||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक ९ ||
||दशक नववा : गुणरूप ||९||
समास पहिला : आशंकानाम
||श्रीराम ||
निराकार म्हणिजे काये | निराधार म्हणिजे काये |
निर्विकल्प म्हणिजे काये | निरोपावें ||१||
निराकार म्हणिजे आकार नाहीं | निराधार म्हणिजे आधार नाहीं |
निर्विकल्प म्हणिजे कल्पना नाहीं | परब्रह्मासी ||२||
निरामय म्हणिजे काये | निराभास म्हणिजे काये |
निरावेव म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||३||
निरामय म्हणिजे जळमये नाहीं | निराभास म्हणिजे भासचि नाहीं |
निरावेव म्हणिजे अवेव नाहीं | परब्रह्मासी ||४||
निःप्रपंच म्हणिजे काये | निःकळंक म्हणिजे काये |
निरोपाधी म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||५||
निःप्रपंच म्हणिजे प्रपंच नाहीं | निःकळंक म्हणिजे कळंक नाहीं |
निरोपाधी म्हणिजे उपाधी नाहीं | परब्रह्मासी ||६||
निरोपम्य म्हणिजे काये | निरालंब म्हणिजे काये |
निरापेक्षा म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||७||
निरोपम्य म्हणिजे उपमा नाहीं | निरालंब म्हणिजे अवलंबन नाहीं |
निरापेक्षा म्हणिजे अपेक्षा नाहीं | परब्रह्मासी ||८||
निरंजन म्हणिजे काये | निरंतर म्हणिजे काये |
निर्गुण म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||९||
निरंजन म्हणिजे जनचि नाहीं | निरंतर म्हणिजे अंतर नाहीं |
निर्गुण म्हणिजे गुणचि नाहीं | परब्रह्मासी ||१०||
निःसंग म्हणिजे काये | निर्मळ म्हणिजे काये |
निश्चळ म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||११||
निःसंग म्हणिजे संगचि नाहीं | निर्मळ म्हणिजे मळचि नाहीं |
निश्चळ म्हणिजे चळण नाहीं | परब्रह्मासी ||१२||
निशब्द म्हणिजे काये | निर्दोष म्हणिजे काये |
निवृत्ती म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||१३||
निशब्द म्हणिजे शब्दचि नाही | निर्दोष म्हणिजे दोषचि नाही |
निवृत्ति म्हणिजे वृत्तिच नाहीं | परब्रह्मासी ||१४||
निःकाम म्हणिजे काये | निर्लेप म्हणिजे काये |
निःकर्म म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||१५||
निःकाम म्हणिजे कामचि नाहीं | निर्लेप म्हणिजे लेपचि नाहीं |
निःकर्म म्हणिजे कर्मचि नाहीं | परब्रह्मासी ||१६||
अनाम्य म्हणिजे काये | अजन्मा म्हणिजे काये |
अप्रत्यक्ष म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||१७||
अनाम्य म्हणिजे नामचि नाहीं | अजन्मा म्हणिजे जन्मचि नाहीं |
अप्रत्यक्ष म्हणिजे प्रत्यक्ष नाहीं | परब्रह्म तें ||१८||
अगणित म्हणिजे काये | अकर्तव्य म्हणिजे काये |
अक्षै म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||१९||
अगणित म्हणिजे गणित नाहीं | अकर्तव्य म्हणिजे कर्तव्यता नाहीं |
अक्षै म्हणिजे क्षयचि नाहीं | परब्रह्मासी ||२०||
अरूप म्हणिजे काये | अलक्ष म्हणिजे काये |
अनंत म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||२१||
अरूप म्हणिजे रूपचि नाहीं | अलक्ष म्हणिजे लक्षत नाहीं |
अनंत म्हणिजे अंतचि नाहीं | परब्रह्मासी ||२२||
अपार म्हणिजे काये | अढळ म्हणिजे काये |
अतर्क्य म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||२३||
अपार म्हणिजे पारचि नाहीं | अढळ म्हणिजे ढळचि नाहीं |
अतर्क्ये म्हणिजे तर्कत नाहीं | परब्रह्म तें ||२४||
अद्वैत म्हणिजे काये | अदृश्य म्हणिजे काये |
अच्युत म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||२५||
अद्वैत म्हणिजे द्वैतचि नाहीं | अदृश्य म्हणिजे दृश्यचि नाहीं |
अच्युत म्हणिजे चेवत नाहीं | परब्रह्म तें ||२६||
अछेद म्हणिजे काये | अदाह्य म्हणिजे काये |
अक्लेद म्हणिजे काये | मज निरोपावें ||२७||
अछेद म्हणिजे छेदेना | अदाह्य म्हणिजे जळेना |
अक्लेद म्हणिजे कालवेना | परब्रह्म तें ||२८||
परब्रह्म म्हणिजे सकळांपरतें | तयास पाहातां आपणचि तें |
हें कळे अनुभवमतें | सद्गुरु केलियां ||२९||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आशंकानाम समास पहिला ||१||९. १
समास दुसरा : ब्रह्मनिरूपण
||श्रीराम ||
जें जें कांहीं साकार दिसे | तें तें कल्पांतीं नासे |
स्वरूप तें असतचि असे | सर्वकाळ ||१||
जें सकळांमधें सार | मिथ्या नव्हे तें साचार |
जें कां नित्य निरंतर | संचले असे ||२||
तें भगवंताचें निजरूप | त्यासि बोलिजे स्वरूप |
याहि वेगळे अमूप | नामें तयाचीं ||३||
त्यास नामाचा संकेत | कळावया हा दृष्टांत |
परी तें स्वरूप नामातीत | असतचि असे ||४||
दृश्यसबाह्य संचलें | परी तें विश्वास चोरले |
जवळिच नाहीसें जालें | असतचि कैसें ||५||
ऐसा ऐकोनियां देव | उठे दृष्टीचा भाव |
पाहों जातां दिसे सर्व | दृश्यचि आवघें ||६||
दृष्टीचा विषयो दृश्य | तोचि जालिया सादृश्य |
तेणें दृष्टी पावे संतोष | परी तें देखणें नव्हे ||७||
दृष्टीस दिसे तें नासे | येतद्विषईं श्रुति असे |
म्हणौन जें दृष्टीस दिसे | तें स्वरूप नव्हे ||८||
स्वरूप तें निराभास | आणी दृश्य भासलें साभास |
भासास बोलिलें नास | वेदांतशास्त्रीं ||९||
आणी पाहातां दृश्यचि भासे | वस्तु दृश्यावेगळी असे |
स्वानुभवें पाहातां दिसे | तें दृश्यासबाह्य ||१०||
जें निराभास निर्गुण | त्याची काये सांगावी खूण |
परी तें स्वरूप जाण | सन्निधचि असें ||११||
जैसा आकाशीं भासला भास | आणी सकळांमध्यें आकाश |
तैसा जाणिजे जगदीश | सबाह्य अभ्यांतरीं ||१२||
उदकामधें परी भिजेना | पृथ्वीमधें परी झिजेना |
वन्हीमधें परी सिजेना | स्वरूप देवाचें ||१३||
तें रेंद्यामधें परी बुडेना | तें वायोमधें परी उडेना |
सुवर्णीं असे परी घडेना | सुवर्णासारिखें ||१४||
ऐसें जें संचलें सर्वदा | परी ते आकळेना कदा |
अभेदामाजीं वाढवी भेदा | ते हे अहंता ||१५||
तिच्या स्वरूपाची खूण | सांगों कांहीं वोळखण |
अहंतेचें निरूपण | सावध ऐका ||१६||
जे स्वरूपाकडे पावे | अनुभवासवें झेंपावे |
अनुभवाचे शब्द आघवे | बोलोन दावी ||१७||
म्हणे आतां मीच स्वरूप | तेंचि अहंतेचें रूप |
निराकारीं आपे ंआप | वेगळी पडे ||१८||
स्वयें मीच आहे ब्रह्म | ऐसा अहंतेचा भ्रम |
ऐसियें सूक्ष्मीं सूक्ष्म | पाहातां दिसे ||१९||
कल्पना आकळी हेत | वस्तु कल्पनातीत |
