||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १० ||
||दशक दहावा : जगज्ज्योतीनाम ||१०||
समास पहिला : अंतःकरण येक
||श्रीराम ||
सकळांचे अंतःकरण येक | किंवा येक नव्हे अनेक |
ऐसें हे निश्चयात्मक | मज निरोपावें ||१||
ऐसें श्रोतयानें पुसिलें | अंतःकरण येक किं वेगळालें |
याचे उत्तर ऐकिलें | पाहिजे श्रोतीं ||२||
समस्तांचे अंतःकर्ण | येक निश्चयो जाणावा नेमक |
हा प्रत्ययाचा विवेक | तुज निरोपिला ||३||
श्रोता म्हणे वक्तयासी | अंतःकरण येक समस्तांसी |
तरी मिळेना येकायेकासी | काये निमित्य ||४||
येक जेवितां अवघे धाले | येक निवतां अवघे निवाले |
येक मरतां अवघे मेले | पाहिजेत कीं ||५||
येक सुखी येक दुःखी | ऐसें वर्ततें लोकिकीं |
येका अंतःकरणाची वोळखी | कैसी जाणावी ||६||
जनीं वेगळाली भावना | कोणास कोणीच मिळेना |
म्हणौन हें अनुमाना | येत नाही ||७||
अंतःकरण येक असतें | तरी येकाचें येकास कळों येतें |
कांहीं चोरितांच न येतें | गौप्य गुह्य ||८||
याकरणें अनुमानेना | अंतःकरण येक हें घडेना |
विरोध लागला जना | काये निमित्य ||९||
सर्प डसाया येतो | प्राणी भेऊन पळतो |
येक अंतःकरण तेरी तो | विरोध नसावा ||१०||
ऐसी श्रोतयांची आशंका | वक्ता म्हणे चळों नका |
सावध होऊन ऐका | निरूपण ||११||
अंतःकर्ण म्हणिजे जाणीव | जाणिव जाणता स्वभाव |
देहरक्षणाचा उपाव | जाणती कळा ||१२||
सर्प जाणोन डंखूं आला | प्राणी जाणोन पळाला |
दोहींकडे जाणीवेला | बरें पाहा ||१३||
दोहींकडे जाणीवेसी पाहिलें | तरी अंतःकर्ण येकचि जालें |
विचारितां प्रत्यया आलें | जाणीवरूपें ||१४||
जाणीवरूपें अंतःकर्ण | सकळांचे येक हें प्रमाण |
जीवमात्रास जाणपण | येकचि असे ||१५||
येके दृष्टीचें देखणें | येके जिव्हेचें चाखणें |
ऐकणें स्पर्शणें वास घेणें | सर्वत्रास येक ||१६||
पशु पक्षी किडा मुंगी | जीवमात्र निर्माण जगीं |
जाणीवकळा सर्वांलागीं | येकचि आहे ||१७||
सर्वांस जळ तें सीतळ | सर्वांस अग्नि तेजाळ |
सर्वांस अंतःकर्ण केवळ | जाणीव कळा ||१८||
आवडे नावडे ऐसें जालें | तरी हें देहस्वभावावरी गेलें |
परंतु हें कळों आलें | अंतःकर्णयोगें ||१९||
सर्वांचे अंतःकर्ण येक | ऐसा निश्चयो निश्चयात्मक |
जाणती याचें कौतुक | चहुंकडे ||२०||
इतुकेन फिटली आशंका | आतां अनुमान करूं नका |
जाणणें तितुकें येका | अंतःकर्णाचें ||२१||
जाणोन जीव चारा घेती | जाणोन भिती लपती |
जाणोनियां पळोन जाती | प्राणीमात्र ||२२||
किडामुंगीपासून ब्रह्मादिक | समस्तां अंतःकर्ण येक |
ये गोष्टीचें कौतुक | प्रत्यें जाणावें ||२३||
थोर लहान तरी अग्नी | थोडें बहु तरी पाणी |
न्यून पूर्ण तरी प्राणी | अंतःकर्णें जाणती ||२४||
कोठें उणें कोठें अधीक | परंतु जिनसमासला येक |
जंगम प्राणी कोणीयेक | जाटिल्याविण नाहीं ||२५||
जाणीव म्हणिजे अंतःकर्ण | अंतःकर्ण विष्णूचा अंश जाण |
विष्णु करितो पाळण | येणें प्रकारें ||२६||
नेणतां प्राणी संव्हारितो | नेणीव तमोगुण बोलिजेतो |
तमोगुणें रुद्र संव्हारितो | येणें प्रकारें ||२७||
कांही जाणीव कांही नेणीव | हा रजोगुणाचा स्वभाव |
जाणतां नेणतां जीव | जन्मास येती ||२८||
जाणीवेनें होतें सुख | नेणीवेनें होतें दुःख |
सुखदुःख अवश्यक | उत्पत्तिगुणें ||२९||
जाणण्यानेणण्याची बुद्धि | तोंचि देहीं जाणावा विधी |
स्थूळ देहीं ब्रह्मा त्रिशुद्धि | उत्पत्तिकर्ता ||३०||
ऐसा उत्पत्ति स्थिति संहार | प्रसंगें बोलिला विचार |
परंतु याचा निर्धार | प्रत्यें पाहावा ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अंतःकर्ण येकनाम समास पहिला ||१||१०. १
समास दुसरा : देहआशंकानिरूपण
||श्रीराम ||
स्वामीनें विचार दाखविला | येथें विष्णूचा अभाव दिसोन आला |
ब्रह्मा विष्णु महेशाला | उरी नाहीं ||१||
उप्तत्ति स्थिति संव्हार | ब्रह्मा विष्णु महेश्वर |
याचा पाहातां विचार | प्रत्ययो नाहीं ||२||
ब्रह्मा उत्पत्तिकर्ता चौंमुखांचा | येथें प्रत्ययो नाहीं त्याचा |
पाळणकर्ता विष्णु चौभुजांचा | तो हि ऐकोन जाणों ||३||
महेश संव्हार करितो | हाहि प्रत्यय कैसा येतो |
लिंगमहिमा पुराणीं तो | विपरीत बोलिला ||४||
मूळमायेस कोणें केलें | हें तों पाहिजे कळलें |
तिहीं देवांचें रूप जालें | ऐलिकडे ||५||
मूळमाया लोकजननी | तयेपासून गुणक्षोभिणी |
गुणक्षोभिणीपासून त्रिगुणी | जन्म देवा ||६||
ऐसें बोलती शास्त्रकारक | आणि प्रवृत्तीचेहि लोक |
प्रत्ययें पुसतां कित्येक | अकांत करिती ||७||
म्हणोन त्यास पुसावेना | त्यांचेन प्रत्ययो आणवेना |
प्रत्ययेंविण प्रेत्न नाना | ठकाठकी ||८||
प्रचितवीण वैद्य म्हणवी | उगीच करी उठाठेवी |
तया मुर्खाला गोवी | प्राणीमात्र ||९||
तैसाच हाहि विचार | प्रत्यये करावा निर्धार |
प्रत्ययें नस्तां अंधकार | गुरुशिष्यांसी ||१०||
बरें लोकास काये म्हणावें | लोक म्हणती तेंचि बरवें |
परंतु स्वामीनें सांगावें | विशद करुनी ||११||
म्हणों देवीं माया केली | तरी देवांचीं रूपें मायेंत आलीं |
जरी म्हणों मायेनें माया केली | तरी दुसरी नाहीं ||१२||
जरी म्हणो भूतीं केली | तरी ते भूतांचीच वळली |
म्हणावें जरी परब्रह्में केली | तरी ब्रह्मीं कर्तुत्व नाहीं ||१३||
