||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक ८ ||
||दशक आठवा : मायोद्भव अथवा ज्ञानदशक ||८||
समास पहिला : देवदर्शन
||श्रीराम ||
श्रोतीं व्हावें सावध | विमळ ज्ञान बाळबोध |
गुरुशिष्यांचा संवाद | अति सुगम परियेसा ||१||
नाना शास्त्रें धांडोळितां | आयुष्य पुरेना सर्वथा |
अंतरी संशयाची वेथा | वाढोंचि लागे ||२||
नाना तीर्थें थोरथोरें | सृष्टिमध्यें अपारें |
सुगमें दुर्गमें दुष्करें | पुण्यदायकें ||३||
ऐसीं तीर्थें सर्वहि करी | ऐसा कोण रे संसारी |
फिरों जातां जन्मवरी | आयुष्य पुरेना ||४||
नाना तपें नाना दानें | नाना योग नाना साधनें |
हें सर्वहि देवाकारणें | करिजेत आहे ||५||
पावावया देवाधिदेवा | बहुविध श्रम करावा |
तेणें देव ठाईं पाडावा | हें सर्वमत ||६||
पावावया भगवंतातें | नाना पंथ नाना मतें |
तया देवाचें स्वरूप तें | कैसे आहें ||७||
बहुत देव सृष्टीवरी | त्यांची गनना कोण करी |
येक देव कोणेपरी | ठाईं पडेना ||८||
बहुविध उपासना | ज्याची जेथें पुरे कामना |
तो तेथेंचि राहिला मना | सदृढ करूनि ||९||
बहु देव बहु भक्त | इछ्या जाले आसक्त |
बहु ऋषी बहु मत | वेगळालें ||१०||
बहु निवडितां निवडेना | येक निश्चय घडेना |
शास्त्रें भांडती पडेना | निश्चय ठाईं ||११||
बहुत शास्त्रीं बहुत भेद | मतांमतांस विरोध |
ऐसा करितां वेवाद | बहुत गेले ||१२||
सहस्रामधें कोणी येक | पाहे देवाचा विवेक |
परी त्या देवाचें कौतुक | ठाईं न पडे ||१३||
ठाईं न पडे कैसें म्हणतां | तेथें लागली अहंता |
देव राहिला परता | अहंतागुणें ||१४||
आतां असो हें बोलणें | नाना योग ज्याकारणें |
तो देव कोण्या गुणें | ठाईं पडे ||१५||
देव कोणासी म्हणावें | कैसें तयासी जाणावें |
तेंचि बोलणें स्वभावें | बोलिजेल ||१६||
जेणें केले चराचर | केले सृष्ट्यादि व्यापार |
सर्वकर्ता निरंतर | नाम ज्याचें ||१७||
तेणें केल्या मेघमाळा | चंद्रबिंबीं अमृतकळा |
तेज दिधलें रविमंडळा | जया देवें ||१८||
ज्याची मर्यादा सागरा | जेणें स्थापिलें फणिवरा |
जयाचेनि गुणें तारा | अंतरिक्ष ||१९||
च्यारी खाणी च्यारी वाणी | चौऱ्यासि लक्ष जीवयोनी |
जेणें निर्मिले लोक तिनी | तया नाव देव ||२०||
ब्रह्मा विष्णु आणी हर | हे जयाचे अवतार |
तोचि देव हा निर्धार | निश्चयेंसीं ||२१||
देव्हाराचा उठोनि देव | करूं नेणे सर्व जीव |
तयाचेनि ब्रह्मकटाव | निर्मिला न वचे ||२२||
ठाईं ठाईं देव असती | तेहिं केली नाहीं क्षिती |
चंद्र सूर्य तारा जीमूती | तयांचेनि नव्हे ||२३||
सर्वकर्ता तोचि देव | पाहों जातां निरावेव |
ज्याची कळा लीळा लाघव | नेणती ब्रह्मादिक ||२४||
येथें आशंका उठिली | ते पुढिलीये समासीं फीटली |
आतां वृत्ती सावध केली | पाहिजे श्रोतीं ||२५||
पैस अवकाश आकाश | कांहींच नाहीं जें भकास |
तये निर्मळीं वायोस | जन्म जाला ||२६||
वायोपासून जाला वन्ही | वन्हीपासुनी जालें पाणी |
ऐसी जयाची करणी | अघटित घडली ||२७||
उदकापासून सृष्टि जाली | स्तंभेविण उभारली |
ऐसी विचित्र कळा केली | त्या नाव देव ||२८||
देवें निर्मिली हे क्षिती | तीचे पोटीं पाषाण होती |
तयासचि देव म्हणती | विवेकहीन ||२९||
जो सृष्टिनिर्माणकर्ता | तो ये सृष्टीपुर्वीं होता |
मग हे तयाची सत्ता | निर्माण जाली ||३०||
कुल्लाळ पात्रापुर्वीं आहे | पात्रें कांहीं कुल्लाळ नव्हे |
तैसा देव पूर्वींच आहे | पाषाण नव्हे सर्वथा ||३१||
मृत्तिकेचें शैन्य केलें | कर्ते वेगळे राहिले |
कार्यकारण येक केलें | तरी होणार नाहीं ||३२||
तथापि होईल पंचभूतिक | निर्गुण नव्हे कांहीं येक |
कार्याकारणाचा विवेक | भूतांपरता नाहीं ||३३||
अवघी सृष्टि जो कर्ता | तो ते सृष्टीहूनि पर्ता |
तेथें संशयाची वार्ता | काढूंचि नये ||३४||
खांबसूत्रींची बाहुली | जेणें पुरुषें नाचविली |
तोचि बाहुली हे बोली | घडे केवी ||३५||
छायामंडपीची सेना | सृष्टिसारिखीच रचना |
सूत्रें चाळी परी तो नाना | वेक्ति नव्हे ||३६||
तैसा सृष्टिकर्ता देव | परी तो नव्हे सृष्टिभाव |
जेणें केले नाना जीव | तो जीव कैसेनी ||३७||
जें जें जया करणें पडे | तें तें तो हें कैसें घडे |
म्हणोनि वायांचि बापुडे | संदेहीं पडती ||३८||
सृष्टि ऐसेंचि स्वभावें | गोपुर निर्मिलें बरवें |
परी तो गोपुर कर्ता नव्हे | निश्चयेसीं ||३९||
तैसें जग निर्मिलें जेणें | तो वेगळा पूर्णपणें |
येक म्हणती मूर्खपणें | जग तोचि जगदीश ||४०||
एवं जगदीश तो वेगळा | जग निर्माण त्याची कळा |
तो सर्वांमधें परी निराळा | असोन सर्वीं ||४१||
म्हणोनि भूतांचा कर्दमु | यासी अलिप्त आत्मारामु |
अविद्यागुणें मायाभ्रमु | सत्यचि वाटे ||४२||
मायोपाधी जगडंबर | आहे सर्वहि साचार |
ऐसा हा विपरीत विचार | कोठेंचि नाहीं ||४३||
म्हणोनि जग मिथ्या साच आत्मा | सर्वांपर जो परमात्मा |
अंतर्बाह्य अंतरात्मा | व्यापूनि असे ||४४||
तयास म्हणावें देव | येर हें अवघेंचि वाव |
ऐसा आहे अंतर्भाव | वेदांतीचा ||४५||
पदार्थवस्तु नासिवंत | हें तों अनुभवास येत |
याकारणें भगवंत | पदार्थावेगळा ||४६||
देव विमळ आणी अचळ | शास्त्रें बोलती सकळ |
तया निश्चळास चंचळ | म्हणों नये सर्वथा ||४७||
देव आला देव गेला | देव उपजला देव मेला |
ऐसें बोलतां दुरिताला | काय उणें ||४८||
जन्म मरणाची वार्ता | देवास लागेना सर्वथा |
देव अमर ज्याची सत्ता | त्यासी मृत्यु कैसेनी ||४९||
उपजणें आणी मरणें | येणें जाणें दुःख भोगणें |
हें त्या देवाचें करणें | तो कारण वेगळा ||५०||
अंतःकरण पंचप्राण | बहुतत्वीं पिंडज्ञान |
यां सर्वांस आहे चळण | म्हणोनि देव नव्हेती ||५१||
येवं कल्पनेरहित | तया नाव भगवंत |
देवपणाची मात | तेथें नाहीं ||५२||
तव शिष्यें आक्षेपिलें | तरी कैसें ब्रह्मांड केलें |
कर्तेपण कारण पडिलें | कार्यामधें || ५३||
द्रष्टेपणें द्रष्टा दृश्यीं | जैसा पडे अनायांसीं |
कर्तेपणे निर्गुणासी | गुण तैसे ||५४||
ब्रह्मांडकर्ता कवण | कैसी त्याची वोळखण |
देव सगुण किं निर्गुण | मह निरोपावा ||५५||
येक म्हणती त्या ब्रह्मातें | इछ्यामात्रें सृष्टिकर्ते |
सृष्टिकर्ते त्यापर्तें | कोण आहे ||५६||
आतां असो हे बहु बोली | सकळ माया कोठून जाली |
ते हे आतां निरोपिली | पाहिजे स्वामी ||५७||
ऐसें ऐकोनि वचन | वक्ता म्हणे सावधान |
पुढिले समासीं निरूपण | सांगिजेल ||५८||
ब्रह्मीं माया कैसे जाली | पुढें असे निरोपिली |
श्रोतीं वृत्ति सावध केली | पाहिजे आतां ||५९||
पुढें हेंचि निरूपण | विशद केलें श्रवण |
जेणें होय समाधान | साधकांचें ||६०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देवदर्शननाम समास पहिला ||१||८. १
समास दुसरा : सूक्ष्मआशंकानिरूपण
||श्रीराम ||
मागां श्रोतीं आक्षेपिलें | तें पाहिजे निरोपिलें |
निरावेवीं कैसें जालें | चराचर ||१||
याचें ऐसें प्रतिवचन | ब्रह्म जें कां सनातन |
तेथें माया मिथ्याभान | विवर्तरूप भावे ||२||
आदि येक परब्रह्म | नित्यमुक्त अक्रिय परम |
तेथें अव्याकृत सूक्ष्म | जाली मूळमाया ||३||
||श्लोक ||
आद्यमेकं परब्रह्म नित्यमुक्तमविक्रियम् |
तस्य माया समावेशो जीवमव्याकृतात्मकम् ||
आशंका | येक ब्रह्मा निराकार | मुक्त अक्रिये निर्विकार |
तेथें माया वोडंबर | कोठून आली ||४||
ब्रह्म अखंड निर्गुण | तेथें इछा धरी कोण |
निर्गुणीं सगुणेंविण | इछा नाहीं ||५||
मुळीं असेचिना सगुण | म्हणौनि नामें निर्गुण |
तेथें जालें सगुण | कोणेपरी ||६||
निर्गुणचि गुणा आलें | ऐसें जरी अनुवादलें |
लागों पाहे येणें बोलें | मूर्खपण ||७||
येक म्हणती निरावेव | करून अकर्ता तो देव |
त्याची लीळा बापुडे जीव | काये जाणती ||८||
येक म्हणती तो परमात्मा | कोण जाणे त्याचा महिमा |
प्राणी बापुडा जीवात्मा | काये जाणे ||९||
उगाच महिमा सांगती | शास्त्रार्थ अवघा लोपिती |
बळेंचि निर्गुणास म्हणती | करूनि अकर्ता ||१०||
मुळीं नाहीं कर्तव्यता | कोण करून अकर्ता |
कर्ता अकर्ता हे वार्ता | समूळ मिथ्या ||११||
जें ठाईंचें निर्गुण | तेथें कैचें कर्तेपण |
तरी हे इछा धरी कोण | सृष्टिरचाव्याची ||१२||
इछा परमेश्वराची | ऐसी युक्ती बहुतेकांची |
परी त्या निर्गुणास इछा कैंची | हें कळेना ||१३||
तरी हे इतुकें कोणें केलें | किंवा आपणचि जालें |
देवेंविण उभारलें | कोणेपरी ||१४||
देवेंविण जालें सर्व | मग देवास कैंचा ठाव |
येथें देवाचा अभाव | दिसोन आला ||१५||
देव म्हणे सृष्टिकर्ता | तरी येवं पाहे सगुणता |
निर्गुणपणाची वार्ता | देवाची बुडाली ||१६||
देव ठाईंचा निर्गुण | तरी सृष्टिकर्ता कोण |
कर्तेपणाचें सगुण | नासिवंत ||१७||
