||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १३ ||
||दशक तेरावा : नामरूप ||१३||
समास पहिला : आत्मानात्मविवेक
||श्रीराम ||
आत्मानात्मविवेक करावा | करून बरा विवरावा |
विवरोन सदृढ धरावा | जीवामधें ||१||
आत्मा कोण अनात्मा कोण | त्याचें करावें विवरण |
तेंचि आतां निरूपण | सावध ऐका ||२||
च्यारि खाणी च्यारि वाणी | चौऱ्यासि लक्ष जीवप्राणी |
संख्या बोलिली पुराणीं | वर्तती आतां ||३||
नाना प्रकारीचीं शरीरें | सृष्टींत दिसती अपारें |
तयामधें निर्धारें | आत्मा कवणु ||४||
दृष्टीमधें पाहातो | श्रवणामध्यें ऐकतो |
रसनेमध्यें स्वाद घेतो | प्रत्यक्ष आतां ||५||
घ्राणामधें वास घेतो | सर्वांगी तो स्पर्शतो |
वाचेमधें बोलवितो | जाणोनि शब्द ||६||
सावधान आणि चंचळ | चहुंकडे चळवळ |
येकलाचि चालवी सकळ | इंद्रियेंद्वारा ||७||
पाये चालवी हात हालवी | भृकुटी पालवी डोळा घालवी |
संकेतखुणा बोलवी | तोचि आत्मा ||८||
धिटाई लाजवी खाजवी | खोंकवी वोकवी थुंकवी |
अन्न जेऊन उदक सेवी | तोचि आत्मा ||९||
मळमूत्रत्याग करी | शरीरमात्र सावरी |
प्रवृत्ति निवृत्ति विवरी | तोचि आत्मा ||१०||
ऐके देखे हुंगे चाखे | नाना प्रकारें वोळखे |
संतोष पावे आणी धाके | तोचि आत्मा ||११||
आनंद विनोद उदेग चिंता | काया छ्याया माया ममता |
जीवित्वें पावे नाना वेथा | तोचि आत्मा ||१२||
पदार्थाची आस्था धरी | जनीं वाईट बरें करी |
आपल्यां राखे पराव्यां मारी | तोचि आत्मा ||१३||
युध्ये होतां दोहीकडे | नाना शरीरीं वावडे |
परस्परें पाडी पडे | तोचि आत्मा ||१४||
तो येतो जातो देहीं वर्ततो | हासतो रडतो प्रस्तावतो |
समर्थ करंटा होतो | व्यापासारिखा ||१५||
होतो लंडी होतो बळकट | होतो विद्यावंत होतो धट |
न्यायेवंत होतो उत्धट | तोचि आत्मा ||१६||
धीर उदार आणि कृपेण | वेडा आणि विचक्षण |
उछक आणि सहिष्ण | तोचि आत्मा ||१७||
विद्या कुविद्या दोहिकडे | आनंदरूप वावडे |
जेथें तेथें सर्वांकडे | तोचि आत्मा ||१८||
निजे उठे बैसे चाले | धावे धावडी डोले तोले |
सोइरे धायेरे केले | तोचि आत्मा ||१९||
पोथी वाची अर्थ सांगे | ताळ धरी गाऊं लागे |
वाद वेवाद वाउगे | तोचि आत्मा ||२०||
आत्मा नस्तां देहांतरीं | मग तें प्रेत सचराचरीं |
देहसंगें आत्मा करीं | सर्व कांहीं ||२१||
येकेंविण येक काये | कामा नये वायां जाये |
म्हणोनि हा उपाये | देहयोगें ||२२||
देह अनित्य आत्मा नित्य | हाचि विवेक नित्यानित्य |
अवघें सूक्ष्माचें कृत्य | जाणती ज्ञानी ||२३||
पिंडी देहधर्ता जीव | ब्रह्मांडीं देहधर्ता शिव |
ईश्वरतनुचतुष्टये सर्व | ईश्वर धर्ता ||२४||
त्रिगुणापर्ता जो ईश्वर | अर्धनारीनटेश्वर |
सकळ सृष्टीचा विस्तार | तेथून जाला ||२५||
बरवें विचारून पाहीं | स्त्री पुरुष तेथें नाहीं |
चंचळरूप येतें कांहीं | प्रत्ययासी ||२६||
मुळींहून सेंवटवरी | ब्रह्मादि पिप्लीका देहधारी |
नित्यानित्य विवेक चतुरीं | जाणिजे ऐसा ||२७||
जड तितुकें अनित्य | आणि सूक्ष्म तितुकें नित्य |
याहिमध्यें नित्यानित्य | पुढें निरोपिलें ||२८||
स्थूळ सूक्ष्म वोलांडिलें | कारण माहाकाराण सांडिलें |
विराट हिरण्यगर्भ खंडिलें | विवेकानें ||२९||
अव्याकृत मूळप्रकृती | तेथें जाऊन बैसली वृत्ती |
तें वृत्ति व्हावया निवृत्ति | निरूपण ऐका ||३०||
आत्मानात्माविवेक बोलिला | चंचळात्मा प्रत्यया आला |
पुढिले समासीं निरोपिला | सारासार विचार ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मानात्माविवेकनाम समास पहिला ||१||१३. १
समास दुसरा : सारासारनिरूपण
||श्रीराम ||
ऐका सारासार विचार | उभारलें जगडंबर |
त्यांत कोण सार कोण असार | विवेकें वोळखावा ||१||
दिसेल तें नासेल | आणि येईल तें जाईल |
जें असतचि असेल | तेंचि सार ||२||
मागां आत्मानात्माविवेक बोलिला | अनात्मा वोळखोन सांडिला |
आत्मा जाणतां लागला | मुळींचा मूळतंतु ||३||
मुळीं जे राहिली वृत्ति | जाली पाहिले निवृत्ति |
सारासार विचार श्रोतीं | बरा पाहावा ||४||
नित्यानित्य विवेक केला | आत्मा नित्यसा निवडिला |
निवृतीरूपें हेत उरला | निराकारीं ||५||
हेत म्हणिजे तो चंचळ | निर्गुण म्हणिजे निश्चळ |
सारासारविचारें चंचळ | होऊन जातें ||६||