आणी माया खरी असावी | तरी ब्रह्मीं कर्तुत्वाची गोवी |
माया मिथ्या ऐसी जाणावी | तरी कर्तुत्व कैंचें ||१४||
आतां हें अवघेंचि उगवें | आणी मनास प्रत्यये फावे |
ऐसें केलें पाहिजें देवें | कृपाळूपणें ||१५||
वेद मातृकावीण नाहीं | मातृका देहावीण नाहीं |
देह निर्माण होत नाहीं | देहावेगळा ||१६||
तया देहामधें नरदेहो | त्या नरदेहांत ब्राह्मणदेहो |
तया ब्राह्मणदेहास पाहो | अधिकार वेदीं ||१७||
असो वेद कोठून जाले | देह कासयाचे केले |
दैव कैसे प्रगटले | कोण्या प्रकरें ||१८||
ऐसा बळावया अनुमान | केलें पाहिजे समाधान |
वक्ता म्हणे सावधान | होईं आता ||१९||
प्रत्यये पाहातां सांकडी | अवघी होते विघडाविघडी |
अनुमानितां घडीनें घडी | काळ जातो ||२०||
लोकधाटी शास्त्रनिर्णये | येथें बहुधा निश्चये |
म्हणोनियां येक प्रत्यये | येणार नाहीं ||२१||
आतां शास्त्राची भीड धरावी | तरी सुटेना हे गथागोवी |
गथागोवी हे उगवावी | तरी शास्त्रभेद दिसे ||२२||
शास्त्र रक्षून प्रत्यये आणिला | पूर्वपक्ष त्यागून सिद्धांत पाहिला |
शहाणा मुर्ख समजाविला | येका वचनें ||२३||
शास्त्रींच पूर्वपक्ष बोलिला | पूर्वपक्ष म्हणावें लटक्याला |
विचार पाहातां आम्हांला | शब्द नाहीं ||२४||
तथापि बोलों कांहींयेक | शास्त्र रक्षून कौतुक |
श्रोतीं सादर विवेक | केला पाहिजे ||२५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देहआशंकानाम समास दुसरा ||२||१०. २
समास तिसरा : देहआशंकाशोधन
||श्रीराम ||
उपाधिविण जें आकाश | तेंचि ब्रह्म निराभास |
तें निराभासीं मूळमायेस | जन्म जाला ||१||
तें मूळमायेचे लक्षण | वायोस्वरूपचि जाण |
पंचभूतें आणी त्रिगुण | वायोआंगीं ||२||
आकाशापासून वायो जाला | तो वायोदेव बोलिला |
वायोपासून अग्नि जाला | तो अग्निदेव ||३||
अग्निपासून जालें आप | तें नारायणाचें स्वरूप |
आपापासून पृथ्वीचें रूप | तें बीजाकारें ||४||
ते पृथ्वीचे पोटीं पाषाण | बहु देवांचें लक्षण |
नाना प्रचित प्रमाण | पाषाणदेवीं ||५||
नाना वृक्ष मृत्तिका | प्रचित रोकडी विश्वलोकां |
समस्त देवांचा थारा येका | वायोमध्यें ||६||
देव यक्षिणी कात्यायेणी | चामुंडा जखिणी मानविणी |
नाना शक्ति नाना स्थानीं | देशपरत्वें ||७||
पुरुषनामें कित्येक | देव असती अनेक |
भूतें देवतें नपुषक | नामें बोलिजेती ||८||
देव देवतांदेवतेंभूतें | पृथ्वीमध्यें असंख्यातें |
परंतु यां समस्तांतें | वायोस्वरूप बोलिजे ||९||
वायोस्वरूप सदा असणें | प्रसंगें नाना देह धरणें |
गुप्त प्रगट होणें जाणें | समस्तांसी ||१०||
वायोस्वरूपें विचरती | वायोमध्यें जगज्जोती |
जाणतीकळा वासना वृत्ति | नाना भेदें ||११||
आकाशापासून वायो जाला | तो दों प्रकारें विभागला |
सावधपणें विचार केला | पाहिजे श्रोतीं ||१२||
येक वारा सकळ जाणती | येक वायोमधील जगज्जोती |
जगज्जोतीच्या अनंत मूर्ती | देवदेवतांच्या ||१३||
वायो बहुत विकारला | परंतु दों प्रकारें विभागला |
आतां विचार ऐकिला | पाहिजे तेजाचा ||१४||
वायोपासून तेज जालें | उष्ण सीतळ प्रकाशलें |
द्विविध रूप ऐकिलें | पाहिजें तेजाचें ||१५||
उष्णापासून जाला भानु | प्रकाशरूप दैदीप्यमानु |
सर्वभक्षक हुताशनु | आणी विद्युल्यता ||१६||
सीतळापासून आप अमृत | चंद्र तारा आणी सीत |
आतां परिसा सावचित्त | होऊन श्रोते ||१७||
तेज बहुत विकारलें | परंतु द्विविधाच बोलिलें |
आपहि द्विविधाच निरोपिलें | आप आणि अमृत ||१८||
ऐकें पृथ्वीचा विचार | पाषाण मृत्तिका निरंतर |
आणीक दुसरा प्रकार | सुवर्ण परीस नाना रत्नें ||१९||
बहुरत्ना वसुंधरा | कोण खोटा कोण खरा |
अवघें कळे विचारा-| रूढ होतां ||२०||
मनुष्यें कोठून जालीं | हे मुख्य आशंका राहिली |
पुढें वृत्ति सावध केली | पाहिजे श्रोतीं ||२१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देहआशंकाशोधननाम समास तिसरा ||३||१०. ३
समास चौथा : बीजलक्षण
||श्रीराम ||
आतां पाहों जातां उत्पत्ति | मनुष्यापासून मनुष्यें होती |
पशुपासून पशु निपजती | प्रत्यक्ष आतां ||१||
खेंचरें आणी भूचरें | वनचरें आणी जळचरें |
नाना प्रकारीचीं शरीरें | शरीरांपासून होती ||२||
प्रत्ययास आणी प्रमाण | निश्चयास आणी अनुमान |
मार्ग देखोन आडरान | घेऊंच नये ||३||
विपरीतपासून विपरीतें होती | परी शरीरेंच बोलिजेती |
शरीरावांचून उत्पत्ती | होणार नाहीं ||४||
तरी हे उत्पत्ति कैसी जाली | कासयाची कोणें केली |
जेणें केली त्याची निर्मिली | काया कोणें ||५||
ऐसें पाहातां उदंड लांबलें | परी मुळीं शेरीर जैसें जालें |
कासयाचें उभारिलें | कोणें कैसें ||६||
ऐसी हे मागील आशंका | राहात गेली ते ऐका |
कदापी जाजु घेऊं नका | प्रत्ययो आलियानें ||७||
प्रत्ययोचि आहे प्रमाण | मूर्खास वाटे अप्रमाण |
पिंडें प्रचितशब्दें जाण | विश्वासासी ||८||
ब्रह्मीं मूळमाया जाली | तेचि अष्टधा प्रकृती बोलिली |
भूतीं त्रिगुणीं कालवली | मूळमाया ||९||
तें मूळमाया वायोस्वरूप | वायोमध्यें जाणीवेचें रूप |
तेचि इच्छा परी आरोप | ब्रह्मीं न घडे ||१०||
तथापि ब्रह्मीं कल्पिला | तरी तो शब्द वायां गेला |
