||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक ११ ||
||दशक अकरावा : भीमदशक ||११||
समास पहिला : सिद्धांतनिरूपण
||श्रीराम ||
आकाशापासून वायो होतो | हा तों प्रत्यये येतो |
वायोपासून अग्नी जो तो | सावध ऐका ||१||
वायोची कठीण घिसणी | तेथें निर्माण जाला वन्ही |
मंद वायो सीतळ पाणी | तेथुनि जालें ||२||
आपापासून जाली पृथ्वी | ते नाना बीजरूप जाणावी |
बीजापासून उत्पत्ति व्हावी | हा स्वभावचि आहे ||३||
मुळीं सृष्टी कल्पनेची | कल्पना आहे मुळींची |
जयेपासून देवत्रयाची | काया जाली ||४||
निश्चळामधें चंचळ | ते चि कल्पना केवळ |
अष्टधा प्रकृतीचें मूळ | कल्पनारूप ||५||
कल्पना तेचि अष्टधा प्रकृति | अष्टधा तेचि कल्पनामुर्ती |
मुळाग्रापासून उत्पत्ति | अष्टधा जाणावी ||६||
पांच भूतें तीन गुण | आठ जालीं दोनी मिळोन |
म्हणौनि अष्टधा प्रकृति जाण | बोलिजेते ||७||
मुळीं कल्पनारूप जाली | पुढें तेचि फापावली |
केवळ जडत्वास आली | सृष्टिरूपें ||८||
मुळीं जाली ते मूळमाया | त्रिगुण जाले ते गुणमाया |
जडत्व पावली ते अविद्या माया | सृष्टिरूपें ||९||
पुढें च्यारी खाणी जाल्या | च्यारी वाणी विस्तारल्या |
नाना योनी प्रगटल्या | नाना वेक्ती ||१०||
ऐसी जाली उभारणी | आतां ऐका संव्हारणी |
मागील दशकीं विशद करूनि | बोलिलें असे ||११||
परंतु आतां संकळित | बोलिजेल संव्हारसंकेत |
श्रोते वक्ते येथें चित्त | देऊन ऐका ||१२||
शत वरुषें अनावृष्टि | तेथें आटेल जीवसृष्टि |
ऐशा कल्पांताच्या गोष्टी | शास्त्रीं निरोपिल्या ||१३||
बाराकळीं तपे सूर्य | तेणें पृथ्वीची रक्षा होये |
मग ते रक्षा विरोन जाये | जळांतरीं ||१४||
तें जळ शोषी वैश्वानरु | वन्ही झडपी समीरु |
समीर वितुळे निराकारु | जैसें तैसें ||१५||
ऐसी सृष्टिसंहारणी जाली | मागां विस्तारें बोलिली |
मायानिरासें उरली | स्वरूपस्थिति ||१६||
तेथें जीवशिव पिंडब्रह्मांड | अटोन गेलें थोतांड |
मायेअविद्येचें बंड | वितळोन गेलें ||१७||
विवेकेंचि बोलिला क्षये | म्हणोनि विवेकप्रळये |
विवेकी जाणती काये | मूर्खास कळे ||१८||
सृष्टि शोधितां सकळ | येक चंचळ येक निश्चळ |
चंचळास कर्ता चंचळ | चंचळरूपी ||१९||
जो सकळ शरीरीं वर्ते | सकल कर्तुत्वास प्रवर्ते |
करून अकर्ता हा वर्ते | शब्द जया ||२०||
राव रंक ब्रह्मादिक | सकळांमधें वर्ते येक |
नाना शरीरें चाळक | इंद्रियेंद्वारें ||२१||
त्यास परमात्मा बोलती | सकळ कर्ता ऐसें जाणती |
परि तो नासेल प्रचिती | विवेकें पाहावी ||२२||
जो स्वानामधें गुरुगुरितो | जो सूकरांमधें कुरुकुरितो |
गाढवीं भरोन भुंकतो | आटाहास्यें ||२३||
लोक नाना देह देखती | विवेकी देहांत पाहाती |
पंडित समदर्शनें घेती | येणें प्रकारें ||२४||
||श्लोक ||
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः ||
देह पाहातां वेगळाले | परंतु अंतर येकचि जालें |
प्राणीमात्र देखिलें | येकांतरें ||२५||
अनेक प्राणी निर्माण होती | परी येकचि कळा वर्तती |
तये नांव जगज्जोती | जाणतीकळा ||२६||
श्रोत्रीं नाना शब्द जाणे | त्वचेमधें सीतोष्ण जाणे |
चक्षुमधें पाहों जाणे | नाना पदार्थ ||२७||
रसनेमधें रस जाणे | घ्राणामधें वास तो जाणे |
कर्मइंद्रियामधें जाणे | नाना विषयस्वाद ||२८||
सूक्ष्म रूपें स्थूळ रक्षी | नाना सुखदुःखें परीक्षी |
त्यास म्हणती अंतरसाक्षी | अंतरात्मा ||२९||
आत्मा अंतरात्मा विश्वात्मा | चैतन्य सर्वात्मा सुक्ष्मात्मा |
जीवात्मा शिवात्मा परमात्मा | द्रष्टा साक्षी सत्तारूप ||३०||
विकारामधील विकारी | अखंड नाना विकार करी |
तयास वस्तु म्हणती भिकारी | परम हीन ||३१||
सर्व येकचि दिसती | अवघा येकंकार करिती |
ते अवघी माईक स्थिती | चंचळामधें ||३२||
चंचळ माया ते माईक | निश्चळ परब्रह्म येक |
नित्यानित्यविवेक | याकारणे ||३३||
जातो जीव तो प्राण | नेणे जीव तो अज्ञान |
जन्मतो जीव तो जाण | वासनात्मक ||३४||
ऐक्य जीव तो ब्रह्मांश | जेथें पिंडब्रह्मांडनिरास |
येथें सांगितले विशेष | चत्वार जीव ||३५||
