||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १२ ||
||दशक बारावा : विवेकवैराग्य ||१२||
समास पहिला : विमळ लक्षण
||श्रीराम ||
आधी प्रपंच करावा नेटका | मग घ्यावें परमार्थविवेका |
येथें आळस करूं नका | विवेकी हो ||१||
प्रपंच सांडून परमार्थ कराल | तेणें तुम्ही कष्टी व्हाल |
प्रपंच परमार्थ चालवाल | तरी तुम्ही विवेकी ||२||
प्रपंच सांडून परमार्थ केला | तरी अन्न मिळेना खायाला |
मग तया करंट्याला | परमार्थ कैंचा ||३||
परमार्थ सांडून प्रपंच करिसी | तरी तूं येमयातना भोगिसी |
अंतीं परम कष्टी होसी | येमयातना भोगितां ||४||
साहेबकामास नाहीं गेला | गृहींच सुरवडोन बैसला |
तरी साहेब कुटील तयाला | पाहाती लोक ||५||
तेव्हां महत्वचि गेलें | दुर्जनाचें हासें जालें |
दुःख उदंड भोगिलें | आपुल्या जीवें ||६||
तैसेचि होणार अंतीं | म्हणोन भजावें भगवंतीं |
परमार्थाची प्रचिती | रोकडी घ्यावी ||७||
संसारीं असतां मुक्त | तोचि जाणावा संयुक्त |
अखंड पाहे युक्तायुक्त | विचारणा हे ||८||
प्रपंची जो सावधान | तो परमार्थ करील जाण |
प्रपंचीं जो अप्रमाण | तो परमार्थीं खोटा ||९||
म्हणौन सावधपणें | प्रपंच परमार्थ चालवणें |
ऐसें न करिता भोगणें | नाना दुःखें ||१०||
पर्णाळि पाहोन उचले | जीवसृष्टि विवेकें चाले |
आणि पुरुष होऊन भ्रमले | यासी काय म्हणावें ||११||
म्हणौन असावी दीर्घ सूचना | अखंड करावी चाळणा |
पुढील होणार अनुमाना | आणून सोडावें ||१२||
सुखी असतो खबर्दार | दुःखी होतो बेखबर |
ऐसा हा लोकिक विचार | दिसतचि आहे ||१३||
म्हणौन सर्वसावधान | धन्य तयाचें महिमान |
जनीं राखे समाधान | तोचि येक ||१४||
चाळणेचा आळस केला | तरी अवचिता पडेल घाला |
ते वेळे सावरायाला | अवकाश कैंचा ||१५||
म्हणौन दीर्घसूचनेचे लोक | त्यांचा पाहावा विवेक |
लोकांकरिता लोक | शाहाणे होती ||१६||
परी ते शाहाणे वोळखावे | गुणवंताचे गुण घ्यावे |
अवगुण देखोन सांडावे | जनामधें ||१७||
मनुष्य पारखूं राहेना | आणि कोणाचें मन तोडीना |
मनुष्यमात्र अनुमाना | आणून पाहे ||१८||
दिसे सकळांस सारिखा | पाहातां विवेकी नेटका |
कामी निकामी लोकां | बरें पाहे ||१९||
जाणोन पाहिजेत सर्व | हेंचि तयाचें अपूर्व |
ज्याचे त्यापरी गौरव | राखों जाणे ||२०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
विमळलक्षणनाम समास पहिला ||१||१२. १
समास दुसरा : प्रत्ययनिरूपण
||श्रीराम ||
ऐका संसारासी आले हो | स्त्री पुरुष निस्पृह हो |
सुचितपणें पाहो | अर्थांतर ||१||
काये म्हणते वासना | काये कल्पिते कल्पना |
अंतरींचे तरंग नाना | प्रकारें उठती ||२||
बरें खावें बरें जेवावें | बरें ल्यावें बरें नेसावें |
मनासारिखें असावें | सकळ कांहीं ||३||
ऐसें आहे मनोगत | तरी तें कांहींच न होत |
बरें करितां अकस्मात | वाईट होतें ||४||
येक सुखी येक दुःखी | प्रत्यक्ष वर्ततें लोकीं |
कष्टी होऊनियां सेखीं | प्रारब्धावरी घालिती ||५||
अचुक येत्न करवेना | म्हणौन केलें तें सजेना |
आपला अवगुण जाणवेना | कांहीं केल्यां ||६||
जो आपला आपण नेणे | तो दुसऱ्याचें काये जाणे |
न्याये सांडितां दैन्यवाणे | होती लोक ||७||
लोकांचे मनोगत कळेना | लोकांसारिखें वर्तवेना |
मूर्खपणें लोकीं नाना | कळह उठती ||८||
मग ते कळो वाढती | परस्परें कष्टी होती |
प्रेत्न राहातां अंतीं | श्रमचि होयें ||९||
ऐसी नव्हे वर्तणुक | परिक्षावे नाना लोक |
समजलें पाहिजे नेमक | ज्याचें त्यापरी ||१०||
शब्द परीक्षा अंतरपरीक्षा | कांहीं येक कळे दक्षा |
मनोगत नतद्रक्षा | काय कळे ||११||
दुसऱ्यास शब्द ठेवणें | आपला कैपक्ष घेणें |
पाहों जातां लोकिक लक्षणें | बहुतेक ऐसीं ||१२||
लोकीं बरें म्हणायाकारणें | भल्यास लागतें सोसणें |
न सोसितां भंडवाणें | सहजचि होये ||१३||
आपणास जें मानेना | तेथें कदापि राहावेना |
उरी तोडून जावेना | कोणीयेकें ||१४||
बोलतो खरें चालतो खरें | त्यास मानिती लहानथोरें |
न्याये अन्याये परस्परें | सहजचि कळे ||१५||
लोकांस कळेना तंवरी | विवेकें क्ष्मा जो न करी |
तेणेंकरितां बराबरी | होत जाते ||१६||
जंवरी चंदन झिजेना | तंव तो सुगंध कळेना |