येथें पडिले विचार | कैसें जालें सचराचर |
माया म्हणों स्वतंतर | तरी हेंहि विपरीत दिसे ||१८||
माया कोणीं नाहीं केली | हे आपणचि विस्तारली |
ऐसें बोलतां बुडाली | देवाची वार्ता ||१९||
देव निर्गुण स्वतसिद्ध | त्यासी मायेसि काये समंध |
ऐसें बोलतां विरुद्ध | दिसोन आलें ||२०||
सकळ कांहीं कर्तव्यता | आली मायेच्याचि माथां |
तरी भक्तांस उद्धरिता | देव नाहीं कीं ||२१||
देवेंविण नुस्ती माया | कोण नेईल विलया |
आम्हां भक्तां सांभाळाया | कोणीच नाहीं ||२२||
म्हणोनि माया स्वतंतर | ऐसा न घडे कीं विचार |
मायेस निर्मिता सर्वेश्वर | तो येकचि आहे ||२३||
तरी तो कैसा आहे ईश्वर | मायेचा कैसा विचार |
तरी हें आतां सविस्तर | बोलिलें पाहिजे ||२४||
श्रोतां व्हावें सावधान | येकाग्र करूनियां मन |
आतां कथानुसंधान | सावध ऐका ||२५||
येके आशंकेचा भाव | जनीं वेगळाले अनुभव |
तेहि बोलिजेती सर्व | येथानुक्रमें ||२६||
येक म्हणती देवें केली | म्हणोनि हे विस्तारली |
देवास इछ्या नस्ती जाली | तरी हे माया कैंची ||२७||
येक म्हणती देव निर्गुण | तेथें इछा करी कोण |
माया मिथ्या हे आपण | जालीच नाही ||२८||
येक म्हणती प्रत्यक्ष दिसे | तयेसी नाहीं म्हणतां कैसें |
माया हे अनादि असे | शक्ती ईश्वराची ||२९||
येक म्हणती साच असे | तरी हे ज्ञानें कैसी निरसे |
साचासारिखीच दिसे | परी हे मिथ्या ||३०||
येक म्हणती मिथ्या स्वभावें | तरी साधन कासया करावें |
भक्तिसाधन बोलिलें देवें | मायात्यागाकारणें ||३१||
येक म्हणती मिथ्या दिसतें | भयें अज्ञानसन्येपातें |
साधन औषधही घेईजेतें | परी तें दृश्य मिथ्या ||३२||
अनंत साधनें बोलिलीं | नाना मतें भांबावलीं |
तरी माया न वचे त्यागिली | मिथ्या कैसी म्हणावी ||३३||
मिथ्या बोले योगवाणी | मिथ्या वेदशास्त्रीं पुराणीं |
मिथ्या नाना निरूपणीं | बोलिली माया ||३४||
माया मिथ्या म्हणतां गेली | हे वार्ता नाहीं ऐकिली |
मिथ्या म्हणतांच लागली | समागमें ||३५||
जयाचे अंतरीं ज्ञान | नाहीं वोळखिले सज्जन |
तयास मायामिथ्याभान | सत्यचि वाटे ||३६||
जेणें जैसा निश्चये केला | तयासी तैसाचि फळला |
पाहे तोचि दिसे बिंबला | तैसी माया ||३७||
येक म्हणती माया कैंची | आहे ते सर्व ब्रह्मचि |
थिजल्या विघुरल्या घृताची | ऐक्यता न मोडे ||३८||
थिजलें आणी विघुरलें | हें स्वरूपीं नाहीं बोलिलें |
साहित्य भंगलें येणें बोलें | म्हणती येक ||३९||
येक म्हणती सर्व ब्रह्म | हें न कळे जयास वर्म |
तयाचें अंतरींचा भ्रम | गेलाच नाहीं ||४०||
येक म्हणती येकचि देव | तेथें कैंचें आणिलें सर्व |
सर्व ब्रह्म हें अपूर्व | आश्चिर्य वाटे ||४१||
येक म्हणती येकचि खरें | आनुहि नाहीं दुसरें |
सर्व ब्रह्म येणें प्रकारें | सहजचि जालें ||४२||
सर्व मिथ्या येकसरें | उरलें तेंचि ब्रह्म खरें |
ऐसीं वाक्यें शास्त्राधारें | बोलती येक ||४३||
आळंकार आणी सुवर्ण | तेथें नाहीं भिन्नपण |
आटाआटी वेर्थ सीण | म्हणती येक ||४४||
हीन उपमा येकदेसी | कैसी साहेल वस्तूसी |
वर्णवेक्ती अव्यक्तासी | साम्यता न घडे ||४५||
सुवर्णीं दृष्टी घालितां | मुळीच आहे वेक्तता |
आळंकार सोनें पाहातां | सोनेंचि असे ||४६||
मुळीं सोनेंचि हें वेक्त | जड येकदेसी पीत |
पूर्णास अपूर्णाचा दृष्टांत | केवीं घडे ||४७||
दृष्टांत तितुका येकदेसी | देणें घडे कळायासी |
सिंधु आणी लहरीसी | भिन्नत्व कैंचें ||४८||
उत्तम मधेम कनिष्ठ | येका दृष्टांतें कळे पष्ट |
येका दृष्टांतें नष्ट | संदेह वाढे ||४९||
कैंचा सिंधु कैंची लहरी | अचळास चळाची सरी |
साचा ऐसी वोडंबरी | मानूंच नये ||५०||
वोडंबरी हे कल्पना | नाना भास दाखवी जना |
येरवी हे जाणा | ब्रह्मचि असे ||५१||
ऐसा वाद येकमेकां | लागतां राहिली आशंका |
तेचि आतां पुढें ऐका | सावध होऊनी ||५२||
माया मिथ्या कळों आली | परी ते ब्रह्मीं कैसी जाली |
म्हणावी ते निर्गुणें केली | तरी ते मुळींच मिथ्या ||५३||
मिथ्या शब्दीं कांहींच नाहीं | तेथें केलें कोणें काई |
करणें निर्गुणाचा ठाईं | हेंहि अघटित ||५४||
कर्ता ठाईंचा अरूप | केलें तेंहि मिथ्यारूप |
तथापी फेडूं आक्षेप | श्रोतयांचा ||५५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूक्ष्मआशंकानिरूपण समास दुसरा ||२||८. २
समास तिसरा : सूक्ष्मआशंकानिरूपण
||श्रीराम ||
अरे जे जालेंचि नाहीं | त्याची वार्ता पुससी काई |
तथापि सांगों जेणें कांहीं | संशय नुरे ||१||
दोरीकरितां भुजंग | जळाकरितां तरंग |
मार्तंडाकरितां चांग | मृगजळ वाहे ||२||
कल्पेनिकरितां स्वप्न दिसे | सिंपीकरितां रुपें भासे |
जळाकरितां गार वसे | निमिष्य येक ||३||
मातीकरितां भिंती जाली | सिन्धुकरितां लहरी आली |
तिळाकरितां पुतळी | दिसों लागे ||४||
सोन्याकरितां अळंकार | तंतुकरितां जालें चीर |
कासवाकरितां विस्तार | हातापायांचा ||५||
तूप होतें तरी थिजलें | तरीकरितां मीठ जालें |
बिंबाकरितां बिंबलें | प्रतिबिंब ||६||
पृथ्वीकरितां जालें झाड | झाडाकरितां छ्याया वाड |
धातुकरितां पवाड | उंच नीच वर्णाचा ||७||
आतां असो हा दृष्टांत | अद्वैतास कैंचें द्वैत |
द्वैतेंविण अद्वैत | बोलतांच न ये ||८||
भासाकरितां भास भासे | दृश्याकरितां अदृश्य दिसे |
अदृश्यास उपमा नसे | म्हणोनि निरोपम ||९||
कल्पेनेविरहित हेत | दृश्यावेगळा दृष्टांत |
द्वैतावेगळें द्वैत | कैसें जालें ||१०||
विचित्र भगवंताची करणी | वर्णवेना सहस्रफणी |
तेणें केली उभवणी | अनंत ब्रह्मांडाची ||११||
परमात्मा परमेश्वरु | सर्वकर्ता जो ईश्वरू |
तयापासूनि विस्तारु | सकळ जाला ||१२||
ऐसीं अनंत नामें धरी | अनंत शक्ती निर्माण करी |
तोचि जाणावा चतुरीं | मूळपुरुष ||१३||
त्या मूळपुरुषाची वोळखण | ते मूळमायाचि आपण |
सकळ कांहीं कर्तेपण | तेथेंचि आलें ||१४||
||श्लोक ||
कार्यकारण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ||
हे उघड बोलतां न ये | मोडों पाहातो उपाये |
येरवीं हें पाहातां काय | साच आहे ||१५||
देवापासून सकळ जालें | हें सर्वांस मानलें |
परी त्या देवास वोळखिलें | पाहिजे कीं ||१६||
सिद्धांचे जें निरूपण | जें साधकांस न मने जाण |
पक्व नाहीं अंतःकर्ण | म्हणोनियां ||१७||
अविद्यागुणें बोलिजे जीव | मायागुणें बोलिजे शिव |
मूळमाया गुणें देव | बोलिजेतो ||१८||
म्हणौनि कारण मूळमाया | अनंत शक्ती धरावया |
तेथीचा अर्थ जाणावया | अनुभवी पाहिजे ||१९||
मूळमाया तोचि मूळपुरुष | तोचि सर्वांचा ईश |
अनंतनामी जगदीश | तयासीचि बोलिजे ||२०||
अवघी माया विस्तारली | परी हे निशेष नाथिली |
ऐसिया वचनाची खोली | विरुळा जाणे ||२१||
ऐसें अनुर्वाच्य बोलिजे | परी हें स्वानुभवें जाणिजे |
संतसंगेविण नुमजे | कांही केल्यां ||२२||
माया तोचि मूळपुरुष | साधकां न मने हें निशेष |
परी अनंतनामी जगदीश | कोणास म्हणावें ||२३||
नामरूप माये लागलें | तरी हें बोलणें नीटचि जालें |
येथें श्रोतीं अनुमानिलें | कासयासी ||२४||
आतां असो हे सकळ बोली | मागील आशंका राहिली |
निराकारीं कैसी जाली | मूळमाया ||२५||
दृष्टीबंधन मिथ्या सकळ | परी तो कैसा जाला खेळ |
हेंचि आतां अवघें निवळ | करून दाऊं ||२६||
आकाश असतां निश्चळ | मधें वायो जाला चंचळ |
तैसी जाणावी केवळ | मूळमाया ||२७||
रूप वायोचें जालें | तेणें आकाश भंगलें |
ऐसें हें सत्य मानलें | नवचे किं कदा ||२८||
तैसी मूळमाया जाली | आणी निर्गुणता संचली |
येणें दृष्टांतें तुटली | मागील आशंका ||२९||
वायु नव्हता पुरातन | तैसी मूळमाया जाण |
साच म्हणतां पुन्हा लीन | होतसे ||३०||
वायो रूपें कैसा आहे | तैसी मूळमाया पाहें |
भासे परी तें न लाहे | रूप तयेचें ||३१||
वायो सत्य म्हणो जातां | परी तो न ये दाखवितां |
तयाकडे पाहों जातां | धुळीच दिसे ||३२||
तैसी मूळमाया भासे | भासी परी ते न दिसे |
पुढें विस्तारली असे | माया अविद्या ||३३||
जैसें वायोचेनि योगें | दृश्य उडे गगनमार्गें |
मूळमायेच्या संयोगें | तैसें जग ||३४||
गगनीं आभाळ नाथिलें | अकस्मात उद्भवलें |
मायेचेनि गुणें जालें | तैसें जग ||३५||
नाथिलेंचि गगन नव्हतें | अकस्मात आलें तेथें |
तैसें दृश्य जालें येथें | तैसियापरी ||३६||
परी त्या आभाळाकरितां | गगनाची गेली निश्चळता |
वाटे परी ते तत्वता | तैसीच आहे ||३७||
तैसें मायेकरितां निर्गुण | वाटे जालें सगुण |
परी तें पाहातां संपूर्ण | जैसें तैसें ||३८||
आभाळ आले आणि गेलें | तरी गगन तें संचलें |
तैसें गुणा नाहीं आलें | निर्गुण ब्रह्म ||३९||
नभ माथा लागलें दिसे | परी तें जैसें तैसें असे |
तैसें जाणावें विश्वासें | निर्गुण ब्रह्म ||४०||
