
वैभव दृष्टीं पाहों नये | उपाधीसुखें राहों नये |
येकांत मोडूं देऊं नये | स्वरूपस्थितीचा ||२४||
अनर्गळता करूं नये | लोकलाज धरूं नये |
कोठेंतरी होऊं नये | आसक्त कदां ||२५||
परंपरा तोडूं नये | उपाधी मोडूं देऊं नये |
ज्ञानमार्गे सोडूं नये | कदाकाळीं ||२६||
कर्ममार्ग सांडूं नये | वैराग्य मोडूं देऊं नये |
साधन भजन खंडूं नये | कदाकाळीं ||२७||
अतिवाद करूं नये | अनित्य पोटीं धरूं नये |
रागें भरीं भरों नये | भलतीकडे ||२८||
न मनी त्यास सांगों नये | कंटाळवाणें बोलों नये |
बहुसाल असो नये | येकें स्थळीं ||२९||
कांहीं उपाधी करूं नये | केली तरी धरूं नये |
धरिली तरी सांपडों नये | उपाधीमध्यें ||३०||
थोरपणें असो नये | महत्त्व धरून बैसों नये |
कांहीं मान इछूं नये | कोठेंतरी ||३१||
साधेपण सोडूं नये | सानेपण मोडूं नये |
बळात्कारें जोडूं नये | अभिमान आंगीं ||३२||
अधिकारेवीण सांगों नये | दाटून उपदेश देऊं नये |
कानकोंडा करूं नये | परमार्थ कदा ||३३||
कठीण वैराग्य सोडूं नये | कठीण अभ्यास सांडूं नये |
कठिणता धरूं नये | कोणेकेविशइं ||३४||
कठीण शब्द बोलों नये | कठीण आज्ञा करूं नये |
कठीण धीरत्व सोडूं नये | कांहीं केल्यां ||३५||
आपण आसक्त होऊं नये | केल्यावीण सांगों नये |
बहुसाल मागों नये | शिष्यवर्गांसी ||३६||
उद्धट शब्द बोलों नये | इंद्रियेंस्मरण करूं नये |
शाक्तमार्गें भरों नये | मुक्तपणें भरीं ||३७||
नीच कृतीं लाजों नये | वैभव होतां माजों नये |
क्रोधें भरीं भरों नये | जाणपणें ||३८||
थोरपणें चुकों नये | न्याये नीति सांडूं नये |
अप्रमाण वर्तों नये | कांहीं केल्या ||३९||
कळल्यावीण बोलों नये | अनुमानें निश्चये करूं नये |
सांगतां दुःख धरूं नये | मूर्खपणें ||४०||
सावधपण सोडुं नये | व्यापकपण सांडुं नये |
कदा सुख मानूं नये | निसुगपणाचें ||४१||
विकल्प पोटीं धरूं नये | स्वार्थआज्ञा करूं नये |
केली तरी टाकूं नये | आपणास पुढें ||४२||
प्रसंगेंवीण बोलों नये | अन्वयेंवीण गाऊं नये |
विचारेंवीण जाऊं नये | अविचारपंथें ||४३||
परोपकार सांडूं नये | परपीडा करूं नये |
विकल्प पडों देऊं नये | कोणीयेकासी ||४४||
नेणपण सोडूं नये | महंतपण सांडूं नये |
द्रव्यासाठीं हिंडों नये | कीर्तन करीत ||४५||
संशयात्मक बोलों नये | बहुत निश्चये करूं नये |
निर्वाहेंवीण धरूं नये | ग्रंथ हातीं ||४६||
जाणपणें पुसों नये | अहंभाव दिसों नये |
सांगेन ऐसें म्हणों नये | कोणीयेकासी ||४७||
ज्ञानगर्व धरूं नये | सहसा छळणा करूं नये |
कोठें वाद घालुं नये | कोणीयेकासी ||४८||
स्वार्थबुद्धी जडों नये | कारबारीं पडों नये |
कार्यकर्ते होऊं नये | राजद्वारीं ||४९||
कोणास भर्वसा देऊं नये | जड भिक्षा मागों नये |
भिक्षेसाठीं सांगों नये | परंपरा आपुली ||५०||
सोइरिकींत पडों नये | मध्यावर्ति घडों नये |
प्रपंचाची जडों नये | उपाधी आंगीं ||५१||
प्रपंचप्रस्तीं जाऊं नये | बाष्कळ अन्न खाऊं नये |
पाहुण्यासरिसें घेऊं नये | आमंत्रणें कदां ||५२||
श्राध पक्ष सटी सामासें | शांती फळशोबन बारसें |
भोग राहाण बहुवसें | नवस व्रतें उद्यापनें ||५३||
तेथें निस्पृहें जाऊं नये | त्याचें अन्न खाऊं नये |
येळिलवाणें करूं नये | आपणासी ||५४||
लग्नमुहुर्तीं जाऊं नये | पोटासाठीं गाऊं नये |
मोलें कीर्तन करूं नये | कोठेंतरी ||५५||
आपली भिक्षा सोडूं नये | वारें अन्न खाऊं नये |
निस्पृहासि घडों नये | मोलयात्रा ||५६||
मोलें सुकृत करूं नये | मोलपुजारी होऊं नये |
दिल्हा तरी घेऊं नये | इनाम निस्पृहें ||५७||
कोठें मठ करूं नये | केला तरी तो धरूं नये |
मठपती होऊन बैसों नये | निस्पृह पुरुषें ||५८||
निस्पृहें अवघेंचि करावें | परी आपण तेथें न सांपडावें |
परस्परें उभारावें | भक्तिमार्गासी ||५९||
प्रेत्नेंविण राहों नये | आळस दृष्टी आणूं नये |
देह अस्तां पाहों नये | वियोग उपासनेचा ||६०||
उपाधीमध्यें पडों नये | उपाधी आंगीं जडों नये |
भजनमार्ग मोडूं नये | निसंगळपणें ||६१||
बहु उपाधी करूं नये | उपाधीविण कामा नये |
सगुणभक्ति सोडूं नये | विभक्ति खोटी ||६२||
बहुसाल धांवों नये | बहुसाल राहों नये |
बहुत कष्ट करूं नये | असुदें खोटें ||६३||
बहुसाल बोलों नये | अबोलणें कामा नये |
बहुत अन्न खाऊं नये | उपवास खोटा ||६४||
बहुसाल निजों नये | बहुत निद्रा मोडुं नये |
बहुत नेम धरूं नये | बाश्कळ खोटें ||६५||
बहु जनीं असों नये | बहु आरण्य सेऊं नये |
बहु देह पाळूं नये | आत्महत्या खोटी ||६६||
बहु संग धरूं नये | संतसंग सांडुं नये |
कर्मठपण कामा नये | अनाचार खोटा ||६७||
बहु लोकिक सांडुं नये | लोकाधेन होऊं नये |
बहु प्रीती कामा नये | निष्ठुरता खोटी ||६८||
बहु संशये धरूं नये | मुक्तमार्ग कामा नये |
बहु साधनीं पडों नये | साधनेंवीण खोटें ||६९||
बहु विषये भोगूं नये | विषयत्याग करितां नये |
देहलोभ धरूं नये | बहु त्रास खोटा ||७०||
वेगळा अनुभव घेऊं नये | अनुभवेंवीण कामा नये |
आत्मस्थिती बोलों नये | स्तब्धता खोटी ||७१||
मन उरों देऊं नये | मनेंवीण कामा नये |
अलक्ष वस्तु लक्षा नये | लक्षेंवीण खोटें ||७२||
मनबुद्धिअगोचर | बुद्धीवीण अंधकार |
जाणीवेचा पडो विसर | नेणीव खोटी ||७३||
ज्ञातेपण धरूं नये | ज्ञानेंवीण कामा नये |
अतर्क्य वस्तु तर्का न ये | तर्केंवीण खोटें ||७४||
दृश्यस्मरण काम नये | विस्मरण पडों नये |
कांहीं चर्चा करूं नये | केलीयावीण न चले ||७५||