चंदन आणि वृक्ष नाना | सगट होती ||१७||
जंव उत्तम गुण न कळे | तों या जनास काये कळे |
उत्तम गुण देखतां निवळे | जगदांतर ||१८||
जगदांतर निवळत गेलें | जगदांतरी सख्य जालें |
मग जाणावें वोळले | विश्वजन ||१९||
जनींजनार्दन वोळला | तरी काये उणें तयाला |
राजी राखावें सकळांला | कठीण आहे ||२०||
पेरिलें तें उगवतें | उसिणें द्यावें घ्यावें लागतें |
वर्म काढितां भंगतें | परांतर ||२१||
लोकीकीं बरेपण केलें | तेणें सौख्य वाढलें |
उत्तरासारिखें आलें | प्रत्योत्तर ||२२||
हें आवघें आपणांपासीं | येथें बोल नाहीं जनासी |
सिकवावें आपल्या मनासी | क्षणक्षणा ||२३||
खळ दुर्जन भेटला | क्षमेचा धीर बुडाला |
तरी मोनेंचि स्थळत्याग केला | पाहिजे साधकें ||२४||
लोक नाना परीक्षा जाणती | अंतरपरीक्षा नेणती |
तेणें प्राणी करंटे होती | संदेह नाहीं ||२५||
आपणास आहे मरण | म्हणौन राखावें बरेंपण |
कठिण आहे लक्षण | विवेकाचें ||२६||
थोर लाहान समान | आपले पारिखे सकळ जन |
चढतें वाढतें सनेधान | करितां बरें ||२७||
बरें करितां बरें होतें | हें तों प्रत्ययास येतें |
आतां पुढें सांगावें तें | कोणास काये ||२८||
हरिकथानिरूपण | बरेपणें राजकारण |
प्रसंग पाहिल्याविण | सकळ खोटें ||२९||
विद्या उदंडचि सिकला | प्रसंगमान चुकतचि गेला |
तरी मग तये विद्येला | कोण पुसे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
प्रत्ययनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||१२. २
समास तिसरा : भक्तनिरूपण
||श्रीराम ||
पृथ्वीमधें बहुत लोक | तेंहि पाहावा विवेक |
इहलोक आणि परलोक | बरा पाहावा ||१||
इहलोक साधायाकारणें | जाणत्याची संगती धरणें |
परलोक साधायाकारणें | सद्गुरु पाहिजे ||२||
सद्गुरुसी काये पुसावें | हेंहि कळेना स्वभावें |
अनन्यभावें येकभावें | दोनी गोष्टी पुसाव्या ||३||
दोनी गोष्टी त्या कोण | देव कोण आपण कोण |
या गोष्टींचे विवरण | केलेंचि करावें ||४||
आधीं मुख्य देव तो कोण | मग आपण भक्त तो कोण |
पंचीकर्ण माहावाक्यविवरण | केलेंचि करावें ||५||
सकळ केलियाचें फळ | शाश्वत वोळखावें निश्चळ |
आपण कोण का केवळ | शोध घ्यावा ||६||
सारासार विचार घेतां | पदास नाहीं शाश्वतता |
आधी कारण भगवंता | वोळखिलें पाहिजे ||७||
निश्चळ चंचळ आणि जड | अवघा मायेचा पवाड |
यामधें वस्तु जाड | जाणार नाहीं ||८||
तें परब्रह्म धुंडावें | विवेकें त्रैलोक्य हिंडावें |
माईक विचार खंडावें | परीक्षवंतीं ||९||
खोटें सांडून खरें घ्यावें | परीक्षवंतीं परीक्षावें |
मायेचें अवघेचि जाणावें | रूप माईक ||१०||
पंचभूतिक हे माया | माईक जाये विलया |
पिंडब्रह्मांड अष्टकाया | नासिवंत ||११||
दिसेल तितुकें नासेल | उपजेल तितुकें मरेल |
रचेल तितुकें खचेल | रूप मायेचें ||१२||
वाढेल तितुकें मोडेल | येईल तितुलें जाईल |
भूतांस भूत खाईल | कल्पांतकाळीं ||१३||
देहधारक तितुके नासती | हे तों रोकडी प्रचिती |
मनुष्येंविण उत्पत्ति | रेत कैंचें ||१४||
अन्न नस्तां रेत कैंचें | वोषधी नस्तां अन्न कैंचें |
वोषधीस जिणें कैंचें | पृथ्वी नस्तां ||१५||
आप नस्तां पृथ्वी नाहीं | तेज नस्तां आप नाहीं |
वायो नस्तां तेज नाहीं | ऐसें जाणावें ||१६||
अंतरात्मा नस्तां वायो कैंचा | विकार नस्तां अंतरात्मा कैंचा |
निर्विकारीं विकार कैंचा | बरें पाहा ||१७||
पृथ्वी नाहीं आप नाहीं | तेज नाहीं वायो नाहीं |
अंतरात्मा विकार नाहीं | निर्विकारीं ||१८||
निर्विकार जें निर्गुण | तेचि शाश्वताची खूण |
अष्टधा प्रकृति संपूर्ण | नासिवंत ||१९||
नासिवंत समजोन पाहिलें | तों तें अस्तांचि नस्तें जालें |
सारासारें कळों आलें | समाधान ||२०||
विवेकें पाहिला विचार | मनास आलें सारासार |
येणेंकरितां विचार | सदृढ जाला ||२१||
शाश्वत देव तो निर्गुण | ऐसीं अंतरीं बाणली खूण |
देव कळला मी कोण | कळलें पाहिजे ||२२||
मी कोण पाहिजे कळलें | देहतत्व तितुकें शोधिलें |
मनोवृत्तीचा ठाईं आलें | मीतूंपण ||२३||
सकळ देहाचा शोध घेतां | मीपण दिसेना पाहातां |
मीतूंपण हें तत्वता | तत्वीं मावळलें ||२४||
दृश्य पदार्थचि वोसरे | तत्वें तत्व तेव्हां सरे |