चळे म्हणोनि तें चंचळ | न चळे म्हणोनि निश्चळ |
निश्चळीं उडे चंचळ | निश्चयेसीं ||७||
ज्ञान आणि उपासना | दोनी येकचि पाहाना |
उपासनेकरितां जना | जगोद्धार ||८||
द्रष्टा साक्षी जाणता | ज्ञानधन चैतन्यसत्ता |
ज्ञान देवचि तत्वता | बरें पाहा ||९||
त्या ज्ञानाचें विज्ञान होतें | शोधून पाहा बहुत मतें |
चंचळ अवघें नासतें | येणें प्रकारें ||१०||
नासिवंत नासेल किं नासेना | ऐसा अनुमानचि आहे मना |
तरी तो पुरुष सहसा ज्ञाना | अधिकार नव्हे ||११||
नित्य निश्चये केला | संदेह उरतचि गेला |
तरी तो जाणावा वाहावला | माहा मृगजळीं ||१२||
क्षयेचि नाहीं जो अक्षई | व्यापकपणें सर्वां ठाईं |
तेथे हेत संदेह नाहीं | निर्विकारीं ||१३||
जें उदंड घनदाट | आद्य मध्य सेवट |
अचळ अढळ अतुट | जैसें तैसें ||१४||
पाहातां जैसें गगन | गगनाहून तें सघन |
जनचि नाहीं निरंजन | सदोदित ||१५||
चर्मचक्षु ज्ञानचक्षु | हा तों अवघाच पूर्वपक्षु |
निर्गुण ठाईंचा अलक्षु | लक्षवेना ||१६||
संगत्यागेंविण कांहीं | परब्रह्म होणार नाहीं |
संगत्याग करून पाहीं | मौन्यगर्भा ||१७||
निर्शतां अवघेंचि निर्शलें | चंचळ तितुकें निघोन गेलें |
निश्चळ परब्रह्म उरलें | तेंचि सार ||१८||
आठवा देह मूळ माया | निर्शोन गेल्या अष्टकाया |
साधु सांगती उपाया | कृपाळुपणें ||१९||
सोहं हंसा तत्वमसी | तें ब्रह्म तूं आहेसी |
विचार पाहातां स्थिति ऐसी | सहजचि होते || २०||
साधक असोन ब्रह्म उरलें | तेथें वृत्तिसुन्य जालें |
सारासार विचारिलें | येणें प्रकारें ||२१||
तें तापेना ना निवेना | उजळेना ना काळवंडेना |
डहुळेना ना निवळेना | परब्रह्म तें ||२२||
दिसेना ना भासेना | उपजेना ना नासेना |
तें येना ना जाईना | परब्रह्म तें ||२३||
तें भिजेना ना वाळेना | तें विझेना ना जळेना |
जयास कोणीच नेईना | परब्रह्म तें ||२४||
जें सन्मुखचि चहुंकडे | जेथें दृश्य भास उडे |
धन्य साधु तो पवाडे | निर्विकारीं ||२५||
निर्विकल्पीं कल्पनातीत | तोचि वोळखावा संत |
येर अवघेचि असंत | भ्रमरूप ||२६||
खोटें सांडून खरें घ्यावें | तरीच परीक्षवंत म्हणावें |
असार सांडून सार घ्यावें | परब्रह्म तें ||२७||
जाणतां जाणतां जाणीव जाते | आपली वृत्ति तद्रूप होते |
आत्मनिवेदन भक्ति ते | ऐसी आहे ||२८||
वाच्यांशें भक्ति मुक्ति बोलावी | लक्ष्यांशें तद्रूपता विवरावी |
विवरतां हेतु नुरावी | ते तद्रूपता ||२९||
सद्रूप चिद्रूप आणि तद्रूप | सस्वरूप म्हणिजे आपलें रूप |
आपलें रूप म्हणिजे अरूप | तत्वनिर्शनाउपरी ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सारासारनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||१३. २
समास तिसरा : उभारणीनिरूपण
||श्रीराम ||
ब्रह्म घन आणि पोकळ | आकाशाहून विशाळ |
निर्मळ आणि निश्चळ | निर्विकारी ||१||
ऐसेंचि असतां कित्येक काळ | तेथें आरंभला भूगोळ |
तया भूगोळांचे मूळ | सावध ऐका ||२||
परब्रह्म असतां निश्चळ | तेथें संकल्प उठिला चंचळ |
तयास बोलिजे केवळ | आदिनारायेण ||३||
मूळमाया जगदेश्वर | त्यासीच म्हणिजे शड्गुणैश्वर |
अष्टधा प्रकृतीचा विचार | तेथें पाहा ||४||
ऐलिकडे गुणक्षोभिणी | तेथें जन्म घेतला त्रिगुणीं |
मूळ वोंकाराची मांडणी | तेथून जाणावी ||५||
अकर उकार मकार | तिनी मिळोन वोंकार |
पुढें पंचभूतांचा विस्तार | विस्तारला ||६||
आकाश म्हणिजेतें अंतरात्म्यासी | तयापासून जन्म वायोसी |
वायोपासून तेजासी | जन्म जाला ||७||
वायोचा कातरा घसवटे | तेणें उष्णें वन्हि पेटे |
सूर्यबिंब तें प्रगटे | तये ठाईं ||८||
वारा वाजतो सीतळ | तेथें निर्माण जालें जळ |
तें जळ आळोन भूगोळ | निर्माण जाला ||९||
त्या भूगोळाचे पोटीं | अनंत बीजांचिया कोटी |
पृथ्वी पाण्या होता भेटी | अंकुर निघती ||१०||
पृथ्वी वल्ली नाना रंग | पत्रें पुष्पांचे तरंग |
नाना स्वाद ते मग | फळें जाली ||११||
पत्रें पुष्पें फळें मुळें | नाना वर्ण नाना रसाळें |
नाना धान्यें अन्नें केवळें | तेथून जालीं ||१२||
अन्नापासून जालें रेत | रेतापासून प्राणी निपजत |
ऐसी हे रोकडी प्रचित | उत्पत्तीची ||१३||
अंडज जारज श्वेतज उद्वीज | पृथ्वी पाणी सकळांचे बीज |
ऐसें हें नवल चोज | सृष्टिरचनेचें ||१४||