म्हणौन नाकळे अंत | अनंताचा ||२०||
अन्वये आणि वीतरेक | हा शब्द कोणीयेक |
निशब्दाच अंतरविवेक | शोधिला पाहिजे ||२१||
आधीं घेईजे वाच्यांश | मग वोळखिजे लक्ष्यांश |
लक्ष्यांशीं पाहातां वाच्यांश | असेल कैंचा ||२२||
सर्वब्रह्म आणी विमळब्रह्म | हा वाच्यांशाचा अनुक्रम |
शोधितां लक्ष्यांशाचें वर्म | वाच्यांश नसे ||२३||
सर्व विमळ दोनी पक्ष | वाच्यांशीं आटती प्रत्यक्ष |
लक्ष्यांशी लावीता लक्ष | पक्षपात घडे ||२४||
हें लक्ष्यांशें अनुभवणें | येथें नाहीं वाच्यांश बोलणे |
मुख्य अनुभवाचे खुणे | वाचारंभ कैंचा ||२५||
परा पश्यंती मधेमां वैखरी | जेथें वोसरती च्यारी |
तेथें शब्द कळाकुंसरी | कोण काज ||२६||
शब्द बोलतां सवेंच नासे | तेथें शाश्वतता कोठें असे |
प्रत्यक्षास प्रमाण नसे | बरें पाहा ||२७||
शब्द प्रत्यक्ष नासिवंत | म्हणोन घडे पक्षपात |
सर्व विमळ ऐसा हेत | अनुभवीं नाहीं ||२८||
ऐक अनुभवाचें लक्षण | अनुभव म्हणिजे अनन्य जाण |
ऐक अनन्याचें लक्षण | ऐसें असे ||२९||
अनन्य म्हणिजे अन्य नसे | आत्मनिवेदन जैसें |
संगभंगें असतचि असे | आत्मा आत्मपणें ||३०||
आत्म्यास नाहीं आत्मपण | हेंचि निःसंगाचें लक्षण |
हें वाच्यांशें बोलिले जाण | कळावया कारणें ||३१||
येरवीं लक्ष्यांश तो वाच्यांशें | सांगिजेल हें घडे कैसें |
वाक्य विवरणें अपैसें | कळों लागे ||३२||
करावें तत्वविवरण | शोधावें ब्रह्म निर्गुण |
पाहावें आपणास आपण | म्हणिजे कळे ||३३||
हें न बोलतांच विवरिजे | विवरोन विरोन राहिजे |
मग अबोलणेंचि साजे | माहापुरुषीं ||३४||
शब्दचि निशब्द होती | श्रुति नेति नेति नेति म्हणती |
हें तों आलें आत्मप्रचिती | प्रत्यक्ष आतां ||३५||
प्रचित आलियां अनुमान | हा तों प्रत्यक्ष दुराभिमान |
तरी आतां मी अज्ञान | मज कांहींच न कळे ||३६||
मी लटिका माझें बोलणें लटिकें | मी लटिका माझें चालणें लटिकें |
मी माझें अवघेंचि लटिकें | काल्पनिक ||३७||
मज मुळींच नाहीं ठाव | माझे बोलणें अवघेंचि वाव |
हा प्रकृतीचा स्वभाव | प्रकृती लटिकी ||३८||
प्रकृती आणी पुरुष | यां दोहींस जेथें निरास |
तें मीपण विशेष | हें केवि घडे ||३९||
जेथें सर्व हि अशेष जालें | तेथें विशेष कैंचे आलें |
मी मौनी म्हणतां भंगलें | मौन्य जैसें ||४०||
आतां मौन्य न भंगावें | करून कांहींच न करावें |
असोन निशेष नसावें | विवेकबळें ||४१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
ब्रह्मनिरूपणनाम समास दुसरा ||२||९. २
समास तिसरा : निःसंदेह निरूपण
||श्रीराम ||
श्रोतीं केला अनुमान | ऐसें कैसें ब्रह्मज्ञान |
कांहींच नाहीं असोन | हें केवि घडे ||१||
सकळ करून अकर्ता | सकळ भोगून अभोक्ता |
सकळांमधें अलिप्तता | येईल कैसी ||२||
तथापि तुम्ही म्हणतां | योगी भोगून अभोक्ता |
स्वर्गनरकहि आतां | येणेंचि न्यायें ||३||
जन्म मृत्यु भोगिलेच भोगी | परी तो भोगून अभोक्ता योगी |
यातना हि तयालागीं | येणेंचि पाडें ||४||
कुटून नाहीं कुटिला | रडोन नाहीं रडला |
कुंथोन नाहीं कुंथिला | योगेश्वर ||५||
जन्म नसोन घातला | पतित नसोन जाला |
यातना नसोन पावला | नानापरी ||६||
ऐसा श्रोतयांचा अनुमान | श्रोतीं घेतलें आडरान |
आतां याचें समाधान | केलें पाहिजे ||७||
वक्ता म्हणे सावध व्हावें | तुम्ही बोलतां बरवें |
परी हें तुमच्याच अनुभवें | तुम्हास घडे ||८||
ज्याचा अनुभव जैसा | तो तो बोलतो तैसा |
संपदेविण हो धिवसा | तो निरार्थक ||९||
नाहीं ज्ञानाची संपदा | अज्ञानदारिद्रें आपदा |
भोगिल्याच भोगी सदा | शब्दज्ञानें ||१०||
योगी वोळखावा योगेश्वरें | ज्ञानी वोळखावा ज्ञानेश्वरें |
माहाचतुर तो चतुरें | वोळखावा ||११||
अनुभवी अनुभवियास कळे | अलिप्त अलिप्तपणें निवळें |
विदेहाचा देहभाव गळे | विदेही देखतां ||१२||
बद्धासारिखा सिद्ध | आणी सिद्धासारिखा बद्ध |
येक भावील तो अबद्ध | म्हणावाच नलगे ||१३||
झडपला तो देहधारी | आणी देहधारक पंचाक्षरी |
परंतु दोघां येकसरी | कैसी द्यावी ||१४||
तैसा अज्ञान पतित | आणी ज्ञानी जीवन्मुक्त |
दोघे समान मानील तो युक्त | कैसा म्हणावा ||१५||
आतां असो हे दृष्टांत | प्रचित बोलों कांहीं हेत |
येथें श्रोतीं सावचित्त | क्षणयेक व्हावें ||१६||
जो जो ज्ञानें गुप्त जाला | जो विवेकें विराला |
जो अनन्यपणें उरला | नाहींच कांहीं ||१७||
तयास कैसें गवसावें | शोधूं जातां तोचि व्हावें |
तोचि होतां म्हणावें | नलगे कांहीं ||१८||
देहीं पाहातां दिसेना | तत्वें शोधितां भासेना |
ब्रह्म आहे निवडेना | कांहीं केल्यां ||१९||
दिसतो तरी देहधारी | परी कांहींच नाहीं अंतरीं |
तयास पाहातां वरिवरी | कळेल कैसा ||२०||
कळाया शोधावें अंतर | तंव तो नित्य निरंतर |
जयास धुंडितां विकार | निर्विकार होती ||२१||
तो परमात्मा केवळ | तयास नाहीं मायामळ |
अखंड हेतूचा विटाळ | जालाच नाहीं ||२२||
ऐसा जो योगीराज | तो आत्मा सहजीं सहज |
पूर्णब्रह्म वेदबीज | देहाकारें कळेना ||२३||
देह भावितां देहचि दिसे | परी अंतर अनारिसें असे |
तयास शोधितां नसे | जन्म मरण ||२४||
जयास जन्ममरण व्हावें | तें तो नव्हेचि स्वभावें |
नाहींच तें आणावें | कोठून कैंचें ||२५||
निर्गुणास जन्म कल्पिला | अथवा निर्गुण उडविला |
तरी उडाला आणी जन्मला | आपला आपण ||२६||
माध्यांनीं थुंकितां सूर्यावरी | तो थुंका पडेल आपणांच वरी |
दुसऱ्यास चिंतितां अंतरीं | आपणास घडे ||२७||
समर्थ रायाचे महिमान | जाणतां होते समाधान |
परंतु भुंकों लागलें स्वान | तरी तें स्वानचि आहे ||२८||
ज्ञानी तो सत्यस्वरूप | अज्ञान देखे मनुष्यरूप |
भावासारिखा फळद्रूप | देव तैसा ||२९||
देव निराकार निर्गुण | लोक भाविती पाषाण |
पाषाण फुटतो निर्गुण | फुटेल कैसा ||३०||
देव सदोदित संचला | लोकीं बहुविध केला |
परंतु बहुविध जाला | हें तों घडेना ||३१||
तैसा साधु आत्मज्ञानी | बोधें पूर्ण समाधानी |
विवेकें आत्मनिवेदनी | आत्मरूपी ||३२||
जळोन काष्ठाचा आकार | अग्नि दिसे काष्ठाकार |
परी काष्ठ होईल हा विचार | बोलोंच नये ||३३||
कर्पूर असे तों जळतां दिसे | तैसा ज्ञानीदेह भासे |
तयास जन्मवितां कैसें | कर्दळीउदरीं ||३४||
बीज भाजलें उगवेना | वस्त्र जळालें उकलेना |