मीतूंपण हें कैंचें उरे | तत्वता वस्तु ||२५||
पंचीकर्ण तत्वविवर्ण | माहावाक्यें वस्तु आपण |
निसंगपणें निवेदन | केले पाहिजे ||२६||
देवाभक्तांचे मूळ | शोधून पाहातां सकळ |
उपाधिवेगला केवळ | निरोपाधी आत्मा ||२७||
मीपण तें बुडालें | विवेकें वेगळेपण गेलें |
निवृत्तिपदास प्राप्त जालें | उन्मनीपद ||२८||
विज्ञानीं राहिलें ज्ञान | ध्येये राहिलें ध्यान |
सकळ कांहीं कार्याकारण | पाहोन सांडिलें ||२९||
जन्ममरणाचें चुकलें | पाप अवघेंचि बुडालें |
येमयातनेचें जालें | निसंतान ||३०||
निर्बंद अवघाचि तुटला | विचारें मोक्ष प्राप्त जाला |
जन्म सार्थकचि वाटला | सकळ कांहीं ||३१||
नाना किंत निवारले | धोके अवघेचि तुटले |
ज्ञानविवेकें पावन जालें | बहुत लोक ||३२||
पतितपावनाचे दास | तेहि पावन करिती जगास |
ऐसी हे प्रचित मनास | बहुतांच्या आली ||३३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
भक्तनिरूपणनाम समास तिसरा ||३||१२. ३
समास चौथा : विवेकवैराग्यनिरूपण
||श्रीराम ||
महद्भाग्य हातासी आलें | परी भोगूं नाहीं जाणितलें |
तैसें वैराग्य उत्पन्न जालें | परी विवेक नाहीं ||१||
आदळतें आफळतें | कष्टी होतें दुःखी होतें |
ऐकतें देखते येतें | वैराग्य तेणें ||२||
नाना प्रपंचाच्या वोढी | नाना संकटें सांकडीं |
संसार सांडुनी देशधडी | होये तेणें ||३||
तो चिंतेपासून सुटला | पराधेनतेपासुनि पळाला |
दुःखत्यागें मोकळा जाला | रोगी जैसा ||४||
परी तो होऊं नये मोकाट | नष्ट भ्रष्ट आणि चाट |
सीमाच नाहीं सैराट | गुरूं जैंसें ||५||
विवेकेंविण वैराग्ये केलें | तरी अविवेकें अनर्थीं घातलें |
अवघें वेर्थचि गेलें | दोहिंकडे ||६||
ना प्रपंच ना परमार्थ | अवघें जिणेंचि जालें वेर्थ |
अविवेकें अनर्थ | ऐसा केला ||७||
कां वेर्थचि ज्ञान बडबडिला | परी वैराग्ययोग नाहीं घडला |
जैसा कारागृहीं अडकला | पुरुषार्थ सांगे ||८||
वैराग्येंविण ज्ञान | तो वेर्थचि साभिमान |
लोभदंभें घोळसून | कासाविस केला ||९||
स्वान बांधलें तरी भुंके | तैसा स्वार्थमुळें थिंकें |
पराधीक देखों न सके | साभिमानें ||१०||
हें येकेंविण येक | तेणें उगाच वाढे शोक |
आतां वैराग्य आणि विवेक | योग ऐका ||११||
विवेकें अंतरीं सुटला | वैराग्यें प्रपंच तुटला |
अंतर्बाह्य मोकळा जाला | निःसंग योगी ||१२||
जैसें मुखें ज्ञान बोले | तैसीच सवें क्रिया चाले |
दीक्षा देखोनी चक्कित जाले | सुचिस्मंत ||१३||
आस्था नाहीं त्रिलोक्याची | स्थिती बाणली वैराग्याची |
येत्नविवेकधारणेची | सीमा नाहीं ||१४||
संगीत रसाळ हरिकीर्तन | तालबद्ध तानमान |
प्रेमळ आवडीचें भजन | अंतरापासुनी ||१५||
तत्काळचि सन्मार्ग लागे | ऐसा अंतरीं विवेक जागे |
वगत्रृत्व करितां न भंगे | साहित्य प्रत्ययाचें ||१६||
सन्मार्गें जगास मिळाला | म्हणिजे जगदीश वोळला |
प्रसंग पाहिजे कळला | कोणीयेक ||१७||
प्रखर वैराग्य उदासीन | प्रत्ययाचें ब्रह्मज्ञान |
स्नानसंध्या भगवद्भजन | पुण्यमार्ग ||१८||
विवेकवैराग्य तें ऐसें | नुस्तें वैराग्य हेंकाडपिसें |
शब्दज्ञान येळिलसें | आपणचि वाटे ||१९||
म्हणौन विवेक आणि वैराग्य | तेंचि जाणिजे महद्भाग्य |
रामदास म्हणे योग्य | साधु जाणती ||२०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
विवेकवैराग्यनिरूपणनाम समास चौथा ||४||१२. ४
समास पांचवा : आत्मनिवेदन
||श्रीराम ||
रेखेचें गुंडाळें केलें | मात्रुकाक्षरीं शब्द जाले |
शब्द मेळऊन चाले | श्लोक गद्य प्रबंद ||१||
वेदशास्त्रें पुराणें | नाना काव्यें निरूपणें |
ग्रंथभेद अनुवादणें | किती म्हणोनि ||२||
नाना ऋषी नाना मतें | पाहों जातां असंख्यातें |
भाषा लिपी जेथ तेथें | काये उणें ||३||
वर्ग ऋचा श्रुति स्मृति | अधे स्वर्ग स्तबक जाती |
प्रसंग मानें समास पोथी | बहुधा नामें ||४||
नाना पदें नाना श्लोक | नाना बीर नाना कडक |
नाना साख्या दोहडे अनेक | नामाभिधानें ||५||
डफगाणें माचिगाणें | दंडिगाणें कथागाणें |
नाना मानें नाना जसनें | नाना खेळ ||६||
ध्वनि घोष नाद रेखा | चहुं वाचामध्यें देखा |
वाचारूपेंहि ऐका | नाना भेद ||७||
उन्मेष परा ध्वनि पश्यंति | नाद मध्यमा शब्द चौथी |