जगीं भेद कामा नये | वर्णसंकर करूं नये |
आपला धर्म उडऊं नये | अभिमान खोटा ||७६||
आशाबद्धत बोलों नये | विवेकेंवीण चालों नये |
समाधान हालों नये | कांहीं केल्यां ||७७||
अबद्ध पोथी लेहों नये | पोथीवीण कामा नये |
अबद्ध वाचूं नये | वाचिल्यावीण खोटें ||७८||
निस्पृहें वगत्रुत्व सांडूं नये | आशंका घेतां भांडों नये |
श्रोतयांचा मानूं नये | वीट कदा ||७९||
हें सिकवण धरितां चित्तीं | सकळ सुखें वोळगती |
आंगीं बाणें महंती | अकस्मात ||८०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
निस्पृहलक्षणनाम समास पहिला ||१||१४. १
समास दुसरा : भिक्षानिरूपण
||श्रीराम ||
ब्राह्माणाची मुख्य दीक्षा | मागितली पाहिजे भिक्षा |
वों भवति या पक्षा | रक्षिलें पाहिजे ||१||
भिक्षा मागोन जो जेविला | तो निराहारी बोलिला |
प्रतिग्रहावेगळा जाला | भिक्षा मागतां ||२||
संतासंत जे जन | तेथें कोरान्न मागोन करी भोजन |
तेणें केलें अमृतप्राशन | प्रतिदिनीं ||३||
||श्लोक ||
भिक्षाहारी निराहारी | भिक्षा नैव प्रतिग्रहः |
असंतो वापि संतो वा | सोमपानं दिने दिने ||
ऐसा भिक्षेचा महिमा | भिक्षा माने सर्वोत्तमा |
ईश्वराचा अगाध महिमा | तोहि भिक्षा मागे ||४||
दत्त गोरक्ष आदिकरुनी | सिद्ध भिक्षा मागती जनीं |
निस्पृहता भिक्षेपासुनी | प्रगट होये ||५||
वार लाऊन बैसला | तरी तो पराधेन जाला |
तैसीच नित्यावळीला | स्वतंत्रता कैंची ||६||
आठां दिवसां धान्य मेळविलें | तरी तें कंटाळवाणें जालें |
प्राणी येकायेकीं चेवलें | नित्यनूतनतेपासुनी ||७||
नित्य नूतन हिंडावें | उदंड देशाटण करावें |
तरीच भिक्षा मागतां बरवें | श्लाघ्यवाणें ||८||
अखंड भिक्षेच अभ्यास | तयास वाटेना परदेश |
जिकडे तिकडे स्वदेश | भुवनत्रैं ||९||
भिक्षां मागतां किरकों नये | भिक्षा मागतां लाजो नये |
भिक्षा मागतां भागों नये | परिभ्रमण करावें ||१०||
भिक्षा आणि चमत्कार | च्चाकाटती लहानथोर |
कीर्ति वर्णी निरंतर | भगवंताची ||११||
भिक्षा म्हणिजे कामधेनु | सदा फळ नव्हे सामान्यु |
भिक्षेस करी जो अमान्यु | तो करंटा जोगी ||१२||
भिक्षेनें वोळखी होती | भिक्षेनें भरम चुकती |
सामान्य भिक्षा मान्य करिती | सकळ प्राणी ||१३||
भिक्षा म्हणिजे निर्भये स्थिति | भिक्षेनें प्रगटे महंती |
स्वतंत्रता ईश्वरप्राप्ती | भिक्षागुणें ||१४||
भिक्षेस नाहीं आडथळा | भिक्षाहारी तो मोकळा |
भिक्षेकरितां सार्थक वेळा | काळ जातो ||१५||
भिक्षा म्हणिजे अमरवल्ली | जिकडे तिकडे लगडली |
अवकाळीं फळदायेनी जाली | निर्ल्लजासी ||१६||
पृथ्वीमधें देश नाना | फिरतां उपवासी मरेना |
कोणे येके ठाईं जना | जड नव्हे ||१७||
गोरज्य वाणिज्य कृषी | त्याहून प्रतिष्ठा भिक्षेसी |
विसंभों नये झोळीसी | कदाकाळीं ||१८||
भिक्षेऐसें नाहीं वैराग्य | वैराग्यापरतें नाहीं भाग्य |
वैराग्य नस्तां अभाग्य | येकदेसी ||१९||
कांहीं भिक्षा आहे म्हणावें | अल्पसंतोषी असावें |
बहुत आणितां घ्यावें | मुष्टी येक ||२०||
सुखरूप भिक्षा मागणें | ऐसी निस्पृहतेचीं लक्षणें |
मृद वागविळास करणें | परम सौख्यकारी ||२१||
ऐसी भिक्षेची स्थिती | अल्प बोलिलें येथामती |
भिक्षा वांचवी विपत्ती | होणार काळीं ||२२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
भिक्षानिरूपणनाम समास दुसरा ||२||१४. २
समास तिसरा : कवित्वकळानिरूपण
||श्रीराम ||
कवित्व शब्दसुमनमाळा | अर्थ परिमळ आगळा |
तेणें संतषट्पदकुळा | आनंद होये ||१||
ऐसी माळा अंतःकरणीं | गुंफुन पूजा रामचरणीं |
वोंकारतंत अखंडपणीं | खंडूं च नये ||२||
परोपकाराकारणें | कवित्व अगत्य करणें |
तया कवित्वाचीं लक्षणें | बोलिजेती ||३||
जेणें घडे भगवद्भक्ती | जेणें घडे विरक्ती |
ऐसिया कवित्वाची युक्ती | आधीं वाढवावी ||४||
क्रियेवीण शब्दज्ञान | तया न मानिती सज्जन |
म्हणौनी देव प्रसन्न | अनुतापें करावा ||५||
देवाचेन प्रसन्नपणें | जें जें घडे बोलणें |
तें तें अत्यंत श्लाघ्यवाणें | या नाव प्रासादिक ||६||
धीट पाठ प्रसादिक | ऐसें बोलती अनेक |
तरी हा त्रिविध विवेक | बोलिजेल ||७||
धीट म्हणिजे धीटपणें केलें | जें जें आपुल्या मनास आलें |
बळेंचि कवित्व रचिलें | या नाव धीट बोलिजे ||८||
पाठ म्हणिजे पाठांतर | बहुत पाहिलें ग्रंथांतर |
तयासरिखा उतार | आपणचि केला ||९||
सीघ्रचि कवित्व जोडिलें | दृष्टि पडिलें तें चि वर्णिलें |
भक्तिवांचून जें केलें | त्या नाव धीटपाठ ||१०||
कामिक रसिक शृंघारिक | वीर हास्य प्रस्ताविक |
कौतुक विनोद अनेक | या नाव धीटपाठ ||११||
मन जालें कामाकार | तैसेचि निघती उद्गार |
धीटपाठें परपार | पाविजेत नाहीं ||१२||
व्हावया उदरशांती | करणें लागे नरस्तुती |
तेथें केली जे वित्पत्ति | त्या नाव धीटपाठ ||१३||
कवित्व नसावें धीटपाठ | कवित्व नसावें खटपट |
कवित्व नसावें उद्धट | पाषांडमत ||१४||
कवित्व नसावें वादांग | कवित्व नसावें रसभंग |
कवित्व नसावें रंगभंग | दृष्टांतहीन ||१५||
कवित्व नसावें पाल्हाळ | कवित्व नसावें बाष्कळ |
कवित्व नसावें कुटीळ | लक्षुनियां ||१६||
हीन कवित्व नसावें | बोलिलेंचि न बोलावें |
छंदभंग न करावें | मुद्राहीन ||१७||
वित्पत्तिहीन तर्कहीन | कळाहीन शब्दहीन |
भक्तिज्ञानवैराग्यहीन | कवित्व नसावें ||१८||
भक्तिहीन जें कवित्व | तेंचि जाणावें ठोंबें मत |
आवडीहीन जें वगत्रृत्व | कंटाळवाणें ||१९||