असो हें अवघें चंचळ | चंचळ जाईल सकळ |
निश्चळ तें निश्चळ | आदिअंतीं ||३६||
आद्य मध्य अवसान | जे वस्तु समसमान |
निर्विकारी निर्गुण निरंजन | निःसंग निःप्रपंच ||३७||
उपाधीनिरासें तत्वता | जीवशिवास ऐक्यता |
विवंचून पाहों जातां | उपाधि कैंची ||३८||
असो जाणणें तितुकें ज्ञान | परंतु होतें विज्ञान |
मनें वोळखावें उन्मन | कोण्या प्रकारें ||३९||
वृत्तिस न कळे निवृत्ति | गुणास कैंची निर्गुणप्राप्ती |
गुणातीत साधक संतीं | विवेकें केलें ||४०||
श्रवणापरीस मनन सार | मननें कळे सारासार |
निजध्यासें साक्षात्कार | निःसंग वस्तु ||४१||
निर्गुणीं जे अनन्यता | तेचि मुक्ति सायोज्यता |
लक्ष्यांश वाच्यांश आतां | पुरे जाला ||४२||
अलक्षीं राहिलें लक्ष | सिद्धांतीं कैंचा पूर्वपक्ष |
अप्रत्यक्षास कैंचें प्रत्यक्ष | असोन नाहीं ||४३||
असोन माईक उपाधी | तेचि सहजसमाधी |
श्रवणें बळावी बुद्धी | निश्चयाची ||४४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सिद्धांतनिरूपणनाम समास पहिला ||१||११. १
समास दुसरा : चत्वारदेवनिरूपण
||श्रीराम ||
येक निश्चळ येक चंचळ | चंचळीं गुंतलें सकळ |
निश्चळ तें निश्चळ | जैसें तैसें ||१||
पाहे निश्चळाचा विवेक | ऐसा लक्षांमधें येक |
निश्चळाऐसा निश्चयात्मक | निश्चळचि तो ||२||
या निश्चळाच्या गोष्टी सांगती | पुन्हां चंचळाकडे धांवती |
चंचळचक्रीं निघोन जाती | ऐसे थोडे ||३||
चंचळीं चंचळ जन्मलें | चंचळाचि मधें वाढलें |
अवघें चंचळचि बिंबलें | जन्मवरी ||४||
पृथ्वी अवघी चंचळाकडे | करणें तितुकें चंचळीं घडे |
चंचळ सांडून निश्चळीं पवाडे | ऐसा कैंचा ||५||
चंचळ कांहीं निश्चळेना | निश्चळ कदापी चळेना |
नित्यानित्यविवेकें जना | उमजे कांहीं ||६||
कांहीं उमजलें तरी नुमजे | कांहीं समजलें तरी न समजे |
कांहीं बुझे तरी निर्बुजे | किंचित मात्र ||७||
संदेह अनुमान आणी भ्रम | अवघा चंचळामधें श्रम |
निश्चळीं कदा नाहीं वर्म | समजलें पाहिजे ||८||
चंचळाकरी तितुकी माया | माईक जाये विलया |
लहान थोर म्हणावया | कार्य नाहीं ||९||
सगट माया विस्तारली | अष्टधा प्रकृति फांपावली |
चित्रविचित्र विकारली | नाना रूपें ||१०||
नाना उत्पत्ती नाना विकार | नाना प्राणी लाहान थोर |
नाना पदार्थ मकार | नाना रूपें ||११||
विकारवंत विकारलें | सूक्ष्म जडत्वा आलें |
अमर्याद दिसों लागलें | कांहींचाबाहीं ||१२||
मग नाना शरीरें निर्माण जालीं | नाना नामाभिधानें ठेविलीं |
भाषा परत्वें कळों आलीं | काहीं कांहीं ||१३||
मग नाना रीति नाना दंडक | आचार येकाहून येक |
वर्तों लागले सकळ लोक | लोकाचारें ||१४||
अष्टधा प्रकृतीचीं शरीरें | निर्माण जालीं लाहानथोरें |
पुढें आपुलाल्या प्रकारें | वर्तों लागती ||१५||
नाना मत्तें निर्माण जालीं | नाना पाषांडें वाढलीं |
नाना प्रकारीचीं उठिलीं | नाना बंडें ||१६||
जैसा प्रवाह पडिला | तैसाच लोक चालिला |
कोण वारील कोणाला | येक नाहीं ||१७||
पृथ्वीचा जाला गळांठा | येकाहून येक मोठा |
कोण खरा कोण खोटा | कोण जाणे ||१८||
आचार बहुकाचिंत पडिला | कित्येक पोटासाठीं बुडाला |
अवघा वरपंगचि जाला | साभिमानें ||१९||
देव जाले उदंड | देवांचें मांडलें भंड |
भूतादेवतांचें थोतांड | येकचि जालें ||२०||
मुख्य देव तो कळेना | काशास कांहींच मिळेना |
येकास येक वळेना | अनावर ||२१||
ऐसा नासला विचार | कोण पाहातो सारासार |
कैचा लहान कैंचा थोर | कळेचिना ||२२||
शास्त्रांचा बाजार भरला | देवांचा गल्बला जाला |
लोक कामनेच्या व्रताला | झोंबोन पडती ||२३||
ऐसें अवघें नासलें | सत्यासत्य हारपलें |
अवघें अनायेक जालें | चहूंकडे ||२४||
मतामतांचा गल्बला | कोणी पुसेना कोणाला |
जो जे मतीं सांपडला | तयास तेंचि थोर ||२५||
असत्याचा अभिमान | तेणें पाविजे पतन |
म्हणोनियां ज्ञाते जन | सत्य शोधिती ||२६||
लोक वर्तती सकळ | तें ज्ञात्यास करतळामळ |
आतां ऐका केवळ | विवेकी हो ||२७||
लोक कोण्या पंथें जाती | आणि कोण्या देवास भजती |
ऐसी हे रोकडी प्रचिती | सावध ऐका ||२८||