ऊर्ध पाहातां आकाश | निळिमा दिसे सावकास |
परि तो जाणिजे मिथ्याभास | भासलासे ||४१||
आकाश पालथें घातलें | चहूंकडे आटोपलें |
वाटे विश्वास कोंडिले | परी तें मोकळेचि असे ||४२||
पर्वतीं निळा रंग दिसे | परी तो तया लागला नसे |
अलिप्त जाणावे तैसें | निर्गुण ब्रह्म ||४३||
रथ धावतां पृथ्वी चंचळ | वाटे परी ते असे निश्चळ |
तैसें परब्रह्म केवळ | निर्गुण जाणावें ||४४||
आभाळाकरितां मयंक | वाटे धावतो निशंक |
परी तें अवघें माईक | आभाळ चळे ||४५||
झळे अथवा अग्निज्वाळ | तेणें कंपित दिसे अंत्राळ |
वाटे परी तें निश्चळ | जैसें तैसें ||४६||
तैसें स्वरूप हें संचलें | असतां वाटे गुणा आलें |
ऐसें कल्पनेसि गमलें | परी ते मिथ्या ||४७||
दृष्टिबंधनाचा खेळ | तैसी माया हे चंचळ |
वस्तु शाश्वत निश्चळ | जैसी तैसी ||४८||
ऐसी वस्तु निरावेव | माया दाखवी अवेव |
ईचा ऐसा स्वभाव | नाथिलीच हे ||४९||
माया पाहातां मुळीं नसे | परी हे साचा ऐसी भासे |
उद्भवे आणि निरसे | आभाळ जैसें ||५०||
ऐसी माया उद्भवली | वस्तु निर्गुण संचली |
अहं ऐसी स्फुर्ति जाली | तेचि माया ||५१||
गुणमायेचे पवाडे | निर्गुणीं हें कांहींच न घडे |
परी हें घडे आणी मोडे | सस्वरूपीं ||५२||
जैसी दृष्टी तरळली | तेणें सेनाच भासली |
पाहातां आकाशींच जाली | परी ते मिथ्या ||५३||
मिथ्या मायेचा खेळ | उद्भव बोलिला सकळ |
नानातत्वांचा पाल्हाळ | सांडूनियां ||५४||
तत्वें मुळींच आहेती | वोंकार वायोची गती |
तेथीचा अर्थ जाणती | दक्ष ज्ञानी ||५५||
मूळमायेचे चळण | तेंचि वायोचें लक्षण |
सूक्ष्म तत्वें तेंचि जाण | जडत्वा पावलीं ||५६||
ऐसीं पंचमाहांभूतें | पूर्वीं होती अवेक्तें |
पुढें जालीं वेक्तें | सृष्टिरचनेसी ||५७||
मूळमायेचें लक्षण | तेंचि पंचभूतिक जाण |
त्याची पाहें वोळखण | सूक्ष्मदृष्टीं ||५८||
आकाश वायोविण | इछ्याशब्द करी कोण |
इछाशक्ती तेचि जाण | तेजस्वरूप ||५९||
मृदपण तेचि जळ | जडत्व पृथ्वी केवळ |
ऐसी मूळमाया सकळ | पंचभूतिक जाणावी ||६०||
येक येक भूतांपोटीं | पंचभूतांची राहाटी |
सर्व कळे सूक्ष्मदृष्टी | घालून पाहातां ||६१||
पुढें जडत्वास आलीं | तरी असतीं कालवलीं |
ऐसी माया विस्तारली | पंचभूतिक ||६२||
मूळमाया पाहातां मुळीं | अथवा अविद्या भूमंडळीं |
स्वर्ग्य मृत्य पाताळीं | पांचचि भूतें ||६३||
||श्लोक ||
स्वर्गे मृत्यौ पाताले वा यत्किंचित्सचराचरं |
सर्वपंचभूतकं राम षष्ठें किंचिन्न दृश्यते ||
सत्य स्वरूप आदिअंतीं | मध्यें पंचभूतें वर्तती |
पंचभूतिक जाणिजे श्रोतीं | मूळमाया ||६४||
येथें उठिली आशंका | सावध होऊन ऐका |
पंचभूतें जालीं येका | तमोगुणापासुनी ||६५||
मूळमाया गुणापरती | तेथें भूतें कैंचि होतीं |
ऐसी आशंका हे श्रोतीं | घेतली असे ||६६||
ऐसें श्रोतीं आक्षेपिलें | संशयास उभें केलें |
याचें उत्तर दिधलें | पुढिले समासीं ||६७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूक्ष्मआशंकानाम समास तिसरा ||३||८. ३
समास चवथा : सूक्ष्मपंचभूतेंनिरूपण
||श्रीराम ||
मागील आशंकेचें मूळ | आतां होईल प्रांजळ |
वृत्ति करावी निवळ | निमिष्य येक ||१||
ब्रह्मीं मूळमाया जाली | तिच्या पोटा माया आली |
मग ते गुणा प्रसवली | म्हणौनि गुणक्षोभिणी ||२||
पुढें तिजपासाव कोण | सत्वरजतमोगुण |
तमोगुणापासून निर्माण | जाली पंचभूतें ||३||
ऐसीं भूतें उद्भवलीं | पुढें तत्वें विस्तारलीं |
एवं तमोगुणापासून जालीं | पंचमाहांभूतें ||४||
मूळमाया गुणापरती | तेथें भूतें कैंचीं होतीं |
ऐसी आशंका हे श्रोतीं | घेतली मागां ||५||
आणिक येक येके भूतीं | पंचभूतें असती |
ते हि आतां कैसी स्थिती | प्रांजळ करूं ||६||
सूक्ष्मदृष्टीचें कौतुक | मूळमाया पंचभूतिक |
श्रोतीं विमळ विवेक | केला पाहिजे ||७||
आधीं भूतें तीं जाणावीं | रूपें कैसीं वोळखावी |
मग तें शोधून पाहावीं | सूक्ष्मदृष्टीं ||८||
वोळखी नाही अंतरी | ते वोळखावी कोणेपरी |
म्हणोनि भूतांची वोळखी चतुरीं | नावेक परिसावी ||९||
जें जें जड आणी कठिण | तें तें पृथ्वीचें लक्षण |
मृद आणी वोलेपण | तितुकें आप ||१०||
जें जें उष्ण आणी सतेज | तें तें जाणावें पैं तेज |
आतां वायोहि सहज | निरोपिजेल ||११||
चैतन्य आणी चंचळ | तो हा वायोचि केवळ |
सून्य आकाश निश्चळ | आकाश जाणावें ||१२||
ऐसीं पंचमाहांभूतें | वोळखी धरावी संकेतें |
आतां येकीं पांच भूतें | सावध ऐका ||१३||
जें त्रिगुणाहूनि पर | त्याचा सूक्ष्म विचार |
यालागीं अति तत्पर | होऊन ऐका ||१४||
सूक्ष्म आकाशीं कैसी पृथ्वी | तेचि आधीं निरोपावी |
येथें धारणा धरावी | श्रोतेजनीं ||१५||
आकाश म्हणजे अवकाश सून्य | सून्य म्हणिजे तें अज्ञान |
अज्ञान म्हणिजे जडत्व जाण | तेचि पृथ्वी ||१६||
आकाश स्वयें आहे मृद | तेंचि आप स्वतसिद्ध |
आतां तेज तेंहि विशद | करून दाऊं ||१७||
अज्ञानें भासला भास | तोचि तेजाचा प्रकाश |
आतां वायो सावकाश | साकल्य सांगों ||१८||
वायु आकाश नाहीं भेद | आकाशाइतुका असे स्तब्ध |
तथापी आकाशीं जो निरोध | तोचि वायो ||१९||
आकाशीं आकाश मिसळलें | हें तों नलगे किं बोलिलें |
येणें प्रकारें निरोपिलें | आकाश् पंचभूत ||२०||
वायोमध्यें पंचभूतें | तेंहि ऐका येकचित्तें |
बोलिजेती ते समस्तें | येथान्वयें ||२१||
हळु फूल तरी जड | हळु वारा तरी निबिड |
वायो लागतां कडाड | मोडती झाडें ||२२||
तोलेंविण झाड मोडे | ऐसें हें कहिंच न घडे |
तोल तोचि तये जडे | पृथ्वीचा अंश ||२३||
येथें श्रोते आशंका घेती | तेथें कैचीं झाडें होतीं |
झाडें नव्हतीं तरी शक्ती | कठिणरूप आहे ||२४||
वन्हीस्फुलींग लाहान | कांहीं तऱ्ही असे उष्ण |
तैसें सुक्ष्मीं जडपण | सूक्ष्मरूपें ||२५||
मृदपण तेंचि आप | भास तेजाचें स्वरूप |
वायो तेथें चंचळरूप | सहजचि आहे ||२६||
सकळांस मिळोन आकाश | सहजचि आहे अवकाश |
पंचभूतांचे अंश | वायोमधें निरोपिले ||२७||
आतां तेजाचें लक्षण | भासलेंपण तें कठीण |
तेजीं ऐसी वोळखण | पृथ्वीयेची ||२८||
भासला भास वाटे मृद | तेजीं आप तेचि प्रसिद्ध |
तेजीं तेज स्वतसिद्ध | सांगणेंचि नलगे ||२९||
तेजीं वायो तो चंचळ | तेजीं आकाश निश्चळ |
तेजीं पंचभूतें सकळ | निरोपिलीं ||३०||
आतां आपाचें लक्षण | आप तेंचि जें मृदपण |
मृदपण तें कठिण | तेचि पृथ्वी ||३१||
आपीं आप सहजचि असे | तेज मृदपणें भासे |
वायो स्तब्धपणें दिसे | मृदत्वाआंगी ||३२||
आकाश न लगे सांगावें | तें व्यापकचि स्वभावें |
आपीं पंचभूतांचीं नांवें | सूक्ष्म निरोपिलीं ||३३||
आतां पृथ्वीचें लक्षण | कठीण पृथ्वी आपण |
कठिणत्वीं मृदपण | तेंचि आप ||३४||
कठिणत्वाचा जो भास | तोचि तेजाचा प्रकाश |
कठिणत्वीं निरोधांश | तोचि वायो ||३५||
आकश सकळांस व्यापक | हा तों प्रगटचि विवेक |
आकाशींच कांहीं येक | भास भासे ||३६||
आकाश तोडितां तुटेना | आकाश फोडितां फुटेना |
आकाश परतें होयेना | तिळमात्र ||३७||
असो आतां पृथ्वीअंत | दाविला भूतांचा संकेत |
येक भूतीं पंचभूत | तेंहि निरोपिलें ||३८||
परी हें आहाच पाहातां नातुडे | बळेंचि पोटीं संदेह पडे |
भ्रांतिरूपें अहंता चढे | अकस्मात ||३९||
सूक्ष्मदृष्टीनें पाहातां | वायोचि वाटे तत्वता |
सूक्ष्म वायो शोधूं जातां | पंचभूतें दिसती ||४०||
एवं पंचभूतिक पवन | तेचि मूळमाया जाण |
माया आणी सूक्ष्म त्रिगुण | तेहि पंचभूतिक ||४१||
भूतें गुण मेळविजे | त्यासी अष्टधा बोलिजे |
पंचभूतिक जाणिजे | अष्टधा प्रकृति ||४२||
शोधून पाहिल्यावीण | संदेह धरणें मूर्खपण |
याची पाहावी वोळखण | सूक्ष्मदृष्टीं ||४३||
गुणापासूनि भूतें | पावलीं पष्ट दशेतें |
जडत्वा येऊन समस्तें | तत्वें जालीं ||४४||
पुढें तत्वविवंचना | पिंडब्रह्मांड तत्वरचना |
बोलिली असे ते जना | प्रगटचि आहे ||४५||
हा भूतकर्दम बोलिला | सूक्ष्म संकेतें दाविला |
ब्रह्मगोळ उभारला | तत्पूर्वीं ||४६||
या ब्रह्मांडापैलिकडिल गोष्टी | जैं जाली नव्हती सृष्टी |
मूळमाया सूक्ष्मदृष्टीं | वोळखावी ||४७||
सप्तकंचुक प्रचंड | जालें नव्हतें ब्रह्मांड |
मायेअविद्येचें बंड | ऐलिकडे ||४८||
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर | हा ऐलिकडिल विचार |
पृथ्वी मेरु सप्त सागर | ऐलिकडे ||४९||
नाना लोक नाना स्थानें | चन्द्र सूर्य तारांगणें |
सप्त द्वीपें चौदा भुवनें | ऐलिकडे ||५०||
शेष कूर्म सप्त पाताळ | येकविस स्वर्गें अष्ट दिग्पाळ |
तेतिस कोटि देव सकळ | ऐलिकडे ||५१||
बारा आदित्य | अक्रा रुद्र | नव नाग सप्त ऋषेश्वर |
नाना देवांचे अवतार | ऐलिकडे ||५२||
मेघ मनु चक्रवती | नाना जीवांची उत्पति |