भक्तिविण जो अनुवाद | तोचि जाणावा विनोद |
प्रीतीविण संवाद | घडे केवी ||२०||
असो धीट पाठ तें ऐसें | नाथिलें अहंतेचें पिसें |
आतां प्रसादिक तें कैसें | सांगिजेल ||२१||
वैभव कांता कांचन | जयास वाटे हें वमन |
अंतरीं लागलें ध्यान | सर्वोत्तमाचें ||२२||
जयास घडीनें घडी | लागे भगवंतीं आवडी |
चढती वाढती गोडी | भगवद्भजनाची ||२३||
जो भगवद्भजनेंवीण | जाऊं नेदी येक क्षण |
सर्वकाळ अंतःकरण | भक्तिरंगें रंगलें ||२४||
जया अंतरी भगवंत | अचळ राहिला निवांत |
तो स्वभावें जें बोलत | तें ब्रह्मनिरूपण ||२५||
अंतरी बैसला गोविंद | तेणें लागला भक्तिछंद |
भक्तीविण अनुवाद | आणीक नाहीं ||२६||
आवडी लागली अंतरीं | तैसीच वदे वैखरी |
भावें करुणाकीर्तन करी | प्रेमभरें नाचतु ||२७||
भगवंतीं लागलें मन | तेणें नाठवे देहभान |
शंका लज्या पळोन | दुरी ठेली ||२८||
तो प्रेमरंगें रंगला | तो भक्तिमदें मातला |
तेणें अहंभाव घातला | पायांतळीं ||२९||
गात नाचत निशंक | तयास कैचे दिसती लोक |
दृष्टीं त्रैलोक्यनायेक | वसोन ठेला ||३०||
ऐसा भगवंतीं रंगला | आणीक कांहीं नलगे त्याला |
स्वइछा वर्णूं लागला | ध्यान कीर्ती प्रताप ||३१||
नाना ध्यानें नाना मूर्ती | नाना प्रताप नाना कीर्ती |
तयापुढें नरस्तुती | त्रुणतुल्य वाटे ||३२||
असो ऐसा भगवद्भक्त | जो ये संसारीं विरक्त |
तयास मानिती मुक्त | साधुजन ||३३||
त्याचे भक्तीचें कौतुक | तयानव प्रसादिक |
सहज बोलतां विवेक | प्रगट होय ||३४||
ऐका कवित्वलक्षण | केलेंच करूं निरूपण |
जेणे निवे अंतःकर्ण | श्रोतयांचें ||३५||
कवित्व असावें निर्मळ | कवित्व असावें सरळ |
कवित्व असावें प्रांजळ | अन्वयाचें ||३६||
कवित्व असावें भक्तिबळें | कवित्व असावें अर्थागळें |
कवित्व असावें वेगळें | अहंतेसी ||३७||
कवित्व असावें कीर्तिवाड | कवित्व असावें रम्य गोड |
कवित्व असावें जाड | प्रतापविषीं ||३८||
कवित्व असावें सोपें | कवित्व असावें अल्परूपें |
कवित्व असावें सुल्लपें | चरणबंद ||३९||
मृदु मंजुळ कोमळ | भव्य अद्भुत विशाळ |
गौल्य माधुर्य रसाळ | भक्तिरसें ||४०||
अक्षरबंद पदबंद | नाना चातुर्य प्रबंद |
नाना कौशल्यता छंदबंद | धाटी मुद्रा अनेक ||४१||
नाना युक्ती नाना बुद्धी | नाना कळा नाना सिद्धी |
नाना अन्वये साधी | नाना कवित्व ||४२||
नाना साहित्य दृष्टांत | नाना तर्क धात मात |
नाना संमती सिद्धांत | पूर्वपक्षेंसीं ||४३||
नाना गती नाना वित्पत्ती | नाना मती नाना स्फुर्ति |
नाना धारणा नाना धृती | या नाव कवित्व ||४४||
शंका आशंका प्रत्योत्तरें | नाना काव्यें शास्त्राधारें |
तुटे संशये निर्धारें | निर्धारितां ||४५||
नाना प्रसंग नाना विचार | नाना योग नाना विवर |
नाना तत्वचर्चासार | या नाव कवित्व ||४६||
नाना साधनें पुरश्चरणें | नाना तपें तीर्थाटणें |
नाना संदेह फेडणें | या नाव कवित्व ||४७||
जेणें अनुताप उपजें | जेणें लोकिक लाजे |
जेणें ज्ञान उमजे | या नाव कवित्व ||४८||
जेणें ज्ञान हें प्रबळे | जेणें वृत्ती हे मावळें |
जेणें भक्तिमार्ग कळे | या नाव कवित्व ||४९||
जेणें देहबुद्धी तुटे | जेणें भवसिंधु आटे |
जेणें भगवंत प्रगटे | या नाव कवित्व ||५०||
जेणें सद्बुद्धि लागे | जेणें पाषांड भंगे |
जेणें विवेक जागे | या नाव कवित्व ||५१||
जेणें सद्वस्तु भासे | जेणें भास हा निरसे |
जेणें भिन्नत्व नासे | या नाव कवित्व ||५२||
जेणें होये समाधान | जेणें तुटे संसारबंधन |
जया मानिती सज्जन | तया नाव कवित्व ||५३||
ऐसें कवित्वलक्षण | सांगतां तें असाधारण |
परंतु कांहींयेक निरूपण | बुझावया केलें ||५४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
कवित्वकळानिरूपण समास तिसरा ||३||१४. ३
समास चौथा : कीर्तन लक्षण
||श्रीराम ||
कलयुगीं कीर्तन करावें | केवळ कोमळ कुशळ गावें |
कठीण कर्कश कुर्टें सांडावें | येकीकडे ||१||
खटखट खुंटून टाकावी | खळखळ खळांसीं न करावी |
खरें खोटें खवळों नेदावी | वृत्ति आपुली ||२||
गर्वगाणें गाऊं नये | गातां गातां गळों नये |
गोप्य गुज गर्जों नये | गुण गावे ||३||
घष्टणी घिसणी घस्मरपणें | घसर घसरूं घसा खाणें |
घुमघुमों चि घुमणें | योग्य नव्हे ||४||
नाना नामे भगवंताचीं | नाना ध्यानें सगुणाचीं |
नाना कीर्तनें कीर्तीचीं | अद्भुत करावीं ||५||
चकचक चुकावेना | चाट चावट चळावेना |
चरचर चुरचुर लागेना | ऐसें करावें ||६||
छळछळ छळणा करूं नये | छळितां छळितां छळों नयें |
छळणें छळणा करूं नये | कोणीयेकाची ||७||
जि जि जि जि म्हणावेना | जो जो जागे तो तो पावना |
जपजपों जनींजनार्दना | संतुष्ट करावें ||८||
झिरपे झरे पाझरे जळ | झळके दुरुनी झळाळ |
झडझडां झळकती सकळ | प्राणी तेथें ||९||
या या या या म्हणावें नलगे | या या या या उपाव नलगे |
या या या या कांहीं च नलगे | सुबुद्धासी ||१०||
टक टक टक करूं नये | टाळाटाळी टिकों नये |
टम टम टम टम लाऊं नये | कंटाळवाणी ||११||
ठस ठोंबस ठाकावेना | ठक ठक ठक करावेना |
ठाकें ठमकें ठसावेना | मूर्तिध्यान ||१२||
डळमळ डळमळ डकों नये | डगमग डगमग कामा नये |
डंडळ डंडळ चुकों नये | हेंकाडपणें ||१३||
ढिसाळ ढाला ढळती कुंचे | ढोबळा ढसकण डुले नाचे |
ढळेचिना ढिगढिगांचे | कंटाळवाणे ||१४||
नाना नेटक नागर | नाना नम्र गुणागर |
नाना नेमक मधुर | नेमस्त गाणें ||१५||
ताळ तुंबरे तानमानें | ताळबद्ध तंतगाणें |
तूर्त तार्किक तनें मनें | तल्लिन होती ||१६||