वोघ निवडितां निवडेना | गंगेमधें ||३५||
वोघ गंगेमागें दिसे | गंगा येकदेसी असे |
साधु कांहींच न भासे | आणी आत्मा सर्वगत ||३६||
सुवर्ण नव्हे लोखंड | साधूस जन्म थोतांड |
अज्ञान प्राणी जडमूढ | तयास हें उमजेचिना ||३७||
अंधास कांहींच न दिसे | तरी ते लोक आंधळे कैसे |
सन्नपातें बरळतसे | सन्नपाती ||३८||
जो स्वप्नामधें भ्याला | तो स्वप्नभयें वोसणाला |
तें भये जागत्याला | केवि लागे ||३९||
मुळी सर्पाकार देखिली | येक भ्याला येकें वोळखिली |
दोघांची अवस्था लेखिली | सारिखीच कैसी ||४०||
हातीं धरितां हि डसेना | हें येकास भासेना |
तरी ते त्याची कल्पना | तयासीच बाधी ||४१||
विंचु सर्प डसला | तेणें तोचि जाकळला |
तयाचेनि लोक जाला | कासावीस कैसा ||४२||
आतां तुटला अनुमान | ज्ञानियास कळे ज्ञान |
अज्ञानास जन्ममरण | चुकेचिना ||४३||
येका जाणण्यासाठीं | लोक पडिले अटाटीं |
नेणपणें हिंपुटी होती | जन्ममृत्यें ||४४||
तेंचि कथानुसंधान | पुढें केलें परिछिन्न |
सावधान सावधान | म्हणे वक्ता ||४५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
निःसंदेहनिरूपणनाम समास तिसरा ||३||९. ३
समास चवथा : जाणपणनिरूपण
||श्रीराम ||
पृथ्वीमधें लोक सकळ | येक संपन्न येक दुर्बळ |
येक निर्मळ येक वोंगळ | काय निमित्य ||१||
कित्येक राजे नांदती | कित्येक दरिद्र भोगिती |
कितीयेकांची उत्तम स्थिती | कित्येक अधमोद्धम ||२||
ऐसें काय निमित्य जालें | हें मज पाहिजे निरोपिलें |
याचे उत्तर ऐकिलें | पाहिजे श्रोतीं ||३||
हे सकळ गुणापासीं गती | सगुण भाग्यश्री भोगिती |
अवगुणास दरिद्रप्राप्ती | येदर्थीं संदेह नाहीं ||४||
जो जो जेथें उपजला | तो ते वेवसाईं उमजला |
तयास लोक म्हणती भला | कार्यकर्ता ||५||
जाणता तो कार्य करी | नेणतां कांहींच न करी |
जाणता तो पोट भरी | नेणता भीक मागे ||६||
हें तों प्रकटचि असे | जनीं पाहातां प्रत्यक्ष दिसे |
विद्येवीण करंटा वसे | विद्या तो भाग्यवंत ||७||
आपुली विद्या न सिकसी | तरी काये भीक मागसी |
जेथें तेथें बुद्धी ऐसी | वडिलें सांगती ||८||
वडिल आहे करंटा | आणी समर्थ होये धाकुटा |
कां जे विद्येनें मोटा | म्हणोनिया ||९||
विद्या नाही बुद्धी नाही | विवेक नाहीं साक्षेप नाहीं |
कुशळता नाहीं व्याप नाहीं | म्हणौन प्राणी करंटा ||१०||
इतुकें हि जेथें वसे | तेथें वैभवास उणें नसे |
वैभव सांडितां अपैसें | पाठीं लागे ||११||
वडिल समर्थ धाकुटा भिकारी | ऐका याची कैसी परी |
वडिला ऐसा व्याप न करी | म्हणोनियां ||१२||
जैसी विद्या तैसी हांव | जैसा व्याप तैसें वैभव |
तोलासारिखा हावभाव | लोक करिती ||१३||
विद्या नसे वैभव नसे | तेथें निर्मळ कैंचा असे |
करंटेपणें वोखटा दिसे | वोंगळ आणी विकारी ||१४||
पशु पक्षी गुणवंत | त्यास कृपा करी समर्थ |
गुण नस्तां जिणें वेर्थ | प्राणीमात्राचें ||१५||
गुण नाहीं गौरव नाहीं | सामर्थ्य नाहीं महत्व नाहीं |
कुशळता नाहीं तर्क नाहीं | प्राणीमात्रासी ||१६||
याकारणें उत्तम गुण | तेंचि भाग्याचें लक्षण |
लक्षणेवीण अवलक्षण | सहजचि जालें ||१७||
जनामधें तो जाणता | त्यास आहे मान्यता |
कोणी येक विद्या असतां | महत्व पावे ||१८||
प्रपंच अथवा परमार्थ | जाणता तोचि समर्थ |
नेणता जाणिजे वेर्थ | निःकारण ||१९||
नेणतां विंचु सर्प डसे | नेणतां जीवघात असे |
नेणतां कार्य नासे | कोणी येक ||२०||
नेणतां प्राणी सिंतरे | नेणपणें तऱ्हे भरे |
नेणपणे ठके विसरे | पदार्थ कांहीं ||२१||
नेणतां वैरी जिंकिती | नेणतां अपाईं पडती |
नेणतां संव्हारती घडती | जीवनास ||२२||
आपुले स्वहित न कळे जना | तेणें भोगिती यातना |
ज्ञान नेणतां अज्ञाना | अधोगती ||२३||
मायाब्रह्म जीवशिव | सारासार भावाभाव |
जाटिल्यासाठीं होतें वाव | जन्ममरण ||२४||
कोण कर्ता निश्चयेंसीं | बद्ध मोक्ष तो कोणासी |
ऐसें जाणतां प्राणीयासी | सुटिकां घडे ||२५||
जाणिजे देव निर्गुण | जाणिजे मी तो कोण |
जाणिजे अनन्यलक्षण | म्हणिजे मुक्त ||२६||
जितुकें जाणोन सांडिलें | तितुकें दृश्य वोलांडिलें |
जाणत्यास जाणतां तुटलें | मूळ मीपणाचें ||२७||
न जाणतां कोटीवरी | साधनें केलीं परोपरीं |
तरी मोक्षास अधिकारी | होणार नाहीं ||२८||
मायाब्रह्म वोळखावें | आपणास आपण जाणावें |
इतुक्यासाठीं स्वभावें | चुके जन्म ||२९||
जाणतां समर्थाचें अंतर | प्रसंगें वर्ते तदनंतर |
भाग्य वैभव अपार | तेणेचि पावे ||३०||
म्हणौन जाणणें नव्हे सामान्य | जाणतां होईजे सर्वमान्य |
कांहींच नेणतां अमान्य | सर्वत्र करिती ||३१||
पदार्थ देखोन भूत भावी | नेणतें झडपोन प्राण ठेवी |
मिथ्या आहे उठाठेवी | जाणते जाणती ||३२||
जाणत्यास कळे वर्म | नेणत्याचें खोटें कर्म |
सकळ कांहीं धर्माधर्म | जाणतां कळे ||३३||
नेणत्यास येमयातना | जाणत्यास कांहींच लागेना |
सकळ जाणोन विवंचना | करी तो मुक्त ||३४||
नेणतां कांहीं राजकारण | अपमान करून घेती प्राण |
नेणतां कठीण वर्तमान | समस्तांस होये ||३५||
म्हणोनियां नेणणें खोटें | नेणते प्राणी करंटे |
जाणतां विवरतां तुटे | जन्ममरण ||३६||
म्हणोन अलक्ष करूं नये | जाणणें हाचि उपाये |
जाणतां सापडें सोये | परलोकाची ||३७||
जाणणें सकळांस प्रमाण | मूर्खास वाटे अप्रमाण |
परंतु अलिप्तपणाची खूण | जाणतां कळे ||३८||
येक जाणणें करून परतें | कोण सोडी प्राणीयातें |
कोणी येक कार्य जें तें | जाटिल्याविण न कळे ||३९||
जाणणें म्हणिजे स्मरण | नेणणें म्हणिजे विस्मरण |
दोहींमधें कोण प्रमाण | शाहाणे जाणती ||४०||
जाणते लोक ते शाहाणे | नेणते वेडे दैन्यवाणे |
विज्ञान तेहि जाणपणें | कळो आलें ||४१||
जेथें जाणपण खुंटलें | तेथें बोलणें हि तुटलें |
हेतुरहित जालें | समाधान ||४२||
श्रोतें म्हणती हें प्रमाण | जालें परम समाधान |
परी पिंडब्रह्मांड ऐक्यलक्षण | मज निरोपावें ||४३||
ब्रह्मांडीं तेंचि पिंडीं असे | बहुत बोलती ऐसें |
परंतु याचा प्रत्यय विलसे | ऐसें केलें पाहिजे ||४४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
जाणपणनिरूपणनाम समास चौथा ||४||९. ४
समास पांचवा : अनुमाननिर्शन
||श्रीराम ||
पिंडासारिखी ब्रह्मांडरचना | नये आमुच्या अनुमाना |