आतां असो सांगों किती | विस्तार हा ||५३||
सकळ विस्ताराचें मूळ | ते मूळ मायाच केवळ |
मागां निरोपिली सकळ | पंचभूतिक ||५४||
सूक्ष्मभूतें जे बोलिलीं | तेचि पुढें जडत्वा आलीं |
ते सकळहि बोलिलीं | पुढिले समासीं ||५५||
पंचभूतें पृथकाकारें | पुढें निरोपिलीं विस्तारें |
वोळखीकारणें अत्यादरें | श्रोतीं श्रवण करावीं ||५६||
पंचभूतिक ब्रह्मगोळ | जेणें कळे हा प्रांजळ |
दृश्य सांडून केवळ | वस्तुच पाविजे ||५७||
माहाद्वार वोलांडावें | मग देवदर्शन घ्यावें |
तैसें दृश्य हे | सांडावें | जाणोनियां ||५८||
म्हणोनि दृश्याचा पोटीं | आहे पंचभूतांची दाटी |
येकपणें पडिली मिठी | दृश्य पंचभूतां ||५९||
एवं पंचभूतांचेंचि दृश्य | सृष्टी रचली सावकास |
श्रोतीं करून अवकाश | श्रवण करावें ||६०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सूक्ष्मपंचभूतेंनिरूपणनाम समास चवथा ||४||८. ४
समास पांचवा : स्थूळपंचमहाभूतेंस्वरूपाकाशभेदोनाम
||श्रीराम ||
केवळ मूर्ख तें नेणे | म्हणौन घडलें सांगणे |
पंचभूतांचीं लक्षणें | विशद करूनि ||१||
पंचभूतांचा कर्दम जाला | आतां न वचे वेगळा केला |
परंतु कांहीं येक वेगळाला | करून दाऊं ||२||
पर्वत पाषाण शिळा शिखरें | नाना वर्णें लहान थोरें |
खडे गुंडे बहुत प्रकारें | जाणिजे पृथ्वी ||३||
नाना रंगांची मृत्तिका | नाना स्थळोस्थळीं जे कां |
वाळुकें वाळु अनेका | मिळोन पृथ्वी ||४||
पुरें पट्टणें मनोहरें | नाना मंदिरें दामोदरें |
नाना देवाळयें शिखरें | मिळोन पृथ्वी ||५||
सप्त द्वीपावती पृथ्वी | काये म्हणोनि सांगावी |
नव खंडे मिळोन जाणावी | वसुंधरा ||६||
नाना देव नाना नृपती | नाना भाषा नाना रिती |
लक्ष चौऱ्यासी उत्पत्ती | मिळोन पृथ्वी ||७||
नाना उद्वसें जें वनें | नाना तरुवरांचीं बनें |
गिरीकंदरें नाना स्थानें | मिळोन पृथ्वी ||८||
नाना रचना केली देवीं | जे जे निर्मिली मानवी |
सकळ मिळोन पृथ्वी | जाणिजें श्रोतीं ||९||
नाना धातु सुवर्णादिक | नाना रत्नें जे अनेक |
नाना काष्ठवृक्षादिक | मिळोन पृथ्वी ||१०||
आतां असो हें बहुवस | जडांश आणी कठिणांश |
सकळ पृथ्वी हा विश्वास | मानिला पाहिजे ||११||
बोलिलें पृथ्वीचे रूप | आतां सांगिजेल आप |
श्रोतीं वोळखावें रूप | सावध होऊनी ||१२||
वापी कूप सरोवर | नाना सरितांचें जें नीर |
मेघ आणी सप्त सागर | मिळोन आप ||१३||
||श्लोकार्ध -क्षारक्षीरसुरासर्पिर्दधि इक्षुर्जलं तथा ||
क्षारसमुद्र दिसताहे | सकळ जन दृष्टीस पाहे |
जेथें लवण होताहे | तोचि क्षारसिंधु ||१४||
येक दुधाचा सागर | त्या नाव क्षीरसागर |
देवें दिधला निरंतर | उपमन्यासी ||१५||
येक समुद्र मद्याचा | येक जाणावा घृताचा |
येक निखळ दह्याचा | समुद्र असे ||१६||
येक उसाच्या रसाचा | येक तो शुद्ध जळाचा |
ऐसा सातां समुद्राचा | वेढा पृथ्वीयेसी ||१७||
एवं भूमंडळीचें जळ | नाना स्थळींचें सकळ |
मिळोन अवघें केवळ | आप जाणावें ||१८||
पृथ्वीगर्भीं कितीयेक | पृथ्वीतळीं आवर्णोदक |
तिहीं लोकींचें उदक | मिळोन आप ||१९||
नाना वल्ली बहुवस | नाना तरुवरांचे रस |
मधु पारा अमृत विष | मिळोन आप ||२०||
नाना रस स्नेहादिक | याहि वेगळे अनेक |
जगावेगळे अवश्यक | आप बोलिजे ||२१||
सारद्र आणी सीतळ | जळासारिखें पातळ |
शुक्लीत शोणीत मूत्र लाळ | आप बोलिजे ||२२||
आप संकेतें जाणावें | पातळ बोलें वोळखावें |
मृद सीतळ स्वभावें | आप बोलिजे ||२३||
जाला आपाचा संकेत | पातळ मृद गुळगुळित |
स्वेद श्लेष्मा अश्रु समस्त | आप जाणावें ||२४||
तेज ऐका सावधपणें | चंद्र सूर्य तारांगणें |
दिव्य देह सतेजपणें | तेज बोलिजे ||२५||
वन्ही मेघीं विद्युल्यता | वन्ही सृष्टी संव्हारिता |
वन्ही सागरा जाळिता | वडवानळु ||२६||
वन्ही शंकराचे नेत्रींचा | वन्ही काळाचे क्षुधेचा |
वन्ही परीघ भूगोळाचा | तेज बोलिजे ||२७||
जें जें प्रकाश रूप | तें तें तेजाचें स्वरूप |
शोषक उष्णादि आरोप | तेज जाणावे ||२८||
वायो जाणावा चंचळ | चैतन्य चेतवी केवळ |
बोलणें चालणें सकळ | वायुमुळें ||२९||
हाले डोले तितुका पवन | कांहीं न चले पवनेंविण |
सृष्टी चाळाया कारण | मूळ तो वायो ||३०||
चळण वळण आणी प्रासारण | निरोध आणी अकोचन |
सकळ जाणावा पवन | चंचळरूपी ||३१||
प्राण अपान आणी व्यान | चौथा उदान आणी समान |
नाग कुर्म कर्कश जाण | देवदत्त धनंजये ||३२||
जितुकें कांहीं होतें चळण | तितुकें वायोचें लक्षण |
च्ंद्र सूर्य तारांगण | वायोचि धर्ता ||३३||
आकाश जाणावें पोकळ | निर्मळ आणी निश्चळ |
अवकाशरूप सकळ | आकाश जाणावें ||३४||
आकाश सकळांस व्यापक | आकाश अनेकीं येक |
आकाशामध्यें कौतुक | चहूं भूतांचे ||३५||
आकाशा ऐसें नाहीं सार | आकाश सकळांहून थोर |
पाहातां आकाशाचा विचार | स्वरूपासारिखा ||३६||
तव शिष्यें केला आक्षेप | दोहीचें सारखेंचि रूप |
तरी आकाशचि स्वरूप | कां म्हणो नये ||३७||
आकाश स्वरुपा कोण भेद | पाहातां दिसेती अभेद |
आकाश वस्तुच स्वतसिद्ध | कां न म्हणावी ||३८||
वस्तु अचळ अढळ | वस्तु निर्मळ निश्चळ |
तैसेंचि आकाश केवळ | वस्तुसारिखें ||३९||
ऐकोनि वक्ता बोले वचन | वस्तु निर्गुण पुरातन |
आकाशाआंगी सप्त गुण | शास्त्रीं निरोपिलें ||४०||
काम क्रोध शोक मोहो | भय अज्ञान सुन्यत्व पाहो |
ऐसा सप्तविध स्वभाव | आकाशाचा ||४१||
ऐसें शात्राकारें बोलिलें | म्हणोनि आकाश भूत जालें |
स्वरूप निर्विकार संचलें | उपमेरहित ||४२||
काचबंदि आणी जळ | सारिखेंच वाटे सकळ |
परी येक काच येक जळ | शाहाणे जाणती ||४३||
रुवामधें स्फटिक पडिला | लोकीं तद्रूप देखिला |
तेणें कपाळमोक्ष जाला | कापुस न करी ||४४||
तंदुलामधें श्वेत खडे | तंदुलासारिखें वांकुडे |
चाऊं जाता दांत पडे | तेव्हां कळे ||४५||
त्रिभागामधें खडा असे | त्रिभागासारिखाच भासे |
शोधूं जातां वेगळा दिसे | कठिणपणें ||४६||
गुळासारिखा गुळदगड | परी तो कठिण निचाड |
नागकांडी आणी वेखंड | येक म्हणो नये ||४७||
सोनें आणी सोनपितळ | येकचि वाटती केवळ |
परी पितळेंसी मिळतां ज्वाळ | काळिमा चढे ||४८||
असो हे हीन दृष्टांत | आकाश म्हणिजे केवळ भूत |
तें भूत आणी अनंत | येक कैसे ||४९||
वस्तुसी वर्णचि नसे | आकाश शामवर्ण असे |
दोहींस साम्यता कैसे | करिती विचक्षण ||५०||
श्रोते म्हणती कैंचें रूप | आकाश ठांईचे अरूप |
आकाश वस्तुच तद्रूप | भेद नाहीं ||५१||
चहूं भूतांस नाश आहे | आकाश कैसें नासताहे |
आकाशास न साहे | वर्ण वेक्ती विकार ||५२||
आकाश अचळ दिसतें | त्याचें काये नासों पाहातें |
पाहातां आमुचेनि मतें | आकाश शाश्वत ||५३||
ऐसे ऐकोन वचन | वक्ता बोले प्रतिवचन |
ऐक आतां लक्षण | आकाशाचें ||५४||
आकाश तमापासून जालें | म्हणोन काम क्रोधें वेष्टिलें |
अज्ञान सुन्यत्व बोलिलें | नाम तयाचें ||५५||
अज्ञानें कामक्रोधादिक | मोहो भये आणी शोक |
हा अज्ञानाचा विवेक | आकाशागुणें ||५६||
नास्तिक नकारवचन | तें सुन्याचें लक्षण |
तयास म्हणती ह्रुदयसुन्य | अज्ञान प्राणी ||५७||
आकाश स्तब्धपणें सुन्य | सुन्य म्हणिजे तें अज्ञान |
अज्ञान म्हणिजे कठिण | रूप तयाचें ||५८||
कठिण सुन्य विकारवंत | तयास कैसें म्हणावें संत |
मनास वाटे हें तद्वत | आहाच दृष्टीं ||५९||
अज्ञान कालवलें आकाशीं | तया कर्दमा ज्ञान नासी |
म्हणोनिया आकाशासी | नाश आहे ||६०||
तैसें आकाश आणी स्वरूप | पाहातां वाटती येकरूप |
परी दोहींमधें विक्षेप | सुन्यत्वाचा ||६१||
आहाच पाहातां कल्पेनिसी | सारिखेंच वाटे निश्चयेंसीं |
परी आकाश स्वरूपासी | भेद नाही ||६२||
उन्मनी आणी सुषुप्ति अवस्ता | सारिखेच वाटे तत्वता |
परी विवंचून पाहों जातां | भेद आहे ||६३||
खोटें खऱ्यासारिखें भाविती | परी परीक्षवंत निवडिती |
कां कुरंगें देखोन भुलती | मृगजळासी ||६४||
आतां असो हा दृष्टांत | बोलिला कळाया संकेत |
म्हणौनि भूत आणी अनंत | येक नव्हेती ||६५||
आकाश वेगळेपणें पाहावें | स्वरूपीं स्वरूपचि व्हावें |
वस्तुचें पाहाणें स्वभावें | ऐसे असे ||६६||
येथें आशंका फिटली | संदेहवृत्ती मावळली |
भिन्नपणें नवचे अनुभवली | स्वरूपस्थिती ||६७||
आकाश अनुभवा येतें | स्वरूप अनुभवापरतें |
म्हणोनियां आकाशातें | साम्यता न घडे ||६८||
दुग्धासारिखा जळांश | निवडुं जाणती राजहंस |
तैसें स्वरूप आणी आकाश | संत जाणती ||६९||
सकळ माया गथागोवी | संतसंगें हें उगवावी |
पाविजे मोक्षाची पदवी | सत्समागमें ||७०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
स्थूळपंचमहाभूतेंस्वरूपाकाशभेदोनाम समास पांचवा ||५||८. ५
समास सहावा : दुश्चीतनिरूपण
||श्रीराम ||
श्रोता विनवी वक्तयासी | सत्संगाची महिमा कैसी |