थर्थरां थरकती रोमांच | थै थै थै स्वरें उंच |
थिरथिर थिरावे नाच | प्रेमळ भक्तांचा ||१७||
दक्षदाक्षण्य दाटलें | बंदें प्रबंदें कोंदाटलें |
दमदम दुमदुमों लागलें | जगदंतर ||१८||
धूर्त तूर्त धावोन आला | धिंगबुद्धीनें धिंग जाला |
धाकें धाकें धोकला | रंग अवघा ||१९||
नाना नाटक नेटकें | नाना मानें तुकें कौतुकें |
नाना नेमक अनेकें | विद्यापात्रें ||२०||
पाप पळोन गेलें दुरी | पुण्य पुष्कळ प्रगटे वरी |
परतरतो परे अंतरीं | चटक लागे ||२१||
फुकट फाकट फटवणें नाहीं | फटकळ फुगडी पिंगा नाहीं |
फिकें फसकट फोल नाहीं | भकाध्या निंदा ||२२||
बरें बरें बरें म्हणती | बाबा बाबा उदंड करिती |
बळें बळेंचि बळाविती | कथेलागीं ||२३||
भला भला भला लोकीं | भक्तिभावें भव्य अनेकीं |
भूषण भाविक लोकीं | परोपकारें ||२४||
मानेल तरी मानावें मनें | मत्त न व्हावें ममतेनें |
मी मी मी मी बहुत जनें | म्हणिजेत आहे ||२५||
येकें टोकत येकांपासीं | येऊं येऊं येती झडेसीं |
या या या या असे तयासी | म्हणावें नलगे ||२६||
राग रंग रसाळ सुरंगें | अंतर संगित रागें |
रत्नपरीक्षा रत्नामागें | धांवती लोक ||२७||
लवलवां लवती लोचन | लकलकां लकलें मन |
लपलपों लपती जन | आवडीनें ||२८||
वचनें वाउगीं वदेना | वावरेविवरे वसेना |
वगत्रुत्वें निववी जना | विनित होउनी ||२९||
सारासार समस्तांला | सिकऊं सिकऊं जनाला |
साहित संगित सज्जनाला | बरें वाटे ||३०||
खरेंखोटें खरें वाटलें | खर्खर खुर्खुर खुंटलें |
खोटें खोटेपणें गेलें | खोटें म्हणोनियां ||३१||
शाहाणे शोधितां शोधेना | शास्त्रार्थ शृती बोधेना |
शुक शारिकाशमेना | शब्द तयाचा ||३२||
हरुषें हरुषें हासिला | हाहाहोहोनें भुलला |
हित होईना तयाला | परत्रीचें ||३३||
लक्षावें लक्षितां अलक्षीं | लक्षिलें लोचनातें लक्षी |
लंगलें लयेतें अलक्षी | विहिंगममार्गें ||३४||
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ क्षोभतो | क्षमा क्षमून क्ष्मवितो |
क्ष्मणें क्षोभणें क्षेत्रज्ञ तो | सर्वां ठाईं ||३५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
कीर्तन लक्षण निरूपण समास चौथा ||४||१४. ४
समास पांचवा : हरिकथा लक्षण
||श्रीराम ||
मागां हरिकथेचें लक्षण | श्रोतीं केला होता प्रस्न |
सावध होऊन विचक्षण | परिसोन आतां ||१||
हरिकथा कैसी करावी | रंगें कैसी भरावी |
जेणें पाविजे पदवी | रघुनाथकृपेची ||२||
सोनें आणि परिमळे | युक्षदंडा लागती फळें |
गौल्य माधुर्य रसाळें | तरी ते अपूर्वता ||३||
तैसा हरिदास आणि विरक्त | ज्ञाता आणि प्रेमळ भक्त |
वित्पन्न आणि वादरहित | तरी हेहि अपूर्वता ||४||
रागज्ञानी ताळज्ञानी | सकळकळा ब्रह्मज्ञानी |
निराभिमानें वर्ते जनीं | तरी हेहि अपूर्वता ||५||
मछर नाहीं जयासी | जो अत्यंत प्रिये सज्जनासी |
चतुरांग जाणें मानसीं | अंतरनिष्ठ ||६||
जयंत्यादिकें नाना पर्वें | तीर्थें क्षेत्रें जें अपूर्वें |
जेथें वसिजे देवाधिदेवें | सामर्थ्यरूपें ||७||
तया तीर्थातें जे न मानिती | शब्दज्ञानें मिथ्या म्हणती |
तया पामरां श्रीपती | जोडेल कैंचा ||८||
निर्गुण नेलें संदेहानें | सगुण नेलें ब्रह्मज्ञानें |
दोहिकडे अभिमानें | वोस केलें ||९||
पुढें असतां सगुणमूर्ती | निर्गुणकथा जे करिती |
प्रतिपादून उछेदिती | तेचि पढतमूर्ख ||१०||
ऐसी न कीजे हरिकथा | अंतर पडे उभये पंथा |
परिस लक्षणें आतां | हरिकथेचीं ||११||
सगुणमूर्तीपुढें भावें | करुणाकीर्तन करावें |
नानाध्यानें वर्णावें | प्रतापकीर्तीतें ||१२||
ऐसें गातां स्वभावें | रसाळ कथा वोढवे |
सर्वांतरीं हेलावे | प्रेमसुख ||१३||
कथा रचायाची खूण | सगुणीं नाणावें निर्गुण |
न बोलावे दोष गुण | पुढिलांचे कदा ||१४||
देवाचें वर्णावें वैभाव | नाना प्रकारें महत्त्व |
सगुणीं ठेउनियां भाव | हरिकथा करावी ||१५||
लाज सांडून जनाची | आस्था सांडून धनाची |
नीच नवी कीर्तनाची | आवडी धरावी ||१६||
नम्र होऊन राजांगणीं | निःशंक जावें लोटांगणी |
करताळिका नृत्य वाणीं | नामघोषें गर्जावें ||१७||
येकांची कीर्ति येकापुढें | वर्णितां साहित्य न पडे |
म्हणोनियां निवाडे | जेथील तेथें ||१८||
मूर्ती नस्तां सगुण | श्रवणीं बैसले साधुजन |
तरी अद्वैतनिरूपण | अवश्य करावें ||१९||
नाहीं मूर्ती नाहीं सज्जन | श्रवणीं बैसले भाविक जन |
तरी करावें कीर्तन | प्रस्ताविक वैराग्य ||२०||
श्रुंघारिक नवरसिक | यामधें सांडावें येक |
स्त्रियादिकांचें कौतुक | वर्णुं नये कीं ||२१||
लावण्य स्त्रियांचें वर्णितां | विकार बाधिजे तत्वता |
धारिष्टापासून श्रोता | चळे तत्काळ ||२२||
म्हणउन तें तजावें | जें बाधक साधकां स्वभावें |
घेतां अंतरीं ठसावें | ध्यान स्त्रियांचें ||२३||
लावण्य स्त्रियांचें ध्यान | कामाकार जालें मन |
कैचें आठवेल ध्यान | ईश्वराचें ||२४||
स्त्री वर्णितां सुखावला | लावण्याचे भरीं भरला |
तो स्वयें जाणावा चेवला | ईश्वरापासुनी ||२५||
हरिकथेसी भावबळें | गेला रंग तो तुंबळे |
निमिष्य येक जरी आकळे | ध्यानीं परमात्मा ||२६||
ध्यानीं गुंतलें मन | कैचें आठवेल जन |
निशंक निर्लज कीर्तन | करितां रंग माजे ||२७||
रागज्ञान ताळज्ञान | स्वरज्ञानेंसीं वित्पन्न |
अर्थान्वयाचें कीर्तन | करूं जाणे ||२८||
छपन्न भाषा नाना कळा | कंठमाधुर्य कोकिळा |
परी तो भक्तिमार्ग वेगळा | भक्त जाणती ||२९||
भक्तांस देवाचें ध्यान | देवावांचून नेणें अन्न |