प्रचित पाहातां नाना | मतें भांबावती ||१||
जें पिंडीं तेंचि ब्रह्मांडीं | ऐसी बोलावयाचि प्रौढी |
हें वचन घडिनें घडी | तत्वज्ञ बोलती ||२||
पिंड ब्रह्मांड येक राहाटी | ऐसी लोकांची लोकधाटी |
परी प्रत्ययाचे परीपाटीं | तगों न सके ||३||
स्थूळ सूक्ष्म कारण माहाकारण | हे च्यारी पिंडींचे देह जाण |
विराट हिरण्य अव्याकृत मूळप्रकृती हे खूण | ब्रह्मांडींची ||४||
हे शास्त्राधाटी जाणावी | परी प्रचित कैसी आणावी |
प्रचित पाहातां गथागोवी | होत आहे ||५||
पिंडीं आहे अंतःकरण | तरी ब्रह्मांडीं विष्णु जाण |
पिंडीं बोलिजेतें मन | तरी ब्रह्मांडीं चंद्रमा ||६||
पिंडीं बुद्धी ऐसें बोलिजे | तरी ब्रह्मांडीं ब्रह्मा ऐसें जाणिजे |
पिंडीं चित्त ब्रह्मांडीं वोळखिजे | नारायेणु ||७||
पिंडीं बोलिजे अहंकार | ब्रह्मांडीं रुद्र हा निर्धार |
ऐसा बोलिला विचार | शास्त्रांतरीं ||८||
तरी कोण विष्णूचें अंतःकर्ण | चंद्राचें कैसें मन |
ब्रह्मयाचे बुद्धीलक्षण | मज निरोपावें ||९||
नारायणाचें कैसें चित्त | रुद्रअहंकाराचा हेत |
हा विचार पाहोन नेमस्त | मज निरोपावा ||१०||
प्रचितनिश्चयापुढें अनुमान | जैसें सिंहापुढें आलें स्वान |
खऱ्यापुढें खोटें प्रमाण | होईल कैसें ||११||
परी यास पारखी पाहिजे | पारखीनें निश्चय लाहिजे |
परिक्षा नस्तां राहिजे | अनुमानसंशईं ||१२||
विष्णु चंद्र आणी ब्रह्मा | नारायेण आणी रुद्रनामा |
यां पाचांची अंतःकर्णपंचकें आम्हा | स्वामी निरोपावीं ||१३||
येथें प्रचित हें प्रमाण | नलगे शास्त्राचा अनुमान |
अथवा शास्त्रीं तरी पाहोन | प्रत्ययो आणावा ||१४||
प्रचितीवीण जें बोलणें | तें अवघेंचि कंटाळवाणें |
तोंड पसरून जैसें सुणें | रडोन गेलें ||१५||
तेथें काये हो ऐकावें | आणी काये शोधून पाहावें |
जेथें प्रत्यायाच्या नावें | सुन्याकार ||१६||
आवघें आंधळेचि मिळाले | तेथें डोळसाचें काय चाले |
अनुभवाचे नेत्र गेले | तेथें अंधकार ||१७||
नाही दुग्ध नाही पाणी | केली विष्ठेची सारणी |
तेथें निवडावयाचे धनी | ते येक डोंबकावळे ||१८||
आपुले इछेनें बोलिलें | पिंडाऐसे ब्रह्मांड कल्पिले |
परी तें प्रचितीस आलें | कोण्या प्रकारें ||१९||
म्हणोन हा अवघाच अनुमान | अवघें कल्पनेचें रान |
भलीं न घ्यावें आडरान | तश्करीं घ्यावें ||२०||
कल्पून निर्मिले मंत्र | देव ते कल्पनामात्र |
देव नाहीं स्वतंत्र | मंत्राधेन ||२१||
येथें न बोलतां जाणावें | बोलणें विवेका आणावें |
आंधळें पाउलीं वोळखावें | विचक्षणें ||२२||
जयास जैसें भासलें | तेणें तैसें कवित्व केलें |
परी हें पाहिजे निवडिलें | प्रचितीनें ||२३||
ब्रह्म्यानें सकळ निर्मिलें | ब्रह्म्यास कोणें निर्माण केलें |
विष्णूनें विश्व पाळिलें | विष्णूस पाळिता कवणु ||२४||
रुद्र विश्वसंव्हारकर्ता | परी कोण रुद्रास संव्हारिता |
कोण काळाचा नियंता | कळला पाहिजे ||२५||
याचा कळेना विचार | तों अवघा अंधकार |
म्हणोनियां सारासार | विचार करणें ||२६||
ब्रह्मांड स्वभावेंचि जालें | परंतु हें पिंडाकार कल्पिलें |
कल्पिलें परी प्रत्यया आलें | नाहीं कदा ||२७||
पाहातां ब्रह्मांडाची प्रचिती | कित्येक संशय उठती |
हें कल्पनिक श्रोतीं | नेमस्त जाणावें ||२८||
पिंडासारिखी ब्रह्मांडरचना | कोण आणितो अनुमाना |
ब्रह्मांडीं पदार्थ नाना | ते पिंडीं कैंचे ||२९||
औटकोटी भुतावळी | औटकोटी तीर्थावळी |
औटकोटी मंत्रावळी | पिंडीं कोठें ||३०||
तेतीस कोटी सुरवर | अठ्यांसि सहस्र ऋषेश्वर |
नवकोटी कात्यायेणीचा विचार | पिंडीं कोठें ||३१||
च्यामुंडा छप्पन्न कोटी | कित्येक जीव कोट्यानुकोटी |
चौऱ्यासी लक्ष योनींची दाटी | पिंडीं कोठें ||३२||
ब्रह्मांडीं पदार्थ निर्माण जाले | पृथकाकारें वेगळाले |
तेहि तितुके निरोपिले | पाहिजेत पिंडीं ||३३||
जितुक्या औषधी तितुकीं फळे | नाना प्रकारीं रसाळें |
नाना बीजें धान्यें सकळें | पिंडीं निरोपावीं ||३४||
हें सांगतां पुरवेना | तरी उगेंचि बोलावेना |
बोलिलें न येतां अनुमाना | लाजिरवाणें ||३५||
तरी हें निरोपिलें नवचे | फुकट बोलतां काय वेचे |
याकारणें अनुमानाचें | कार्य नाहीं ||३६||
पांच भूतें ते ब्रह्मांडीं | आणि पांचचि वर्तती पिंडीं |
याची पाहावी रोकडी | प्रचीत आतां ||३७||
पांचा भूतांचे ब्रह्मांड | आणी पंचभूतिक हें पिंड |
यावेगळें तें उदंड | अनुमानज्ञान ||३८||
जितुकें अनुमानाचें बोलणें | तितुकें वमनप्राये त्यागणें |
निश्चयात्मक तेंचि बोलणें | प्रत्ययाचें ||३९||
जेंचि पिंडीं तेंचि ब्रह्मांडीं | प्रचित नाहीं कीं रोकडी |
पंचभूतांची तांतडी | दोहीकडे ||४०||
म्हणोनि देहींचें थानमान | हा तों अवघाचि अनुमान |
आतां येक समाधान | मुख्य तें कैसें ||४१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अनुमाननिर्शननाम समास पांचवा ||५||९. ५
समास सहावा : गुणरूपनिरूपण
||श्रीराम ||
आकाश जैसें निराकार | तैसा ब्रह्माचा विचार |
तेथें वायोचा विकार | तैसी मूळमाया ||१||
हें दासबोधीं असे बोलिलें | ज्ञानदशकीं प्रांजळ केलें |
मूळमायेंत दाखविलें | पंचभूतिक ||२||
तेथें जाणीव तो सत्त्वगुण | मध्य तो रजोगुण |
नेणीव तमोगुण | जाणिजे श्रोतीं ||३||
म्हणाल तेथें कैंची जाणीव | तरी ऐका याचा अभिप्राव |
पिंडीं माहाकारण देहीं सर्व | साक्षिणी अवस्था ||४||
तैसी मूळप्रकृती ब्रह्मांडींचें | देह माहाकारण साचें |
म्हणोन तेथेंजाणीवेचें | अधिष्ठान आलें ||५||
असो मूळमायेभीतरीं | गुप्त त्रिगुण वास करी |
पष्ट होती संधी चतुरीं | जाणावी गुणक्षोभिणी ||६||
जैस तृणाचा पोटराकळा | पुढें उकलोन होये मोकळा |
तैसी मूळमाया अवलीळा | गुण प्रसवली ||७||
मूळमाया वायोस्वरूप | ऐक गुणक्षोभिणीचें रूप |
गुणविकार होतांचि अल्प | गुणक्षोभिणी बोलिजे ||८||
पुढें जाणीव मध्यस्त नेणीव | मिश्रित चालिला स्वभाव |
तेथें मातृकास ठाव | शब्द जाला ||९||
तो शब्दगुण आकाशींचा | ऐसा अभिप्राव येथीचा |
शब्देंचि वेदशास्त्रांचा | आकार जाला ||१०||
पंचभूतें त्रिगुणाकार | अवघा वायोचा विकार |
जाणीवनेणीवेचा विचार | वायोचि करितां ||११||
वायो नस्तां कैंची जाणीव | जाणीव नस्तां कैंची नेणीव |
जाणीवनेणीवेस ठाव | वायोगुणें ||१२||