मृत्तिका धातु पाषाणादिक | ऐसिया प्रतिमा अनेक |
बहुतेक लोकांचा दंडक | प्रतिमादेवीं ||२९||
नाना देवांचे अवतार | चरित्रें ऐकती येक नर |
जप ध्यान निरंतर | करिती पूजा ||३०||
येक सकळांचा अंतरात्मा | विश्वीं वर्ते जो विश्वात्मा |
द्रष्टा साक्षी ज्ञानात्मा | मानिती येक ||३१||
येक ते निर्मळ निश्चळ | कदापी नव्हेति चंचळ |
अनन्यभावें केवळ | वस्तुच ते ||३२||
येक नाना प्रतिमा | दुसरा अवतारमहिमा |
तिसरा तो अंतरात्मा | चौथा तो निर्विकारी ||३३||
ऐसे हे चत्वार देव | सृष्टीमधील स्वभाव |
यावेगळा अंतर्भाव | कोठेंचि नाहीं ||३४||
अवघें येकचि मानिती | ते साक्ष देव जाणती |
परंतु अष्टधा प्रकृति | वोळखिली पाहिजे ||३५||
प्रकृतीमधील देव | तो प्रकृतीचा स्वभाव |
भावातीत माहानभाव | विवेकें जाणावा ||३६||
जो निर्मळास ध्याईल | तो निर्मळचि होईल |
जो जयास भजेल | तो तद्रूप जाणावा ||३७||
क्षीर नीर निवडिती | ते राजहंस बोलिजेती |
सारासार जाणती | ते माहानभाव ||३८||
अरे जो चंचळास ध्याईल | तो सहजचि चळेल |
जो निश्चळास भजेल | तो निश्चळचि ||३९||
प्रकृतीसारिखें चालावें | परी अंतरीं शाश्वत वोळखावें |
सत्य होऊन वर्तावें | लोकांऐसें ||४०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चत्वारदेवनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||११. २
समास तिसरा : शिकवण निरूपण
||श्रीराम ||
बहुतां जन्मांचा सेवट | नरदेह सांपडे अवचट |
येथें वर्तावें चोखट | नितिन्यायें ||१||
प्रपंच करावा नेमक | पाहावा परमार्थविवेक |
जेणेंकरितां उभय लोक | संतुष्ट होती ||२||
शत वरुषें वय नेमिलें | त्यांत बाळपण नेणतां गेलें |
तारुण्य अवघें वेचलें | विषयांकडे ||३||
वृद्धपणीं नाना रोग | भोगणें लागे कर्मभोग |
आतां भगवंताचा योग | कोणे वेळे ||४||
राजिक देविक उदेग चिंता | अन्न वस्त्र देहममता |
नाना प्रसंगें अवचिता | जन्म गेला ||५||
लोक मरमरों जाती | वडिलें गेलीं हे प्रचिती |
जाणत जाणत निश्चिती | काये मानिलें ||६||
अग्न गृहासी लागला | आणि सावकास निजेला |
तो कैसा म्हणावा भला | आत्महत्यारा ||७||
पुण्यमार्ग अवघा बुडाला | पापसंग्रह उदंड जाला |
येमयातनेचा झोला | कठीण आहे ||८||
तरी आतां ऐसें न करावें | बहुत विवेकें वर्तावें |
इहलोक परत्र साधावें | दोहीकडे ||९||
आळसाचें फळ रोकडें | जांभया देऊन निद्रा पडे |
सुख म्हणौन आवडे | आळसी लोकां ||१०||
साक्षेप करितां कष्टती | परंतु पुढें सुरवाडती |
खाती जेविती सुखी होती | येत्नेंकरूनी ||११||
आळस उदास नागवणा | आळस प्रेत्नबुडवणा |
आळसें करंटपणाच्या खुणा | प्रगट करिती ||१२||
म्हणौन आळस नसावा | तरीच पाविजे वैभवा |
अरत्रीं परत्रीं जीवा | समाधान ||१३||
प्रेत्न करावा तो कोण | हेंचि ऐका निरूपण |
सावध करून अंतःकरण | निमिष्य येक ||१४||
प्रातःकाळी उठावें | कांहीं पाठांतर करावे |
येथानशक्ती आठवावें | सर्वोत्तमासी ||१५||
मग दिशेकडे जावें | जे कोणासिच नव्हे ठावें |
शौच्य आचमन करावें | निर्मळ जळें ||१६||
मुखमार्जन प्रातःस्नान | संध्या तर्पण देवतार्चन |
पुढें वैश्यदेवउपासन | येथासांग ||१७||
कांहीं फळाहार घ्याव | मग संसारधंदा करावा |
सुशब्दें राजी राखावा | सकळ लोक ||१८||
ज्या ज्याचा जो व्यापार | तेथें असावे खबर्दार |
दुश्चितपणें तरी पोर | वेढा लावी ||१९||
चुके ठके विसरे सांडी | आठवण जालियां चर्फडी |
दुश्चित आळसाची रोकडी | प्रचित पाहा ||२०||
याकारणें सावधान | येकाग्र असावें मन |
तरी मग जेवितां भोजन | गोड वाटे || २१||
पुढें भोजन जालियांवरी | कांहीं वाची चर्चा करी |
येकांतीं जाऊन विवरी | नाना ग्रंथ ||२२||
तरीच प्राणी शाहाणा होतो | नाहींतरी मूर्खचि राहातो |
लोक खाती आपण पाहातो | दैन्यवाणा ||२३||
ऐक सदेवपणाचें लक्षण | रिकाम्या जाऊं नेदी येक क्षण |
प्रपंचवेवसायाचें ज्ञान | बरें पाहे ||२४||
कांहीं मेळवी मग जेवी | गुंतल्या लोकांस उगवी |
शरीर कारणीं लावी | कांहीं तरी ||२५||
कांहीं धर्मचर्चा पुराण | हरीकथा निरूपण |
वायां जऊं नेदी क्षण | दोहींकडे ||२६||