वैखरीपासून उमटती | नाना शब्दरत्नें ||८||
अकार उकार मकार | अर्धमात्राचें अंतर |
औटमात्रा तदनंतर | बावन मात्रुका ||९||
नाना भेद रागज्ञान | नृत्यभेद तानमान |
अर्थभेद तत्वज्ञान | विवंचना ||१०||
तत्वांमध्यें मुख्य तत्व | तें जाणावें शुद्धसत्व |
अर्धमात्रा महत्तत्व | मूळमाया ||११||
नाना तत्वें लाहानथोरे | मिळोन अष्टहि शरीरें |
अष्टधा प्रकृतीचें वारें | निघोन जातें ||१२||
वारें नस्तां जें गगन | तैसें परब्रह्म सघन |
अष्ट देहाचें निर्शन | करून पाहावें ||१३||
ब्रह्मांडपिंडउभार | पिंडब्रह्मांडसंव्हार |
दोहिवेगळें सारासार | विमळब्रह्म ||१४||
पदार्थ जड आत्मा चंचळ | विमळब्रह्म तें निश्चळ |
विवरोन विरे तत्काळ | तद्रूप होये ||१५||
पदार्थ मनें काया वाचा | मी हा अवघाचि देवाचा |
जड आत्मनिवेदनाचा | विचार ऐसा ||१६||
चंचळकर्ता तो जगदीश | प्राणीमात्र तो त्याचा अंश |
त्याचा तोचि आपणास | ठाव नाहीं ||१७||
चंचळ आत्मनिवेदन | याचें सांगितलें लक्षण |
कर्ता देव तो आपण | कोठेंचि नाहीं ||१८||
चंचळ चळे स्वप्नाकार | निश्चळ देव तो निराकार |
आत्मनिवेदनाचा प्रकार | जाणिजे ऐसा ||१९||
ठावचि नाहीं चंचळाचा | तेथें आधीं आपण कैंचा |
निश्चळ आत्मनिवेदनाचा | विवेक ऐसा ||२०||
तिहिं प्रकारें आपण | नाहीं नाहीं दुजेपण |
आपण नस्तां मीपण | नाहींच कोठें ||२१||
पाहातां पाहातां अनुमानलें | कळतां कळतां कळों आलें |
पाहातां अवघेंचि निवांत जालें | बोलणें आतां ||२२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मनिवेदननाम समास पांचवा ||५||१२. ५
समास सहावा : सृष्टिक्रमनिरूपण
||श्रीराम ||
ब्रह्म निर्मळ निश्चळ | शाश्वत सार अमळ विमळ |
अवकाश घन पोकळ | गगनाऐसें ||१||
तयास करणें ना धरणें | तयास जन्म ना मरणें |
तेथें जाणणें ना नेणणें | सुन्यातीत ||२||
तें रचेना ना खचेना | तें होयेना ना जायेना |
मायातीत निरंजना | पारचि नाहीं ||३||
पुढें संकल्प उठिला | षडगुणेश्वर बोलिजे त्याला |
अर्धरारी नटेश्वराला | बोलिजेतें ||४||
सर्वेश्वर सर्वज्ञ | साक्षी द्रष्टा ज्ञानघन |
परेश परमात्मा जगजीवन | मूळपुरुष ||५||
ते मूळमाया बहुगुणी | अधोमुखें गुणक्षोभिणी |
गुणत्रये तिजपासूनि | निर्माण जाले ||६||
पुढें विष्णु जाला निर्माण | जाणतीकळा सत्त्वगुण |
जो करिताहे पाळण | त्रैलोक्याचें ||७||
पुढें जाणीवनेणीवमिश्रित | ब्रह्मा जाणावा नेमस्त |
त्याच्या गुणें उत्पत्ति होत | भुवनत्रैं ||८||
पुढें रुद्र तमोगुण | सकळ संव्हाराचें कारण |
सकळ कांहीं कर्तेपण | तेथेंचि आलें ||९||
तेथून पुढें पंचभूतें | पावलीं पष्ट दशेतें |
अष्टधा प्रकृतीचें स्वरूप तें | मुळींच आहे ||१०||
निश्चळीं जालें चळण | तेंचि वायोचें लक्षण |
पंचभूतें आणि त्रिगुण | सूक्ष्म अष्टधा ||११||
आकाश म्हणिजे अंतरात्मा | प्रत्ययें पाहावा महिमा |
त्या आकाशापासून जन्मा | वायो आला ||१२||
तया वायोच्या दोनी झुळुका | उष्ण सीतळ ऐका |
सीतळापासून तारा मयंका | जन्म जाला ||१३||
उष्णापासून रवि वन्ही | विद्युल्यता आदिकरूनि |
सीतळ उष्ण मिळोनि | तेज जाणावें ||१४||
तया तेजापासून जालें आप | आप आळोन पृथ्वीचें रूप |
पुढें औषधी अमूप | निर्माण जाल्यां ||१५||
औषधीपासून नाना रस | नाना बीज अन्नरस |
चौऱ्यासि लक्ष योनीच वास | भूमंडळीं ||१६||
ऐसी जाली सृष्टीरचना | विचार आणिला पाहिजे मना |
प्रत्ययेंविण अनुमाना | पात्र होईजे ||१७||
ऐसा जाला आकार | येणेंचि न्यायें संव्हार |
सारासारविचार | यास बोलिजे ||१८||
जें जें जेथून निर्माण जालें | तें तें तेथेंचि निमालें |
येणेंचि न्यायें संव्हारलें | माहाप्रळईं ||१९||
आद्य मध्य अवसान | जें शाश्वत निरंजन |
तेथें लावावें अनुसंधान | जाणते पुरुषीं ||२०||
होत जाते नाना रचना | परी ते कांहींच तगेना |
सारासार विचारणा | याकारणें ||२१||
द्रष्टा साक्षी अंतरात्मा | सर्वत्र बोलती महिमा |
परी हे सर्वसाक्षिणी अवस्ता मां | प्रत्ययें पाहावी ||२२||
मुळापासून सेवटवरी | अवघी मायेची भरोवरी |
नाना विद्या कळाकुंसरी | तयेमधें ||२३||
जो उपाधीचा सेवट पावेल | त्यास भ्रम ऐसें वाटेल |