जेथें मुळीच नाही चळण | तेथें कैंचें जाणीवलक्षण |
म्हणोनि वायोचा गुण | नेमस्त जाणावा ||१३||
येकापासून येक जालें | हें येक उगेंचि दिसोन आलें |
स्वरूप मुळीच भासलें | त्रिगुणभूतांचें ||१४||
ऐसा हा मुळींचा कर्दमु | पुढें पष्टतेचा अनुक्रमु |
सांगतां येकापासून येक उगमु | हें हि खरें ||१५||
वायोच कर्दम बोलिला | तयापासून अग्नि जाला |
तोहि पाहातां देखिला | कर्दमुचि ||१६||
अग्निपासून जालें आप | तेंहि कर्दमस्वरूप |
आपापासून पृथ्वीचें रूप | तेंहि कर्दमरूपी ||१७||
येथें आशंका उठिली | भूतांस जाणीव कोठें देखिली |
तरी भूतांत जाणीव हे ऐकिली | नाहीं वार्ता ||१८||
जाणीव म्हणिजे जाणतें चळण | तेंचि वायोचें लक्षण |
वायोआंगीं सकळ गुण | मागां निरोपिलें ||१९||
म्हणोन जाणीवनेणीवमिश्रीत | अवघें चालिलें पंचभूत |
म्हणोनियां भूतांत | जाणीव असे ||२०||
कोठें दिसे कोठें न दिसे | परी तें भूतीं व्यापून असे |
तिक्षण बुद्धी करितां भासे | स्थूळ सुक्ष्म ||२१||
पंचभूतें आकारली | भूतीं भूतें कालवलीं |
तरी पाहातां भासलीं | येक स्थूळ येक सूक्ष्म ||२२||
निरोधवायो न भासे | तैसी जणीव न दिसे |
न दिसे परी ते असे | भूतरूपें ||२३||
काष्ठीं अग्नी दिसेना | निरोधवायो भासेना |
जणीव तैसी लक्षेना | येकायेकीं ||२४||
भूतें वेगळालीं दिसती | पाहातां येकचि भासती |
बहुत धूर्तपणें प्रचिती | वोळखावी ||२५||
ब्रह्मापासुन मूळमाया | मूळमायेपासून गुणमाया |
गुणमायेपासून तया | गुणास जन्म ||२६||
गुणापासूनियां भूतें पावली | पष्ट दशेतें |
ऐसीयांचीं रूपें समस्तें | निरोपिलीं ||२७||
आकाश गुणापासून जालें | हें कदापी नाही घडलें |
शब्दगुणास कल्पिलें | आकाश वायां ||२८||
येक सांगतां येकचि भावी | उगीच करी गथागोवी |
तया वेड्याची उगवी | कोणें करावी ||२९||
सिकविल्यां हि कळेना | उमजविल्यां हि उमजेना |
दृष्टांतेंहि तर्केना | मंदरूप ||३०||
भूतांहून भूत थोर | हा हि दाविला विचार |
परी भूतांवडिल स्वतंत्र | कोण आहे ||३१||
जेथें मूळमाया पंचभूतिक | तेथें काये राहिला विवेक |
मूळमायेपरतें येक | निर्गुणब्रह्म ||३२||
ब्रह्मीं मूळमाया जाली | तिची लीळा परीक्षिली |
तंव ते निखळ वोतली | भूतेंत्रिगुणांची ||३३||
भूतें विकारवंत चत्वार | आकाश पाहातां निर्विकार |
आकाश भूत हा विचार | उपाधीकरितां ||३४||
पिंडीं व्यापक म्हणोन जीव | ब्रह्मांडीं व्यापक म्हणोन शिव |
तैसाच हाहि अभिप्राव | आकाशाचा ||३५||
उपाधीमधें सापडलें | सूक्ष्म पाहातां भासलें |
इतुक्यासाठीं आकाश जालें | भूतरूप ||३६||
आकाश अवकाश तो भकास | परब्रह्म तें निराभास |
उपाधीं नस्ता जें आकाश | तेंचि ब्रह्म ||३७||
जाणीव नेणीव मध्यमान | हेंचि गुणाचें प्रमाण |
येथें निरोपिलें त्रिगुण | रूपेंसहित ||३८||
प्रकृती पावली विस्तारातें | पुढे येकाचें येकचि होतें |
विकारवंतचि तयातें | नेम कैंचा ||३९||
काळें पांढरें मेळवितां | पारवें होतें तत्वता |
काळें पिवळें मेळवितां | हिरवें होये ||४०||
ऐसें रंग नानापरी | मेळवितां पालट धरी |
तैसें दृश्य हें विकारी | विकारवंत ||४१||
येका जीवनें नाना रंग | उमटों लागती तरंग |
पालटाचा लागवेग | किती म्हणोन पाहावा ||४२||
येका उदकाचे विकार | पाहातां दिसती अपार |
पांचा भूतांचे विस्तार | चौऱ्यासी लक्ष योनी ||४३||
नाना देहाचें बीज उदक | उदकापसून सकळ लोक |
किडा मुंगी स्वापदादिक | उदकेंचि होयें ||४४||
शुक्लीत शोणीत म्हणिजे नीर | त्या नीराचें हें शरीर |
नखें दंत अस्तिमात्र | उदकाच्या होती ||४५||
मुळ्यांचे बारीक पागोरे | तेणें पंथें उदक भरे |
त्या उदकेंचि विस्तारे | वृक्षमात्र ||४६||
अंबवृक्ष मोहरा आले | अवघे उदकाकरितां जाले |
फळीं फुलीं लगडले | सावकास ||४७||
खोड फोडुन अंबे पाहातां | तेथें दिसेना सर्वथा |
खांद्या फोडुन फळें पाहातां | वोलीं सालें ||४८||
मुळापासून सेवटवरी | फळ नाहीं तदनंतरीं |
जळरूप फळ चतुरीं | विवेकें जाणावें ||४९||
तेंचि जळ सेंड्या चढे | तेव्हां वृक्षमात्र लगडे |
येकाचें येकचि घडे | येणें प्रकारें ||५०||
पत्रें पुष्पें फळें भेद | किती करावा अनुवाद |
सूक्ष्म दृष्टीनें विशद | होत आहे ||५१||
भूतांचे विकार सांगों किती | क्षणक्षणा पालटती |
येकाचे येकचि होती | नाना वर्ण ||५२||
त्रिगुणभूतांची लटपट | पाहों जातां हे खटपट |
बहुरूप बहु पालट | किती म्हणोन सांगावा ||५३||
ये प्रकृतीचा निरास | विवेकें वारावा सावकास |
मग परमात्मा परेश | अनन्यभावें भजावा ||५४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे गुणरूपनिरूपणनाम समास सहावा ||६||९. ६
समास सातवा : विकल्पनिरूपण
||श्रीराम ||
आधी स्थूळ आहे येक | तरी मग अंतःकरण पंचक |
जाणतेपणाचा विवेक | स्थूळाकरितां ||१||
तैसेंचि ब्रह्मांडेंवीण कांहीं | मूळमायेसि जाणीव नाहीं |
स्थूळाच्या आधारें सर्व हि | कार्य चाले ||२||
तें स्थूळचि नस्तां निर्माण | कोठें राहेल अंतःकर्ण |
ऐसा श्रोतीं केला प्रश्न | याचें उत्तर ऐका ||३||
कोसले अथवा कांटेघरें | नाना पृष्ठिभागीं चालती घरें |
जीव करिती लहानथोरें | शक्तीनुसार ||४||
शंख सिंपी घुला कवडें | आधीं त्यांचें घर घडे |
किंवा आधीं निर्माण किडे | हें विचारावें ||५||
आधी प्राणी ते होती | मग घरें निर्माण करिती |
हे तों प्रत्यक्ष प्रचिती | सांगणें नलगे ||६||
तैसें आधी सूक्ष्म जाण | मग स्थूळ होतें निर्माण |
येणें दृष्टांतें प्रश्न | फिटला श्रोतयांचा ||७||
तव श्रोता पुसे आणीक | जी आठवलें कांहीं येक |
जन्ममृत्युचा विवेक | मज निरोपावा ||८||
कोण जन्मास घालितें | आणी मागुता कोण जन्म घेतें |
हें प्रत्यया कैसें येतें | कोण्या प्रकारें ||९||
ब्रह्मा जन्मास घालितो | विष्णु प्रतिपाळ करितो |
रुद्र अवघें संव्हारितो | ऐसें बोलती ||१०||
तरीं हें प्रवृतीचें बोलणें | प्रत्ययास आणी उणें |
प्रत्यय पाहातां श्लाघ्यवाणें | होणार नाहीं ||११||
ब्रह्म्यास कोणें जन्मास घातलें | विष्णूस कोणें प्रतिपाळिलें |
रुद्रास कोणें संव्हारिलें | माहाप्रळईं ||१२||
म्हणौनि हा सृष्टीभाव | अवघा मायेचा स्वभाव |
कर्ता म्हणों निर्गुण देव | तरी तो निर्विकारी ||१३||
म्हणावें माया जन्मास घाली | तरी हे आपणचि विस्तारली |