कळावंतांचें जें मन | तें कळाकार जालें ||३०||
श्रीहरिवीण जे कळा | तेचि जाणावी अवकळा |
देवास सांडून वेगळा | प्रत्यक्ष पडिला ||३१||
सर्पीं वेढिलें चंदनासी | निधानाआड विवसी |
नाना कळा देवासी | आड तैस्या ||३२||
सांडून देव सर्वज्ञ | नादामध्यें व्हावें मग्न |
तें प्रत्यक्ष विघ्न | आडवें आलें ||३३||
येक मन गुंतलें स्वरीं | कोणें चिंतावा श्रीहरी |
बळेंचि धरुनियां चोरीं | शिश्रूषा घेतली ||३४||
करितां देवाचें दर्शन | आडवें आलें रागज्ञान |
तेणें धरुनियां मन | स्वरामागें नेलें ||३५||
भेटों जातां राजद्वारीं | बळेंचि धरिला बेगारी |
कळावंतां तैसी परी | कळेनें केली ||३६||
मन ठेऊन ईश्वरीं | जो कोणी हरिकथा करी |
तोचि ये संसारीं | धन्य जाणा ||३७||
जयास हरिकथेची गोडी | उठे नीच नवी आवडी |
तयास जोडली जोडी | सर्वोत्तमाची ||३८||
हरिकथा मांडली जेथें | सर्व सांडून धावे तेथें |
आलस्य निद्रा दवडून स्वार्थें | हरिकथेसि सादर ||३९||
हरिभक्तांचिये घरीं | नीच कृत्य अंगिकारी |
साहेभूत सर्वांपरीं | साक्षपें होये ||४०||
या नावाचा हरिदास | जयासि नामीं विश्वास |
येथून हा समास | संपूर्ण जाला ||४१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
हरिकथालक्षणनिरूपण समास पांचवा ||५||१४. ५
समास सहावा : चातुर्य लक्षण
||श्रीराम ||
रूप लावण्य अभ्यासितां न ये | सहजगुणास न चले उपाये |
कांहीं तरी धरावी सोये | अगांतुक गुणाची ||१||
काळें माणुस गोरें होयेना | वनाळास येत्न चालेना |
मुक्यास वाचा फुटेना | हा सहजगुण ||२||
आंधळें डोळस होयेना | बधिर तें ऐकेना |
पांगुळ पाये घेइना | हा सहजगुण ||३||
कुरूपतेचीं लक्षणें | किती म्हणोनि सांगणें |
रूप लावण्य याकारणें | पालटेना ||४||
अवगुण सोडितां जाती | उत्तम गुण अभासितां येती |
कुविद्या सांडून सिकती | शाहाणे विद्या ||५||
मूर्खपण सांडितां जातें | शाहाणपण सिकतां येतें |
कारबार करितां उमजतें | सकळ कांहीं ||६||
मान्यता आवडे जीवीं | तरी कां उपेक्षा करावी |
चातुर्येंविण उंच पदवी | कदापी नाहीं ||७||
ऐसी प्रचीत येते मना | तरी कां स्वहित कराना |
सन्मार्गें चालतां जनां | सज्जना माने ||८||
देहे नेटकें श्रुंघारिलें | परी चातुर्येंविण नासलें |
गुणेंविण साजिरें केलें | बाष्कळ जैसें ||९||
अंतर्कळा शृंघारावी | नानापरी उमजवावी |
संपदा मेळऊन भोगावी | सावकास ||१०||
प्रेत्न करीना सिकेना | शरीर तेंहि कष्टविना |
उत्तम गुण घेईना | सदाकोपी ||११||
आपण दुसऱ्यास करावें | तें उसिणें सवेंचि घ्यावें |
जना कष्टवितां कष्टावें | लागेल बहु ||१२||
न्यायें वर्तेल तो शहाणा | अन्याइ तो दैन्यवाणा |
नाना चातुर्याच्या खुणा | चतुर जाणे ||१३||
जें बहुतांस मानलें | तें बहुतीं मान्य केलें |
येर तें वेर्थचि गेलें | जगनिंद्य ||१४||
लोक आपणासि वोळावे | किंवा आवघेच कोंसळावे |
आपणास समाधान फावे | ऐसें करावें ||१५||
समाधानें समाधान वाढे | मित्रिनें मित्रि जोडे |
मोडितां क्षणमात्रें मोडे | बरेपण ||१६||
अहो कांहो अरे कांरे | जनीं ऐकिजेतें किं ते |
कळत असतांच कां रे | निकामीपन ||१७||
चातुर्यें श्रुंघारे अंतर | वस्त्रें श्रुंघारे शरीर |
दोहिमधें कोण थोर | बरें पाहा ||१८||
बाह्याकार श्रुंगारिलें | तेणें लोकांच्या हातासि काये आलें |
चातुर्यें बहुतांसी रक्षिलें | नाना प्रकारें ||१९||
बरें खावें बरें जेवावें | बरें ल्यावें बरें नेसावें |
समस्तीं बरें म्हणावें | ऐसी वासना ||२०||
तनें मनें झिजावें | तेणें भले म्हणोन घ्यावें |
उगें चि कल्पितां सिणावें | लागेल पुढें ||२१||
लोकीं कार्यभाग आडे | तो कार्यभाग जेथें घडे |
लोक सहजचि वोढे | कामासाठीं ||२२||
म्हणोन दुरऱ्यास सुखी करावें | तेणें आपण सुखी व्हावें |
दुसऱ्यास कष्टवितां कष्टावें | लागेल स्वयें ||२३||
हें तों प्रगटचि आहे | पाहिल्याविण कामा नये |
समजणें हा उपाये | प्राणीमात्रासी ||२४||
समजले आणि वर्तले | तेचि भाग्यपुरुष जाले |
यावेगळे उरले | तें करंटे पुरुष ||२५||
जितुका व्याप तितुकें वैभव | वैभवासारिखा हावभाव |
समजले पाहिजे उपाव | प्रगटचि आहे ||२६||
आळसें कार्येभाग नासतो | साक्षेप होत होत होतो |
दिसते गोष्टी कळेना तो | शाहाणा कैसा ||२७||
मित्रि करितां होतें कृत्य | वैर करितां होतो मृत्यु |
बोलिलें हें सत्य किं असत्य | वोळखावें ||२८||
आपणास शाहाणें करूं नेणें | आपलें हित आपण नेणें |
जनीं मैत्रि राखों नेणे | वैर करी ||२९||
ऐसे प्रकारीचे जन | त्यास म्हणावें अज्ञान |
तयापासीं समाधान | कोण पावे ||३०||
आपण येकायेकी येकला | सृष्टींत भांडत चालिला |
बहुतांमध्यें येकल्याला | येश कैचें ||३१||
बहुतांचे मुखी उरावें | बहुतांचे अंतरीं भरावें |
उत्तम गुणीं विवरावें | प्राणीमात्रासी ||३२||
शाहाणे करावे जन | पतित करावे पावन |
सृष्टिमधें भगवद्भजन | वाढवावें ||३३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चातुर्येलक्षणनिरूपण समास सहावा ||६||१४. ६
समास सातवा : युगधर्म निरूपण
||श्रीराम ||
नाना वेश नाना आश्रम | सर्वांचें मूळ गृहस्थाश्रम |
जेथें पावती विश्राम | त्रैलोक्यवासी ||१||
देव ऋषी मुनी योगी | नाना तापसी वीतरागी |
पितृआदिकरून विभागी | अतीत अभ्यागत ||२||
गृहस्थाश्रमीं निर्माण जाले | आपला आश्रम टाकून गेले |
परंतु गृहस्थागृहीं हिंडों लागले | कीर्तिरूपें ||३||