आत्मा निर्गुण संचला | शब्दातीत ||११||
आत्मा निर्गुण वस्तु ब्रह्म | नाममात्र तितुका भ्रम |
कल्पून लाविला संभ्रम | तरी तो लागणार नाहीं ||१२||
तथापि आग्रहें लाविला | जरी धोंडा मारिला आकाशाला |
आकाशावरी थुंकिला | तरी तें तुटेना ||१३||
तैसें ब्रह्म निर्विकार | निर्विकारीं लाविती विकार |
विकार नासे निर्विकार | जैसें तैसें ||१४||
आतां ऐका प्रत्ययो | जाणोनि धरावा निश्चयो |
तरीच पाविजे जयो | अनुभवाचा ||१५||
मायाब्रह्मीं जो समीर | त्यांत जाणता तो ईश्वर |
ईश्वर आणि सर्वेश्वर | तयासीच बोलिजे ||१६||
तोचि ईश्वर गुणासी आला | त्याचा त्रिगुणभेद जाला |
ब्रह्मा विष्णु महेश उपजला | तये ठाईं ||१७||
सत्व रज आणी तम | हे त्रिगुण उत्तमोत्तम |
यांच्या स्वरूपाचा अनुक्रम | मागां निरोपिला ||१८||
जाणता विष्णु भगवान | जाणता नेणता चतुरानन |
नेणता महेश पंचानन | अत्यंत भोळा ||१९||
त्रिगुण त्रिगुणीं कालवले | कैसे होती वेगळाले |
परी विशेष न्यून भासले | ते बोलावे लागती ||२०||
वायोमध्यें विष्णु होता | तो वायोस्वरूपचि तत्वता |
पुढें जाला देहधर्ता | चतुर्भुज ||२१||
तैसाच ब्रह्मा आणी महेश | देह धरिती सावकास |
गुप्त प्रगट होतां तयास | वेळ नाहीं ||२२||
आतां रोकडी प्रचिती | मनुष्यें गुप्त प्रगटती |
मां त्या देवांच्याच मूर्ती | सामर्थ्यवंत ||२३||
देव देवता भूतें देवतें | चढतें सामर्थ्य तेथें |
येणेंचि न्यायें राक्षसांतें | सामर्थ्यकळा ||२४||
झोटींग वायोस्वरूप असती | सवेंच खुळखुळां चालती |
खोबरीं खारिका टाकून देती | अकस्मात ||२५||
अवघेंचि न्याल अभावें | तरी तें बहुतेकांस ठावें |
आपुल्याला अनुभवें | विश्वलोक जाणती ||२६||
मनुष्यें धरती शरीरवेष | नाना परकाया प्रवेश |
मां तो परमात्मा जगदीश | कैसा न धरी ||२७||
म्हणोनि वायोस्वरूपें देह धरिलें | ब्रह्मा विष्णु महेश जालें |
पुढें तेचि विस्तारलें | पुत्रपौत्रीं ||२८||
अंतरींच स्त्रिया कल्पिल्या | तों त्या कल्पितांच निर्माण जाल्या |
परी तयापासून प्रजा निर्मिल्या | नाहींत कदा ||२९||
इछून पुत्र कल्पिले | ते ते प्रसंगीं निर्माण जाले |
येणें प्रकारें वर्तले | हरिहरादिक ||३०||
पुढें ब्रह्मयानें सृष्टी कल्पिली | इछेसरिसी सृष्टी जाली |
जीवसृष्टि निर्माण केली | ब्रह्मदेवें ||३१||
नाना प्रकारीचे प्राणी कल्पिले | इछेसरिसे निर्माण जाले |
अवघे जोडेचि उदेले | अंडजजारजादिक ||३२||
येक जळस्वेदापासून जाले | ते प्राणी स्वेदज बोलिले |
येक वायोकरितां जाले | अकस्मात उद्भिज ||३३||
मनुष्याची गौडविद्या | राक्षसांची वोडंबरी विद्या |
ब्रह्मयाची सृष्टिविद्या | येणें प्रकरें ||३४||
कांहीयेक मनुष्यांची | त्याहून विशेष राक्षसांची |
त्याहून विशेष ब्रह्मयाची | सृष्टिविद्या ||३५||
जाणते नेणते प्राणी निर्मिले | वेद वदोन मार्ग लाविले |
ब्रह्मयानें निर्माण केले | येणें प्रकारें ||३६||
मग शरीरांपासून शरीरें | सृष्टी वाढली विकारें |
सकळ शरीरें येणें प्रकारें | निर्माण जाली ||३७||
येथें आशंका फिटली | सकळ सृष्टी विस्तारली |
विचार पाहातां प्रत्यया आली | येथान्वयें ||३८||
ऐसी सृष्टी निर्माण केली | पुढें विष्णुनें कैसी प्रतिपाळिली |
हेहि विवंचना पाहिली | पाहिजे श्रोतीं ||३९||
सकळ प्राणी निर्माण जाले | ते मूळरूपें जाणोन पाळिले |
शरीरें दैत्य निर्दाळिले | नाना प्रकारींचे ||४०||
नाना अवतार धरणें | दुष्टांचा संहार करणें |
धर्म स्थापायाकारणें | विष्णुस जन्म ||४१||
म्हणोन धर्मस्थापनेचे नर | तेंहि विष्णुचे अवतार |
अभक्त दुर्जन रजनीचर | सहजचि जाले ||४२||
आतां प्राणी जे जन्मले | ते नेणोन संव्हारिले |
मूळरूपें संव्हारिलें | येणें प्रकारें ||४३||
शरीरें रुद्र खवळेल | तैं जीवसृष्टि संव्हारेल |
अवघें ब्रह्मांडचि जळेल | संव्हारकाळीं ||४४||
एवं उत्पत्ति स्थिती संव्हार | याचा ऐसा आहे विचार |
श्रोतीं होऊन तत्पर | अवधान द्यावें ||४५||
कल्पांतीं संव्हार घडेल | तोचि पुढें सांगिजेल |
पंचप्रळय वोळखेल | तोचि ज्ञानी ||४६||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
बीजलक्षणनाम समास पांचवा ||४||१०. ४
समास पांचवा : पंचप्रळयनिरूपण
||श्रीराम ||
ऐका प्रळयाचें लक्षण | पिंडीं दोनी प्रळये जाण |
येकनिद्रा येक मरण | देहांतकाळ ||१||
देहाधारक तिनी मूर्ती | निद्रा जेव्हां संपादिती |
तो निद्राप्रळय श्रोतीं | ब्रह्मांडींचा जाणावा ||२||
तिनी मूर्तीस होईल अंत | ब्रह्मांडास मांडेल कल्पांत |
तेव्हां जाणावा नेमस्त | ब्रह्मप्रळये जाला ||३||
दोनी पिंडीं दोनी ब्रह्मांडीं | च्यारी प्रळय नवखंडीं |
पांचवा प्रळय उदंडी | जाणिजे विवेकाचा ||४||
ऐसे हे पांचहि प्रळये | सांगितले येथान्वयें |
आतां हें अनुभवास ये | ऐसें करूं ||५||
निद्रा जेव्हां संचरे | तेव्हां जागृतीव्यापार सरे |
सुषुप्ति अथवा स्वप्न भरे | अकस्मात आंगीं ||६||
या नांव निद्राप्रळये | जागृतीचा होये क्षये |
आतां ऐका देहांतसमये | म्हणिजे मृत्युप्रळये ||७||
देहीं रोग बळावती | अथवा कठीण प्रसंग पडती |
तेणें पंचप्राण जाती | व्यापार सांडुनी ||८||
तिकडे गेला मनपवनु | इकडे राहीली नुस्ती तनु |