आणी विचारितां थारली | हें हि घडेना ||१४||
आतां जन्मतो तो कोण | कैसी त्याची वोळखण |
आणी संचिताचें लक्षण | तेंहि निरोपावें ||१५||
पुण्याचें कैसें रूप | आणी पापाचें कैसें स्वरूप |
याहि शब्दाचा आक्षेप | कोण कर्ता ||१६||
हें कांहींच न ये अनुमाना | म्हणती जन्म घेते वासना |
परी ते पाहातां दिसेना | ना धरितां न ये ||१७||
वासना कामना आणी कल्पना | हेतु भावना मति नाना |
ऐशा अनंत वृत्ती जाणा | अंतःकर्णपंचकाच्या ||१८||
असो हें अवघें जाणीव यंत्र | जाणीव म्हणिजे स्मरणमात्र |
त्या स्मरणास जन्मसूत्र | कैसें लागे ||१९||
देहो निर्माण पांचा भूतांचा | वायो चाळक तयाचा |
जाणणें हा मनाचा | मनोभाव ||२०||
ऐसें हें सहजचि घडलें | तत्वांचें गुंथाडें जालें |
कोणास कोणे जन्मविलें | कोण्या प्रकारें ||२१||
तरी हें पाहातां दिसेना | म्हणोन जन्मचि असेना |
उपजला प्राणी येना | मागुता जन्मा ||२२||
कोणासीच जन्म नाहीं | तरी संतसंगें केलें काई |
ऐसा अभिप्राव सर्वहि | श्रोतयांचा ||२३||
पुर्वीं स्मरण ना विस्मरण | मधेंचि हें जालें स्मरण |
अंतर्यामीं अंतःकर्ण | जाणती कळा ||२४||
सावध आहे तों स्मरण | विकळ होतां विस्मरण |
विस्मरण पडतां मरण | पावती प्राणी ||२५||
स्मरण विस्मरण राहिलें | मग देहास मरण आलें |
पुधें जन्मास घातलें | कोणास कोणें ||२६||
म्हणोनी जन्मचि असेना | आणी यातना हि दिसेना |
अवघी वेर्थचि कल्पना | बळावली ||२७||
म्हणौन जन्मचि नाहीं कोणासी | श्रोतयांची आशंका ऐसी |
मरोन गेलें तें जन्मासी | मागुतें न ये ||२८||
वाळलें काष्ठ हिरवळेना | पडिलें फळ तें पुन्हां लागेना |
तैसें पडिलें शरीर येना | जन्मास मागुतें ||२९||
मडकें अवचितें फुटलें | फुटलें तें फुटोनिच गेलें |
तैसेंचि पुन्हां जन्मलें | नाहीं मनुष्य ||३०||
येथें अज्ञान आणी सज्ञान | सारिखेच जालें समान |
ऐसा बळावला अनुमान | श्रोतयांसी ||३१||
वक्ता म्हणे हो ऐका | अवघें पाषांड करूं नका |
अनुमान असेल तरी विवेका | अवलोकावें ||३२||
प्रेत्नेंवीण कार्य जालें | जेविल्यावीण पोट भरलें |
ज्ञानेंवीण मुक्त जालें | हें तों घडेना ||३३||
स्वयें आपण जेविला | त्यास वाटे लोक धाला |
परंतु हें समस्तांला | घडले पाहिजे ||३४||
पोहणें सिकला तो तरेल | पोहणें नेणें तो बुडेल |
येथें हि अनुमान करील | ऐसा कवणु ||३५||
तैसें जयास ज्ञान जालें | ते ते तितुकेच तरले |
ज्याचें बंधनचि तुटलें | तोचि मुक्त ||३६||
मोकळा म्हणे नाहीं बंधन | आणी प्रत्यक्ष बंदीं पडिले जन |
त्यांचें कैसें समाधान | तें तुम्ही पाहा ||३७||
नेणे दुसऱ्याची तळमळ | तें मनुष्य परदुःखसीतळ |
तैसाच हाहि केवळ | अनुभव जाणावा ||३८||
जयास आत्मज्ञान जालें | तत्वें तत्व विवंचिलें |
खुणेसी पावतांच बाणलें | समाधान ||३९||
ज्ञानें चुके जन्ममरण | सगट बोलणें अप्रमाण |
वेदशास्त्र आणी पुराण | मग कासयासी ||४०||
वेदशास्त्रविचारबोली | माहानुभावांची मंडळी |
भूमंडळीं लोक सकळी | हें मानीतना ||४१||
अवघें होतां अप्रमाण | मग आपलेंच काय प्रमाण |
म्हणोन जेथें आत्मज्ञान | तोचि मुक्त ||४२||
अवघे च मुक्त पाहातां नर | हाहि ज्ञाचा उद्गार |
ज्ञानेंविण तो उद्धार | होणार नाहीं ||४३||
आत्मज्ञान कळों आले | म्हणोन दृश्य मिथ्या जालें |
परंतु वेढा लाविलें | सकळास येणें ||४४||
आतां प्रश्न हा फिटला | ज्ञानी ज्ञानें मुक्त जाला |
अज्ञान तो बांधला | आपले कल्पनेनें ||४५||
विज्ञानासारिखें अज्ञान | आणी मुक्तासारिखें बंधन |
निश्चयासारिखा अनुमान | मानूंचि नये ||४६||
बंधन म्हणिजे कांहींच नाहीं | परी वेढा लाविलें सर्व हि |
यास उपावचि नाहीं | कळल्यावांचुनी ||४७||
कांहींच नाहीं आणी बाधी | हेंचि नवल पाहा आधीं |
मिथ्या जाणिजेना बद्धि | म्हणोन बद्ध ||४८||
भोळा भाव सिद्धी जाव | हा उधाराचा उपाव |
रोकडा मोक्षाचा अभिप्राव | विवेकें जाणावा ||४९||
प्राणी व्हावया मोकळा | आधीं पाहिजे जाणीवकळा |
सकळ जाणतां निराळा | सहजचि होये ||५०||
कांहींच नेणिजे तें अज्ञान | सकळ जाणिजे तें ज्ञान |
जाणिव राहातां विज्ञान | स्वयेंचि आत्मा ||५१||
अमृत सेऊन अमर जाला | तो म्हणे मृत्यु कैसा येतो जनाला |
तैसा विवेकी म्हणे बद्धाला | जन्म तो कैसा ||५२||
जाणता म्हणे जनातें | तुम्हांस भूत कैसे झडपितें |
तुम्हास वीष कैसें चढतें | निर्विष म्हणे ||५३||
आधीं बद्धासारिकें व्हावें | मग हें नलगेचि पुसावें |
विवेक दूरी ठेऊन पाहावें | लक्षण बद्धाचें ||५४||
निजेल्यास चेईला तो | म्हणे हा कां रे वोसणातो |
अनुभव पाहाणेंचि आहे तो | तरी मग निजोन पाहावा ||५५||
ज्ञात्याची उगवली वृत्ती | बद्धाऐसी न पडेल गुंती |
भुकेल्याची अनुभवप्राप्ती | धाल्यास नाहीं ||५६||
इतुकेन आशंका तुटली | ज्ञानें मोक्षप्राप्ती जाली |
विवेक पाहातां बाणली | अंतरस्थिती ||५७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे विकल्पनिरसननाम समास सातवा ||७||९. ७
समास आठवा : देहांतनिरूपण
||श्रीराम ||
ज्ञाता सुटला ज्ञानमतें | परंतु जन्म कैसा बद्धातें |
बद्धाचें काये जन्मतें | अंतकाळीं ||१||
बद्ध प्राणी मरोन गेले | तेथें कांहींच नाहीं उरलें |
जाणिवेचे विस्मरण जालें | मरणापूर्वी ||२||
ऐसी घेतली आशंका | याचें उत्तर ऐका |
आतां दुश्चीत होऊं नका | म्हणे वक्ता ||३||
पंचप्राण स्थळें सोडिती | प्राणरूप वासनावृत्ती |
वासनामिश्रीत प्राण जाती | देह सोडुनिया ||४||
वायोसरिसी वासना गेली | ते वायोरूपेंचि राहिली |
पुन्हां जन्म घेऊन आली | हेतुपरत्वें ||५||
कित्येक प्राणी निःशेष मरती | पुन्हां मागुते जीव येती |
ढकलून दिल्हें तेणें दुखवती | हस्तपादादिक ||६||
सर्पदृष्टी जालियां वरी | तीं दिवसां उठवी धन्वंतरी |
तेव्हां ते माघारी | वासना येते कीं ||७||
कित्येक सेवें होऊन पडती | कित्येक तयांस उठविती |
येमलोकींहून आणिती | माघारे प्राणी ||८||
कित्येक पुर्वीं श्रापिले | ते शापें देह पावले |
उश्रापकाळीं पुन्हां आले | पूर्वदेहीं ||९||
कित्येकीं बहु जन्म घेतले | कित्येक परकाया प्रवेशले |
ऐसे आले आणी गेले | बहुत लोक ||१०||
फुंकल्यासरिसा वायो गेला | तेथें वायोसूत निर्माण जाला |
म्हणोन वायोरूप वासनेला | जन्म आहे ||११||