याकारणें गृहस्थाश्रम | सकळामधें उत्तमोत्तम |
परंतु पाहिजे स्वधर्म | आणी भूतदया ||४||
जेथें शडकर्में चालती | विध्योक्त क्रिया आचरती |
वाग्माधुर्यें बोलती | प्राणीमात्रासी ||५||
सर्वप्रकारें नेमक | शास्त्रोक्त करणें कांहींयेक |
त्याहिमध्यें अलोलिक | तो हा भक्तिमार्ग ||६||
पुरश्चरणी कायाक्लेसी | दृढव्रती परम सायासी |
जगदीशावेगळें जयासी | थोर नाहीं ||७||
काया वाचा जीवें प्राणें | कष्टे भगवंताकारणें |
मनें घेतलें धरणें | भजनमार्गीं ||८||
ऐसा भगवंताचा भक्त | विशेष अंतरीं विरक्त |
संसार सांडून जाला मुक्त | देवाकारणें ||९||
अंतरापासून वैराग्य | तेंचि जाणावें महद्भाग्य |
लोलंगतेयेवढें अभाग्य | आणीक नाहीं ||१०||
राजे राज्य सांडून गेले | भगवंताकारणें हिंडलें |
कीर्तिरूपें पावन जाले | भूमंडळीं ||११||
ऐसा जो कां योगेश्वर | अंतरीं प्रत्ययाचा विचार |
उकलूं जाणे अंतर | प्राणीमात्रांचें ||१२||
ऐसी वृत्ति उदासीन | त्याहिवरी विशेष आत्मज्ञान |
दर्शनमात्रें समाधान | पावती लोक ||१३||
बहुतांसी करी उपाये | तो जनाच्या वाट्या न ये |
अखंड जयाचे हृदये | भगवद्रूप ||१४||
जनास दिसे हा दुश्चित | परी तो आहे सावचित |
अखंड जयाचें चित्त | परमेश्वरीं ||१५||
उपासनामूर्तिध्यानीं | अथवा आत्मानुसंधानीं |
नाहीं तरी श्रवणमननीं | निरंतर ||१६||
पूर्वजांच्या पुण्यकोटी | संग्रह असिल्या गांठीं |
तरीच ऐसीयाची भेटी | होये जनासी ||१७||
प्रचीतिविण जें ज्ञान | तो आवघाचि अनुमान |
तेथें कैंचें परत्रसाधन | प्राणीयासी ||१८||
याकारणें मुख्य प्रत्यये | प्रचीतिविण काम नये |
उपायासारिखा अपाये | शाहाणे जाणती ||१९||
वेडें संसार सांडून गेलें | तरी तें कष्टकष्टोंचि मेलें |
दोहिकडे अंतरलें | इहलोक परत्र ||२०||
रागें रागें निघोन गेला | तरी तो भांडभांडोंचि मेला |
बहुत लोक कष्टी केला | आपणहि कष्टी ||२१||
निघोन गेला परी अज्ञान | त्याचे संगती लागले जन |
गुरु शिष्य दोघे समान | अज्ञानरूपें ||२२||
आशावादी अनाचारी | निघोनि गेला देशांतरीं |
तरी तो अनाचारचि करी | जनामध्यें ||२३||
गृहीं पोटेविण कष्टती | कष्टी होऊन निघोन जाती |
त्यास ठाईं ठाईं मारिती | चोरी भरतां ||२४||
संसार मिथ्या ऐसा कळला | ज्ञान समजोन निघोन गेला |
तेणें जन पावन केला | आपणाऐसा ||२५||
येके संगतीनें तरती | येके संगतीनें बुडती |
याकारणें सत्संगती | बरी पाहावी ||२६||
जेथें नाहीं विवेकपरीक्षा | तेथें कैंची असेल दीक्षा |
घरोघरीं मागतां भिक्षा | कोठेंहि मिळेना ||२७||
जो दुसऱ्याचें अंतर जाणे | देश काळ प्रसंग जाणे |
तया पुरुषा काय उणें | भूमंडळीं ||२८||
नीच प्राणी गुरुत्व पावला | तेथें आचारचि बुडाला |
वेदशास्त्रब्राह्मणाला | कोण पुसे ||२९||
ब्रह्मज्ञानाचा विचारू | त्याचा ब्राह्मणासीच अधिकारू |
वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः | ऐसें वचन ||३०||
ब्राह्मण बुद्धिपासून चेवले | आचारापासून भ्रष्टले |
गुरुत्व सांडून जाले | शिष्य शिष्यांचे ||३१||
कित्येक दावलमलकास जाती | कित्येक पीरास भजती |
कित्येक तुरुक होती | आपले इछेनें ||३२||
ऐसा कलयुगींचा आचार | कोठें राहिला विचार |
पुढें पुढें वर्णसंकर | होणार आहे ||३३||
गुरुत्व आले नीचयाती | कांहींयेक वाढली महंती |
शूद्र आचार बुडविती | ब्राह्मणाचा ||३४||
हें ब्राह्मणास कळेना | त्याची वृत्तिच वळेना |
मिथ्या अभिमान गळेना | मूर्खपणाचा ||३५||
राज्य नेलें म्लेंचिं क्षेत्रीं | गुरुत्व नेलें कुपात्रीं |
आपण अरत्रीं ना परत्रीं | कांहींच नाहीं ||३६||
ब्राह्मणास ग्रामणीनें बुडविलें | विष्णूनें श्रीवत्स मिरविलें |
त्याच विष्णूनें श्रापिलें | फरशरामें ||३७||
आम्हीहि तेचि ब्राह्मण | दुःखें बोलिलें हें वचन |
वडिल गेले ग्रामणी करून | आम्हां भोवतें ||३८||
आतांचे ब्राह्मणीं काये केलें | अन्न मिळेना ऐसें जालें |
तुम्हा बहुतांचे प्रचितीस आलें | किंवा नाहीं ||३९||
बरें वडिलांस काये म्हणावें | ब्राह्मणाचें अदृष्ट जाणावें |
प्रसंगें बोलिलें स्वभावें | क्ष्मा केलें पाहिजे ||४०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
युगधर्म निरूपण समास सातवा ||७||१४. ७
समास आठवा : अखंड ध्यान निरूपण
||श्रीराम ||
बरें ऐसा प्रसंग जाला | जाला तो होऊन गेला |
आतां तरी ब्राह्मणीं आपणाला | शाहाणे करावें ||१||
देव पुजावा विमळहस्तीं | तेणें भाग्य पाविजे समस्तीं |
मूर्ख अभक्त वेस्तीं | दरिद्र भोगिजे ||२||
आधीं देवासवोळखावें | मग अनन्यभावें भजावें |
अखंड ध्यानचि धरावें | सर्वोत्तमाचें ||३||
सर्वांमधें जो उत्तम | तया नाव सर्वोत्तम |
आत्मानात्मविवेकवर्म | ठाईं पाडावें ||४||
जाणजाणों देह रक्षी | आत्मा द्रष्टा अंतरसाक्षी |
पदार्थमात्रास परीक्षी | जाणपणें ||५||
तो सकळ देहामधें वर्ततो | इंद्रियेंग्राम चेष्टवितो |
प्रचितीनें प्रत्यये येतो | प्राणीमात्रीं ||६||
प्राणीमात्रीं जगदांतरें | म्हणोनि राखावीं अंतरें |
दाता भोक्ता परस्परें | सकळ कांहीं ||७||
देव वर्ततो जगदांतरी | तोचि आपुलें अंतरीं |
त्रैलोकींचे प्राणीमात्रीं | बरें पाहा ||८||
मुळीं पाहाणार तो येकला | सकळां ठाईं विभागला |
देहप्रकृतीनें जाला | भिन्न भिन्न ||९||
भिन्न भासें देहाकारें | प्रस्तुता येकचि अंतरें |
बोलणें चालणें निर्धारें | त्यासीच घडे ||१०||
आपुले पारिखे सकळ लोक | पक्षी स्वापद पश्वादिक |