दुसरा प्रळयो अनुमानु | असेचिना ||९||
तिसरा ब्रह्मा निजेला | तों हा मृत्यलोक गोळा जाला |
अवघा व्यापार खुंटला | प्राणीमात्रांचा ||१०||
तेव्हां प्राणीयांचे सुक्ष्मांश | वायोचक्रीं करिती वास |
कित्येक काल जातां ब्रह्मयास | जागृती घडे ||११||
पुन्हा मागुती सृष्टि रची | विसंचिले जीव मागुतें संची |
सीमा होतां आयुष्याची | ब्रह्मप्रळय मांडे ||१२||
शत वरुषें मेघ जाती | तेणें प्राणी मृत्यु पावती |
असंभाव्य तर्के क्षिती | मर्यादेवेगळी ||१३||
सूर्य तपे बाराकळी | तेणें पृथ्वीची होय होळी |
अग्नी पावतां पाताळीं | शेष विष वमी ||१४||
आकाशीं सूर्याच्या ज्वाळा | पाताळीं शेष विष वमी गरळा |
दोहिकडून जळतां भूगोळा | उरी कैंची ||१५||
सूर्यास खडतरता चढे | हलकालोळ चहुंकडे |
कोंसळती मेरूचे कडे | घडघडायमान ||१६||
अमरावती सत्यलोक | वैकुंठ कैळासादिक |
याहिवेगळे नाना लोक | भस्मोन जाती ||१७||
मेरु अवघाचि घसरे | तेथील महीमाच वोसरे |
देवसमुदाव वावरे | वायोचक्रीं ||१८||
भस्म जालिया धरत्री | प्रजन्य पडें शुंडाधारीं |
मही विरे जळांतरीं | निमिष्यमात्रें ||१९||
पुढें नुस्ते उरेल जळ | तयास शोषील अनळ |
पुढें येकवटती ज्वाळ | मर्यादेवेगळे ||२०||
समुद्रींचा वडवानळ | शिवनेत्रींचा नेत्रानळ |
सप्तकंचुकींचा आवर्णानळ | सूर्य आणी विद्युल्यता ||२१||
ऐसे ज्वाळ येकवटती | तेणें देव देह सोडिती |
पूर्वरूपें मिळोन जाती | प्रभंजनीं ||२२||
तो वारा झडपी वैश्वानरा | वन्ही विझेल येकसरा |
वायो धावें सैरावैरा | परब्रह्मीं ||२३||
धूम्र वितुळे आकाशीं | तैसे होईल समीरासी |
वहुतां मधें थोडियासी | नाश बोलिला ||२४||
वायो वितुळतांच जाण | सूक्ष्म भूतें आणी त्रिगुण |
ईश्वर सांडी अधिष्ठान | निर्विकल्पीं ||२५||
तेथें जाणिव राहिली | आणी जगज्जोती निमाली |
शुद्ध सारांश उरली | स्वरूपस्थिती ||२६||
जितुकीं काहीं नामाभिधानें | तये प्रकृतीचेनि गुणें |
प्रकृती नस्तां बोलणें | कैसें बोलावें ||२७||
प्रकृती अस्तां विवेक कीजे | त्यास विवेकप्रळये बोलिजे |
पांचहि प्रळय वोजें | तुज निरोपिलें ||२८||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
पंचप्रळयनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||१०. ५
समास सहावा : भ्रमनिरूपण
||श्रीराम ||
उत्पत्ति स्थिति संव्हार | याचा निरोपिला वेव्हार |
परमात्मा निर्गुण निराकार | जैसा तैसा ||१||
होतें वर्ततें आणि जातें | याचा समंध नाहीं तेथें |
आद्य मद्य अवसान तें | संचलेंचि आहे ||२||
परब्रह्म असतचि असे | मध्येंचि हा भ्रम भासे |
भासे परंतु अवघा नासे | काळांतरी ||३||
उत्पत्तिस्थितीसंव्हारत | मध्येंहि अखंड होत जात |
पुढें सेवटीं कल्पांत | सकळांस आहे ||४||
यामधें ज्यास विवेक आहे | तो आधींच जाणताहे |
सारासार विचारें पाहे | म्हणौनियां ||५||
बहुत भ्रमिष्ट मिळाले | त्यांत उमजल्याचें काय चाले |
सृष्टिमधें उमजले | ऐसें थोडे ||६||
त्या उमजल्यांचे लक्षण | कांहीं करूं निरूपण |
भ्रमाहून विलक्षण | माहापुरुष ||७||
भ्रम हा नसेल जयासी | मनीं वोळखावे तयासी |
ऐके आतां भ्रमासीं | निरोपिजेल ||८||
येक परब्रह्म संचलें | कदापी नाहीं विकारले |
त्यावेगळें भासलें | तें भ्रमरूप ||९||
जयासी बोलिला कल्पांत | त्रिगुण आणि पंचभूत |
हें अवघेंचि समस्त | भ्रमरूप ||१०||
मी तूं हा भ्रम | उपासनाहि भ्रम |
ईश्वरभाव हाहि भ्रम | निश्चयेंसीं ||११||
||श्लोक ||
भ्रमेणाहं भ्रमेण त्वं | भ्रमेणोपासका जनाः |
भ्रमेणेश्वर भावत्वं | भ्रममूलमिदं जगत् ||१||
याकारणें सृष्टि भासत | परंतु भ्रमचि हा समस्त |
यामध्यें जे विचारवंत | तेचि धन्य ||१२||
आतां भ्रमाचा विचारु | अत्यंतचि प्रांजळ करूं |
दृष्टांतद्वारे विवरूं | श्रोतयासी ||१३||
भ्रमण करीतां दुरीं देसीं | दिशाभूली आपणासी |
कां वोळखी मोडे जीवलगांसी | या नांव भ्रम ||१४||
कां उन्मत्त द्रव्य सेविलें | तेणें अनेक भासों लागलें |
नाना वेथां कां झडपिलें | भुतें तो भ्रम ||१५||
दशावतारीं वाटती नारी | कां ते मांडली बाजीगरी |
उगाच संदेह अंतरीं | या नांव भ्रम ||१६||
ठेविला ठाव तो विसरला | कां मार्गीं जातां मार्ग चुकला |
पट्टणामधें भांबावला | या नांव भ्रम ||१७||
वस्तु आपणापासीं असतां | गेली म्हणोनि होये दुचिता |
आपलें आपण विसरतां | या नांव भ्रम ||१८||
कांही पदार्थ विसरोन गेला | कां जें सिकला तें विसरला |
स्वप्नदुःखें घाबिरा जाला | या नांव भ्रम ||१९||
दुश्चिन्हें अथवा अपशकुन | मिथ्या वार्तेनें भंगे मन |
वचके पदार्थ देखोन | या नांव भ्रम ||२०||
वृक्ष काष्ठ देखिलें | मनांत वाटें भूत आलें |
कांहींच नस्तां हडबडिलें | या नांव भ्रम ||२१||
काच देखोन उदकांत पडे | कां सभा देखोन दर्पणीं पवाडे |
द्वार चुकोन भलतीकडें जाणें | या नांव भ्रम ||२२||
येक अस्तां येक वाटे | येक सांगतां येक निवटे |
येक दिसतां येक उठे | या नांव भ्रम ||२३||
आतां जें जें देइजेतें | तें तें पुढें पाविजेतें |
मेलें माणुस भोजना येतें | या नांव भ्रम ||२४||
ये जन्मींचें पुढिले जन्मीं | कांहीं येक पावेन मी |
प्रीतीगुंतली मनुष्याचे नामीं | या नांव भ्रम ||२५||