ऐसा जो सर्वसावध | त्यास कैंचा असेल खेद |
विवेकें तुटला समंध | देहबुद्धीचा ||२७||
आहे तितुकें देवाचें | ऐसें वर्तणें निश्चयाचें |
मूळ तुटें उद्वेगाचें | येणें रीतीं ||२८||
प्रपंचीं पाहिजे सुवर्ण | परमार्थीं पंचिकर्ण |
माहावाक्याचें विवरण | करितां सुटे ||२९||
कर्म उपासना आणि ज्ञान | येणें राहे समाधान |
परमार्थाचें जें साधन | तेंचि ऐकत जावें ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सिकवणनिरूपणनाम समास तिसरा ||३||११. ३
समास चौथा : सारविवेकनिरूपण
||श्रीराम ||
ब्रह्म म्हणिजे निराकार | गगनासारिखा विचार |
विकार नाहीं निर्विकार | तेंचि ब्रह्म ||१||
ब्रह्म म्हणिजे निश्चळ | अंतरात्मा तो चंचळ |
द्रष्टा साक्षी केवळ | बोलिजे तया ||२||
तो अंतरात्मा म्हणिजे देव | त्याचा चंचळ स्वभाव |
पाळिताहे सकळ जीव | अंतरी वसोनी ||३||
त्यावेगळे जड पदार्थ | तेणेंवीण देह वेर्थ |
तेणेंचि कळे परमार्थ | सकळ कांही ||४||
कर्ममार्ग उपासना मार्ग | ज्ञानमार्ग सिद्धांतमार्ग |
प्रवृत्तिमार्ग निवृत्तिमार्ग | देवची चालवी ||५||
चंचळेविण निश्चळ कळेना | चंचळ तरी स्थिरावेना |
ऐसें हे विचार नाना | बरे पाहा ||६||
चंचळनिश्चळाची संधी | तेथें भांबावते बुद्धि |
कर्ममार्गाचे जे विधी | ते मग ऐलिकडे ||७||
देव या सकळांचे मूळ | देवास मूळ ना डाळ |
परब्रह्म तें निश्चळ | निर्विकारी ||८||
निर्विकारी आणि विकारी | येक म्हणेल तो भिकारी |
विचाराची होते वारी | देखतदेखतां ||९||
सकळ परमार्थास मूळ | पंचीकर्ण माहावाक्य केवळ |
तेंची करावें प्रांजळ | पुनःपुन्हां ||१०||
पहिला देह स्थूळकाया | आठवा देह मूळमाया |
अष्ट देह निर्शलियां | विकार कैंचा ||११||
याकारणें विकारी | साचाऐसी बाजीगरी |
येक समजे येक खरी | मानिताहे ||१२||
उत्पत्ति स्थिती संव्हार | यावेगळा निर्विकार |
कळायासाठीं सारासार | विचार केला ||१३||
सार असार दोनी येक | तेथें कैंचा उरला विवेक |
परिक्षा नेणती रंक | पापी करंटे ||१४||
जो येकचि विस्तारला | तो अंतरात्मा बोलिला |
नाना विकारीं विकारला | निर्विकारी नव्हे ||१५||
ऐसें प्रगटचि आहे | आपुल्या प्रत्ययें पाहे |
काय राहे काय न राहे | हें कळेना ||१६||
जें अखंड होत जातें | जें सर्वदा संव्हारतें |
रोकडें प्रचितीस येतें | जनामधें ||१७||
येक रडे येक चर्फडी | येकांची धरी नरडी |
येकमेकां झोंबती बराडी | दुकळ्ळले जैसे ||१८||
नाहीं न्याये नाहिं नीति | ऐसे हे लोक वर्तती |
आणि अवघेंच सार म्हणती | विवेकहीन ||१९||
धोंडे सांडून सोनें घ्यावें | माती सांडून अन्न खावें |
आणि आवघेंचि सार म्हणावें | बाष्कळपणें ||२०||
म्हणौनि हा विचार करावा | सत्यमार्ग तोचि धरावा |
लाभ जाणोन घ्यावा | विवेकाचा ||२१||
सारगार येकचि सरी | तेथें परीक्षेस कैंची उरी |
याकारणें चतुरीं | परीक्षा करावी ||२२||
जेथें परीक्षेचा अभाव | तेथें दे घाव घे घाव |
सगट सारिखा स्वभाव | लौंदपणाचा ||२३||
घेव ये तेंचि घ्यावें | घेव न ये तें सोंडावें |
उंच नीच वोळखावें | त्या नाव ज्ञान ||२४||
संसारसांतेस आले | येक लाभें अमर जाले |
येक ते करंटे ठकले | मुदल गेलें ||२५||
जाणत्यानें ऐसें न करावें | सार तेंचि शोधून घ्यावें |
असार तें जाणोन त्यागावें | वमक जैसें ||२६||
तें वमक करी प्राशन | तरी तें स्वानाचें लक्षण |
तेथें सुचिस्मंत ब्राह्मण | काय करी ||२७||
जेहिं जैसें संचित केलें | तयास तैसेंचि घडलें |
जें अभ्यासीं पडोन जडलें | तें तों सुटेना ||२८||
येक दिव्यान्नें भक्षिती | येक विष्ठा सावडिती |
आपुल्या वडिलांचा घेती | साभिमान ||२९||
असो विवेकेविण | बोलणें तितुका सीण |
कोणीयेकें श्रवण मनन | केलेंचि करावें ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सारविवेकनिरूपणनाम समास चौथा ||४||११. ४
समास पांचवा : राजकारण निरूपण
||श्रीराम ||
कर्म केलेंचि करावें | ध्यान धरिलेंचि धरावें |
विवरलेंचि विवरावें | पुन्हा निरूपण ||१||
तैसें आम्हांस घडलें | बोलिलेंचि बोलणें पडिलें |