किडा मुंगी देहधारक | सकळ प्राणी ||११||
खेचर भूचर वनचर | नाना प्रकारें जळचर |
चत्वार खाणी विस्तार | किती म्हणोन सांगावा ||१२||
समस्त जाणीवेनें वर्तती | रोकडी पाहावी प्रचिती |
त्याची आपुली संगती | अखंड आहे ||१३||
जगदांतरें वोळला धणी | किती येकवटील प्राणी |
परी ते वोळायाची करणी | आपणापासीं ||१४||
हें आपणाकडेंच येतें | राजी राखिजे समस्तें |
देहासि बरें करावें तें | आत्मयास पावे ||१५||
दुर्जन प्राणी त्यांतील देव | त्याचा लाताड स्वभाव |
रागास आला जरी राव | तरी तंडों नये कीं ||१६||
प्रसंगीं सांडीच करणें | पुढें विवेकें विवरणें |
विवेकें सज्जनचि होणें | सकळ लोकीं ||१७||
आत्मत्वीं दिसतो भेद | हा अवघाचि देहसमंध |
येका जीवनें नाना स्वाद | औषधीभेदें ||१८||
गरळ आणि अमृत जालें | परी आपपण नाहीं गेलें |
साक्षत्वें आत्मयास पाहिलें | पाहिजे तैसें ||१९||
अंतरनिष्ठ जो पुरुष | तो अंतरनिष्ठेनें विशेष |
जगामधें जो जगदीश | तो तयास वोळखे ||२०||
नयनेंचि पाहावा नयेन | मनें शोधावें मन |
तैसाचि हा भगवान | सकळां घटीं ||२१||
तेणेंविण कार्यभाग आडे | सकळ कांहीं तेणेंचि घडे |
प्राणी विवेकें पवाडे | तेणेंचि योगें ||२२||
जागृतीस व्यापार घडतो | समंध तयासीच पडतो |
स्वप्नामधें घडे जो तो | येणेंचि न्यायें ||२३||
अखंड ध्यानाचें लक्षण | अखंड देवाचें स्मरण |
याचें कळतां विवरण | सहजचि घडे ||२४||
सहज सांडून सायास | हाचि कोणीयेक दोष |
आत्मा सांडून अनात्म्यास | ध्यानीं धरिती ||२५||
परी तें धरितांहि धरेना | ध्यानीं येती वेक्ति ना |
उगेंचि कष्टती मना | कासाविस करूनी ||२६||
मूर्तिध्यान करिता सायासें | तेथें येकाचें येकचि दिसे |
भासों नये तेंचि भासे | विलक्षण ||२७||
ध्यान देवाचें करावें | किंवा देवाल्याचें करावें |
हेंचि बरें विवरावें | आपले ठाईं ||२८||
देह देउळ आत्मा देव | कोठें धरूं पाहातां भाव |
देव वोळखोन जीव | तेथेंचि लावावा ||२९||
अंतरनिष्ठा ध्यान ऐसें | दंडकध्यान अनारिसें |
प्रत्ययेविण सकळ पिसें | अनुमानध्यान ||३०||
अनुमानें अनुमान वाढे | ध्यान धरितां सवेंचि मोडे |
उगेचि कष्टती बापुडे | स्थूळध्यानें ||३१||
देवास देहधारी कल्पिती | तेथें नाना विकल्प उठती |
भोगणें त्यागणें विपत्ति | देहयोगें ||३२||
ऐसें मनी आठवतें | विचारितां भलतेंचि होतें |
दिसों नये तें दिसतें | नाना स्वप्नीं ||३३||
दिसतें तें सांगतां न ये | बळें भावर्थ धरितां नये |
साधक कासाविस होये | अंतर्यामीं ||३४||
सांगोपांग घडे ध्यान | त्यास साक्ष आपुलें मन |
मनामध्यें विकल्पदर्शन | होऊंच नये ||३५||
फुटक मन येकवटिलें | तेणें तुटक ध्यान केलें |
तेथें कोण सार्थक जालें | पाहाना कां ||३६||
अखंड ध्यानें न घडे हित | तरी तो जाणावा पतित |
हाचि अर्थ सावचित | बरा पाहावा ||३७||
ध्यान धरितें तें कोण | ध्यानीं आठवतें तें कोण |
दोनीमधें अनन्य लक्षण | असिलें पाहिजे ||३८||
अनन्य सहजचि आहे | साधक शोधून न पाहे |
ज्ञानी तो विवरोन राहे | समाधानें ||३९||
ऐसीं हे प्रत्ययाची कामें | प्रत्ययेंविण बाधिजे भ्रमें |
लोकदंडकसंभ्रमें | चालती प्राणी ||४०||
दंडकध्यानाचें लक्षण | धरून बैसलें अवलक्षण |
प्रमाण आणि अप्रमाण | बाजारी नेणती ||४१||
मिथ्या समाचार उठविती | बाउग्याच बोंबा घालिती |
मनांस आणितां अंतीं | आवघेंचि मिथ्या ||४२||
कोणीयेक ध्यानस्त बैसला | कोणीयेक सिकवी त्याला |
मुकुट काढूनि माळ घाला | म्हणिजे बरें ||४३||
मनाचेथें काये दुष्काळ | जे आखुड कल्पिती माळ |
सांगते ऐकते केवळ | मूर्ख जाणावे ||४४||
प्रत्यक्ष कष्ट करावे न लगती | दोरे फुलें गुंफावी न लगती |
कल्पनेची माळ थिटी करिती | काये निमित्य ||४५||
बुधीविण प्राणी सकळ | ते ते अवघेचि बाष्कळ |
तया मुर्खासीं खळखळ | कोणें करावी ||४६||
जेणें जैसा परमार्थ केला | तैसाच पृथ्वीवरी दंडक चालिला |
साता पांचाचा बळावला | साभिमान ||४७||
प्रत्ययेंविण साभिमान | रोगी मारिले झांकून |
तेथें अवघाची अनुमान | ज्ञान कैंचें ||४८||
सर्व साभिमान सांडावा | प्रत्ययें विवेक मांडावा |
माया पूर्वपक्ष खंडावा | विवेकबळें ||४९||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अखंडध्याननिरूपणनाम समास आठवा ||८||१४. ८
समास नववा : शाश्वत निरूपण
||श्रीराम ||
पिंडाचें पाहिलें कौतुक | शोधिला आत्मानात्मा विवेक |
पिंड अनात्मा आत्मा येक | सकळ कर्ता ||१||
आत्म्यास अनन्यता बोलिली | ते विवेकें प्रत्यया आली |
आतां पाहिजे समजली | ब्रह्मांडरचना ||२||
आत्मानात्माविवेक पिंडी | सारासारविचार ब्रह्मांडी |
विवरविवरों हे गोडी | घेतली पाहिजे ||३||
पिंड कार्य ब्रह्मांड कारण | याचें करावें विवरण |
हेंचि पुढें निरूपण | बोलिलें असे ||४||
असार म्हणिजे नासिवंत | सार म्हणिजे तें शाश्वत |
जयास होईल कल्पांत | तें सार नव्हे ||५||
पृथ्वी जळापासून जाली | पुढें ते जळीं मिळाली |
जळाची उत्पत्ति वाढली | तेजापासुनी ||६||
ते जळ तेजें शोषिलें | महत्तेजें आटोन गेलें |
पुढें तेजचि उरलें | सावकाश ||७||
तेज जालें वायोपासुनी | वायो झडपी तयालागुनी |
तेज जाउनी दाटणी | वायोचीच जाली ||८||
वायो गगनापासुनी जाला | मागुतां तेथेंचि विराला |
ऐसा हा कल्पांत बोलिला | वेदांतशास्त्रीं ||९||
गुणमाया मूळमाया | परब्रह्मीं पावती लया |
तें परब्रह्म विवराया | विवेक पाहिजे ||१०||
सर्व उपाधींचा सेवट | तेथें नाहीं दृश्य खटपट |