जो उपाधीमध्यें आडकेल | त्यास काढिता कवण ||२४||
विवेक प्रत्ययाचीं कामें | कैसीं घडतील अनुमानभ्रमें |
सारासारविचाराचेन संभ्रमें | पाविजे ब्रह्म ||२५||
ब्रह्मांडींचे माहाकारण | ते मुळमाया जाण |
अपूर्णास म्हणती ब्रह्म पूर्ण | विवेकहीन ||२६||
सृष्टीमधें बहुजन | येक भोगिती नृपासन |
येक विष्ठा टाकिती जाण | प्रत्येक्ष आतां ||२७||
ऐसे उदंड लोक असती | आपणास थोर म्हणती |
परी ते विवेकी जाणती | सकळ कांहीं ||२८||
ऐसा आहे समाचार | कारण पाहिजे विचार |
बहुतांच्या बोलें हा संसार | नासूं नये ||२९||
पुस्तकज्ञानें निश्चये धरणें | तरी गुरु कासया करणें |
याकारणें विवरणें | आपुल्या प्रत्ययें ||३०||
जो बहुतांच्या बोलें लागला | तो नेमस्त जाणावा बुडाला |
येक साहेब नस्तां कोणाला | मुश्यारा मगावा ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सृष्टिक्रमनिरूपणनाम समास सहावा ||६||१२. ६
समास सातवा : विषयत्याग
||श्रीराम ||
न्यायें निष्ठुर बोलणें | बहुतांस वाटे कंटाळवाणें |
मळमळ करितां जेवणें | विहित नव्हे ||१||
बहुतीं विषय निंदिले | आणि तेचि सेवित गेले |
विषयत्यागें देह चाले | हें तों घडेना ||२||
बोलणें येक चालणें येक | त्याचें नांव हीन विवेक |
येणें करितां सकळ लोक | हांसों लागती ||३||
विषयत्यागेंविण तों कांहीं | परलोक तो प्राप्त नाहीं |
ऐसें बोलणें ठाईं ठाईं | बरें पाहा ||४||
प्रपंची खाती जेविती | परमार्थी काये उपवास करिती |
उभयता सारिखे दिसती | विषयाविषईं ||५||
देह चालतां विषय त्यागी | ऐसा कोण आहे जगीं |
याचा निर्वाह मजलागीं | देवें निरोपावा ||६||
विषय अवघा त्यागावा | तरीच परमार्थ करावा |
ऐसें पाहातां गोवा | दिसतो किं ||७||
ऐसा श्रोता अनुवादला | वक्ता उत्तर देता जाला |
सावध होऊन मन घाला | येतद्विषईं ||८||
वैराग्यें करावा त्याग | तरीच परमार्थयोग |
प्रपंचत्यागें सर्व सांग | परमार्थ घडे ||९||
मागें ज्ञानी होऊन गेले | तेंहिं बहुत कष्ट केले |
तरी मग विख्यात जाले | भूमंडळीं ||१०||
येर मत्सर करितांच गेलीं | अन्न अन्न म्हणतां मेलीं |
कित्येक भ्रष्टलीं | पोटासाठीं ||११||
वैराग्य मुळींहून नाहीं | ज्ञान प्रत्ययाचें नाहीं |
सुचि आचार तोहि नाहीं | भजन कैंचें ||१२||
ऐसे प्रकारीचे जन | आपणास म्हणती सज्जन |
पाहों जातां अनुमान | अवघाच दिसे ||१३||
जयास नाहीं अनुताप | हेंचि येक पूर्वपाप |
क्षणक्ष्णा विक्षेप | पराधीकपणें ||१४||
मज नाहीं तुज साजेना | हें तों अवघें ठाउकें आहे जना |
खात्यास नखातें देखों सकेना | ऐसें आहे ||१५||
भाग्यपुरुष थोर थोर | त्यास निंदिती डीवाळखोर |
सावास देखतां चोर | चर्फडी जैसा ||१६||
वैराग्यपरतें नाहीं भाग्य | वैराग्य नाहीं तें अभाग्य |
वैराग्य नस्तां योग्य | परमार्थ नव्हे ||१७||
प्रत्ययेज्ञानी वीतरागी | विवेकबळें सकळ त्यागी |
तो जाणीजे माहांयोगी | ईश्वरी पुरुष ||१८||
अष्टमा सिद्धीची उपेक्षा | करून घेतली योगदीक्षा |
घरोघरीं मागे भिक्षा | माहादेव ||१९||
ईश्वराची बराबरी | कैसा करील वेषधारी |
म्हणोनियां सगट सरी | होत नाहीं ||२०||
उदास आणि विवेक | त्यास शोधिती सकळ लोक |
जैसें लालची मूर्ख रंक | तें दैन्यवाणें ||२१||
जे विचारापासून चेवले | जे आचारापासून भ्रष्ठले |
विवेक करूं विसरले | विषयलोभीं ||२२||
भजन तरी आवडेना | पुरश्चर्ण कदापि घडेना |
भल्यांस त्यांस पडेना | येतन्निमित्य ||२३||
वैराग्यें करून भ्रष्टेना | ज्ञान भजन सांडिना |
वित्पन्न आणि वाद घेना | ऐसा थोडा ||२४||
कष्ट करितां सेत पिके | उंच वस्त तत्काळ विके |
जाणत्या लोकांच्या कौतुकें | उड्या पडती ||२५||
येर ते अवघेचि मंदले | दुराशेनें खोटे जाले |
कानकोंडें ज्ञान केलें | भ्रष्टाकारें ||२६||
सबळ विषय त्यागणें | शुद्ध कार्याकारण घेणें |
विषयत्यागाचीं लक्षणें | वोळखा ऐसीं ||२७||
सकळ कांहीं कर्ता देव | नाहीं प्रकृतीचा ठाव |
विवेकाचा अभिप्राव | विवेकी जाणती ||२८||
शूरत्वविषईं खडतर | त्यास मानिती लाहानथोर |
कामगार आणि आंगचोर | येक कैसा ||२९||
त्यागात्याग तार्किक जाणे | बोलाऐसें चालों जाणे |
पिंडब्रह्मांड सकळ जाणे | येथायोग्य ||३०||