मोक्ष लाभे कितां दिवसीं | हें मज निरोपावें ||१||
धरितां साधूची संगती | कितां दिवसां होते मुक्ती |
हा निश्चय कृपामुर्ती | मज दिनास करावा ||२||
मुक्ती लाभे तत्क्षणीं | विश्वासतां निरूपणीं |
दुश्चितपणीं हानी | होतसे ||३||
सुचितपणें दुश्चीत | मन होतें अकस्मात |
त्यास करावें निवांत | कोणे परीं ||४||
मनाच्या तोडून वोढी | श्रवणीं बैसावें आवडीं |
सावधपणें घडीनें घडी | काळ सार्थक करावा ||५||
अर्थ प्रमेय ग्रंथांतरीं | शोधून घ्यावें अभ्यांतरीं |
दुश्चीतपण आलें तरी | पुन्हां श्रवण करावें ||६||
अर्थांतर पाहिल्यावीण | उगेंचि करी जो श्रवण |
तो श्रोता नव्हे पाषण | मनुष्यवेषें ||७||
येथें श्रोते मानितील सीण | आम्हांस केलें पाषाण |
तरी पाषाणाचें लक्षण | सावध ऐका ||८||
वांकुडा तिकडा फोडिला | पाषाण घडून नीट केला |
दुसरे वेळेसी पाहिला | तरी तो तैसाचि असे ||९||
टांकीनें खपली फोडिली | ते मागुती नाहीं जडली |
मनुष्याची कुबुद्धि झाडिली | तरी ते पुन्हा लागे ||१०||
सांगतां अवगुण गेला | पुन्हा मागुतां जडला |
याकरणें माहांभला | पाषाणगोटा ||११||
ज्याचा अवगुण झडेना | तो पाषाणाहून उणा |
पाषाण आगळा जाणा | कोटिगुणें ||१२||
कोटिगुणें कैसा पाषाण | त्याचेंहि ऐका लक्षण |
श्रोतीं करावें श्रवण | सावध होऊनी ||१३||
माणीक मोतीं प्रवाळ | पाचि वैडुर्य वज्रनीळ |
गोमेदमणी परिस केवळ | पाषाण बोलिजे ||१४||
याहि वेगळे बहुत | सूर्यकांत सोमकांत |
नाना मोहरे सप्रचित | औषधाकारणें ||१५||
याहि वेगळे पाषाण भले | नाना तीर्थीं जे लागले |
वापी कूप सेखीं जाले | हरिहरमुर्ती ||१६||
याचा पाहातां विचार | पाषाणा ऐसें नाहीं सार |
मनुष्य तें काये पामर | पाषाणापुढें ||१७||
तरी तो ऐसा नव्हे तो पाषाण | जो अपवित्र निःकारण |
तयासारिखा देह जाण | दुश्चीत अभक्तांचा ||१८||
आतां असो हें बोलणें | घात होतो दुश्चीतपणें |
दुश्चीतपणाचेनि गुणें | प्रपंच ना परमार्थ ||१९||
दुश्चीतपणें कार्य नासे | दुश्चीतपणें चिंता वसे |
दुश्चीतपणें स्मरण नसे | क्षण येक पाहातां ||२०||
दुश्चीतपणें शत्रुजिणें | दुश्चीतपणें जन्ममरणें |
दुश्चीतपणाचेनि गुणें | हानी होये ||२१||
दुश्चीतपणें नव्हे साधन | दुश्चीतपणें न घडे भजन |
दुश्चीतपणें नव्हे ज्ञान | साधकांसी ||२२||
दुश्चीतपणें नये निश्चयो | दुश्चीतपणें न घडे जयो |
दुश्चीतपणें होये क्षयो | आपुल्या स्वहिताचा ||२३||
दुश्चीतपणें न घडे श्रवण | दुश्चीतपणें न घडे विवरण |
दुश्चीतपणें निरूपण | हातींचे जाये ||२४||
दुश्चीत बैसलाचि दिसे | परी तो असतचि नसे |
चंचळ चक्रीं पडिलें असे | मानस तयाचें ||२५||
वेडें पिशाच्य निरंतर | अंध मुके आणी बधिर |
तैसा जाणावा संसार | दुश्चीत प्राणियांचा ||२६||
सावध असोन उमजेना | श्रवण असोन ऐकेना |
ज्ञान असोन कळेना | सारासारविचार ||२७||
ऐसा जो दुश्चीत आळसी | परलोक कैंचा त्यासी |
जयाचे जिवीं अहर्निशीं | आळस वसे ||२८||
दुश्चीतपणापासुनि सुटला | तरी तो सवेंच आळस आला |
आळसाहातीं प्राणीयांला | उसंतचि नाहीं ||२९||
आळसें राहिला विचार | आळसें बुडाला आचार |
आळसे नव्हे पाठांतर | कांहीं केल्यां ||३०||
आळसें घडेना श्रवण | आळसें नव्हें निरूपण |
आळसें परमार्थाची खूण | मळिण जाली ||३१||
आळसें नित्यनेम राहिला | आळसें अभ्यास बुडाला |
आळसें आळस वाढला | असंभाव्य ||३२||
आळसें गेली धारणा धृती | आळसें मळिण जाली वृत्ती |
आळसें विवेकाची गती | मंद जाली ||३३||
आळसें निद्रा वाढली | आळसें वासना विस्तारली |
आळसें सुन्याकार जाली | सद्बुद्धि निश्चयाची ||३४||
दुश्चीतपणासवें आळस | आळसें निद्राविळास |
निद्राविळासें केवळ नास | आयुष्याचा ||३५||
निद्रा आळस दुश्चीतपण | हेंचि मूर्खाचें लक्षण |
येणेंकरिता निरूपण | उमजेचिना ||३६||
हें तिन्ही लक्षणें जेथें | विवेक कैंचा असेल तेथें |
अज्ञानास यापरतें | सुखचि नाहीं ||३७||
क्षुधां लागतांच जेविला | जेऊन उठतां आळस आला |
आळस येतां निजेला | सावकास ||३८||
निजोन उठतांच दुश्चीत | कदा नाहीं सावचित |
तेथें कैचें आत्महित | निरूपणीं ||३९||
मर्कटापासीं दिल्हें रत्न | पिशाच्याहातीं निधान |
दुश्चीतापुढें निरूपण | तयापरी होये ||४०||
आतां असो हे उपपत्ती | आशंकेची कोण गती |
कितां दिवसां होते मुक्ती | सज्जनाचेनि संगें ||४१||
ऐका याचें प्रत्योत्तर | कथेंसि व्हावें निरोत्तर |
संतसंगाचा विचार | ऐसा असे ||४२||
लोहो परियेसी लागला | थेंबुटा सागरीं मिळाला |
गंगे सरिते संगम जाला | तत्क्षणीं ||४३||
सावध साक्षपी आणी दक्ष | तयास तत्काळचि मोक्ष |
इतरांस तें अलक्ष | लक्षिलें नवचे ||४४||
येथें शिष्यप्रज्ञाच केवळ | प्रज्ञावंतां नलगे वेळे |
अनन्यास तत्काळ | मोक्ष लाभे ||४५||
प्रज्ञावंत आणी अनन्य | तयास नलगे येक क्षण |
अनन्य भावार्थेंविण | प्रज्ञा खोटी ||४६||
प्रज्ञेविण अर्थ न कळे | विश्वासेंविण वस्तु ना कळे |
प्रज्ञाविश्वासें गळे | देहाभिमान ||४७||
देहाभिमानाचे अंतीं | सहजचि वस्तुप्राप्ती |
सत्संगें सद्गती | विलंबचि नाही ||४८||
सावध साक्षपी विशेष | प्रज्ञावंत आणी विश्वास |
तयास साधनीं सायास | करणेंचि नलगे ||४९||
इतर भाविक साबडे | तयांसहि साधनें मोक्ष जोडे |
साधुसंगें तत्काळ उडे | विवेकदृष्टी ||५०||
परी तें साधन मोडुं नये | निरूपणाचा उपाये |
निरूपणें लागे सोय | सर्वत्रांसी ||५१||
आतां मोक्ष आहे कैसा | कैसी स्वरूपाची दशा |
त्याचे प्राप्तीचा भर्वसा | सत्संगें केवी ||५२||
ऐसें निरूपण प्रांजळ | पुढें बोलिलें असे सकळ |
श्रोतीं होऊनियां निश्चळ | अवधान द्यावें ||५३||
अवगुण त्यागावयाकारणें | न्यायनिष्ठुर लागे बोलणें |
श्रोतीं कोप न धरणें | ऐसिया वचनाचा ||५४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
दुश्चीतनिरूपणनाम समास सहावा ||६||८. ६
समास सातवा : मोक्षलक्षण
||श्रीराम ||
मागां श्रोतयांचा पक्ष | कितां दिवसां होतो मोक्ष |
तेचि कथा श्रोते दक्ष | होऊन ऐका ||१||
मोक्षास कैसें जाणावें | मोक्ष कोणास म्हणावें |
संतसंगें पावावें | मोक्षास कैसें ||२||
तरी बद्ध म्हणिजे बांधला | आणि मोक्ष म्हणिजे मोकळा जाला |
तो संतसंगें कैसा लाधला | तेंचि ऐका ||३||
प्राणी संकल्पें बांधला | जीवपणें बद्ध जाला |
तो विवेकें मुक्त केला | साधुजनीं ||४||
मी जीव ऐसा संकल्प | दृढ धरितां गेले कल्प |
तेणें प्राणी जाला अल्प | देहबुद्धीचा ||५||
मी जीव मज बंधन | मज आहे जन्ममरण |
केल्या कर्माचें फळ आपण | भोगीन आतां ||६||
पापाचें फळ तें दुःख | आणी पुण्याचें फळ तें सुख |
पापपुण्य अवश्यक | भोगणें लागे ||७||
पापपुण्य भोग सुटेना | आणी गर्भवासहि तुटेना |
ऐसी जयाची कल्पना | दृढ जाली ||८||
तया नाव बांधला | जीवपणें बद्ध जाला |
जैसा स्वयें बांधोन कोसला | मृत्यु पावे ||९||
तैसा प्राणी तो अज्ञान | नेणें भगवंताचें ज्ञान |
म्हणे माझें जन्ममरण | सुटेचिना ||१०||
आतां कांहीं दान करूं | पुढिलया जन्मास आधारु |
तेणें सुखरूप संसारु | होईल माझा ||११||
पूर्वीं दान नाहीं केलें | म्हणोन दरिद्र प्राप्त जालें |
आतां तरी कांहीं केलें | पाहिजे कीं ||१२||
म्हणौनी दिलें वस्त्र जुनें | आणी येक तांब्र नाणें |
म्हणे आतां कोटिगुणें | पावेन पुढें ||१३||
कुशावर्तीं कुरुक्षेत्रीं | महिमा ऐकोन दान करी |
आशा धरिली अभ्यांतरीं | कोटिगुणांची ||१४||
रुका आडका दान केला | अतितास टुक्डा घातला |
म्हणे माझा ढीग जाला | कोटि टुकड्यांचा ||१५||
तो मी खाईन पुढिलिये जन्मीं | ऐसें कल्पीं अंतर्यामीं |
वासना गुंतली जन्मकर्मीं | प्राणीयांची ||१६||
आतां मी जें देईन | तें पुढिले जन्मीं पावेन |
ऐसें कल्पी तो अज्ञान | बद्ध जाणावा ||१७||
बहुतां जन्माचे अंतीं | होये नरदेहाची प्राप्ती |
येथें न होतां ज्ञानें सद्गती | गर्भवस चुकेना ||१८||
गर्भवास नरदेहीं घडे | ऐसें हें सर्वथा न घडे |
अकस्मात भोगणें पडे | पुन्हा नीच योनी ||१९||
ऐसा निश्चयो शास्त्रांतरीं | बहुतीं केला बहुतांपरीं |
नरदेह संसारीं | परम दुल्लभ असे ||२०||
पापपुण्य समता घडे | तरीच नरदेह जोडे |
येरवीं हा जन्म न घडे | हें व्यासवचन भागवतीं ||२१||
||श्लोक ||
नरदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं | प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं |
मायानुकुलेन नभस्वतेरितं | पुमान्भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा ||
नरदेह दुल्लभ | अल्प संकल्पाचा लाभ |
गुरु कर्णधारी स्वयंभ | सुख पाववी ||२२||
दैव अनुकुळ नव्हे जया | स्वयें पापी तो प्राणीया |