कां जें बिघडलेंचि घडलें | पाहिजे समाधान ||२||
अनन्य राहे समुदाव | इतर जनास उपजे भाव |
ऐसा आहे अभिप्राव | उपायाचा ||३||
मुख्य हरिकथा निरूपण | दुसरें तें राजकरण |
तिसरें तें सावधपण | सर्वविषईं ||४||
चौथा अत्यंत साक्षप | फेडावे नाना आक्षप |
अन्याये थोर अथवा अल्प | क्ष्मा करीत जावे ||५||
जाणावें पराचें अंतर | उदासीनता निरंतर |
नीतिन्यायासि अंतर | पडोंच नेदावें ||६||
संकेतें लोक वेधावा | येकूनयेक बोधावा |
प्रपंचहि सावरावा | येथानशक्त्या ||७||
प्रपंचसमयो वोळखावा | धीर बहुत असावा |
संमंध पडों नेदावा | अति परी तयाचा ||८||
उपाधीसी विस्तारावें | उपाधींत न संपडावें |
नीचत्व पहिलेंच घ्यावें | आणि मूर्खपण ||९||
दोष देखोन झांकावे | अवगुण अखंड न बोलावे |
दुर्जन सांपडोन सोडावे | परोपकार करूनी ||१०||
तऱ्हे भरोंच नये | सुचावे नाना उपाये |
नव्हे तेंचि करावें कायें | दीर्घ प्रेत्नें ||११||
फड नासोंचि नेदावा | पडिला प्रसंग सांवरावा |
अतिवाद न करावा | कोणीयेकासी ||१२||
दुसऱ्याचें अभिष्ट जाणावें | बहुतांचें बहुत सोसावें |
न सोसे तरी जावें | दिगांतराप्रती ||१३||
दुखः दुसऱ्याचें जाणावें | ऐकोन तरी वांटून घ्यावें |
बरें वाईट सोसावें | समुदायाचें ||१४||
अपार असावें पाठांतर | सन्निधचि असावा विचार |
सदा सर्वदा तत्पर | परोपकारासी ||१५||
शांती करून करवावी | तऱ्हे सांडून सांडवावी |
क्रिया करून करवावी | बहुतांकरवीं ||१६||
करणें असेल अपाये | तरी बोलोन दाखऊं नये |
परस्परेंचि प्रत्यये | प्रचितीस आणावा ||१७||
जो बहुतांचे सोसीन | त्यास बहुतेक लोक मिळेना |
बहुत सोसितां उरेना | महत्व आपुलें ||१८||
राजकारण बहुत करावें | परंतु कळोंच नेदावें |
परपीडेवरी नसावें | अंतःकरण ||१९||
लोक पारखून सांडावे | राजकारणें अभिमान झाडावे |
पुन्हा मेळऊन घ्यावें | दुरील दोरे ||२०||
हिरवटासी दुरी धरावें | कचरटासी न बोलावें |
समंध पडता सोडून जावें | येकीकडे ||२१||
ऐसें असो राजकारण | सांगतां तें असाधारण |
सुचित अस्तां अंतःकरण | राजकारण जाणे ||२२||
वृक्षीं रूढासी उचलावें | युद्धकर्त्यास ढकलून द्यावें |
कारबाराचें सांगावें | आंग कैसें ||२३||
पाहातां तरी सांपडेना | कीर्ति करूं तरी राहेना |
आलें वैभव अभिळासीना | कांहीं केल्यां ||२४||
येकांची पाठी राखणें | येकांस देखो न सकणें |
ऐसीं नव्हेत कीं लक्षणें | चातुर्याचीं ||२५||
न्याय बोलतांहि मानेना | हित तेंचि न ये मना |
येथें कांहींच चालेना | त्यागेंवीण ||२६||
श्रोतीं कळोन आक्षेपिलें | म्हणौन बोलिलेंचि बोलिलें |
न्यूनपूर्ण क्ष्मा केलें | पाहिजे श्रोतीं ||२७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
राजकारणनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||११. ५
समास सहावा : महंत लक्षण
||श्रीराम ||
शुद्ध नेटकें ल्याहावें | लेहोन शुद्ध शोधावें |
शोधून शुद्ध वाचावें | चुकों नये ||१||
विश्कळित मात्रुका नेमस्त कराव्या | धाट्या जाणोन सदृढ धराव्या |
रंग राखोन भराव्या | नाना कथा ||२||
जाणायाचें सांगतां न ये | सांगायाचें नेमस्त न ये |
समजल्याविण कांहींच न ये | कोणीयेक ||३||
हरिकथा निरूपण | नेमस्तपणें राजकारण |
वर्तायाचें लक्षण | तेंहि असावें ||४||
पुसों जाणे सांगों जाणे | अर्थांतर करूं जाणे |
सकळिकांचें राखों जाणे | समाधान ||५||
दीर्घ सूचना आधीं कळे | सावधपणें तर्क प्रबळे |
जाणजाणोनि निवळे | येथायोग्य ||६||
ऐसा जाणे जो समस्त | तोचि महंत बुद्धिमंत |
यावेगळें अंतवंत | सकळ कांहीं ||७||
ताळवेळ तानमानें | प्रबंद कविता जाड वचनें |
मज्यालसी नाना चिन्हें | सुचती तया ||८||
जो येकांतास तत्पर | आधीं करी पाठांतर |
अथवा शोधी अर्थांतर | ग्रंथगर्भींचें ||९||
आधींच सिकोन जो सिकवी | तोचि पावे श्रेष्ठ पदवी |
गुंतल्या लोकांस उगवी | विवेकबळें ||१०||
अक्षर सुंदर वाचणें सुंदर | बोलणें सुंदर चालणें सुंदर |
भक्ति ज्ञान वैराग्य सुंदर | करून दावी ||११||
जयास येत्नचि आवडे | नाना प्रसंगीं पवाडे |
धीटपणें प्रगटे दडे | ऐसा नव्हे ||१२||