ऐसा जो सर्वजाणता | उत्तमलक्षणी पुरुता |
तयाचेनि सार्थकता | सहजचि होये ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
विषयत्यागनिरूपणनाम समास सातवा ||७||१२. ७
समास आठवा : काळरूपनिरूपण
||श्रीराम ||
मूळमाया जगदेश्वर | पुढें अष्टधेचा विस्तार |
सृष्टिक्रमें आकार | आकारला ||१||
हें अवघेंच नस्तां निर्मळ | जैसें गगन अंतराळ |
निराकारीं काळवेळ | कांहींच नाहीं ||२||
उपाधीचा विस्तार जाला | तेथें काळ दिसोन आला |
येरवीं पाहातां काळाला | ठावचि नाही ||३||
येक चंचळ येक निश्चल | यावेगळा कोठें काळ |
चंचळ आहे तावत्काळ | काळ म्हणावें ||४||
आकाश म्हणिजे अवकाश | अवकाश बोलिजे विलंबास |
त्या विलंबरूप काळास | जाणोनि घ्यावें ||५||
सूर्याकरितां विलंब कळे | गणना सकळांची आकळे |
पळापासून निवळे | युगपरियंत ||६||
पळ घटिका प्रहर दिवस | अहोरात्र पक्ष मास |
शड्मास वरि युगास | ठाव जाला ||७||
क्रेत त्रेत द्वापार कळी | संख्या चालिली भूमंडळी |
देवांचीं आयुष्यें आगळीं | शास्त्रीं निरोपिलीं ||८||
ते देवत्रयाची खटपट | सूक्ष्मरूपें विलगट |
दंडक सांडितां चटपट | लोकांस होते ||९||
मिश्रित त्रिगुण निवडेना | तेणें आद्यंत सृष्टिरचना |
कोण थोर कोण साना | कैसा म्हणावा ||१०||
असो हीं जाणत्याचीं कामें | नेणता उगाच गुंते भ्रमें |
प्रत्यये जाणजाणों वर्में | ठाईं पाडावीं ||११||
उत्पन्नकाळ सृष्टिकाळ | स्थितिकाळ संव्हारकाळ |
आद्यंत अवघा काळ | विलंबरूपी ||१२||
जें जें जये प्रसंगीं जालें | तेथें काळाचें नांव पडिलें |
बरें नसेल अनुमानलें | तरी पुढें ऐका ||१३||
प्रजन्यकाळ शीतकाळ | उष्णकाळ संतोषकाळ |
सुखदुःखआनंदकाळ | प्रत्यये येतो ||१४||
प्रातःकाळ माध्यानकाळ | सायंकाळ वसंतकाळ |
पर्वकाळ कठिणकाळ | जाणिजे लोकीं ||१५||
जन्मकाळ बाळत्वकाळ | तारुण्यकाळ वृधाप्यकाळ |
अंतकाळ विषमकाळ | वेळरूपें ||१६||
सुकाळ आणि दुष्काळ | प्रदोषकाळ पुण्यकाळ |
सकळ वेळा मिळोन काळ | तयास म्हणावें ||१७||
असतें येक वाटतें येक | त्याचें नांव हीन विवेक |
नाना प्रवृत्तीचे लोक | प्रवृत्ति जाणती ||१८||
प्रवृत्ति चाले अधोमुखें | निवृत्ति धावे ऊर्धमुखें |
ऊर्धमुखें नाना सुखें | विवेकी जाणती ||१९||
ब्रह्मांडरचना जेथून जाली | तेथें विवेकी दृष्टि घाली |
विवरतां विवरतां लाधली | पूर्वापर स्थिति ||२०||
प्रपंची असोन परमार्थ पाहे | तोहि ये स्थितीतें लाहे |
प्रारब्धयोगें करून राहे | लोकांमधें ||२१||
सकळांचे येकचि मूळ | येक जाणते येक बाष्कळ |
विवेकें करून तत्काळ | परलोक साधावा ||२२||
तरीच जन्माचें सार्थक | भले पाहाती उभये लोक |
कारण मुळींचा विवेक | पाहिला पाहिजे ||२३||
विवेकहीन जे जन | ते जाणावे पशुसमान |
त्यांचे ऐकतां भाषण | परलोक कैंचा ||२४||
बरें आमचें काये गेलें | जें केलें तें फळास आलें |
पेरिलें तें उगवलें | भोगिती आतां ||२५||
पुढेंहि करी तो पावे | भक्तियोगें भगवंत फावे |
देव भक्त मिळतां दुणावें | समाधान ||२६||
कीर्ति करून नाहीं मेले | उगेच आले आणि गेले |
शाहाणे होऊन भुलले | काये सांगवें ||२७||
येथील येथें अवघेंचि राहातें | ऐसें प्रत्ययास हेतें |
कोण काये घेऊन जातें | सांगाना कां ||२८||
पदार्थीं असावें उदास | विवेक पाहावा सावकास |
येणेंकरितां जगदीश | अलभ्य लाभे ||२९||
जगदीशापरता लाभ नाहीं | कार्याकारण सर्व कांहीं |
संसार करित असतांहि | समाधान ||३०||
मागां होते जनकादिक | राज्य करितांहि अनेक |
तैसेचि आतां पुण्यश्लोक | कित्येक असती ||३१||
राजा असतां मृत्यु आला | लक्ष कोटी कबुल जाला |
तरि सोडिना तयाला | मृत्य कांहीं ||३२||
ऐसें हें पराधेन जिणें | यामधें दुखणें बाहाणें |
नाना उद्वेग चिंता करणें | किती म्हणोनि ||३३||
हाट भरला संसाराचा | नफा पाहावा देवाचा |
तरीच या कष्टाचा | परियाये होतो ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
काळरूपनिरूपणनाम समास आठवा ||८||१२. ८
समास नववा : यत्नशिकवण
||श्रीराम ||
दुर्बल नाचारी वोडगस्त | आळसी खादाड रिणगस्त |
मूर्खपणें अवघें वेस्त | कांहींच नाहीं ||१||
खाया नाहीं जेवाया नाहीं | लेया नाहीं नेसाया नाहीं |