च्यारि खाणी च्यारि वाणी | चौऱ्यासि लक्ष जीवयोनी |
निर्माण जाले लोक तिनी | पिंडब्रह्मांड ||१५||
मुळीं अष्टधा प्रकृती | अवघे पाण्यापासून जन्मती |
पाणी नस्तां मरती | सकळ प्राणी ||१६||
नव्हे अनुमानाचें बोलणें | याचा बरा प्रत्ययें घेणें |
वेदशास्त्रें पुराणें | प्रत्ययें घ्यावीं ||१७||
जें आपल्या प्रत्यया येना | तें अनुमानिक घ्यावेना |
प्रत्ययाविण सकळ जना | वेवसाये नाहीं ||१८||
वेवसाये प्रवृत्ती निवृत्ती | दोहिंकडे पाहिजे प्रचिती |
प्रचितीविण अनुमानें असती | ते विवेकहीन ||१९||
ऐसा सृष्टिरचनेचा विचार | संकळित बोलिला प्रकार |
आतां विस्ताराचा संहार | तोहि ऐका ||२०||
मुळापासून सेवटवरी | अवघा आत्मारामचि करी |
करी आणि विवरी | येथायोग्य ||२१||
पुढेंसंव्हार निरोपिला | श्रोतीं पाहिजे ऐकिला |
इतुक्याउपरी जाला | समास पूर्ण ||२२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
उभारणिनिरूपणनाम समास तिसरा ||३||१३. ३
समास चौथा : प्रलयनिरूपण
||श्रीराम ||
पृथ्वीस होईल अंत | भूतांस मांडेल कल्पांत |
ऐसा समाचार साध्यंत | शास्त्रीं निरोपिला ||१||
शत वरुषें अनावृष्टि | तेणें जळेल हे सृष्टि |
पर्वत माती ऐसी पृष्ठी | भूमीची तरके ||२||
बारा कळीं सूर्यमंडळा | किर्णापासून निघती ज्वाळा |
शत वरुषें भूगोळा | दहन होये ||३||
सिंधुरवर्ण वसुंधरा | ज्वाळा लागती फणिवरा |
तो आहाळोन सरारां | विष वमी ||४||
त्या विषाच्या ज्वाळा निघती | तेणें पाताळें जळती |
माहापावकें भस्म होती | पाताळ लोक ||५||
तेथें माहाभूतें खवळती | प्रळयेवात सुटती |
प्रळयेपावक वाढती | चहूंकडे ||६||
तेथें अक्रा रुद्र खवळले | बारा सूर्य कडकडिले |
पावकमात्र येकवटले | प्रळयेकाळीं ||७||
वायो विजांचे तडाखे | तेणें पृथ्वी अवघी तरखे |
कठिणत्व अवघेंचि फांके | चहुंकडे ||८||
तेथें मेरूची कोण गणना | कोण सांभाळिल कोणा |
चंद्र सूर्य तारांगणा | मूस जाली ||९||
पृथ्वीनें विरी सांडिली | अवघी धगधगायेमान जाली |
ब्रह्मांडभटी जळोन गेली | येकसरां ||१०||
जळोनि विरी सांडिली | विशेष माहावृष्टी जाली |
तेणें पृथ्वी विराली | जळामधें ||११||
भाजला चुना जळीं विरे | तैसा पृथ्वीस धीर न धरे |
विरी सांडुनिया त्वरें | जळीं मिळाली ||१२||
शेष कूर्म वाऱ्हाव गेला | पृथ्वीचा आधार तुटला |
सत्व सांडून जळाला | मिळोन गेली ||१३||
तेथें प्रळयेमेघ उचलले | कठिण घोषें गर्जिनले |
अखंड विजा कडकडिले | ध्वनि घोष ||१४||
पर्वतप्राये पडती गारा | पर्वत उडती ऐसा वारा |
निबिड तया अंधकारा | उपमाचि नाहीं ||१५||
सिंधु नद्या येकवटल्या | नेणो नभींहून रिचवल्या |
संधिच नाहीं धारा मिळाल्या | अखंड पाणी ||१६||
तेथें मछ मूर्म सर्प पडती | पर्वतासारिखे दिसती |
गर्जना होतां मिसळती | जळांत जळें ||१७||
सप्त सिंधु आवर्णीं गेले | आवर्णवेडे मोकळे जाले |
जळरूप जालियां खवळले | प्रळयेपावक ||१८||
ब्रह्मांडाऐसा तप्त लोहो | शोषी जळाचा समूहो |
तैसे जळास जालें पाहो | अपूर्व मोठें ||१९||
तेणें आटोन गेलें पाणी | असंभाव्य माजला वन्ही |
तया वन्हीस केली झडपणी | प्रळयवातें ||२०||
दीपास पालव घातला | तैसा प्रळयेपावक विझाला |
पुढें वायो प्रबळला | असंभाव्य ||२१||
उदंड पोकळी थोडा वारा | तेणें वितळोन गेला सारा |
पंचभूतांचा पसारा | आटोपला ||२२||
महद्भूत मूळमाया | विस्मरणें वितुळे काया |
पदार्थमात्र राहावया | ठाव नाहीं ||२३||
दृश्य हलकालोळें नेलें | जड चंचळ वितुळलें |
याउपरी शाश्वत उरलें | परब्रह्म तें ||२४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
प्रळयेनाम समास चौथा ||४||१३. ४
समास पांचवा : कहाणीनिरूपण
||श्रीराम ||
कोणी येक दोघे जण | पृथ्वी फिरती उदासीन |
काळक्रमणें लागून | कथा आरंभिली ||१||
श्रोता पुसे वक्तयासी | काहाणी सांगा जी बरवीसी |
वक्ता म्हणे श्रोतयासी | सावध ऐकें ||२||
येकें स्त्रीपुरुषें होतीं | उभयेतांमधें बहु प्रीति |
येकरूपेंचि वर्तती | भिन्न नाहीं ||३||
ऐसा कांहीं येक काळ लोटला | तयांस येक पुत्र जाला |
कार्यकर्ता आणि भला | सर्वविषीं ||४||
पुढें त्यासहि जाला कुमर | तो पित्याहून आतुर |
कांहीं तदर्ध चतुर | व्यापकपणें ||५||
तेणें व्याप उदंड केला | बहुत कन्यापुत्र व्याला |