भवब्धी न तरवे तया | आत्महत्यारा बोलिजे ||२३||
ज्ञानेंविण प्राणीयांसी | जन्ममृत्य लक्ष चौऱ्यासी |
तितुक्या आत्महत्या त्यासी | म्हणोन आत्महत्यारा ||२४||
नरदेहीं ज्ञानेंविण | कदा न चुके जन्ममरण |
भोगणें लागती दारुण | नाना नीच योनी ||२५||
रीस मर्कट श्वान सूकर | अश्व वृषभ म्हैसा खर |
काक कुर्कूट जंबुक मार्जर | सरड बेडुक मक्षिका ||२६||
इत्यादिक नीच योनी | ज्ञान नस्तां भोगणें जनीं |
आशा धरी मुर्ख प्राणी | पुढिलिया जन्माची ||२७||
हा नरदेह पडतां | तोंचि पाविजे मागुतां |
ऐसा विश्वास धरितां | लाज नाहीं ||२८||
कोण पुण्याचा संग्रहो | जे पुन्हा पाविजे नरदेहो |
दुराशा धरिली पाहो | पुढिलिया जन्माची ||२९||
ऐसा मुर्ख अज्ञान जन | केलें संकल्पें बंधन |
शत्रु आपणासि आपण | होऊन ठेला ||३०||
||श्लोक ||
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः |
ऐसे संकल्पाचें बंधन | संतसंगे तुटे जाण |
ऐक तयाचें लक्षण | सांगिजेल ||३१||
पांचा भूतांचें शरीर | निर्माण जालें सचराचर |
प्रकृतिस्वभावें जगदाकार | वर्तों लागे ||३२||
देह अवस्ता अभिमान | स्थानें भोग मात्रा गुण |
शक्ती आदिकरुन लक्षण | चौपुटी तत्वांचें ||३३||
ऐसी पिंडब्रह्मांड रचना | विस्तारें वाढली कल्पना |
निर्धारितां तत्वज्ञाना | मतें भांबावलीं ||३४||
नाना मतीं नाना भेद | भेदें वाढती वेवाद |
परी तो ऐक्यतेचा संवाद | साधु जाणती ||३५||
तया संवादाचे लक्षण | पंचभूतिक देह जाण |
त्या देहामधें कारण | आत्मा वोळखावा ||३६||
देह अंती नासोन जाये | त्यास आत्मा म्हणों नये |
नाना तत्वांचा समुदाय | देहामधें आला ||३७||
अंतःकर्ण प्राणादिक | विषये इंद्रियें दशक |
हा सूक्ष्माच विवेक | बोलिला शास्त्रीं ||३८||
घेतां सूक्ष्माची शुद्धी | भिन्न अंतःकरण मन बुद्धी |
नाना तत्वांचे उपाधी | वेगळा आत्मा ||३९||
स्थूळ सूक्ष्म कारण | माहाकारण विराट हिरण्य |
अव्याकृत मूळप्रकृति जाण | ऐसे अष्टदेह ||४०||
च्यारी पिंडी च्यारी ब्रह्मांडीं | ऐसी अष्टदेहाची प्रौढी |
प्रकृती पुरुषांची वाढी | दशदेह बोलिजे ||४१||
ऐसें तत्वांचे लक्षण | आत्मा साक्षी विलक्षण |
कार्य कर्ता कारण | दृश्या तयाचें ||४२||
जीवशिव पिंडब्रह्मांड | मायेअविद्येचें बंड |
हें सांगता असे उदंड | परी आत्मा तो वेगळा ||४३||
पाहों जातां आत्मे च्यारी | त्यांचे लक्षण अवधारीं |
हें जाणोनि अभ्यांतरीं | सदृढ धरावें ||४४||
येक जीवात्मा दुसरा शिवात्मा | तिसरा परमात्मा जो विश्वात्मा |
चौथा जाणिजे निर्मळात्मा | ऐसे च्यारी आत्मे ||४५||
भेद उंच नीच भासती | परी च्यारी येकचि असती |
येविषीं दृष्टांत संमती | सावध ऐका ||४६||
घटाकाश मठाकाश | महदाकाश चिदाकाश |
अवघे मिळोन आकाश | येकचि असे ||४७||
तैसा जीवात्मा आणि शिवात्मा | परमात्मा आणी निर्मळाता |
अवघा मिळोन आत्मा | येकचि असे ||४८||
घटीं व्यापक जें आकाश | तया नाव घटाकाश |
पिंडी व्यापक ब्रह्मांश | त्यास जीवात्मा बोलिजे ||४९||
मठीं व्यापक जें आकाश | तया नाव मठाकाश |
तैसा ब्रह्मांडीं जो ब्रह्मांश | त्यास शिवात्मा बोलिजे ||५०||
मठाबाहेरील आकाश | तया नांव महदाकाश |
ब्रह्मांडाबाहेरील ब्रह्मांश | त्यास परमात्मा बोलिजे ||५१||
उपधीवेगळें आकाश | तया नाव चिदाकाश |
तैसा निर्मळात्मा परेश | तो उपधिवेगळा ||५२||
उपाधियोगें वाटे भिन्न | परी तें आकाश अभिन्न |
तैसा अत्मा स्वानंदघन | येकचि असे ||५३||
दृश्या सबाह्य अंतरीं | सूक्ष्मात्मा निरंतरीं |
त्याचि वर्णावया थोरी | शेष समर्थ नव्हे ||५४||
ऐसे आत्म्याचें लक्षण | जाणतां नाहीं जीवपण |
उपाधी शोधतां अभिन्न | मुळींच आहे ||५५||
जीवपणें येकदेसी | अहंकारें जन्म सोसी |
विवेक पाहातां प्राणीयांसी | जन्म कैंचा ||५६||
जन्ममृत्यापासून सुटला | या नाव जाणिजे मोक्ष जाला |
तत्वें शोधितां पावला | तत्वता वस्तु ||५७||
तेचि वस्तु ते आपण | हें माहावाक्याचें लक्षण |
साधु करीती निरूपण | आपुलेन मुखें ||५८||
जेचि क्षणी अनुग्रह केला | तेचि क्षणीं मोक्ष जाला |
बंधन कांहीं आत्मयाला | बोलोंचि नये ||५९||
आतां आशंका फिटली | संदेहवृत्ती मावळली |
संतसंगें तत्काळ जाली | मोक्षपदवी ||६०||
स्वप्नामधें जो बांधला | तो जागृतीनें मोकळा केला |
ज्ञानविवेकें प्राणीयाला | मोक्षप्राप्ती ||६१||
अज्ञाननिसीचा अंतीं | संकल्पदुःखें नासती |
तेणें गुणें होये प्राप्ती | तत्काळ मोक्षाची ||६२||
तोडावया स्वप्नबंधन | नलगे आणिक साधन |
तयास प्रेत्न जागृतीवीण | बोलोंचि नये ||६३||
तैसा संकल्पें बांधला जीव | त्यास आणिक नाही उपाव |
विवेक पाहातां वाव | बंधन होये ||६४||
विवेक पाहिल्याविण | जो जो उपाव तो तो सीण |
विवेक पाहातां आपण | आत्माच असे ||६५||
आत्मयाचा ठांई कांहीं | बद्ध मोक्ष दोनी नाहीं |
जन्ममृत्य हें सर्वहि | आत्मत्वीं न घडे ||६६||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
मोक्षलक्षणनाम समास सातवा ||७||८. ७
समास आठवा : आत्मदर्शन
||श्रीराम ||
मागां जाले निरूपण | परमात्मा तो तूंचि जाण |
तया परमात्मयाचें लक्षण | तें हें ऐसें असे ||१||
जन्म नाही मृत्यु नाहीं | येणें नाहीं जाणें नाहीं |
बद्ध मोक्ष दोनी नाहीं | परमात्मयासी ||२||
परमात्मा निर्गुण निराकार | परमात्मा अनंत अपार |
पर्मात्मा नित्य निरंतर | जैसा तैसा ||३||
पर्मात्मा सर्वांस व्यापक | परमात्मा अनेकीं येक |
परमात्मयाचा विवेक | अतर्क्य आहे ||४||
ऐसी परमात्मयाची स्थिती | बोलताती वेद श्रुती |
परमात्मा पाविजे भक्तीं | येथें संशय नाही ||५||
तये भक्तीचें लक्षण | भक्ती नवविधा भजन |
नवविधा भजनें पावन | बहु भक्त जाले ||६||
तया नवविधामध्यें सार | आत्मनिवेदन थोर |
तयेचा करावा विचार | स्वानुभवें स्वयें ||७||
आपुलिया स्वानुभवें | आपणास निवेदावें |
आत्मनिवेदन जाणावें | ऐसें असे ||८||
महत्पूजेचा अंतीं | देवास मस्तक वाहाती |
तैसी आहे निकट भक्ती | आत्मनिवेदनाची ||९||
आपणांस निवेदिती | ऐसे भक्त थोडे असती |
तयांस परमात्मा मुक्ती | तत्काळ देतो ||१०||
आपणांस कैसें निवेदावें | कोठें जाऊन पडावें |
किंवा मस्तक तोडावें | देवापुढें ||११||
ऐसें ऐकोन बोलणें | वक्ता वदे सर्वज्ञपणें |
श्रोतां सावधान होणें | येकाग्र चित्तें ||१२||
आत्मनिवेदनाचें लक्षण | आधीं पाहावें मी कोण |
मग परमात्मा निर्गुण | तो वोळखावा ||१३||
देवभक्ताचें शोधन | करितां होतें आत्मनिवेदन |
देव आहे पुरातन | भक्त पाहे ||१४||
देवास वोळखों जातां | तेथें जाली तद्रूपता |
देवभक्तविभक्तता | मुळींच नाहीं ||१५||
विभक्त नाहीं म्हणोन भक्त | बद्ध नाहीं म्हणोन मुक्त |
अयुक्त नाहीं बोलणें युक्त | शास्त्राधारें ||१६||
देवाभक्ताचें पाहातां मूळ | होये भेदाचें निर्मूळ |
येक परमात्मा सकळ | दृश्यावेगळा ||१७||
तयासि होतां मिळणी | उरी नाहीं दुजेपणीं |
देवभक्त हे कडसणी | निरसोन गेली ||१८||
आत्मनिवेदनाचे अंतीं | जे कां घडली अभेदभक्ती |
तये नाव सायोज्यमुक्ती | सत्य जाणावी ||१९||
जो संतांस शरण गेला | अद्वैतनिरूपणें बोधला |
मग जरी वेगळा केला | तरी होणार नाहीं ||२०||
नदीं मिळाली सागरीं | ते निवडावी कोणेपरी |
लोहो सोनें होतां माघारी | काळिमा न ये ||२१||
तैसा भगवंतीं मिळाला | तो नवचे वेगळा केला |
देव भक्त आपण जाला | विभक्त नव्हे ||२२||
देव भक्त दोनी येक | ज्यासी कळला विवेक |
साधुजनीं मोक्षदायेक | तोचि जाणावा ||२३||
आतां असो हें बोलणें | देव पाहावा भक्तपणें |
तेणें त्यांचें ऐश्वर्य बाणे | तत्काळ आंगीं ||२४||
देहचि होऊन राहिजे | तेणें देहदुःख साहिजे |
देहातीत होतां पाविजे | परब्रह्म तें ||२५||
देहातीत कैसें होणें | कैसें परब्रह्म पावणें |
ऐश्वर्याची लक्षणें | कवण सांगिजे ||२६||
ऐसें श्रोतां आक्षेपिलें | याचे उत्तर काये बोलिलें |
तेंचि आतां निरोपिलें | सावध ऐका ||२७||
देहातीत वस्तु आहे | तें तूं परब्रह्म पाहें |
देहसंग हा न साहे | तुज विदेहासी ||२८||
ज्याची बुद्धी होये ऐसी | वेद वर्णिती तयासी |
शोधितां नाना शास्त्रांसी | न पडे ठाईं ||२९||
ऐश्वर्य ऐसें तत्वता | बाणें देहबुद्धि सोडितां |
देह मी ऐसें भावितां | अधोगती ||३०||
याकारणें साधुवचन | मानूं नये अप्रमाण |
मिथ्या मानितां दूषण | लागों पाहे ||३१||
साधुवचन तें कैसें | काये धरावें विश्वासें |
येक वेळ स्वामी ऐसें | मज निरोपावें ||३२||
सोहं आत्मा स्वानंदघन | अजन्मा तो तूंचि जाण |
हेंचि साधूचें वचन | सदृढ धरावें ||३३||
महावाक्याचें अंतर | तुंचि ब्रह्म निरंतर |
ऐसिया वचनाचा विसर | पडोंचि नये ||३४||
देहासि होईल अंत | मग मी पावेन अनंत |