अंथराया नाहीं पांघराया नाहीं | कोंपट नाहीं अभागी ||२||
सोयेरे नाहीं धायेरे नाहीं | इष्ट नाहीं मित्र नाहीं |
पाहातां कोठें वोळखी नाहीं | आश्रयेंविण परदेसी ||३||
तेणें कैसें करावें | काये जीवेंसीं धरावें |
वाचावें किं मरावें | कोण्या प्रकारें ||४||
ऐसें कोणीयेकें पुसिलें | कोणीयेकें उत्तर दिधलें |
श्रोतीं सावध ऐकिलें | पाहिजे आतां ||५||
लाहान थोर काम कांहीं | केल्यावेगळें होत नाहीं |
करंट्या सावध पाहीं | सदेव होसी ||६||
अंतरीं नाहीं सावधानता | येत्न ठाकेना पुरता |
सुखसंतोषाची वार्ता | तेथें कैंची ||७||
म्हणोन आळस सोडावा | येत्न साक्षेपें जोडावा |
दुश्चितपणाचा मोडावा | थारा बळें ||८||
प्रातःकाळीं उठत जावें | प्रातःस्मरामि करावें |
नित्य नेमें स्मरावें | पाठांतर ||९||
मागील उजळणी पुढें पाठ | नेम धरावा निकट |
बाष्कळपणाची वटवट | करूंच नये ||१०||
दिशेकडे दुरी जावें | सुचिस्मंत होऊन यावें |
येतां कांहीं तरी आणावें | रितें खोटें ||११||
धूतवस्त्रें घालावीं पिळून | करावें चरणक्षाळण |
देवदर्शन देवार्चन | येथासांग ||१२||
कांहीं फळाहार घ्यावा | पुढें वेवसाये करावा |
लोक आपला परावा | म्हणत जावा ||१३||
सुंदर अक्षर ल्याहावें | पष्ट नेमस्त वाचावें |
विवरविवरों जाणावें | अर्थांतर ||१४||
नेमस्त नेटकें पुसावें | विशद करून सांगावें |
प्रत्ययेंविण बोलावें | तेंचि पाप ||१५||
सावधानता असावी | नीतिमर्याद राखावी |
जनास माने ऐसी करावी | क्रियासिद्धि ||१६||
आलियाचें समाधान | हरिकथा निरूपण |
सर्वदा प्रसंग पाहोन | वर्तत जावें ||१७||
ताळ धाटी मुद्रा शुद्ध | अर्थ प्रमये अन्वये शुद्ध |
गद्यपद्यें दृष्टांत शुद्ध | अन्वयाचे ||१८||
गाणें वाजवणें नाचणें | हस्तन्यास दाखवणें |
सभारंजकें वचनें | आडकथा छंदबंद ||१९||
बहुतांचें समाधान राखावें | बहुतांस मानेल तें बोलावें |
विलग पडों नेदावें | कथेमधें ||२०||
लोकांस उदंड वाजी आणूं नये | लोकांचे उकलावें हृदये |
तरी मग स्वभावें होये | नामघोष ||२१||
भक्ति ज्ञान वैराग्य योग | नाना साधनाचे प्रयोग |
जेणें तुटे भवरोग | मननमात्रें ||२२||
जैसें बोलणें बोलावें | तैसेंचि चालणें चालावें |
मग महंतलीळा स्वभावें | आंगीं बाणे ||२३||
युक्तिवीण साजिरा योग | तो दुराशेचा रोग |
संगतीच्या लोकांचा भोग | उभा ठेला ||२४||
ऐसें न करावें सर्वथा | जनास पावऊं नये वेथा |
हृदईं चिंतावें समर्थ | रघुनाथजीसी ||२५||
उदासवृत्तिस मानवे जन | विशेष कथानिरूपण |
रामकथा ब्रह्मांड भेदून | पैलाड न्यावी ||२६||
सांग महंती संगीत गाणें | तेथें वैभवास काय उणें |
नभामाजी तारांगणें | तैसे लोक ||२७||
आकलबंद नाहीं जेथें | अवघेंचि विश्कळित तेथें |
येकें आकलेविण तें | काये आहे ||२८||
घालून अकलेचा पवाड | व्हावें ब्रह्मांडाहून जाड |
तेथें कैचें आणिले द्वाड | करंटपण ||२९||
येथें आशंका फिटली | बुद्धि येत्नीं प्रवेशली |
कांहींयेक आशा वाढली | अंतःकर्णी ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
यत्नशिकवणनाम समास नववा ||९||१२. ९
समास दहावा : उत्तमपुरुषनिरूपण
||श्रीराम ||
आपण येथेष्ट जेवणें | उरलें तें अन्न वाटणें |
परंतु वाया दवडणें | हा धर्म नव्हे ||१||
तैसें ज्ञानें तृप्त व्हावें | तेंचि ज्ञान जनास सांगावें |
तरतेन बुडों नेदावें | बुडतयासी ||२||
उत्तम गुण स्वयें घ्यावे | ते बहुतांस सांगावे |
वर्तल्याविण बोलावे | ते शब्द मिथ्या ||३||
स्नान संध्या देवार्चन | येकाग्र करावें जपध्यान |
हरिकथा निरूपण | केलें पाहिजे ||४||
शरीर परोपकारीं लावावें | बहुतांच्या कार्यास यावें |
उणें पडों नेदावें | कोणियेकाचें ||५||
आडले जाकसलें जाणावें | यथानशक्ति कामास यावें |
मृदवचनें बोलत जावें | कोणीयेकासी ||६||
दुसऱ्याच्या दुःखें दुःखवावें | परसंतोषें सुखी व्हावें |
प्राणीमात्रास मेळऊन घ्यावें | बऱ्या शब्दें ||७||
बहुतांचे अन्याये क्ष्मावे | बहुतांचे कार्यभाग करावे |
आपल्यापरीस व्हावे | पारखे जन ||८||
दुसऱ्याचें अंतरजाणावें | तदनुसारचि वर्तावें |
लोकांस परीक्षित जावें | नाना प्रकारें ||९||
नेमकचि बोलावें | तत्काळचि प्रतिवचन द्यावें |