मनाच्या वृत्ती नाना | त्यांत जन्म घेते वासना |
वासना पाहातां दिसेना | परंतु आहे ||१२||
वासना जाणिजे जाणीवहेत | जाणीव मुळींचा मूळतंत |
मूळमायेंत असे मिश्रित | कारणरूपें ||१३||
कारणरूप आहे ब्रह्मांडीं | कार्यरूपें वर्ते पिंडीं |
अनुमानितां तांतडीं | अनुमानेना ||१४||
परंतु आहे सूक्ष्मरूप | जैसें वायोचे स्वरूप |
सकळ देव वायोरूप | आणी भूतसृष्टि ||१५||
वायोमधें विकार नाना | वायो पाहातां तरी दिसेना |
तैसी जाणीववासना | अति सूक्ष्म ||१६||
त्रिगुण आणी पंचभूतें | हे वायोमध्यें मिश्रिते |
अनुमानेना म्हणोन त्यातें | मिथ्या म्हणों नये ||१७||
सहज वायो चाले | तरी सुगंध दुर्गंध कळों आले |
उष्ण सीतळ तप्त निवाले | प्रत्यक्ष प्राणी ||१८||
वायोचेनि मेघ वोळती | वायोचेनि नक्षत्रें चालती |
सकळ सृष्टीची वर्तती गती | सकळ तो वायो ||१९||
वायोरूपें देवतें भूतें | आंगीं भरती अकस्मातें |
वीध केलियां प्रेतें | सावध होतीं ||२०||
वारें निराळें न बोले | देहामधें भरोन डोले |
आळी घेऊन जन्मा आले | कित्येक प्राणी ||२१||
राहाणें ब्राह्मणसमंध जाती | राहाणें ठेवणीं सांपडती |
नाना गुंतले उगवती | प्रत्यक्ष राहाणें ||२२||
ऐसा वायोचा विकार | येवंचे कळेना विस्तार |
सकळ कांहीं चराचर | वायोमुळें ||२३||
वायो स्तब्धरूपें सृष्टीधर्ता | वायो चंचळरूपें सृष्टीकर्ता |
न कळे तरी विचारीं प्रवर्ता | म्हणिजे कळे ||२४||
मुळापासून सेवटवरी | वायोचि सकळ कांहीं करी |
वायोवेगळें कर्तुत्व चतुरीं | मज निरोपावें ||२५||
जाणीवरूप मूळमाया | जाणीव जाते आपल्या ठाया |
गुप्त प्रगट होऊनियां | विश्वीं वर्ते ||२६||
कोठें गुप्त कोठें प्रगटे | जैसें जीवन उफाळे आटे |
पुढें मागुता वोघ लोटे | भूमंडळीं ||२७||
तैसाच वायोमधें जाणीवप्रकार | उमटे आटे निरंतर |
कोठें विकारें कोठें समीर | उगाच वाजे ||२८||
वारीं आंगावरून जाती | तेणें हातपाये वाळती |
वारां वाजतां करपती | आलीं पिकें ||२९||
नाना रोगांचीं नाना वारीं | पीडा करिती पृथ्वीवरी |
वीज कडाडी अंबरीं | वायोमुळें ||३०||
वायोकरितां रागोद्धार | कळे वोळखीचा निर्धार |
दीप लागे मेघ पडे हा चमत्कार | रागोद्धारीं ||३१||
वायो फुंकितां भुली पडती | वायो फुंकितां खांडकें करपती |
वायोकरितां चालती | नाना मंत्र ||३२||
मंत्रें देव प्रगटती | मंत्रें भूतें अखरकिती |
बाजीगरी वोडंबरी करिती | मंत्रसामर्थ्यें ||३३||
राक्षसांची मावरचना | ते हे देवांदिकां कळेना |
विचित्र सामर्थ्यें नाना | स्तंबनमोहनादिकें ||३४||
धडचि पिसें करावें | पिसेंच उमजवावें |
नाना विकार सांगावे | किती म्हणोनी ||३५||
मंत्रीं संग्राम देवाचा | मंत्रीं साभिमान ऋषीचा |
महिमा मंत्रसामर्थ्याचा | कोण जाणे ||३६||
मंत्रीं पक्षी आटोपिती | मूशकें स्वापदें बांधती |
मंत्रीं माहसर्प खिळिती | आणी धनलाभ ||३७||
आतां असो हा प्रश्न जाला | बद्धाचा जन्म प्रत्यया आला |
मागील प्रश्न फिटला | श्रोतयाचा ||३८||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देहांतनिरूपणनाम समास आठवा ||८||९. ८
समास नववा : संदेहवारण
||श्रीराम ||
ब्रह्म वारितां वारेना | ब्रह्म सारितां सरेना |
ब्रह्म कांहीं वोसरेना | येकीकडे ||१||
ब्रह्म भेदितां भेदेना | ब्रह्म छेदितां छेदेना |
ब्रह्म परतें होयेना | केलें तरी ||२||
ब्रह्म खंडेना अखंड | ब्रह्मीं नाहीं दुसरें बंड |
तरी कैसें हें ब्रह्मांड | सिरकलें मधें ||३||
पर्वत पाषाण सिळा सिखरें | नाना स्थळें स्थळांतरें |
भूगोळरचना कोण्या प्रकारें | जालीं परब्रह्मीं ||४||
भूगोळ आहे ब्रह्मामधें | ब्रह्म आहे भूगोळामधें |
पाहातां येक येकामधें | प्रत्यक्ष दिसे ||५||
ब्रह्मीं भूगोळें पैस केला | आणी भूगोळहि ब्रह्में भेदिला |
विचार पाहातां प्रत्यय आला | प्रत्यक्ष आतां ||६||
ब्रह्में ब्रह्मांड भेदिलें | हें तों पाहातां नीटचि जालें |
परी ब्रह्मास ब्रह्मांडें भेदिलें | हें विपरीत दिसे ||७||
भेदिलें नाहीं म्हणावें | तरी ब्रह्मीं ब्रह्मांड स्वभावें |
हें सकळांस अनुभवें | दिसत आहे ||८||
तरी हें आतां कैसें जालें | विचारून पाहिजे बोलिलें |
ऐसें श्रोतीं आक्षेपिलें | आक्षेपवचन ||९||
आतां याचें प्रत्योत्तर | सावध ऐका निरोत्तर |
येथें पडिले किं विचार | संदेहाचे ||१०||
ब्रह्मांड नाहीं म्हणो तरी दिसे | आणी दिसे म्हणो तरी नासे |
आतां हें समजती कैसें | श्रोतेजन ||११||
तंव श्रोते जाले उद्दित | आहों म्हणती सावचित्त |
प्रसंगें बोलों उचित | प्रत्योत्तर ||१२||
आकाशीं दीपास लाविलें | दीपें आकाश परतें केलें |
हें तों घडेना पाहिलें | पाहिजे श्रोतीं ||१३||
आप तेज अथवा पवन | सारूं न सकती गगन |
गगन पाहातां सघन | चळेल कैसें ||१४||
अथवा कठीण जाली मेदिनी | तरी गगनें केली चाळणी |
पृथ्वीचें सर्वांग भेदूनी | राहिलें गगन ||१५||
याची प्रचित ऐसी असे | जें जडत्वा आलें तितुकें नासे |
आकाश जैसें तैसें असे | चळणार नाहीं ||१६||
वेगळेपण पाहावें | तयास आकाश म्हणावें |
अभिन्न होतां स्वभावें | आकाश ब्रह्म ||१७||
तस्मात आकाश चळेना | भेद गगनाचा कळेना |
भासलें ब्रह्म तयास जाणा | आकाश म्हणावें ||१८||
निर्गुण ब्रह्मसें भासलें | कल्पूं जातां अनुमानलें |
म्हणोन आकाश बोलिलें | कल्पनेसाठीं ||१९||
कल्पनेसि भासे भास | तितुकें जाणावें आकाश |
परब्रह्म निराभास | निर्विकल्प ||२०||
पंचभूतांमधें वास | म्हणौन बोलिजे आकाश |
भूतांतरीं जो ब्रह्मांश | तेंचि गगन ||२१||
प्रत्यक्ष होतें जातें | अचळ कैसें म्हणावें त्यातें |
म्हणोनियां गगनातें | भेदिलें नाहीं ||२२||
पृथ्वी विरोन उरे जीवन | जीवन नस्तां उरे अग्न |
अग्न विझतां उरे पवन | तोहि नसे ||२३||
मिथ्या आलें आणी गेलें | तेणें खरें तें भंगलें |
ऐसें हें प्रचितीस आलें | कोणेंपरी ||२४||
भ्रमें प्रत्यक्ष दिसतें | विचार पाहातां काये तेथें |
भ्रममूळ या जगातें | खरें कैसें म्हणावें ||२५||
भ्रम शोधितां कांहींच नाहीं | तेथें भेदिलें कोणें काई |
भ्रमें भेदिलें म्हणतां ठाईं | भ्रमचि मिथ्या ||२६||
भ्रमाचें रूप मिथ्या जालें | मग सुखें म्हणावें भेदिलें |
मूळीं लटिकें त्यानें केलें | तेंहि तैसें ||२७||