उदंड लोक संचिला | नाना प्रकारें ||६||
त्याचा पुत्र जेष्ठ | तो अज्ञान आणि रागिट |
अथवा चुकता नीट | संव्हार करी ||७||
पिता उगाच बैसला | लेकें बहुत व्याप केला |
सर्वज्ञ जाणता भला | जेष्ठ पुत्र ||८||
नातु त्याचें अर्ध जाणें | पणतु तो कांहींच नेणे |
चुकतां संव्हारणें | माहा क्रोधी ||९||
लेक सकळांचे पाळण करी | नातु मेळवी वरिचावरी |
पणतु चुकल्यां संव्हार करी | अकस्मात ||१०||
नेमस्तपणें वंश वाढला | विस्तार उदंडचि जाला |
ऐसा बहुत काळ गेला | आनंदरूप ||११||
विस्तार वाढला गणवेना | वडिलांस कोणीच मानिना |
परस्परें किंत मना | बहुत पडिला ||१२||
उदंड घरकळ्हो लागला | तेणें कित्येक संव्हार जाला |
विपट पडिलें थोर थोरांला | बेबंद जालें ||१३||
नेणपणें भरी भरले | मग ते अवघेच संव्हारले |
जैसे यादव निमाले | उन्मत्तपणें ||१४||
बाप लेक नातु पणतु | सकळांचा जाला निपातु |
कन्या पुत्र हेतु मातु | अणुमात्र नाहीं ||१५||
ऐसी काहाणी जो विवरला | तो जन्मापासून सुटला |
श्रोता वक्ता धन्य जाला | प्रचितीनें ||१६||
ऐसी काहाणी अपूर्व जे ते | उदंड वेळ होत जाते |
इतकें बोलोन गोसावी ते | निवांत जाले ||१७||
आमची काहाणी सरो | तुमचे अंतरीं भरो |
ऐसें बोलणें विवरो | कोणीतरी ||१८||
चुकत वांकत आठवलें | एतुकें संकळित बोलिलें |
न्यूनपूर्ण क्ष्मा केलें | पाहिजे श्रोतीं ||१९||
ऐसी काहाणी निरंतर | विवेकें ऐकती जे नर |
दास म्हणे जग्गोधार | तेचि करिती ||२०||
त्या जगोद्धाराचें लक्षण | केले पाहिजे विवरण |
सार निवडावें निरूपण | यास बोलिजे ||२१||
निरूपणीं प्रत्ययें विवरावें | नाना तत्वकोडें उकलावें |
समजतां समजतां व्हावें | निःसंदेह ||२२||
विवरोन पाहातां अष्ट देह | पुढें सहजचि निःसंदेह |
अखंड निरूपणें राहे | समाधान ||२३||
तत्वांचा गल्बला जेथें | निवांत कैचें असेल तेथें |
याकारणें गुल्लिपरतें | कोणीयेकें असावें ||२४||
ऐसा सूक्ष्म संवाद | केलाचि करावा विशद |
पुढिले समासीं लघुबोध | सावध ऐका ||२५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
कहाणीनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||१३. ५
समास सहावा : लघुबोध
||श्रीराम ||
जें बोलिजेती पंचतत्वें | त्यांची अभ्यासाया नावें |
तदुपरी स्वानुभवें | रूपें जाणावीं ||१||
यामधें शाश्वत कोण | आणी अशाश्वत कोण |
ऐसें करावें विवरण | प्रत्ययाचें ||२||
पंचभूतांचा विचार | नांवरूप सारासार |
तोचि बोलिला निर्धार | सावध ऐका ||३||
पृथ्वी आप तेज वायो आकाश | नावें बोलिलीं सावकास |
आतां रूपाचा विश्वास | श्रवणें धरावा ||४||
पृथ्वी म्हणिजे ते धरणी | आप म्हणिजे तें पाणी |
तेज म्हणिजे अग्नि तरणी | सतेजादिक ||५||
वायो म्हणिजे तो वारा | आकाश म्हणिजे पैस सारा |
आतां शाश्वत तें विचारा | आपले मनीं ||६||
येक शीत चांचपावें | म्हणिजे वर्म पडे ठावें |
तैसें थोड्या अनुभवें | बहुत जाणावे ||७||
पृथ्वी रचतें आणि खचतें | हें तों प्रत्ययास येतें |
नाना रचना होत जाते | सृष्टिमधें ||८||
म्हणौन रचतें तें खचतें | आप तें हि आटोन जाते |
तेज हि प्रगटोन विझतें | वारें हि राहे ||९||
अवकाश नाममात्र आहे | तें हि विचारिता न राहे |
एवं पंचभूतिक राहे | हें तों घडेना ||१०||
ऐसा पांचा भूतांचा हा विस्तार | नासिवंत हा निर्धार |
शाश्वत आत्मा निराकार | सत्य जाणावा ||११||
तो आत्मा कोणास कळेना | ज्ञानेंविण आकळेना |
म्हणोनियां संतजना | विचारावें ||१२||
विचारितां सज्जनांसी | ते म्हणती कीं अविनासी |
जन्म मृत्यु आत्मयासी | बोलोंच नये ||१३||
निराकारीं भासे आकर | आणी आकारीं भासे निराकार |
निराकार आणी आकार | विवेकें वोळखावा || १४||
निराकार जाणावा नित्य | आकार जाणावा अनित्य |
यास बोलिजे नित्यानित्य | विचारणा ||१५||
सारीं भासे असार | आणि असारीं भासे सार |
सारासार विचार | शोधून पाहावा ||१६||
पंचभूतिक तें माइक | परंतु भासे अनेक |
आणि आत्मा येक | व्यापून असे ||१७||
चहुं भूतांमधें गगन | तैसें गगनीं असे सघन |
नेहटून पाहातां अभिन्न | गगन आणि वस्तु ||१८||
उपाधीयोगेंचि आकाश | उपाधी नस्तां निराभास |
निराभास तें अविनाश | तैसें गगन ||१९||
आतां असो हे विवंचना | परंतु जें पाहातां नासेना |