कदापी रागास न यावें | क्ष्मारूपें ||१०||
आलस्य अवघाच दवडावा | येत्न उदंडचि करावा |
शब्दमत्सर न करावा | कोणीयेकाचा ||११||
उत्तम पदार्थ दुसऱ्यास द्यावा | शब्द निवडून बोलावा |
सावधपणें करीत जावा | संसार आपला ||१२||
मरणाचें स्मरण असावें | हरिभक्तीस सादर व्हावें |
मरोन कीर्तीस उरवावें | येणें प्रकारें ||१३||
नेमकपणें वर्तों लागला | तो बहुतांस कळों आला |
सर्व आर्जवी तयाला | काये उणें ||१४||
ऐसा उत्तम गुणी विशेष | तयास म्हणावें पुरुष |
जयाच्या भजनें जगदीश | तृप्त होये ||१५||
उदंड धिःकारून बोलती | तरी चळों नेदावी शांति |
दुर्जनास मिळोन जाती | धन्य ते साधु ||१६||
उत्तम गुणीं शृंघारला | ज्ञानवैराग्यें शोभला |
तोची येक जाणावा भला | भूमंडळीं ||१७||
स्वयें आपण कष्टावें | बहुतांचें सोसित जावें |
झिजोन कीर्तीस उरवावें | नाना प्रकारें ||१८||
कीर्ती पाहों जातां सुख नाहीं | सुख पाहातां कीर्ती नाहीं |
विचारेंविण कोठेंचि नाहीं | सामाधान ||१९||
परांतरास न लावावा ढका | कदापि पडों नेदावा चुका |
क्ष्मासीळ तयाच्या तुका | हानी नाहीं ||२०||
आपलें अथवा परावें | कार्य अवघेंच करावें |
प्रसंगीं कामास चुकवावें | हें विहित नव्हे ||२१||
बरें बोलतां सुख वाटतें | हें तों प्रत्यक्ष कळतें |
आत्मवत परावें तें | मानीत जावें || २२||
कठिण शब्दें वाईट वाटतें | तें तों प्रत्ययास येतें |
तरी मग वाईट बोलावें तें | काये निमित्य ||२३||
आपणास चिमोट घेतला | तेणें कासाविस जाला |
आपणावरून दुसऱ्याला | राखत जावें ||२४||
जे दुसऱ्यास दुःख करी | ते अपवित्र वैखरी |
आपणास घात करी | कोणियेके प्रसंगीं ||२५||
पेरिलें ते उगवतें | बोलण्यासारिखें उत्तर येतें |
तरी मग कर्कश बोलावें तें | काये निमित्य ||२६||
आपल्या पुरुषार्थवैभवें | बहुतांस सुखी करावें |
परंतु कष्टी करावें | हे राक्षेसी क्रिया ||२७||
दंभ दर्प अभिमान | क्रोध आणी कठिण वचन |
हें अज्ञानाचें लक्षण | भगवद्गीतेंत बोलिलें ||२८||
जो उत्तम गुणें शोभला | तोचि पुरुष माहा भला |
कित्येक लोक तयाला | शोधीत फिरती ||२९||
क्रियेविण शब्दज्ञान | तेंचि स्वानाचें वमन |
भले तेथें अवलोकन | कदापी न करिती ||३०||
मनापासून भक्ति करणें | उत्तम गुण अगत्य धरणें |
तया माहांपुरुषाकारणें | धुंडीत येती ||३१||
ऐसा जो माहानुभाव | तेणें करावा समुदाव |
भक्तियोगें देवाधिदेव | आपुला करावा ||३२||
आपण आवचितें मरोन जावें | मग भजन कोणें करावें |
याकारणें भजनास लावावे | बहुत लोक ||३३||
आमची प्रतिज्ञा ऐसी | कांहीं न मागावें शिष्यासी |
आपणामागें जगदीशासी | भजत जावें ||३४||
याकारणें समुदाव | जाला पाहिजे मोहोछाव |
हातोहातीं देवाधिदेव | वोळेसा करावा ||३५||
आता समुदायाकारणें | पाहिजेती दोनी लक्षणें |
श्रोतीं येथें सावधपणें | मन घालावें ||३६||
जेणें बहुतांस घडे भक्ति | ते हे रोकडी प्रबोधशक्ति |
बहुतांचें मनोगत हातीं | घेतलें पाहिजे ||३७||
मागा बोलिले उत्तम गुण | तयास मानिती प्रमाण |
प्रबोधशक्तीचें लक्षण | पुढें चाले ||३८||
बोलण्यासारिखें चालणें | स्वयें करून बोलणें |
तयाचीं वचनें प्रमाणें | मानिती जनीं ||३९||
जें जें जनास मानेना | तें तें जनहि मानीना |
आपण येकला जन नाना | सृष्टिमधें ||४०||
म्हणोन सांगाती असावे | मानत मानत शिकवावे |
हळु हळु सेवटा न्यावे | विवेकानें ||४१||
परंतु हे विवेकाचीं कामें | विवेकी करील नेमें |
इतर ते बापुडे भ्रमें | भांडोंच लागले ||४२||
बहुतांसीं भांडतां येकला | शैन्यावांचून पुरवला |
याकारणें बहुतांला | राजी राखावें ||४३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
उत्तमपुरुषनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१२. १०
||दशक बरावा समाप्त ||
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Reproofread by P. D. Kulkarni
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 12
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
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% Latest update : August 6, 2014
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