मेलें मनुष्य स्वप्ना आलें | तेणें कांहीं मागितलें |
मनीं अखंड बैसलें | यानांव भ्रम ||२६||
अवघें मिथ्या म्हणोन बोले | आणि समर्थावरी मन चाले |
ज्ञाते वैभवें दपटले | या नांव भ्रम ||२७||
कर्मठपणें ज्ञान विटे | कां ज्ञातेपणें बळें भ्रष्टे |
कोणीयेक सीमा फिटे | या नांव भ्रम ||२८||
देहाभिमान कर्माभिमान | जात्याभिमान कुळाभिमान |
ज्ञानाभिमान मोक्षाभिमान | या नांव भ्रम ||२९||
कैसा न्याय तो न कळे | केला अन्याने तो नाडले |
उगाच अभिमानें खवळे | या नांव भ्रम || ३०||
मागील कांही आठवेना | पुढील विचार सुचेना |
अखंड आरूढ अनुमाना | या नांव भ्रम || ३१||
प्रचीतिविण औषध घेणे | प्रचित नस्ता पथ्य करणे |
प्रचीतीविण ज्ञान सांगणें | या नांव भ्रम ||३२||
फळश्रुतीवीण प्रयोग | ज्ञानेंवीण नुस्ता योग |
उगाच शरीरें भोगिजे भोग | या नांव भ्रम ||३३||
ब्रह्मा लिहितो अदृष्टीं | आणि वाचून जाते सटी |
ऐशा प्रकारीच्या गोष्टी | या नांव भ्रम ||३४||
उदंड भ्रम विस्तारला | अज्ञानजनीं पैसावला |
अल्प संकेतें बोलिला | कळावया कारणें ||३५||
भ्रमरूप विश्व स्वभावें | तेथें काये म्हणोन सांगावें |
निर्गुण ब्रह्मावेगळें अवघें | भ्रमरूप ||३६||
ज्ञात्यास नाहीं संसार | ऐसें बोलती अपार |
गत ज्ञात्याचे चमत्कार | या नांव भ्रम ||३७||
येथें आशंका उठिली | ज्ञात्याची समधी पूजिली |
तेथें कांहीं प्रचित आली | किंवा नाहीं ||३८||
तैसेचि अवतारी संपले | त्यांचेहि सामर्थ्य उदंड चाले |
तरी ते काये गुंतले | वासना धरूनि ||३९||
ऐसी आशंका उद्भवली | समर्थें पाहिजे निरसिली |
इतुकेन हे समाप्त जाली | कथा भ्रमाची ||४०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
भ्रमनिरूपणनाम समास सहावा ||६||१०. ६
समास सातवा : सगुणभजन
||श्रीराम ||
अवतारादिक ज्ञानी संत | सारासारविचारें मुक्त |
त्यांचे सामर्थ्य चालत | कोण्या प्रकारें ||१||
हें श्रोतयांची आशंका | पाहातां प्रश्न केला निका |
सावध होऊन ऐका | म्हणे वक्ता ||२||
ज्ञानी मुक्त होऊन गेले | मागें त्यांचे सामर्थ्य चाले |
परंतु ते नाहीं आले | वासना धरूनी ||३||
लोकांस होतो चमत्कार | लोक मानिती साचार |
परंतु याचा विचार | पाहिला पाहिजे ||४||
जीत अस्तां नेणों किती | जनामधें चमत्कार होती |
ऐसियाची सद्य प्रचिती | रोकडी पाहावी ||५||
तो तरी आपण नाहीं गेला | लोकीं प्रत्यक्ष देखिला |
ऐसा चमत्कार जाला | यास काये म्हणावें ||६||
तरी तो लोकांचा भावार्थ | भाविकां देव येथार्थ |
अनेत्र कल्पना वेर्थ | कुतर्काची ||७||
आवडे तें स्वप्नीं देखिलें | तरीकाय तेथून आलें |
म्हणाल तेणें आठविलें | तरी द्रव्य कां दिसे ||८||
एवं आपली कल्पना | स्वप्नीं येती पदार्थ नाना |
परी ते पदार्थ चालतीना | अथवा आठऊ नाहीं ||९||
येथें तुटली आशंका | ज्ञात्यास जन्म कल्पूं नका |
उमजेना तरी विवेका | बरें पाहा || १०||
ज्ञानी मुक्त होऊन गेले | त्यांचें सामर्थ्य उगेचि चाले |
कां जे पुण्यमार्गें चालिलें | म्हणोनियां ||११||
याकारणें पुण्यमार्गें चालावें | भजन देवाचें वाढवावें |
न्याये सांडून न जावें | अन्यायमार्गें || १२||
नानापुरश्चरणें करावीं | नाना तीर्थाटणें फीरावीं |
नाना सामर्थ्यें वाढवावीं | वैराग्यबळें ||१३||
निश्चये बैसे वस्तूकडे | तरी ज्ञानमार्गेंहि सामर्थ्य चढे |
कोणीयेक येकांत मोडे | ऐसें न करावें ||१४||
येक गुरु येक देव | कोठें तरी असावा भाव |
भावार्थ नस्तां वाव | सर्व कांहीं ||१५||
निर्गुणीं ज्ञान जालें | म्हणोन सगुण अलक्ष केलें |
तरी तें ज्ञातें नागवलें | दोहिंकडे ||१६||
नाहीं भक्ती नाहीं ज्ञान | मधेंच पैसावला अभिमान |
म्हणोनियां जपध्यान | सांडूंच नये ||१७||
सांडील सगुणभजनासी | तरी तो ज्ञाता परी अपेसी |
म्हणोनियां सगुणभजनासी | सांडूंच नये ||१८||
निःकाम बुद्धीचिया भजना | त्रैलोकीं नाहीं तुळणा |
समर्थेंविण घडेना | निःकाम भजन ||१९||
कामनेनें फळ घडे | निःकाम भजनें भगवंत जोडे |
फळभगवंता कोणीकडे | महदांतर ||२०||
नाना फळे देवापासी | आणी फळ अंतरीं भगवंतासी |
याकारणें परमेश्वरासी | निःकाम भजावें ||२१||
निःकामभजनाचें फळ आगळे | सामर्थ्य चढे मर्यादावेगळें |
तेथें बापुडी फळें | कोणीकडे ||२२||
भक्तें जें मनीं धरावें | तें देवें आपणचि करावें |
तेथें वेगळें भावावें | नलगे कदा ||२३||
दोनी सामर्थ्यें येक होतां | काळास नाटोपे सर्वथा |
तेथें इतरांसी कोण कथा | कीटकन्यायें ||२४||
म्हणोनि निःकाम भजन | वरी विशेष ब्रह्मज्ञान |
तयास तुळितां त्रिभुवन | उणें वाटे ||२५||
येथें बुद्धीचा प्रकाश | आणिक न चढे विशेष |
प्रताप कीर्ती आणी येश | निरंतर ||२६||
निरूपणाचा विचार | आणी हरिकथेचा गजर |
तेथें होती तत्पर | प्राणीमात्र ||२७||
जेथें भ्रष्टाकार घडेना | तो परमार्थहि दडेना |
समाधान विघडेना | निश्चयाचें ||२८||
सारासारविचार करणें | न्याये अन्याये अखंड पाहाणें |
बुद्धि भगवंताचें देणें | पालटेना ||२९||
भक्त भगवंतीं अनन्य | त्यासी बुद्धी देतो आपण |
येदर्थीं भगवद्वचन | सावध ऐका ||३०||
श्लोकार्ध ||ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयांति ते ||
म्हणौन सगुण भजन | वरी विशेष ब्रह्मज्ञान |