तें गे तेंचि अनुमाना | विवेकें आणावें ||२०||
परमात्मा तो निराकार | जाणिजे हा विचार सार |
आणि आपण कोण हा विचार | पाहिला पाहिजे ||२१||
देहास अंत येतां | वायो जातो तत्वता |
हें लटिकें म्हणाल तरी आतां | स्वासोस्वास धारावा ||२२||
स्वास कोंडतां देह पडे | देह पडतां म्हणती मडें |
मड्यास कर्तुत्व न घडे | कदाकाळीं ||२३||
देहावेगळा वायो न करी | वायोवेगळा देह न करी |
विचार पाहातां कांहींच न करी | येकावेगळें येक ||२४||
उगेंच पाहातां मनुष्य दिसे | विचार घेतां कांहीं नसे |
अभेदभक्तीचें लक्षण ऐसें | वोळखावें ||२५||
कर्ता आपण ऐसे म्हणावें | तरी आपलें इछेसारिखें व्हावें |
इछेसारिखें न होतां मानावें | अवघेंच वाव ||२६||
म्हणोन कर्ता नव्हे किं आपण | तेथें भोक्ता कैंचा कोण |
हें विचाराचें लक्षण | अविचारें न घडे ||२७||
अविचार आणि विचार | जैसा प्रकाश अंधकार |
विकार आणि निर्विकार | येक नव्हे कीं ||२८||
जेथें नाहीं विवंचना | तेथें कांहींच चालेना |
खरें तेंचि अनुमाना | कदा न ये ||२९||
प्रत्ययास बोलिजे न्याये | अप्रत्यये तो अन्याये |
जात्यांधास परीक्षा काये | नाना रत्नाची ||३०||
म्हणोन ज्ञाता धन्य धन्य | जो निर्गुणेंसी अनन्य |
आत्मनिवेदनें मान्य | परम पुरुष ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
लघुबोधनाम समास सहावा ||६||१३. ६
समास सातवा : प्रत्यय विवरण
||श्रीराम ||
निर्मळ आभास निराभास | तयास दृष्टांत आकाश |
आकाश म्हणिजे अवकाश | पसरला पैस ||१||
आधीं पैस मग पदार्थ | प्रत्यये पाहातां यथार्थ |
प्रत्ययेंविण पाहातां वेर्थ | सकळ कांहीं ||२||
ब्रह्म म्हणिजे तें निश्चळ | आत्मा म्हणिजे तो चंचळ |
तयास दृष्टांत केवळ | वायो जाणावा ||३||
घटाकाश दृष्टांत ब्रह्माचा | घटबिंब दृष्टांत आत्म्याचा |
विवरतां अर्थ दोहींचा | भिन्न आहे ||४||
भूत म्हणिजे जितुकें जालें | जालें तितुके निमालें |
चंचळ आलें आणी गेलें | ऐसें जाणावें ||५||
अविद्या जड आत्मा चंचळ | जड कर्पूर आत्मा अनळ |
दोनी जळोन तत्काळ | विझोन जाती ||६||
ब्रह्म आकाश निश्चळ जाती | आत्मा वायो चंचळ जाती |
परीक्षवंत परीक्षिती | खरें किं खोटें ||७||
जड अनेक आत्मा येक | ऐसा आतानात्माविवेक |
जगा वर्तविता जगन्नायेक | तयास म्हणावें ||८||
जड अनात्मा चेतवी आत्मा | सर्वीं वर्ते सर्वात्मा |
अवघा मिळोन चंचळात्मा | निश्चळ नव्हे ||९||
निश्चळ तें परब्रह्म | जेथें नाहीं दृश्यभ्रम |
विमळ ब्रह्म तें निभ्रम | जैसें तैसें ||१०||
आधी आत्मानात्माविवेक थोर | मग सारासारविचार |
सारासारविचारें संव्हार | प्रकृतीचा ||११||
विचारें प्रकृती संव्हारे | दृश्य अस्तांच वोसरे |
अंतरात्मा निर्गुणीं संचरे | अध्यात्मश्रवणें ||१२||
चढता अर्थ लागला | तरी अंतरात्मा चढतचि गेला |
उतरल्या अर्थें उतरला | भूमंडळीं ||१३||
अर्थासारिखा आत्मा होतो | जिकडे नेला तिकडे जातो |
अनुमानें संदेहीं पडतो | कांहींयेक ||१४||
निसंदेह अर्थ चालिला | तरी आत्मा निसंदेहचि जाला |
अनुमानअर्थे जाला | अनुमानरूपी ||१५||
नवरसिक अर्थ चाले | श्रोते तद्रूपचि जाले |
चाटपणें होऊन गेले | चाटचि अवघे ||१६||
जैसा जैसा घडे संग | तैसे गुह्यराचे रंग |
याकारणें उत्तम मार्ग | पाहोन धरावा ||१७||
उत्तम अन्नें बोलत गेले | तरी मन अन्नाकारचि जालें |
लावण्य वनितेचें वर्णिलें | तरी मन तेथेंचि बैसे ||१८||
पदार्थवर्णन अवघें | किती म्हणोन सांगावें |
परंतु अंतरीं समजावें | होये किं नव्हे ||१९||
जें जें देखिलें आणी ऐकिलें | तें अंतरीं दृढ बैसलें |
हित अन्हित परीक्षिलें | परीक्षवंतीं ||२०||
याकारणें सर्व सांडावें | येक देवास धुंडावें |
तरीच वर्म पडे ठावें | कांहींयेक ||२१||
नाना सुखें देवें केलीं | लोकें तयास चुकलीं |
ऐसीं चुकतां च गेलीं | जन्मवरी ||२२||
सर्व सांडून शोधा मजला | ऐसें देवचि बोलिला |
लोकीं शब्द अमान्य केला | भगवंताचा ||२३||
म्हणोन नाना दुःखें भोगिती | सर्वकाळ कष्टी होती |
मनीं सुखचि इछिती | परी तें कैंचें ||२४||
उदंड सुख जया लागलें | वेडें तयास चुकलें |
सुख सुख म्हणताच मेलें | दुःख भोगितां ||२५||
शाहाण्यानें ऐसें न करावें | सुख होये तेंचि करावें |