सांकडीमधें वर्तों जाणे | उपाधीमधें मिळों जाणे |
अलिप्तपणें राखों जाणे | आपणासी ||१३||
आहे तरी सर्वां ठाईं | पाहों जातां कोठेंचि नाहीं |
जैसा अंतरात्मा ठाईंचा ठाईं | गुप्त जाला ||१४||
त्यावेगळें कांहींच नसे | पाहों जातां तो न दिसे |
न दिसोन वर्तवीतसे | प्राणीमात्रांसी ||१५||
तैसाच हाहि नानापरी | बहुत जनास शाहाणे करी |
नाना विद्या त्या विवरी | स्थूळ सूक्ष्मा ||१६||
आपणाकरितां शाहाणे होती | ते सहजचि सोये धरिती |
जाणतेपणाची महंती | ऐसी असे ||१७||
राखों जाणें नीतिन्याय | न करी न करवी अन्याये |
कठीण प्रसंगीं उपाये | करूं जाणे ||१८||
ऐसा पुरुष धारणेचा | तोचि आधार बहुतांचा |
दास म्हणे रघुनाथाचा | गुण घ्यावा ||१९||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
महंतलक्षणनिरूपणनाम समास सहावा ||६||११. ६
समास सातवा : चंचळ नदी
||श्रीराम ||
चंचळ नदी गुप्त गंगा | स्मरणें पावन करीं जगा |
प्रचित रोकडी पाहा गा | अन्यथा नव्हे ||१||
केवळ अचंचळीं निर्माण जाली | अधोमुखें बळें चालिली |
अखंड वाहे परी देखिली | नाहींच कोणीं ||२||
वळणें वांकाणें भोवरे | उकळ्या तरंग झरे |
लादा लाटा कातरे | ठाईं ठाईं ||३||
शुष्क जळाचे चळाळ | धारा धबाबे खळाळ |
चिपळ्या चळक्या भळाळ | चपळ पाणी ||४||
फेण फुगे हेलावे | सैरावैरा उदक धावे |
थेंब फुई मोजावे | अणुरेणु किती ||५||
वोसाणे वाहती उदंड | झोतावे दर्कुटे दगड |
खडकें बेटें आड | वळसा उठे ||६||
मृद भूमी तुटोन गेल्या | कठीण तैश्याचि राहिल्या |
ठाईं ठाईं उदंड पाहिल्या | सृष्टीमधें ||७||
येक ते वाहतचि गेले | येक वळशामधें पडिले |
येक सांकडींत आडकले | अधोमुख ||८||
येक आपटआपटोंच गेली | येक चिरडचिर्दोंच मेलीं |
कितीयेक ते फुगलीं | पाणी भरलें ||९||
येक बळाचे निवडले | ते पोहतचि उगमास गेले |
उगमदर्शनें पवित्र जाले | तीर्थरूप ||१०||
तेथें ब्रह्मादिकांचीं भुवनें | ब्रह्मांडदेवतांचीं स्थानें |
उफराटी गंगा पाहातां मिळणें | सकळांस तेथें ||११||
त्या जळाऐसें नाही निर्मळ | त्या जळाऐसें नाहीं चंचळ |
आपोनारायण केवळ | बोलिजे त्यासी ||१२||
माहानदी परी अंतराळीं | प्रत्यक्ष वाहे सर्वकाळीं |
स्वर्गमृत्युपाताळी | पसरली पाहा ||१३||
अधोर्ध अष्टहि दिशा | तिचें उदक करी वळसा |
जाणते जाणती जगदीशा | सारिखीच ते ||१४||
अनंत पात्रीं उदक भरलें | कोठें पाझपाझरोंच गेलें |
कितीयेक तें वेचलें | संसारासी ||१५||
येक्यासंगे तें कडवट | येक्यासंगें तें गुळचट |
येक्यासंगे ते तिखट | तुरट क्षार ||१६||
ज्या ज्या पदार्थास मिळे | तेथें तद्रूपचि मिसळे |
सखोले भूमीस तुंबळे | सखोलपणें ||१७||
विषामधें विषचि होतें | अमृतामधें मिळोन जाते |
सुगंधीं सुगंध तें | दुर्गंधीं दुर्गंध ||१८||
गुणीं अवगुणीं मिळे | ज्याचें त्यापरी निवळे |
त्या उदकाचा महिमा न कळे | उदकेंविण ||१९||
उदक वाहे अपरंपार | न कळे नदी कीं सरोवर |
जळवास करून नर | राहिले कितीयेक ||२०||
उगमापैलिकडे गेले | तेथें परतोन पाहिलें |
तंव तें पाणीच आटलें | कांहीं नाहीं ||२१||
वृत्तिसुन्य योगेश्वर | याचा पाहावा विचार |
दास म्हणे वारंवार | किती सांगों ||२२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चंचळ नदीनिरूपणनाम समास सातवा ||७||११. ७
समास आठवा : अंतरात्माविवरण
||श्रीराम ||
आतां वंदूं सकळकर्ता | समस्त देवांचा जो भर्ता |
त्याचे भजनीं प्रवर्ता | कोणीतरी ||१||
तेणेंविण कार्य न चले | पडिलें पर्ण तेंहि न हाले |
अवघें त्रैलोक्येचि चाले | जयाचेनी ||२||
तो अंतरात्मा सकळांचा | देवदानवमानवांचा |
चत्वारखाणीचत्वारवाणीचा | प्रवर्तकु ||३||
तो येकलाचि सकळां घटीं | करी भिन्नभिन्ना राहाटी |
सकळ सृष्टीची गोष्टी | किती म्हणोन सांगावी ||४||
ऐसा जो गुप्तेश्वर | त्यास म्हणावें ईश्वर |
सकळ ऐश्वर्य थोर थोर | जयाचेनि भोगिती ||५||
ऐसा जेणें वोळखिला | तो विश्वंभरचि जाला |
समाधी सहजस्थितीला | कोण पुसे ||६||
अवघें त्रैलोक्य विवरावें | तेव्हां वर्म पडेल ठावें |