ऐसें बोलणें निभ्रांत | मानूंचि नये ||३५||
येक मुर्ख ऐसें म्हणती | माया नासेल कल्पांतीं |
मग आम्हांस ब्रह्मप्राप्ती | येरवीं नाहीं ||३६||
मायेसी होईल कल्पांत | अथवा देहासी येईल अंत |
तेव्हां पावेन निवांत | परब्रह्म मी ||३७||
हें बोलणें अप्रमाण | ऐसें नव्हे समाधान |
समाधानाचें लक्षण | वेगळेंचि असे ||३८||
शैन्य अवघेंचि मरावें | मग राज्यपद प्राप्त व्हावें |
शैन्य अस्तांचि राज्य करावें | हें कळेना ||३९||
माया असोनिच नाहीं | देह असतांच विदेही |
ऐसें समाधान कांहीं | वोळखावें ||४०||
राज्यपद हातासी आलें | मग परिवारें काय केलें |
परिवारा देखतां राज्य गेलें | हें तों घडेना ||४१||
प्राप्त जालियां आत्मज्ञान | तैसें दृश्य देहभान |
दृष्टीं पडतां समाधान | जाणार नाही ||४२||
मार्गीं मूळी सर्पाकार | देखतां भये आलें थोर |
कळतां तेथील विचार | मग मारणें काये ||४३||
तैसी माया भयानक | विचार पाहातां माईक |
मग तयेचा धाक | कायसा धरावा ||४४||
देखतां मृगजळाचे पूर | म्हणे कैसा पावों पैलपार |
कळतां तेथीचा विचार | सांकडें कैंचें ||४५||
देखतां स्वप्न भयानक | स्वप्नीं वाटे परम धाक |
जागृती आलीयां साशंक | कासया व्हावें ||४६||
तथापी माया कल्पनेसी दिसे | आपण कल्पनेतीत असे |
तेथें उद्वेग काईसे | निर्विकल्पासी ||४७||
अंतीं मतीं तेचि गती | ऐसें सर्वत्र बोलती |
तुझा अंतीं तुझी प्राप्ती | सहजचि जाली ||४८||
चौंदेहाचा अंत | आणी जन्म मुळाचा प्रांत |
अंतांप्रांतासी अलिप्त | तो तुं आत्मा ||४९||
जयासी ऐसी आहे मती | तयास ज्ञानें आत्मगती |
गती आणी अवगती | वेगळाचि तो ||५०||
मति खुंटली वेदांची | तेथें गती आणी अवगती कैंची |
आत्मशास्त्रगुरुप्रचिती | ऐक्यता आली ||५१||
जीवपणाची फिटली भ्रांती | वस्तु आली आत्मप्रचिती |
प्राणी पावला उत्तमगती | सद्गुरुबोधें ||५२||
सद्गुरुबोध जेव्हां जाला | चौंदेहांस अंत आला |
तेणें निजध्यास लागला | सस्वरूपीं ||५३||
तेणें निजध्यासें प्राणी | धेयंचि जाला निर्वाणीं |
सायोज्यमुक्तीचा धनी | होऊन बैसला ||५४||
दृश्य पदार्थ वोसरतां | आवघा आत्माचि तत्वता |
नेहटून विचारें पहातां | दृश्य मुळींच नाहीं ||५५||
मिथ्या मिथ्यत्वें पाहिलें | मिथ्यापणें अनुभवा आलें |
श्रोतीं पाहिजे ऐकिलें | या नाव मोक्ष ||५६||
सद्गुरुवचन हृदईं धरी | तोचि मोक्षाचा अधिकारी |
श्रवण मनन केलेंचि करी | अत्यादरें ||५७||
जेथें आटती दोन्ही पक्ष | तेथें लक्ष ना अलक्ष |
या नाव जाणिजे मोक्ष | नेमस्त आत्मा ||५८||
जेथें ध्यान धारणा सरे | कल्पना निर्विकल्पीं मुरे |
केवळ ज्ञेप्तिमात्र उरे | सूक्ष्म ब्रह्म ||५९||
भवमृगजळ आटलें | लटिकें बंधन सुटलें |
अजन्म्यास मुक्त केलें | जन्मदुःखापासुनी ||६०||
निःसंगाची संगव्याधी | विदेहाची देहबुद्धी |
विवेकें तोडिली उपाधी | निःप्रपंचाची ||६१||
अद्वैताचें तोडिलें द्वैत | येकांतास दिला येकांत |
अनंतास दिला अंत | अनंताचा ||६२||
जागृतीस चेवविलें | चेईऱ्यास सावध केलें |
निजबोधास प्रबोधिलें | आत्मज्ञान ||६३||
अमृतास केलें अमर | मोक्षास मुक्तीचें घर |
संयोगास निरंतर | योग केला ||६४||
निर्गुणास निर्गुण केलें | सार्थकाचें सार्थक जालें |
बहुतां दिवसां भेटलें | आपणासि आपण ||६५||
तुटला द्वैताचा पडदा | अभेदें तोडिलें भेदा |
भूतपंचकाची बाधा | निरसोन गेली ||६६||
जालें साधनाचें फळ | निश्चळास केलें निश्चळ |
निर्मळाचा गेला मळ | विवेकबळें ||६७||
होतें सन्निध चुकलें | ज्याचें त्यास प्राप्त जालें |
आपण देखतां फिटलें | जन्मदुःख ||६८||
दुष्टस्वप्नें जाजावला | ब्राह्मण नीच याती पावला |
आपणांसी आपण सांपडला | जागेपणें ||६९||
ऐसें जयास जालें ज्ञान | तया पुरुषाचें लक्षण |
पुढिले समासीं निरूपण | बोलिलें असे ||७०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
आत्मदर्शननाम समास आठवा ||८||८. ८
समास नववा : सिद्धलक्षण
||श्रीराम ||
अंतरी गेलीयां अमृत | बाह्या काया लखलखित |
अंतरस्थिति बाणतां संत | लक्षणें कैसीं ||१||
जालें आत्मज्ञान बरवें | हे कैसेनि पां जाणावें |
म्हणौनि बोलिलीं स्वभावें | साधुलक्षणें ||२||
ऐक सिद्धांचे लक्षण | सिद्ध म्हणिजे स्वरूप जाण |
तेथें पाहातां वेगळेपण | मुळीच नाहीं ||३||
स्वरूप होऊन राहिजे | तया नाव सिद्ध बोलिजे |
सिद्धस्वरूपींच साजे | सिद्धपण ||४||
वेदशास्त्रीं जें प्रसिद्ध | सस्वरूप स्वतसिद्ध |
तयासिच बोलिजे सिद्ध | अन्यथा न घडे ||५||
तथापी बोलों काहीं येक | साधकास कळाया विवेक |
सिद्धलक्षणाचें कौतुक | तें हें ऐसें असे ||६||
अंतरस्थित स्वरूप जाली | पुढें काया कैसी वर्तली |
जैसी स्वप्नीची नाथिली | स्वप्नरचना ||७||
तथापि सिद्धांचें लक्षण | कांहीं करूं निरूपण |
जेणें बाणे अंतर्खूण | परमार्थाची ||८||
सदा स्वरूपानुसंधान | हें मुख्य साधूचें लक्षण |
जनीं असोन आपण | जनावेगळा ||९||
स्वरूपीं दृष्टी पडतां | तुटोन गेली संसारचिंता |
पुढें लागली ममता | निरूपणाची ||१०||
हें साधकाचें लक्षण | परी सिद्धाआंगीं असे जाण |
सिद्धलक्षण साधकेंविण | बोलोंच नये ||११||
बाह्य साधकाचें परी | आणी स्वरूपाकार अंतरीं |
सिद्धलक्षण चतुरीं | जाणिजे ऐसें ||१२||
संदेहरहीत साधन | तेचि सिद्धांचे लक्षण |
अंतर्बाह्य समाधान | चळेना ऐसें ||१३||
अचळ जाली अंतरस्थिती | तेथें चळणास कैची गती |
स्वरूपीं लागतां वृत्ती | स्वरूपचि जाली ||१४||
मग तो चळतांच अचळ | चंचळपणें निश्चळ |
निश्चळ असोन चंचळ | देह त्याचा ||१५||
स्वरूपीं स्वरूपचि जाला | मग तो पडोनिच राहिला |
अथवा उठोनि पळाला | तरी चळेना ||१६||
येथें कारण अंतरस्थिती | अंतरींच पाहिजे निवृत्ती |
अंतर लागलें भगवंतीं | तोचि साधु ||१७||
बाह्य भलतैसें असावे | परी अंतर स्वरूपीं लागावें |
लक्षणे दिसती स्वभावें | साधुआंगीं ||१८||
राजीं बैसतां अवलिळा | आंगीं बाणे राजकळा |
स्वरूपीं लागतां जिव्हाळा | लक्षणे बाणती ||१९||
येरव्ही अभ्यास करितां | हाता न चढती सर्वथा |
स्वरूपीं राहावें तत्वतां | स्वरूप होउनी ||२०||
अभ्यासाचा मुगुटमणी | वृत्ती राहावी निर्गुणीं |
संतसंगें निरूपणीं | स्थिती बाणे ||२१||
ऐसीं लक्षणें बरवीं | स्वरूपाकारें अभ्यासावीं |
स्वरूप सोडितां गोसावी | भांबावती ||२२||
आतां असो हें बोलणें | ऐका साधूची लक्षणें |
जेणें समाधान बाणे | साधकाअंगीं ||२३||
स्वरूपीं भरतां कल्पना | तेथें कैंची उरेल कामना |
म्हणौनियां साधुजना | कामचि नाहीं ||२४||
कल्पिला विषयो हातींचा जावा | तेणें गुणें क्रोध यावा |
साधुजनाचा अक्षै ठेवा | जाणार नाहीं ||२५||
म्हणोनि ते क्रोधरहित | जाणती स्वरूप संत |
नासिवंत हे पदार्थ | सांडुनिया ||२६||
जेथें नाहीं दुसरी परी | क्रोध यावा कोणावरी |
क्रोधरहित सचराचरीं | साधुजन वर्तती ||२७||
आपुला आपण स्वानंद | कोणावरी करावा मद |
याकारणें वादवेवाद | तुटोन गेला ||२८||
साधु स्वरूप निर्विकार | तेथें कैंचा तिरस्कार |
आपला आपण मत्सर | कोणावरी करावा ||२९||
साधु वस्तु अनायासें | याकारणें मत्सर नसे |
मदमत्सराचें पिसें | साधुसी नाहीं ||३०||
साधु स्वरूप स्वयंभ | तेथें कैंचा असेल दंभ |
जेथें द्वैताचा आरंभ | जालाच नाही ||३१||
जेणें दृष्य केलें विसंच | तयास कैंचा हो प्रपंच |
याकारणें निःप्रपंच | साधु जाणावा ||३२||
अवघें ब्रह्मांड त्याचे घर | पंचभूतिक हा जोजार |
मिथ्या जाणोन सत्वर | त्याग केला ||३३||
याकारणें लोभ नसे | साधु सदा निर्लोभ असे |
जयाची वासना समरसे | शुद्धस्वरूपीं ||३४||
आपुला आपण आघवा | स्वार्थ कोणाचा करावा |
म्हणोनि साधु तो जाणावा | शोकरहित ||३५||
दृष्य सांडुन नासिवंत | स्वरूप सेविलें शाश्वत |
याकारणें शोकरहित | साधु जाणावा ||३६||
शोकें दुखवावी वृत्ती | तरी ते जाहली निवृत्ती |
म्हणोनि साधु आदिअंतीं | शोकरहीत ||३७||
मोहें झळंबावें मन | तरी तें जाहालें उन्मन |
याकारणें साधुजन | मोहातीत ||३८||
साधु वस्तु अद्वये | तेथें वाटेल भये |
परब्रह्म तें निर्भये | तोचि साधु ||३९||
याकारणें भयातीत | साधु निर्भय निवांत |
सकळांस मांडेल अंत | साधु अनंतरूपी ||४०||
सत्यस्वरूपें अमर जाला | भये कैंचें वाटेल त्याला |
याकारणें साधुजनाला | भयेचि नाहीं ||४१||
जेथें नाहीं द्वंद्वभेद | आपला आपण अभेद |
तेथें कैंचा उठेल खेद | देहबुद्धीचा ||४२||
बुद्धिनें नेमिलें निर्गुणा | त्यास कोणीच नेईना |
याकारणें साधुजना | खेदचि नाहीं ||४३||
आपण येकला ठाईचा | स्वार्थ करावा कोणाचा |
दृष्य नसतां स्वार्थाचा | ठावचि नाहीं ||४४||
साधु आपणचि येक | तेथें कैंचा दुःखशोक |
दुजेविण अविवेक | येणार नाहीं ||४५||