देवासी धुंडित जावें | ब्रह्मांडापरतें ||२६||
मुख्य देवचि ठाईं पडिला | मग काये उणें तयाला |
लोक वेडे विवेकाला | सांडून जाती ||२७||
विवेकाचें फळ तें सुख | अविवेकाचें फळ तें दुःख |
यांत मानेल तें अवश्यक | केलें पाहिजे ||२८||
कर्तयासी वोळखावें | यास विवेक म्हणावें |
विवेक सांडितां व्हावें | परम दुःखी ||२९||
आतां असो हें बोलणें | कर्त्यास वोळखणें |
आपलें हित विचक्षणें | चुकों नये ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
प्रत्यय विवरणनाम समास सातवा ||७||१३. ७
समास आठवा : कर्तानिरूपण
||श्रीराम ||
श्रोता म्हणे वक्तयासी | कोण कर्ता निश्चयेंसीं |
सकळ सृष्टि ब्रह्मांडासी | कोणें केलें ||१||
तव बोलिला सभानायेक | जे बोलिके येकाहून येक |
या बोलण्याचे कौतुक | श्रोतीं सादर ऐकावें ||२||
येक म्हणती कर्ता देव | येक म्हणती कोण देव |
आपुलाला अभिप्राव | बोलते जाले ||३||
उत्तम मध्यम कनिष्ठ | भावर्थें बोलती पष्ट |
आपुलाली उपासना श्रेष्ठ | मानिती जनीं ||४||
कोणीयेक ऐसें म्हणती | कर्ता देव मंगळमूर्ती |
येक म्हणती सरस्वती | सर्व करी ||५||
येक म्हणती कर्ता भैरव | येक म्हणती खंडेराव |
येक म्हणती बीरेदेव | येक म्हणती भगवती ||६||
येक म्हणती नरहरी | येक म्हणती बनशंकरी |
येक म्हणती सर्व करी | नारायेणु ||७||
येक म्हणती श्रीराम कर्ता | येक म्हणती श्रीकृष्ण कर्ता |
येक म्हणती भगवंत कर्ता | केशवराज ||८||
येक म्हणती पांडुरंग | येक म्हणती श्रीरंग |
येक म्हणती झोटींग | सर्व करी ||९||
येक म्हणती मुंज्या कर्ता | येक म्हणती सूर्य कर्ता |
येक म्हणती अग्न कर्ता | सकळ कांहीं ||१०||
येक म्हणती लक्ष्मी करी | येक म्हणती मारुती करी |
येक म्हणती धरत्री करी | सर्व कांही ||११||
येक म्हणती तुकाई | येक म्हणती येमाई |
येक म्हणती सटवाई | सर्वकरी ||१२||
येक म्हणती भार्गव कर्ता | येक म्हणती वामन कर्ता |
येक म्हणती परमात्मा कर्ता | येकचि आहे ||१३||
येक म्हणती विरणा कर्ता | येक म्हणती बस्वंणा कर्ता |
येक म्हणती रेवंणा कर्ता | सर्व कांहीं ||१४||
येक म्हणती रवळया कर्ता | येक म्हणती स्वामी कार्तिक कर्ता |
येक म्हणती वेंकटेश कर्ता | सर्व कांहीं ||१५||
येक म्हणती गुरु कर्ता | येक म्हणती दत्त कर्ता |
येक म्हणती मुख्य कर्ता | वोढ्या जगन्नथ ||१६||
येक म्हणती ब्रह्मा कर्ता | येक म्हणती विष्णु कर्ता |
येक म्हणती महेश कर्ता | निश्चयेंसीं ||१७||
येक म्हणती प्रजन्य कर्ता | येक म्हणती वायो कर्ता |
येक म्हणती करून अकर्ता | निर्गुण देव ||१८||
येक म्हणती माया करी | येक म्हणती जीव करी |
येक म्हणती सर्व करी | प्रारब्धयोग ||१९||
येक म्हणती प्रेत्न करी | येक म्हणती स्वभाव करी |
येक म्हणती कोण करी | कोण जाणे ||२०||
ऐसा कर्त्याचा विचार | पुसतां भरला बाजार |
आतां कोणाचें उत्तर | खरें मानावें ||२१||
जेहिं जो देव मानिला | कर्ता म्हणती तयाला |
ऐसा लोकांचा गल्बला | वोसरेना ||२२||
आपुलाल्या साभिमानें | निश्चयेचि केला मनें |
याचा विचार पाहाणें | घडेचिना ||२३||
बहु लोकांचा बहु विचार | अवघा राहों द्या बाजार |
परंतु याचा विचार | ऐसा आहे ||२४||
श्रोतीं व्हावें सावधान | निश्चयें तोडावा अनुमान |
प्रत्यये मानावा प्रमाण | जाणते पुरुषीं ||२५||
जें जें कर्तयानें केलें | तें तें त्याउपरी जालें |
कर्त्यापूर्वीं आडळलें | न पाहिजे कीं ||२६||
केलें तें पंचभूतिक | आणि पंचभूतिक ब्रह्मादिक |
तरी भूतांशें पंचभूतिक | केलें तें घडेना ||२७||
पंचभूतांस वेगळें करावें | मग कर्त्यास वोळखावें |
पंचभूतिक तें स्वभावें | कर्त्यांस आलें ||२८||
पंचभूतांवेगळें निर्गुण | तेथें नाहीं कर्तेपण |
निर्विकारास विकार कोण | लाऊं शके ||२९||
निर्गुणास कर्तव्य न घडे | सगुण जाल्यांत सांपडे |
आतां कर्तव्यता कोणेकडे | बरें पाहा ||३०||
लटिक्याचा कर्ता कोण | हें पुसणेंचि अप्रमाण |
म्हणोनि हेंचि प्रमाण | जें स्वभावेंचि जालें ||३१||
येक सगुण येक निर्गुण | कोठें लाऊं कर्तेपण |
या अर्थाचें विवरण | बरें पाहा ||३२||
सगुणें सगुण केलें | तरी तें पूर्वींच आहे जालें |
निर्गुणास कर्तव्य लाविलें | नवचे कीं कदा ||३३||
येथें कर्ताचि दिसेना | प्रत्यये आणावा अनुमाना |