आवचटें घबाड सिणावें | नलगेचि कांहीं ||७||
पाहातां ऐसा कोण आहे | जो अंतरात्मा विवरोन पाहे |
अल्प स्वल्प कळोन राहे | समाधानें ||८||
आरे हें पाहिलेंच पाहावें | विवरलेंचि मागुतें विवरावें |
वाचिलेंचि वाचावें | पुन्हापुन्हा ||९||
अंतरात्मा केवढा कैसा | पाहाणाराची कोण दशा |
देखिल्या ऐकिल्या ऐसा | विवेक सांगे ||१०||
उदंड ऐकिलें देखिलें | अंतरात्म्यास नवचे पुरविलें |
प्राणी देहधारी बाउलें | काय जाणे ||११||
पूर्णास अपूर्ण पुरेना | कां जें अखंड विवरेना |
विवरतां विवरतां उरेना | देवावेगळा ||१२||
विभक्तपणें नसावें | तरीच भक्त म्हणवावें |
नाहींतरी वेर्थचि सिणावें | खटाटोपें ||१३||
उगाच घर पाहोन गेला | घरधनी नाहीं वोळखिला |
राज्यामधूनचि आला | परी राजा नेणे ||१४||
देहसंगें विषये भोगिले | देहसंगें प्राणी मिरवलें |
देहधर्त्यास चुकलें | नवल मोठें ||१५||
ऐसे लोक अविवेकी | आणि म्हणती आम्ही विवेकी |
बरें ज्याची जैसी टाकी | तैसें करावें ||१६||
मूर्ख अंतर राखों नेणे | म्हणौन असावें शाहाणे |
ते शाहाणेहि दैन्यवाणे | होऊन गेले ||१७||
अंतरीं ठेवणें चुकलें | दारोदारीं धुंडूं लागलें |
तैसें अज्ञानास जालें | देव न कळे ||१८||
या देवाचें ध्यान करी | ऐसा कोण सृष्टीवरी |
वृत्ती येकदेंसी तर्तरी | पवाडेल कोठें ||१९||
ब्रह्मांडीं दाटले प्राणी | बहुरूपें बहुवाणी |
भूगर्भीं आणि पाषाणीं | कितीयेक ||२०||
इतुके ठाईं पुरवला | अनेकीं येकचि वर्तला |
गुप्त आणि प्रगटला | कितीयेक ||२१||
चंचळें न होईजे निश्चळ | प्रचित जाणावी केवळ |
चंचळ तें नव्हे निश्चळ | परब्रह्म तें ||२२||
तत्वें तत्व जेव्हां उडे | तेव्हां देहबुद्धि झडे |
निर्मळ निश्चळ चहुंकडे | निरंजन ||२३||
आपण कोण कोठें कैंचा | ऐसा मार्ग विवेकचा |
प्राणी जो स्वयें काचा | त्यास हें कळेना ||२४||
भल्यानें विवेक धरावा | दुस्तर संसार तरावा |
अवघा वंशचि उधरावा | हरिभक्ती करूनी ||२५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अंतरात्माविवरणनिरूपणनाम
समास आठवा ||८||११. ८
समास नववा : उपदेश निरूपण
||श्रीराम ||
आधीं कर्माचा प्रसंग | कर्म केलें पाहिजे सांग |
कदाचित पडिले व्यंग | तरी प्रत्यवाय घडे ||१||
म्हणौन कर्म आरंभिले | कांहींयेक सांग घडलें |
जेथजेथें अंतर पडिलें | तेथें हरिस्मरण करावें ||२||
तरी तो हरी आहे कैसा | विचार पाहावा ऐसा |
संधेपूर्वीं जगदीशा | चोविसां नामीं स्मरवें ||३||
चोवीसनामी सहस्रनामी | अनंतनामी तो अनामी |
तो कैसा आहे अंतर्यामीं | विवेकें वोळखावा ||४||
ब्राह्मण स्नानसंध्या करून आला | मग तो देवार्चनास बैसला |
येथासांग तो पूजिला | प्रतिमादेवो ||५||
नाना देवांच्या नाना प्रतिमा | लोक पूजिती धरून प्रेमा |
ज्याच्या प्रतिमा तो परमात्मा | कैसा आहे ||६||
ऐसें वोळखिलें पाहिजे | वोळखोन भजन कीजे |
जैसा साहेब नमस्कारिजे | वोळखिल्याउपरी ||७||
तैसा परमात्मा परमेश्वर | बरा वोळखावा पाहोन विचार |
तरीच पाविजे पार | भ्रमसागरचा ||८||
पूजा घेताती प्रतिमा | आंगा येतो अंतरात्मा |
अवतारी तरी निजधामा | येऊन गेले ||९||
परी ते निजरूपें असती | तें निजरूप ते जगज्जोती |
सत्वगुण तयेस म्हणती | जाणती कळा ||१०||
तये कळेचे पोटीं | देव असती कोट्यानुकोटी |
या अनुभवाच्या गोष्टी | प्रत्ययें पाहाव्या ||११||
देहपुरामधें ईश | म्हणोन तया नांव पुरुष |
जगामधें जगदीश | तैसा वोळखावा ||१२||
जाणीवरूपें जगदांतरें | प्रस्तुत वर्तती शरीरें |
अंतःकरणविष्णु येणें प्रकारें | वोळखावा ||१३||
तो विष्णु आहे जगदांतरीं | तोचि आपुले अंतरीं |
कर्ता भोक्ता चतुरीं | अंतरात्मा वोळखावा ||१४||
ऐके देखे हुंगे चाखे | जाणोन विचारें वोळखे |
कित्येक आपुले पारिखे | जाणताहे ||१५||
येकची जगाचा जिव्हाळा | परी देहलोभाचा आडताळा |
देहसमंधें वेगळा | अभिमान धरी ||१६||
उपजे वाढे मरे मारी | जैशा उचलती लहरीवरी लहरी |
चंचळ सागरीं भरोवरी | त्रैलोक्य होत जातें ||१७||
त्रैलोका वर्तवितो येक | म्हणोन त्रिलोक्यनायेक |
ऐसा प्रत्ययाचा विवेक | पाहाना कैसा ||१८||