प्रत्ययाचें समाधान | दुर्ल्लभ जगीं ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सगुणभजननिरूपणनाम समास सातवा ||७||१०. ७
समास आठवा : प्रचीतनिरूपण
||श्रीराम ||
ऐका प्रचित्तीचीं लक्षणें | प्रचित पाहेल तें शाहाणें |
येर वेडे दैन्यवाणे | प्रचितीविण ||१||
नाना रत्नें नाना नाणीं | परीक्षून न घेतां हानी |
प्रचित न येतां निरूपणीं | बैसोंच नये ||२||
तुरंग शस्त्र दमून पाहिलें | बरें पाहातां प्रचितीस आले |
तरी मग पाहिजे घेतलें | जाणते पुरुषीं ||३||
बीज उगवेलसें पाहावें | तरी मग द्रव्य घालून घ्यावें |
प्रचित आलियां ऐकावें | निरूपण ||४||
देहीं आरोग्यता जाली | ऐसी जना प्रचित आली |
तरी मग आगत्य घेतली | पाहिजे मात्रा ||५||
प्रचितीविण औषध घेणें | तरी मग धडचि विघडणें |
अनुमानें जें कार्य करणें | तेंचि मुर्खपण ||६||
प्रचितीस नाहीं आलें | आणि सुवर्ण करविलें |
तरी मग जाणावें ठकिलें | देखतदेखतां ||७||
शोधून पाहिल्याविण | कांहींतरी येक कारण |
होणार नाहीं निर्वाण | प्राणास घडे ||८||
म्हणोनी अनुमानाचें कार्य | भल्यानीं कदापि करूं नये |
उपाय पाहातां अपाये | नेमस्त घडे ||९||
पाण्यांतील म्हैसीची साटी | करणें हें बुद्धिच खोटी |
शोधिल्याविण हिंपुटी | होणें घडे ||१०||
विश्वासें घर घेतलें | ऐसें किती नाहीं ऐकलें |
मैंदें मैंदावें केलें | परी तें शोधिलें पाहिजे ||११||
शोधिल्याविण अन्नवस्त्र घेणें | तेणें प्राणास मुकणें |
लटिक्याचा विश्वास धरणें | हेंचि मूर्खपण ||१२||
संगती चोराची धरितां | घात होईल तत्वता |
ठकु सिंतरु शोधितां | ठाईं पडे ||१३||
गैरसाळ तामगिरी | कोणी नवी मुद्रा करी |
नाना कपट परोपरीं | शोधून पाहावें ||१४||
दिवाळखोराचा मांड | पाहातां वैभव दिसे उदंड |
परी तें अवघें थोतांड | भंड पुढें ||१५||
तैसें प्रचितीवीण ज्ञान | तेथें नाहीं समाधान |
करून बहुतांचा अनुमान | अन्हीत जालें || १६||
मंत्र यंत्र उपदेसिले | नेणतें प्राणी तें गोविलें |
जैसें झांकून मारिलें | दुखणाईत ||१७||
वैद्य पाहिला परी कच्चा | तरी प्राण गेला पोराचा |
येथें उपाये दुसऱ्याचा | काये चाले ||१८||
दुःखें अंतरी झिजे | आणी वैद्य पुसतां लाजे |
तरीच मग त्यासी साजे | आत्महत्यारेपण ||१९||
जाणत्यावरी गर्व केला | तरी नेणत्याकरितां बुडाला |
येथें कोणाचा घात जाला | बरें पाहा ||२०||
पापाची खंडणा जाली | जन्मयातना चुकली |
ऐसी स्वयें प्रचित आली | म्हणिजे बरें ||२१||
परमेश्वरास वोळखिलें | आपण कोणसें कळलें |
आत्मनिवेदन जालें | म्हणिजे बरें ||२२||
ब्रह्मांड कोणें केलें | कासयाचें उभारलें |
मुख्य कर्त्यास वोळखिलें | म्हणिजे बरें ||२३||
येथेंअनुमान राहिला | तरी परमार्थ केला तो वायां गेला |
प्राणी संशईं बुडाला | प्रचितीविण ||२४||
हें परमार्थाचें वर्म | लटिकें बोले तो अधम |
लटिके मानी तो अधमोद्धम | येथार्थ जाणावा ||२५||
येथें बोलण्याची जाली सीमा | नेणतां न कळे परमात्मा |
असत्य नाहीं सर्वोत्तमा | तूं जाणसी ||२६||
माझे उपासनेचा बडिवार | ज्ञान सांगावें साचार |
मिथ्या बोलतां उत्तर | प्रभूस लगे ||२७||
म्हणोनि सत्यचि बोलिलें | कर्त्यास पाहिजे वोळखिलें |
मायोद्भवाचें शोधिलें | पाहिजे मूळ ||२८||
तेंचि पुढें नीरूपण | बोलिलेंचि बोलिलें प्रमाण |
श्रोतीं सावध अंतःकर्ण | घातलेंचि घालावें ||२९||
सूक्ष्म निरूपण लागलें | तेथें बोलिलेंचि मागुतें बोलिलें |
श्रोत्यांस पाहिजे उमजलें | म्हणौनियां ||३०||
प्रचित पाहातां निकट | उडोन जाती परिपाठ |
म्हणोनि हे खटपट | करणें लागे ||३१||
परिपाठेंचि जरी बोलिलें | तरी प्रचितसमाधान बुडालें |
प्रचितसमाधान राखिलें | तरी परिपाठ उडे ||३२||
ऐसी सांकडी दोहींकडे | म्हणौन बोलिलेंचि बोलणें घडे |
दोनी राखोनियां कोडें | उकलून दाऊं ||३३||
परीपाठ आणी प्रचित प्रमाण | दोनी राखोन निरूपण |
श्रोते परम विचक्षण | विवरोत पुढें ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
प्रचितनिरूपणनाम समास आठवा ||८||१०. ८
समास नववा : पुरुषप्रकृति
||श्रीराम ||
आकाशीं वायो जाला निर्माण | तैसी ब्रह्मीं मूळमाया जाण |
त्या वायोमधें त्रिगुण | आणी पंचभूतें ||१||
वटबीजीं असे वाड | फोडून पाहातां न दिसे झाड |
नाना वृक्षांचे जुंबाड | बीजापासून होती ||२||
तैसी बीजरूप मुळमाया | विस्तार जाला तेथुनियां |
तिचें स्वरूप शोधुनियां | बरें पाहावें ||३||
तेथें दोनी भेद दिसती | विवेकें पाहावी प्रचिती |
निश्चळीं जे चंचळ स्थिती | तोचि वायो ||४||
तयामधें जाणीवकळा | जगज्जोतीचा जिव्हाळा |
वायो जाणीव मिळोन मेळा | मूळमाया बोलिजे ||५||
सरिता म्हणतां बायको भासे | तेथें पाहातां पाणीच असे |
विवेकी हो समजा तैसें | मूळमायेसी ||६||
वायो जाणीव जगज्जोती | तयास मूळमाया म्हणती |
पुरुष आणी प्रकृती | याचेंच नांव ||७||
वायोस म्हणती प्रकृती | आणी पुरुष म्हणती जगज्जोती |
पुरुषप्रकृती शिवशक्ती | याचेंच नांव ||८||
वायोमधें जाणीव विशेष | तेंचि प्रकृतीमधें पुरुष |
ये गोष्टीचा विश्वास | धरिला पाहिजे ||९||
वायो शक्ति जाणीव ईश्वर | अर्धनारी नटेश्वर |
लोक म्हणती निरंतर | येणें प्रकारें ||१०||