दृश्य सत्यत्वें असेना | म्हणोनियां ||३४||
केलें तें अवघेंच लटिकें | तरी कर्ता हें बोलणेंचि फिकें |
वक्ता म्हणे रे विवेकें | बरें पाहा ||३५||
बरें पाहाता प्रत्यये आला | तरी कां करावा गल्बला |
प्रचित आलियां आपणाला | अंतर्यामीं ||३६||
आतां असो हें बोलणें | विवेकी तोचि हें जाणे |
पूर्वपक्ष लागे उडवणें | येरवीं अनुर्वाच ||३७||
तंव श्रोता करी प्रस्न | देहीं सुखदुःखभोक्ता कोण |
पुढें हेंचि निरूपण | बोलिलें असे ||३८||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
कर्तानिरूपणनाम समास आठवा ||८||१३. ८
समास नववा : आत्माविवरण
||श्रीराम ||
आत्मयास शेरीरयोगें | उद्वेग चिंता करणें लागे |
शरीरयोगें आत्मा जगे | हें तों प्रगटचि आहे ||१||
देह अन्नचि खायेना | तरी आत्मा कदापि जगेना |
अत्म्याविण चेतना | देहास कैंची ||२||
हें येकावेगळें येक | करूं जातां निरार्थक |
उभयेयोगें कोणीयेक | कार्य चाले ||३||
देहाला नाहीं चेतना | अत्म्यास पदार्थ उचलेना |
स्वप्नभोजनें भरेना | पोट कांहीं ||४||
आत्मा स्वप्नअवस्थेंत जातो | परंतु देहामध्यें हि असतो |
निदसुरेपणें खाजवितो | चमत्कार पाहा ||५||
अन्नरसें वाढे शरीर | शरीरप्रमाणें विचार |
वृद्धपणीं तदनंतर | दोनी लाहानाळती ||६||
उत्तम द्रव्य देह खातो | देहयोगें आत्मा भुलतो |
विस्मरणें शुद्धि सांडितो | सकळ कांहीं ||७||
देहानें घेतलें वीष | आत्मा जाये सावकास |
वाढणें मोडणें आत्मयास | नेमस्त आहे ||८||
वाढणें मोडणें जाणें येणें | सुख दुःख देहाचेनि गुणें |
नाना प्रकारें भोगणें | आत्मयास घडे ||९||
वारुळ म्हणिजे पोकळ | मुंग्यांचे मार्गचि सकळ |
तैसेंचि हें केवळ | शरीर जाणावें ||१०||
शरीरीं नाडीच खेटा | नाडीमध्यें पोकळ वाटा |
लाहान थोर सगटा | दाटल्या नाडी ||११||
प्राणी अन्नोदक घेतो | त्याचा अन्नरस होतो |
त्यास वायो प्रवर्ततो | स्वासोस्वासें ||१२||
नाडीद्वारां धांवे जीवन | जीवनामधें खेळे पवन |
त्या पवनासरिसा जाण | आत्माहि विवरे ||१३||
तृषेनें शोकलें शरीर | आत्म्यास कळे हा विचार |
मग उठवून शरीर | चालवी उदकाकडे ||१४||
उदक मागे शब्द बोलवी | मार्ग पाहोन शरीर चालवी |
शरीर अवघें च हालवी | प्रसंगानुसार ||१५||
क्षुधा लागते ऐसें जाणतो | मग देहाला उठवितो |
आच्यावाच्या बोलवितो | ज्यासी त्यासी ||१६||
बायेकांत म्हणे जालें जालें | देह सोवळें करून आणिलें |
पायांत भरून चालविलें | तांतडीं तांतडीं ||१७||
त्यासी पात्रावरी बैसविलें | नेत्रीं भरोन पात्र पाहिलें |
हाताकरवीं आरंभिलें | आपोशन ||१८||
हाताकरवीं ग्रास उचलवी | मुखी जाऊन मुख पसरवी |
दातांकरवीं चाववी | नेटें नेटें ||१९||
आपण जिव्हेमधें खेळे | पाहातो परिमळसोहळे |
केंस काडी खडा कळे | तत्काळ थुंकी ||२०||
आळणी कळतां मीठ मागे | बायलेसि म्हणे आगे कांगे |
डोळे ताऊन पाहों लगे | रागें रागें ||२१||
गोडी लागतांच आनंदे | गोड नस्तां परम खेदे |
वांकडी गोष्टी अंतरी भेदे | आत्मयासी ||२२||
नाना अन्नाची गोडी | नाना रसें स्वाद निवडी |
तिखट लागतां मस्तक झाडी | आणी खोंकी ||२३||
मिरपुडी घातली फार | कायसें करितें खापर |
जिव्हेकरवीं कठिणोत्तर | बोलवी रागें ||२४||
आज्य उदंड जेविला | सवेंच तांब्या उचलिला |
घळघळां घेऊं लागला | सावकास ||२५||
देहीं सुखदुःखभोक्ता | तो येक आत्माचि पाहातां |
आत्म्याविण देह वृथा | मडें होये ||२६||
मनाच्या अनंत वृत्ति | जाणणें तेचि आत्मस्थिति |
त्रैलोकीं जितुक्या वेक्ती | तदांतरीं आत्मा ||२७||
जगामध्यें जगदात्मा | विश्वामधें विश्वात्मा |
सर्व चालवी सर्वात्मा | नाना रूपें ||२८||
हुंगे चाखे ऐके देखें | मृद कठिण वोळखे |
शीत उष्ण ठाउकें | तत्काळ होये ||२९||
सावधपणें लाघवी | बहुत करी उठाठेवी |
या धूर्ताच्या उगवी | धूर्तचि करी ||३०||
वायोसरिसा परिमळ येतो | परि तो परिमळ वितळोन जातो |
वायो धुळी घेउनी येतो | परी ते हि जाये ||३१||
शीत उष्ण वायोसरिसें | सुवासें अथवा कुवासें |
असिजे परी सावकासें | तगणें न घडे ||३२||
वायोसरिसे रोग येती | वायोसरिसी भूतें धांवती |
धूर आणी धुकटें येती | वायोसवें ||३३||
वायोसवें कांहींच जगेना | आत्म्यासवें वायो तगेना |