ऐसा अंतरात्मा बोलिला | परी तोहि तत्वांमधें आला |
पुढें विचार पाहिजे केला | माहावाक्याचा ||१९||
आधीं देखिला देहधारी | मग पाहावें जगदांतरीं |
तयाचेनियां उपरी | परब्रह्म पावे ||२०||
परब्रह्माचा विचार | होतां निवडे सारासार |
चंचळ जाईल हा निर्धार | चुकेना कीं ||२१||
उत्पत्ति स्थिति संव्हार जाण | त्याहून वेगळा निरंजन |
येथें ज्ञानाचें विज्ञान | होत आहे ||२२||
अष्टदेह थानमान | जाणोन जालियां निर्शन |
पुढें उरे निरंजन | विमळ ब्रह्म ||२३||
विचारेंचि अनन्य जाला | पाहाणाराविण प्रत्यय आला |
तेहि वृत्ति निवृत्तीला | बरें पाहा ||२४||
येथें राहिला वाच्यांश | पाहोन सांडिला लक्ष्यांश |
लक्ष्यांशासारिसा वृत्तिलेश | तोहि गेला ||२५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
उपदेश निरूपणनाम समास नववा ||९||११. ९
समास दहावा : निस्पृह वर्तणूक
||श्रीराम ||
मूर्ख येकदेसी होतो | चतुर सर्वत्र पाहातो |
जैसा बहुधा होऊन भोगितो | नाना सुखें ||१||
तोचि अंतरात्मा महंत | तो कां होईल संकोचित |
प्रशस्त जाणता समस्त | विख्यात योगी ||२||
कर्ता भोक्ता तत्वता | भूमंडळीं सर्व सत्ता |
त्यावेगळा त्यास ज्ञाता | पाहेसा कवणु ||३||
ऐसें महंते असावें | सर्व सार शोधून घ्यावें |
पाहों जातां न सांपडावें | येकायेकी ||४||
कीर्तिरूपें उदंड ख्यात | जाणती लहान थोर समस्त |
वेश पाहातां शाश्वत | येकचि नाहीं ||५||
प्रगट कीर्ति ते ढळेना | बहुत जनास कळेना |
पाहों जातां आडळेना | काये कैसें ||६||
वेषभूषण ते दूषण | कीर्तिभूषण तें भूषण |
चाळणेविण येक क्षण | जाऊंच नेदी ||७||
त्यागी वोळखीचे जन | सर्वकाळ नित्य नूतन |
लोक शोधून पाहाती मन | परी इच्छा दिसेना ||८||
पुर्तें कोणाकडे पाहेना | पुर्तें कोणासीं बोलेना |
पुर्तें येके स्थळीं राहेना | उठोन जातो ||९||
जातें स्थळ तें सांगेना | सांगितलें तेथें तरी जायेना |
आपुली स्थिति अनुमाना | येवोंच जेदी ||१०||
लोकीं केलें तें चुकावी | लोकीं भाविलें तें उलथवी |
लोकीं तर्किलें तें दावी | निर्फल करूनी ||११||
लोकांस पाह्याचा आदर | तेथें याचा अनादर |
लोक सर्वकाळ तत्पर | तेथें याची अनिछ्या ||१२||
एवं कल्पितां कल्पेना | न तर्कितांहि तर्केना |
कदापी भावितां भावेना | योगेश्वर ||१३||
ऐसें अंतर सांपडेना | शरीर ठाईं पडेना |
क्षणयेक विशंभेना | कथाकीर्तन ||१४||
लोक संकल्प विकल्प करिती | ते अवघेचि निर्फळ होती |
जनाची जना लाजवी वृत्ति | तेव्हां योगेश्वर ||१५||
बहुतीं शोधून पाहिलें | बहुतांच्या मनास आलें |
तरी मग जाणावें साधिलें | महत्कृत्य ||१६||
अखंड येकांत सेवावा | अभ्यासचि करीत जावा |
काळ सार्थकचि करावा | जनासहित ||१७||
उत्तम गुण तितुके घ्यावे | घेऊन जनास सिकवावे |
उदंड समुदाये करावे | परी गुप्तरूपें ||१८||
अखंड कामाची लगबग | उपासनेस लावावें जग |
लोक समजोन मग | आज्ञा इछिती ||१९||
आधीं कष्ट मग फळ | कष्टचि नाहीं तें निर्फळ |
साक्षेपेंविण केवळ | वृथापुष्ट ||२०||
लोक बहुत शोधावे | त्यांचे अधिकार जाणावे |
जाणजाणोन धरावे | जवळी दुरी ||२१||
अधिकारपरत्वें कार्य होतें | अधिकार नस्तां वेर्थ जातें |
जाणोनि शोधावीं चित्तें | नाना प्रकारें ||२२||
अधिकार पाहोन कार्य सांगणें | साक्षेप पाहोन विश्वास धरणें |
आपला मगज राखणें | कांहीतरी ||२३||
हें प्रचितीचें बोलिलें | आधीं केलें मग सांगितलें |
मानेल तरी पाहिजे घेतलें | कोणीयेकें ||२४||
महंतें महंत करावे | युक्तिबुद्धीनें भरावे |
जाणते करून विखरावे | नाना देसीं ||२५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
निस्पृह
वर्तणूक निरूपणनाम समास दहावा ||१०||११. १०
||दशक अकरावा समाप्त ||
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Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh11.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 11
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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