लटिक्यानें उदंड केलें | तरी आमुचें काय गेलें |
केलें म्हणतांच नाथिलें | शाहाणे जाणती ||२८||
सागरामधें खसखस | तैसें परब्रह्मीं दृश्य |
मतिसारिखा मतिप्रकाश | अंतरीं वाढे ||२९||
मती करितां विशाळ | कवळो लागे अंतराळ |
पाहातां भासे ब्रह्मगोळ | कवीठ जैसें ||३०||
वृत्ति त्याहून विशाळ | करितां ब्रह्मांड बद्रिफळ |
ब्रह्माकार होतां केवळ | कांहींच नाहीं ||३१||
आपण विवेकें विशाळला | मर्यादेवेगळा जाला |
मग ब्रह्मगोळ देखिला | वटबीजन्यायें ||३२||
होतां त्याहून विस्तीर्ण | वटबीज कोटिप्रमाण |
आपाण होतां परिपूर्ण | कांहींच नाहीं ||३३||
आपण भ्रमें लाहानाळला | केवळ देहधारी जाला |
तरी मग ब्रह्मांड त्याला | कवळेल कैसें ||३४||
वृत्ती ऐसी वाढवावी | पसरून नाहींच करावी |
पूर्णब्रह्मास पुरववी | चहूंकडे ||३५||
जंव येक सुवर्ण आणितां | तेणें ब्रह्मांड मढवितां |
कैसे होईल तें तत्वतां | बरें पाहा ||३६||
वस्तु वृत्तिस कवळे | तेणें वृत्ति फाटोन वितुळे |
निर्गुण आत्माच निवळे | जैसा तैसा ||३७||
येथें फिटली आशंका | श्रोते हो संदेह धरूं नका |
अनुमान असेल तरी विवेका | अवलोकावें ||३८||
विवेकें तुटें अनुमान | विवेकें होये समाधान |
विवेकें आत्मनिवेदन | मोक्ष लाभे ||३९||
केली मोक्षाची उपेक्षा | विवेकें सारिलें पूर्वपक्षा |
सिद्धांत आत्मा प्रत्यक्षा | प्रमाण न लगे ||४०||
हे प्रचितीचीं उत्तरें | कळती सारासारविचारें |
मननध्यासें साक्षात्कारें | पावन होईजे ||४१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
संदेहवारणनाम समास नववा ||९||९. ९
समास दहावा : स्थितिनिरूपण
||श्रीराम ||
देउळामधें जगन्नायेक | आणी देवळावरी बैसला काक |
परी तो देवाहुन अधिक | म्हणों नये कीं ||१||
सभा बैसली राजद्वारीं | आणी मर्कट गेलें स्तंभावरी |
परी तें सभेहून श्रेष्ठ चतुरीं | कैसे मानावें ||२||
ब्राह्मण स्नान करून गेले | आणी बक तैसेचि बैसले |
परी ते ब्राह्मणापरीस भले | कैसे मानावे ||३||
ब्राह्मणामधें कोणी नेमस्त | कोणी जाले अव्यावेस्त |
आणी स्वान सदा ध्यानस्त | परी तें उत्तम नव्हे ||४||
ब्राह्मण लक्षमुद्रा नेणें | मार्जर लक्षविषईं शाहाणें |
परी ब्राह्मणापरीस विशेष कोणें | म्हणावें तयासी ||५||
ब्राह्मण पाहे भेदाभेद | मक्षिका सर्वांस अभेद |
परी तीस जाला ज्ञानबोध | हें तों न घडे कीं ||६||
उंच वस्त्रें नीच ल्याला | आणी समर्थ उघडाच बैसला |
परी तो आहे परिक्षिला | परीक्षवंतीं ||७||
बाह्याकार केला अधिक | परी तो अवघा लोकिक |
येथें पाहिजे मुख्य येक | अंतरनिष्ठा ||८||
लोकिक बरा संपादिला | परी अंतरीं सावध नाहीं जाला |
मुख्य देवास चुकला | तो आत्मघातकी ||९||
देवास भजतां देवलोक | पित्रांस भजतां पित्रलोक |
भूतांस भजतां भूतलोक | पाविजेतो ||१०||
जेणें जयास भजावें | तेणें त्या लोकासी जावें |
निर्गुणीं भजतां व्हावें | निर्गुणचि स्वयें ||११||
निर्गुणाचें कैसें भजन | निर्गुणीं असावें अनन्य |
अनन्य होतां होईजे धन्य | निश्चयेंसीं ||१२||
सकळ केलियाचें सार्थक | देव वोळखावा येक |
आपण कोण हा विवेक | पाहिला पाहिजे ||१३||
देव पाहातां निराकार | आपला तो माईक विचार |
सोहं आत्मा हा निर्धार | बाणोन गेला ||१४||
आतां अनुमान तो काई | वस्तु आहे वस्तुचा ठाईं |
देहभाव कांहींच नाहीं | धांडोळितां ||१५||
सिद्धास आणी साधन | हा तों अवघाच अनुमान |
मुक्तास आणी बंधन | आडळेना ||१६||
साधनें जें कांहीं साधावें | तें तों आपणचि स्वभावें |
आतां साधकाच्या नावें | सुन्याकार ||१७||
कुल्लाळ पावला राजपदवी | आतां रासभें कासया राखावी |
कुल्लाळपणाची उठाठेवी | कासया पाहिजे ||१८||
तैसा अवघा वृत्तीभाव | नाना साधनांचा उपाव |
साध्य जालियां कैंचा ठाव | साधनांसी ||१९||
साधनें काये साधावें | नेमें काये फळ घ्यावें |
आपण वस्तु भरंगळावें | कासयासी ||२०||
देह तरी पांचा भूतांचा | जीव तरी अंश ब्रह्मींचा |
परमात्मा तरी अनन्याचा | ठाव पाहा ||२१||
उगेंचि पाहातां मीपण दिसे | शोध घेतां कांहींच नसे |
तत्वें तत्व निरसे | पुढें निखळ आत्मा ||२२||
आत्मा आहे आत्मपणें | जीव आहे जीवपणें |
माया आहे मायापणें | विस्तारली ||२३||
ऐसें अवघेंचि आहे | आणी आपण हि कोणीयेक आहे |
हें सकळ शोधून पाहे | तोचि ज्ञानी ||२४||
शोधूं जाणें सकळांसी | परी पाहों नेणे आपणासी |
ऐक ज्ञानी येकदेसी | वृत्तिरूपें ||२५||
तें वृत्तिरूप जरी पाहिलें | तरी मग कांहींच नाहीं राहिलें |
प्रकृतिनिरासें अवघेंचि गेलें | विकारवंत ||२६||
उरलें तें निखळ निर्गुण | विवंचितां तेंचि आपण |
ऐसी हे परमार्थाची खूण | अगाध आहे ||२७||
फळ येक आपण येक | ऐसा नाहीं हा विवेक |
फळाचें फळ कोणीयेक | स्वयेंचि होईजे ||२८||
रंक होता राजा जाला | वरें पाहातां प्रत्यय आला |
रंकपणाचा गल्बला | रंकीं करावा ||२९||
वेद शास्त्रें पुराणें | नाना साधनें निरूपणें |
सिद्ध साधु ज्याकारणें | नाना सायास करिती ||३०||
तें ब्रह्मरूप आपणचि आंगें | सारासारविचारप्रसंगें |
करणें न करणें वाउगें | कांहींच नाहीं ||३१||
रंक राजआज्ञासि भ्यालें | तेंचि पुढें राजा जालें |
मग तें भयेचि उडालें | रंकपणासरिसें ||३२||
वेदें वेदाज्ञेनें चालावें | सच्छास्त्रें शास्त्र अभ्यासावें |
तीर्थें तीर्थास जावें | कोण्या प्रकारें ||३३||
अमृतें सेवावें अमृत | अनंतें पाहावा अनंत |
भगवंतें लक्षावा भगवंत | कोणा प्रकारें ||३४||
संत असंत त्यागावे | निर्गुणें निर्गुणासी भंगावें |
स्वरूपें स्वरूपीं रंगावें | कोण्या प्रकारें ||३५||
अंजनें ल्यावें अंजन | धनें साधावें धन |
निरंजनें निरंजन | कैसें अनुभवावें ||३६||
साध्य करावें साधनासी | ध्येयें धरावें ध्यानासी |
उन्मनें आवरावें मनासी | कोण्या प्रकारें ||३७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
स्थितिनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||९. १०
||दशक नववा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh09.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 9
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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