निर्गुण ब्रह्म घनदाट | सकळां ठाईं ||११||
उदंड कल्पांत जाला | तरी नाश नाहीं तयाला |
मायात्यागें शाश्वताला | वोळखावें ||१२||
देव अंतरात्मा सगुण | सगुणें पाविजे निर्गुण |
निर्गुणज्ञानें विज्ञान | होत असे ||१३||
कल्पनेतीत जें निर्मळ | तेथें नाहीं मायामळ |
मिथ्यत्वें दृश्य सकळ | होत जातें ||१४||
जें होते आणि सवेंचि जातें | तें तें प्रत्ययास येतें |
जेथें होणें जाणें नाहीं तें | विवेकें वोळखावे ||१५||
येक ज्ञान येक अज्ञान | येक जाणावें विपरीत ज्ञान |
हे त्रिपुटी होये क्षीण | तेंचि विज्ञान ||१६||
वेदांत सिधांत धादांत | याची पाहावी प्रचित |
निर्विकार सदोदित | जेथें तेथें ||१७||
तें ज्ञानदृष्टीनें पाहावें | पाहोन अनन्य राहावें |
मुख्य आत्मनिवेदन जाणावें | याचें नांव ||१८||
दृश्यास दिसते दृश्य | मनास भासतो भास |
दृश्यभासातीत अविनाश | परब्रह्म तें ||१९||
पाहों जातां दुरीच्या दुरी | परब्रह्म सबाहेअंतरीं |
अंतचि नाहीं अनंत सरी | कोणास द्यावी ||२०||
चंचळ तें स्थिरावेना | निश्चळ तें कदापी चळेना |
आभाळ येतें जातें गगना | चळण नाहीं ||२१||
जें विकारें वाढें मोडे | तेथें शाश्वतता कैंची घडे |
कल्पांत होताच विघडे | सकळ कांहीं ||२२||
जे अंतरींच भ्रमलें | मायासंभ्रमें संभ्रमलें |
तयास हें कैसें उकले | आव्हाट चक्र ||२३||
भिडेनें वेव्हार निवडेना | भिडेनें सिधांत कळेना |
भिडेनें देव आकळेना | आंतर्यामीं ||२४||
वैद्याची प्रचित येईना | आणी भीडहि उलंघेना |
तरी मग रोगी वांचेना | ऐसें जाणावें ||२५||
जेणें राजा वोळखिला | तो राव म्हणेना भलत्याला |
जेणें देव वोळखिला | तो देवरूपी ||२६||
जयास माईकाची भीड | तें काये बोलेल द्वाड |
विचार पाहातां उघड | सकळ कांहीं ||२७||
भीड मायेऐलिकडे | परब्रह्म तें पैलीकडे |
पैलीकडे ऐलीकडे | सदोदित ||२८||
लटिक्याची भीड धरणें | भ्रमें भलतेंचि करणें |
ऐसी नव्हेंतीलक्षणें | विवेकाचीं ||२९||
खोटें आवघेंचि सांडावें | खरें प्रत्ययें वोळखावें |
मायात्यागें समजावें | परब्रह्म ||३०||
तें मायेचें जें लक्षण | तेंचि पुढें निरूपण |
सुचितपणें विवरण | केलें पाहिजे ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
शाश्वतनिरूपणनाम समास नववा ||९||१४. ९
समास दहावा : मायानिरूपण
||श्रीराम ||
माया दिसे परी नासे | वस्तु न दिसे परी न नासे |
माया सत्य वाटे परी मिथ्या असे | निरंतर ||१||
करंटा पडोनि उताणा | करी नानापरी कल्पना |
परी तें कांहींच घडेना | तैसी माया ||२||
द्रव्यदारेचें स्वप्नवैभव | नाना विळासें हावभाव |
क्षणीक वाटे परी भाव | तैसी माया ||३||
गगनीं गंधर्वनगरें | दिसताती नाना प्रकारें |
नाना रूपें नाना विकारें | तैसी माया ||४||
लक्षुमी रायेविनोदाची | बोलतां वाटे साची |
मिथ्या प्रचित तेथीची | तैसी माया ||५||
दसऱ्याचे सुवर्णाचे लाटे | लोक म्हणती परी ते कांटे |
परी सर्वत्र राहाटे | तैसी माया ||६||
मेल्याचा मोहोछाव करणें | सतीचें वैभव वाढविणें |
मसणीं जाउनी रुदन करणें | तैसी माया ||७||
राखेसी म्हणती लक्षुमी | दुसरी भरदोरी लक्षुमी |
तिसरी नाममात्र लक्षुमी | तैसी माया ||८||
मुळीं बाळविधवा नारी | तिचें नांव जन्मसावित्री |
कुबेर हिंडे घरोघरी | तैसी माया ||९||
दशअवतारांतील कृष्णा | उपजे जीर्ण वस्त्रांची तृष्णा |
नदी नामें पीयुष्णा | तैसी माया ||१०||
बहुरूपांतील रामदेवराव | ग्रामस्तांपुढे दाखवी हावभाव |
कां माहांराज म्हणोनि लाघव | तैसी माया ||११||
देव्हारां असे अन्नपूर्णा | आणी गृहीं अन्नचि मिळेना |
नामें सरस्वती सिकेना | शुभावळु ||१२||
सुण्यास व्याघ्र नाम ठेविलें | पुत्रास इंद्रनामें पाचारिलें |
कुरूप परी आळविलें | सुंदरा ऐसें ||१३||
मूर्ख नामें सकळकळा | राशभी नामें कोकिळा |
नातरी डोळसेचा डोळा | फुटला जैसा ||१४||
मातांगीचें नाम तुळसी | चर्मिकीचें नाम कासी |
बोलती अतिशूद्रिणीसी | भागीरथी ऐसें ||१५||
साउली आणी अंधकार | येक होतां तेथीचा विचार |
उगाचि दिसे भासमात्र | तैसी माया ||१६||
श्रवण बोटें संधी करतळ | रविरश्में दिसती इंगळ |
रम्य आरक्तकल्होळ | तैसी माया ||१७||
भगवें वस्त्र देखतां मनाला | वाटे अग्नचि लागला |
विवंचितां प्रत्ये आला | तैसी माया ||१८||
जळीं चरणकरांगुळें | आखुड लांबें जिरकोळें |
विपरीत काणें दिसती जळें | तैसी माया ||१९||
भोवंडीनें पृथ्वी कलथली | कामिणीनें पिवळी जाली |
सन्यपातस्थां अनुभवली | तैसी माया ||२०||
कोणीयेक पदार्थविकार | उगाचि दिसे भासमात्र |
अनन्याचा अन्य प्रकार | तैसी माया ||२१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
मायानिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१४. १०
||दशक चौदावा समाप्त ||
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 14
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
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% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
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% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
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% Reproofread by P. D. Kulkarni
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% Latest update : August 6, 2014
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