वायोमधें जाणीव गुण | तेंचि ईश्वराचें लक्षण |
तयापासून त्रिगुण | पुढें जाले ||११||
तया गुणामधें सत्त्वगुण | निखळ जाणीवलक्षण |
त्याचा देहधारी आपण | विष्णु जाला ||१२||
त्याच्या अंशे जग चाले | ऐसे भगवद्गीता बोले |
गुंतले तेंचि उगवले | विचार पाहातां ||१३||
येक जाणीव वांटली | प्राणीमात्रास विभागली |
जाणजाणों वांचविली | सर्वत्र काया ||१४||
तयेंचे नांव जगज्जोती | प्राणीमात्र तिचेन जिती |
याची रोकडी प्रचिती | प्रत्यक्ष पाहावी ||१५||
पक्षी श्वापद किडा मुंगी | कोणीयेक प्राणी जगीं |
जाणीव खेळे त्याच्या आंगीं | निरंतर ||१६||
जाणोनी काया पळविती | तेणें गुणें वांचती |
दडती आणि लपती | जाणजाणों ||१७||
आवघ्या जगास वांचविती | म्हणोन नामें जगज्जोती |
ते गेलियां प्राणी मरती | जेथील तेथें ||१८||
मुळींचे जाणीवेचा विकार | पुढें जाला विस्तार |
जैसे उदकाचे तुषार | अनंत रेणु ||१९||
तैसे देव देवता भूतें | मिथ्या म्हणोनये त्यांतें |
आपलाल्या सामर्थ्यें ते | सृष्टीमधें फिरती ||२०||
सदा विचरती वायोस्वरूपें | स्वइछा पालटिती रूपें |
अज्ञान प्राणी भ्रमें संकल्पें त्यास | बाधिती ||२१||
ज्ञात्यास संकल्पेचि असेना | म्हणोन त्यांचेन बाधवेना |
याकारणें आत्मज्ञाना | अभ्यासावें ||२२||
अभ्यासिलिया आत्मज्ञान | सर्वकर्मास होये खंडण |
हे रोकडी प्रचित प्रमाण | संदेह नाहीं ||२३||
ज्ञानेविण कर्म विघडे | हें तों कदापि न घडे |
सद्गुरुवीण ज्ञान जोडे | हेंहि अघटीत ||२४||
म्हणोन सद्गुरु करावा | सत्संग शोधून धरावा |
तत्वविचार विवरावा | अंतर्यामीं ||२५||
तत्वें तत्व निरसोन जातां | आपला आपणचि तत्वता |
अनन्यभावें सार्थकता | सहजचि जाली ||२६||
विचार न करितां जें जें केलें | तें तें वाउगें वेर्थ गेलें |
म्हणोनि विचारीं प्रवर्तलें | पाहिजे आधीं ||२७||
विचार पाहेल तो पुरुषु | विचार न पाहे तो पशु |
ऐसी वचनें सर्वेशु | ठाईं ठाईं बोलिला ||२८||
सिद्धांत साधायाकारणें | पूर्वपक्ष लागे उडवणें |
परंतु साधकां निरूपणें | साक्षात्कार ||२९||
श्रवण मनन निजध्यास | प्रचितीनें बाणतां विश्वास |
रोकड साक्षात्कार सायास | करणेंचि नलगे ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
पुरुषप्रकृतीनाम समास नववा ||९||१०. ९
समास दहावा : चळाचळनिरूपण
||श्रीराम ||
गगनासारिखें ब्रह्म पोकळ | उदंड उंच अंतराळ |
निर्गुण निर्मळ निश्चळ | सदोदित ||१||
त्यास परमात्मा म्हणती | आणिक नामें नेणों किती |
परी तें जाणिजे आदिअंतीं | जैसें तैसें ||२||
विस्तीर्ण पसरला पैस | भोंवता दाटला अवकाश |
भासचि नाहीं निराभास | जैसें तैसें ||३||
चहुंकडे पाताळतळीं | अंतचि नाहीं अंतराळीं |
कल्पांतकाळीं सर्वकाळीं | संचलेचि असे ||४||
ऐसें कांहींयेक अचंचळ | ते अचंचळीं भासे चंचळ |
त्यास नामेंहि पुष्कळ | त्रिविधा प्रकारें ||५||
न दिसतां नांव ठेवणें | न देखतां खूण सांगणें |
असो हें जाणायाकारणें | नामाभिधानें ||६||
मूळमाया मूळप्रकृति | मूळपुरुष ऐसें म्हणती |
शिवशक्ति नामें किती | नाना प्रकारें ||७||
परी जें नाम ठेविलें जया | आधीं वोळखावें तया |
प्रचितीवीण कासया | वलगना करावी ||८||
रूपाची न धरितां सोये | नामासरिसें भरंगळों नये |
प्रत्ययाविण गळंगा होये | अनुमानज्ञानें ||९||
निश्चळ गगनीं चंचळ वारा | वाजों लागला भरारां |
परी त्या गगना आणि समीरा | भेद आहे ||१०||
तैसें निश्चळ परब्रह्म | चंचळ माया भासला भ्रम |
त्या भ्रमाचा संभ्रम | करून दाऊं ||११||
जैसा गगनी चालिला पवन | तैसें निश्चळीं जालें चळण |
इछा स्फूर्तिलक्षण | स्फूर्णरूप ||१२||
अहंपणें जाणीव जाली | तेचि मूळप्रकृति बोलिली |
माहाकारणकाया रचली | ब्रह्मांडीची ||१३||
माहामाया मूळप्रकृती | कारण ते अव्याकृती |
सूक्ष्म हिरण्यगर्भ म्हणती | विराट ते स्थूळ ||१४||
ऐसें पंचीकर्ण शास्त्रप्रमये | ईश्वरतनुचतुष्टये |
म्हणोन हें बोलणें होये | जाणीव मूळमाया ||१५||
परमात्मा परमेश्वरु | परेश ज्ञानघन ईश्वरु |
जगदीश जगदात्मा जगदेश्वरु | पुरुषनामें ||१६||
सत्तारूप ज्ञानस्वरूप | प्रकशरूप जोतिरूप |
कारणरूप चिद्रूप | शुद्ध सूक्ष्म अलिप्त ||१७||
आत्मा अंतरात्मा विश्वात्मा | द्रष्टा साक्षी सर्वात्मा |
क्षेत्रज्ञ शिवात्मा जीवात्मा | देही कूटस्त बोलिजे ||१८||
इंद्रात्मा ब्रह्मात्मा हरिहरात्मा | येमात्मा धर्मात्मा नैरूत्यात्मा |
वरुणवायोकुबेरात्मा | ऋषीदेवमुनिधर्ता ||१९||
गण गंधर्व विद्याधर | येक्ष किन्नर नारद तुंबर |
सर्व लोकांचें अंतर | तो सर्वांतरात्मा बोलिजे ||२०||
चंद्र सूर्य तारामंडळें | भूमंडळें मेघमंडळें |
येकवीस स्वर्गें सप्त पाताळें | अंतरात्माच वर्तवी ||२१||
गुप्त वल्ली पाल्हाळली | तिचीं पुरुषनामें घेतलीं |
आतां स्त्रीनामें ऐकिलीं | पाहिजे श्रोतीं ||२२||
मूळमाया जगदेश्वरी | परमविद्या परमेश्वरी |
विश्ववंद्या विश्वेश्वरी | त्रैलोक्यजननी ||२३||
अंतर्हेतु अंतर्कळा | मौन्यगर्भ जाणीवकळा |
चपळ जगज्जोती जीवनकळा | परा पश्यंती मध्यमा ||२४||
युक्ति बुद्धि मति धारणा | सावधानता नाना चाळणा |
भूत भविष्य वर्तमाना | उकलून दावी ||२५||