आत्म्याची चपळता जाणा | अधिक आहे ||३४||
वायो कठिणास आडतो | आत्मा कठिण भेदून जातो |
कठिण पाहों तरी तो | छेदेहिना ||३५||
वायो झडझडां वाजे | आत्मा कांहींच न वाजे |
मोनेंचि अंतरीं समजे | विवरोन पाहातां ||३६||
शरीरास बरें केलें | तें आत्मयास पावलें |
शरीरयोगें जालें | समाधान ||३७||
देहावेगळे उपाये नाना | करितां आत्मयास पावेना |
समाधान पावे वासना | देहाचेनि ||३८||
देहआत्मयाचें कौतुक | पाहों जातां हें अनेक |
देहावेगळी आडणुक | आत्मयास होये ||३९||
येक असतां उदंड घडे | वेगळें पाहातां कांहींच न घडे |
विवेकें त्रिलोकीं पवाडे | देहात्मयोगें ||४०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मविवरणनाम समास नववा ||९||१३. ९
समास दहावा : शिकवणनिरूपण
||श्रीराम ||
पालेमाळा सुमनमाळा | फळमाळा बीजमाळा |
पाषाणमाळा कवडेमाळा | सुत्रें चालती ||१||
स्फटिकमाळा मोहरेमाळा | काष्ठमाळा गंधमाळा |
धातुमाळा रत्नमाळा | जाळ्या वोलि चांदोवे ||२||
परी हें तंतूनें चालतें | तंतू नस्तां विष्कळीत होतें |
तैसें म्हणों आत्मयातें | तरी साहित्य न पडे ||३||
तंतूस मणी वोविला | तंतूमध्येंचि राहिला |
आत्मा सर्वांगीं व्यापला | पाहाना कां ||४||
आत्मा चपळ सहजगुणें | दोरी काये चळों जाणे |
म्हणोन दृष्टांत देणें | साहित्य न घडे ||५||
नाना वल्लींत जळांश | उसांमध्यें दाटला रस |
परी तो रस आणी बाकस | येक नव्हे ||६||
देही आत्मा देह अनात्मा | त्याहून पर तो परमात्मा |
निरंजनास उपमा | असेचिना ||७||
रायापासून रंकवरी | अवघ्या मनुष्यांचियां हारी |
सगट समान सरी | कैसी करावी ||८||
देव दानव मानव | नीच योनी हीन जीव |
पापी सुकृति अभिप्राव | उदंड आहे ||९||
येकांशें जग चाले | परी सामर्थ्य वेगळालें |
येकासंगे मुक्त केलें | येकासंगें रवरव ||१०||
साकर माती पृथ्वी होये | परी ते माती खातां न ये |
गरळ आप नव्हे काये | परी तें खोटें ||११||
पुण्यात्मा आणी पापात्मा | दोहिंकडे अंतरात्मा |
साधु भोंदु सीमा | सांडूंच नये ||१२||
अंतर येक तों खरें | परी सांगातें घेऊं न येती माहारे |
पंडित आणि चाटें पोरें | येक कैसीं ||१३||
मनुष्य आणि गधडे | राजहंस आणि कोंबडें |
राजे आणि माकडें | येक कैसीं ||१४||
भागीरथीचें जळ आप | मोरी संवदणी तेंहि आप |
कुश्चिळ उदक अल्प | सेववेना ||१५||
याकारणें आचारशुद्ध | त्याउपरी विचारशुद्ध |
वीतरागी आणि सुबुद्ध | ऐसा पाहिजे ||१६||
शूरांहून मानिलें लंडी | तरी युद्धप्रसंगीं नरकाडी |
श्रीमंत सांडून बराडी | सेविता कैसें ||१७||
येका उदकें सकळ जालें | परी पाहोन पाहिजे सेविलें |
सगट अवघेंच घेतलें | तरी तें मूर्खपण ||१८||
जीवनाचेंच जालें अन्न | अन्नाचें जालें वमन |
परी वमनाचें भोजन | करितां न ये ||१९||
तैसें निंद्य सोडूनद्यावें | वंद्य तें हृदईं धरावें |
सत्कीर्तीनें भरावें | भूमंडळ ||२०||
उत्तमांसि उत्तम माने | कनिष्ठांस तें न माने |
म्हणौन करंटे देवानें | करून ठेवले ||२१||
सांडा अवघें करंटपण | धरावें उत्तम लक्षण |
हरिकथा पुराण श्रवण | नीति न्याये ||२२||
वर्तयाचाविवेक | राजी राखणें सकळ लोक |
हळुहळु पुण्यलोक | करीत जावे ||२३||
मुलाचे चालीनें चालावें | मुलाच्या मनोगतें बोलावें |
तैसें जनास सिकवावें | हळुहळु ||२४||
मुख्य मनोगत राखणें | हेंचि चातुर्याचीं लक्षणें |
चतुर तो चतुरांग जाणें | इतर तीं वेडीं ||२५||
वेड्यास वेडें म्हणों नये | वर्म कदापि बोलों नये |
तरीच घडे दिग्विजये | निस्पृहासी ||२६||
उदंड स्थळीं उदंड प्रसंग | जाणोनि करणें येथासांग |
प्राणिमात्राचा अंतरंग | होऊन जावें ||२७||
मनोगत राखोन जातां | परस्परें होये अवस्ता |
मनोगत तोडितां वेवस्तां | बरी नाहीं ||२८||
याकारणें मनोगत | राखेल तो मोठा महंत |
मनोगत राखतां समस्त | वोढोन येती ||२९||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
शिकवणनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१३. १०
||दशक तेरावा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh13.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 13
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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