जागृति स्वप्न सुषुप्ती जाणे | तुर्या ताटस्ता अवस्ता जाणे |
सुख दुःख सकळ जाणे | मानापमान ||२६||
ते परम कठीण कृपाळु | ते परम कोमळ स्नेहाळु |
ते परम क्रोधी लोभाळु | मर्यादेवेगळी ||२७||
शांती क्ष्मा विरक्ती भक्ती | अध्यात्मविद्या सायोज्यमुक्ति |
विचारणा सहजस्थिति | जयेचेनी ||२८||
पुर्वीं पुरुषनामें बोलिलीं | उपरी स्त्रीनामें निरोपिलीं |
आतां नपुषकनामें ऐकिलीं | पाहिजे चंचळाचीं ||२९||
जाणणें अंतःकर्ण चित्त | श्रवण मनन चैतन्य जीवित |
येतें जातें सुचीत | होऊन पाहा ||३०||
मीपण तूंपण जाणपण | ज्ञातेंपण सर्वज्ञपण |
जीवपण शिवपण ईश्वरपण | अलिप्तपण बोलिजे ||३१||
ऐसीं नामें उदंड असती | परी ते येकचि जगज्जोती |
विचारवंत ते जाणती | सर्वांतरात्मा ||३२||
आत्मा जगज्जोती सर्वज्ञपण | तीनी मिळोन येकचि जाण |
अंतःकर्णचि प्रमाण | ज्ञेप्तीमात्र ||३३||
ढीग जाले पदार्थाचे | पुरुष स्त्री नपुंसक नामांचे |
परंतु सृष्टीरचनेचें | किती म्हणोन संगावें ||३४||
सकळ चाळिता येक | अंतरात्मा वर्तती अनेक |
मुंगीपासून ब्रह्मादिक | तेणेंचि चालती ||३५||
तो अंतरात्मा आहे कैसा | प्रस्तुत वोळखाना आमासा |
नाना प्रकारींचा तमासा | येथेंचि आहे ||३६||
तो कळतो परी दिसेना | प्रचित येते परी भासेना |
शरीरीं असे परी वसेना | येके ठाईं ||३७||
तीक्षणपणें गगनीं भरे | सरोवर देखतां च पसरे |
पदार्थ लक्षून उरे | चहूंकडे ||३८||
जैसा पदार्थ दृष्टीस दिसतो | तो त्यासारिखाच होतो |
वायोहूनि विशेष तो | चंचळविषईं ||३९||
कित्येक दृष्टीनें देखे | कितीयेक रसनेनें चाखे |
कितीयेक ते वोळखे | मनेंकरूनि ||४०||
श्रोतीं बैसोन शब्द ऐकतो | घ्राणेंद्रियें वास घेतो |
त्वचेइंद्रियें जाणतो | सीतोष्णादिक ||४१||
ऐशा जाणे अंतर्कळा | सकळामधें परी निराळा |
पाहातां त्याची अगाध लीळा | तोचि जाणे ||४२||
तो पुरुष ना सुंदरी | बाळ तारुण्य ना कुमारी |
नपुंसकाचा देहधारी | परी नपुसक नव्हे ||४३||
तो चालवी सकळ देहासी | करून अकर्ता म्हणती त्यासी |
तो क्षेत्रज्ञ क्षेत्रवासी | देही कूटस्त बोलिजे ||४४||
||श्लोक ||
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते ||
दोनी पुरुष लोकीं असती | क्षराक्षर बोलिजती |
सर्व भूतें क्षर म्हणती | अक्षर कूटस्त बोलिजे ||४५||
उत्तम पुरुष तो आणीक | निःप्रपंच निःकळंक |
निरंजन परमात्मा येक | निर्विकारी ||४६||
च्यारी देह निरसावे | साधकें देहातीत व्हावें |
देहातीत होतां जाणावें | अनन्य भक्त ||४७||
देहमात्र निरसुनी गेला | तेथें अंतरात्मा कैसा उरला |
निर्विकारीं विकाराला | ठाव नाहीं ||४८||
निश्चळ परब्रह्म येक | चंचळ जाणावें माईक |
ऐसा प्रत्यय निश्चयात्मक | विवेकें पाहावा ||४९||
येथें बहुत नलगे खळखळ | येक चंचळ येक निश्चळ |
शाश्वत कोणतें केवळ | ज्ञानें वोळखावें ||५०||
असार त्यागून घेईजे सार | म्हणोन सारासार विचार |
नित्यानित्य निरंतर | पाहाती ज्ञानी ||५१||
जेथे ज्ञानचि होते विज्ञान | जेथें मनांचे होतें उन्मन |
तेथें कैचें चंचळपण | आत्मयासी ||५२||
सांगणोवांगणीचें काम नव्हे | आपुल्या अनुभवें जाणावें |
प्रत्ययाविण सिणावें | तेंचि पाप ||५३||
सत्यायेवढें सुकृत नाहीं | असत्यायेवढें पाप नाहीं |
प्रचितीविण कोठेंचि नाहीं | समाधान ||५४||
सत्य म्हणिजे स्वरूप जाण | असत्य माया हें प्रमाण |
येथें निरोपिलें पापपुण्य | रूपेंसहित ||५५||
दृश पाप वोसरलें | पुण्य परब्रह्म उरलें |
अनन्य होतांच जालें | नामातीत ||५६||
आपण वस्तु स्वतसिद्ध | तेथें नाहीं देहसमंध |
पापरासी होती दग्ध | येणें प्रकारें ||५७||
येरवी ब्रह्मज्ञानेंवीण | जें जें साधन तो तो सीण |
नाना दोषांचे क्षाळण | होईल कैसें ||५८||
पापाचें वळलें शरीर | पापचि घडे तदनंतर |
अंतरीं रोग वरीवरी उपचार | काय करी ||५९||
नाना क्षेत्रीं हें मुंडिलें | नाना तीर्थीं हें दंडिलें |
नाना निग्रहीं खंडिलें | ठाईं ठाईं ||६०||
नाना मृत्तिकेनें घांसिलें | अथवा तप्तमुद्रेनें लासिलें |
जरी हें वरीवरी तासिलें | तरी शुद्ध नव्हे ||६१||
सेणाचे गोळे गिळिले | गोमुत्राचे मोघे घेतले |
माळा रुद्राक्ष घातले | काष्ठमणी ||६२||
वेष वरीवरी केला | परी अंतरीं दोष भरला |
त्या दोषाच्या दहनाला | आत्मज्ञान पाहिजे ||६३||
नाना व्रतें नाना दानें | नाना योग तीर्थाटणें |
सर्वांहुनी कोटीगुणें | महिमा आत्मज्ञानाचा ||६४||
आत्मज्ञान पाहे सदा | त्याच्या पुण्यास नाहीं मर्यादा |
दुष्ट पातकाची बाधा | निरसोन गेली ||६५||
वेदशास्त्रीं सत्यस्वरूप | तेंचि ज्ञानियांचें रूप |
पुण्य जालें अमूप | सुकृतें सीमा सांडिली ||६६||
या प्रचितीच्या गोष्टी | प्रचित पाहावी आत्मदृष्टीं |
प्रचितीवेगळे कष्टी | होऊंच नये ||६७||
आगा ये प्रचितीचे लोक हो | प्रचित नस्तां अवघा शोक हो |
रघुनाथकृपेनें राहो | प्रत्यय निश्चयाचा ||६८||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
चळाचळनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||१०. १०
||दशक दहावा समाप्त ||
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% Language : Marathi, Sanskrit
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