आशा धरितां परमार्थाची | दुराशा तुटली स्वार्थाची |
म्हणोनि नैराशता साधूची | वोळखण ||४६||
मृदपणें जैसे गगन | तैसें साधुचें लक्षण |
याकरणें साधुवचन | कठीण नाहीं ||४७||
स्वरूपाचा संयोगीं | स्वरूपचि जाला योगी |
याकरणें वीतरागी | निरंतर ||४८||
स्थिती बाणतां स्वरूपाची | चिंता सोडीली देहाची |
याकरणें होणाराची | चिंता नसे ||४९||
स्वरूपीं लागतां बुद्धी | तुटे अवघी उपाधी |
याकारणें निरोपाधी | साधुजन ||५०||
साधु स्वरूपींच राहे | तेथें संगचि न साहे |
म्हणोनि साधु तो न पाहे | मानापमान ||५१||
अलक्षास लावी लक्ष | म्हणोनि साधु परम दक्ष |
वोढूं जाणती कैपक्ष | परमार्थाचा ||५२||
स्वरूपीं न साहे मळ | म्हणोनि साधु तो निर्मळ |
साधु स्वरूपचि केवळ | म्हणोनियां ||५३||
सकळ धर्मामधें धर्म | स्वरूपीं राहाणें हा स्वधर्म |
हेंचि जाणें मुख्य वर्म | साधुलक्षणाचें ||५४||
धरीतां साधूची संगती | आपषाच लागे स्वरूपस्थिती |
स्वरूपस्थितीनें बाणती | लक्षणें आंगीं ||५५||
ऐसीं साधूचीं लक्षणें | आंगीं बाणती निरूपणें |
परंतु स्वरूपीं राहाणें | निरंतर ||५६||
निरंतर स्वरूपीं राहातां | स्वरूपचि होईजे तत्वतां |
मग लक्षणें आंगीं बाणतां | वेळ नाहीं ||५७||
स्वरूपीं राहिल्यां मती | अवगुण अवघेचि सांडती |
परंतु यासी सत्संगती | निरूपण पाहिजे ||५८||
सकळ सृष्टीचा ठाईं | अनुभव येकचि नाहीं |
तो बोलिजेल सर्वहि | पुढिले समासीं ||५९||
कोणें स्थितीनें राहाती | कैसा अनुभव पाहाती |
रामदास म्हणे श्रोतीं | अवधान देणें ||६०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सिद्धलक्षणनाम समास नववा ||९||८. ९
समास दहावा : शून्यत्वनिरसन
||श्रीराम ||
जनाचे अनुभव पुसतां | कळहो उठिल अवचिता |
हा कथाकल्लोळ श्रोतां | कौतुकें ऐकावा ||१||
येक म्हणती हा संसारु | करितां पाविजे पैलपारु |
आपला नव्हे कीं जोजारु | जीव देवाचे ||२||
येक म्हणती हें न घडे | लोभ येऊन आंगीं जडे |
पोटस्तें करणें घडे | सेवा कुटुंबाची ||३||
येक म्हणती स्वभावें | संसार करावा सुखें नावें |
कांहीं दान पुण्य करावें | सद्गतीकारणें ||४||
येक म्हणती संसार खोटा | वैराग्यें घ्यावा देशवटा |
येणें स्वर्ग्यलोकींच्या वाटा | मोकळ्या होती ||५||
येक म्हणती कोठें जावें | वेर्थचि कासया हिंडावें |
आपुलें आश्रमी असावें | आश्रमधर्म करूनी ||६||
येक म्हणती कैंचा धर्म | अवघा होतसे अधर्म |
ये संसारीं नाना कर्म | करणें लागे ||७||
येक म्हणती बहुतांपरी | वासना असावी वरी |
येणेंचि तरिजे संसारीं | अनायासें ||८||
येक म्हणती कारण भाव | भावेंचि पाविजे देव |
येर हें अवघेंचि वाव | गथागोवी ||९||
येक म्हणती वडिलें जीवीं | अवघीं देवचि मानावीं |
मायेबापें पूजीत जावीं | येकाभावें ||१०||
येक म्हणती देवब्राह्मण | त्यांचें करावें पूजन |
मायेबाप नारायेण | विश्वजनाचा ||११||
येक म्हणती शास्त्र पाहावें | तेथें निरोपिलें देवें |
तेणें प्रमाणेंचि जावें | परलोकासी ||१२||
येक म्हणती अहो जना | शास्त्र पाहातां पुरवेना |
याकारणें साधुजना | शरण जावें ||१३||
येक म्हणती सांडा गोठी | वायांचि करिता चाउटी |
सर्वांस कारण पोटीं | भूतदया असावी ||१४||
येक म्हणती येकचि बरवें | आपुल्या आचारें असावें |
अंतकाळीं नाम घ्यावें | सर्वोत्तमाचें ||१५||
येक म्हणती पुण्य असेल | तरीच नाम येईल |
नाहीं तरी भुली पडेल | अंतकाळीं ||१६||
येक म्हणती जीत असावे | तंवचि सार्थक करावें |
येक म्हणती फिरावें | तीर्थाटण ||१७||
येक म्हणती हे अटाटी | पाणीपाषाणाची भेटी |
चुबकळ्या मारितां हिंपुटी | कासाविस व्हावें ||१८||
येक म्हणती सांडी वाचाळी | अगाध महिमा भूमंडळीं |
दर्शनमात्रें होय होळी | माहापातकाची ||१९||
येक म्हणती तीर्थ स्वभावें | कारण मन अवरावें |
येक म्हणती कीर्तन करावें | सावकास ||२०||
येक म्हणती योग बरवा | मुख्य तोचि आधीं साधावा |
देहो अमरचि करावा | अकस्मात ||२१||
येक म्हणती ऐसें काये | काळवंचना करूं नये |
येक म्हणती धरावी सोये | भक्तिमार्गाची ||२२||
येक म्हणती ज्ञान बरवें | येक म्हणती साधन करावें |
येक म्हणती मुक्त असावें | निरंतर ||२३||
येक म्हणती अनर्गळा | धरीं पापाचा कंटाळा |
येक म्हणती रे मोकळा | मार्ग आमुचा ||२४||
येक म्हणती हें विशेष | करूं नये निंदा द्वेष |
येक म्हणती सावकास | दुष्टसंग त्यागावा ||२५||
येक म्हणती ज्याचें खावें | त्या सन्मुखचि मरावें |
तेणें तत्काळचि पावावें | मोक्षपद ||२६||
येक म्हणती सांडा गोठी | आधीं पाहिजे ते रोटी |
मग करावी चाउटी | सावकास ||२७||
येक म्हणती पाउस असावा | मग सकळ योग बरवा |
कारण दुष्काळ न पडावा | म्हणिजे बरें ||२८||
येक म्हणती तपोनिधी | होतां वोळती सकळ सिद्धी |
येक म्हणती रे आधीं | इंद्रपद साधावें ||२९||
येक म्हणती आगम पाहावा | वेताळ प्रसन्न करून घ्यावा |
तेणें पाविजे देवा | स्वर्गलोकीं ||३०||
येक म्हणती अघोरमंत्र | तेणें होईजे स्वतंत्र |
श्रीहरी जयेचा कळत्र | तेचि वोळे ||३१||
ती लागले सर्व धर्म | तेथें कैंचें क्रियाकर्म |
येक म्हणती कुकर्म | तिच्या मदे ||३२||
येक म्हणती येक साक्षप | करावा मृत्यंजयाचा जप |
तेणें गुणें सर्व संकल्प | सिद्धीतें पावती ||३३||
येक म्हणती बटु भैरव | तेणें पाविजे वैभव |
येक म्हणती झोटिंग सर्व | पुर्वितसे ||३४||
येक म्हणती काळी कंकाळी | येक म्हणती भद्रकाळी |
येक म्हणती उचिष्ट चांडाळी | साहें करावी ||३५||
येक म्हणती विघ्नहर | येक म्हणती भोळा शंकर |
येक म्हणती सत्वर | पावे भगवती ||३६||
येक म्हणती मल्लारी | सत्वरचि सभाग्य करी |
येक म्हणती माहा बरी | भक्ति वेंकटेशाची ||३७||
येक म्हणती पूर्व ठेवा | येक म्हणती प्रेत्न करावा |
येक म्हणती भार घालावा | देवाच वरी ||३८||
येक म्हणती देव कैंचा | अंतचि पाहातो भल्यांचा |
येक म्हणती हा युगाचा | युगधर्म ||३९||
येक आश्चीर्य मानिती | येक विस्मयो करिती |
येक कंटाळोन म्हणती | काये होईल तें पाहावें ||४०||
ऐसे प्रपंचिक जन | लक्षणें सांगतां गहन |
परंतु कांहीं येक चिन्ह | अल्पमात्र बोलिलों ||४१||
आतां असो हा स्वभाव | ज्ञात्यांचा कैसा अनुभव |
तोहि सांगिजेल सर्व | सावध ऐका ||४२||
येक म्हणती करावी भक्ती | श्रीहरी देईल सद्गती |
येक म्हणती ब्रह्मप्राप्ती | कर्मेंचि होये ||४३||
येक म्हणती भोग सुटेना | जन्ममरण हें तुटेना |
येक म्हणती उर्मी नाना | अज्ञानाच्या ||४४||
येक म्हणती सर्व ब्रह्म | तेथें कैंचें क्रियाकर्म |
येक म्हणती हा अधर्म | बोलोंचि नये ||४५||
येक म्हणती सर्व नासें | उरलें तेंचि ब्रह्म असे |
येक म्हणती ऐसें नसे | समाधान ||४६||
सर्वब्रह्म केवळ ब्रह्म | दोनी पूर्वपक्षाचे भ्रम |
अनुभवाचें वेगळें वर्म | म्हणती येक ||४७||
येक म्हणती हें न घडे | अनुर्वाच्य वस्तु घडे |
जें बोलतां मोन्य पडे | वेदशास्त्रांसी ||४८||
तव श्रोता अनुवादला | म्हणे निश्चये कोण केला |
सिद्धांतमतें अनुभवाला | उरी कैंची ||४९||
अनुभव देहीं वेगळाले | हें पूर्वीच बोलिलें |
आतां कांहीं येक केलें | नवचे कीं ||५०||
येक साक्षत्वें वर्तती | साक्षी वेगळाचि म्हणती |
आपण दृष्टा ऐसी स्थिती | स्वानुभवाची ||५१||
दृश्यापासून द्रष्टा वेगळा | ऐसी अलिप्तपणाची कळा |
आपण साक्षत्वें निराळा | स्वानुभवे ||५२||
सकळ पदार्थ जाणतां | तो पदार्थाहून पर्ता |
देहीं असोनी अलिप्तता | सहजचि जाली ||५३||
येक ऐसें स्वानुभवें | म्हणती साक्षत्वें वर्तावें |
दृश्य असोनि वेगळें व्हावें | द्रष्टेपणें ||५४||
येक म्हणती नाहीं भेद | वस्तु ठाईंची अभेद |
तेथें कैंचा मतिमंद | द्रष्टा आणिला ||५५||
अवघी साकरचि स्वभावें | तेथें कडु काय निवडावें |
द्रष्टा कैंचा स्वानुभवें | अवघेंचि ब्रह्म ||५६||
प्रपंच परब्रह्म अभेद | भेदवादी मानिती भेद |
परी हा आत्मा स्वानंद | आकारला ||५७||
विघुरलें तुप थिजलें | तैसें निर्गुणचि गुणा आलें |
तेथें काय वेगळें केलें | द्रष्टेपणें ||५८||
म्हणौनि द्रष्टा आणी दृश्य | अवघा येकचि जगदीश |
द्रष्टेपणाचे सायास | कासयासी ||५९||
ब्रह्मचि आकारलें सर्व | ऐसा येकांचा अनुभव |
ऐसे हे दोनी स्वभाव | निरोपिले ||६०||
अवघा आत्मा आकारा | आपण भिन्न कैंचा उरला |
दुसरा अनुभव बोलिला | ऐसियापरी ||६१||
ऐक तिसरा अनुभव | प्रपंच सारूनियां सर्व |
कांहीं नाहीं तोचि देव | ऐसें म्हणती ||६२||
दृश्य अवघें वेगळें केलें | केवळ अदृश्यचि उरलें |
तेंचि ब्रह्म अनुभविलें | म्हणती येक ||६३||
परी तें ब्रह्म म्हणों नये | उपायासारिखा अपाये |
सुन्यत्वास ब्रह्म काये | म्हणों येईल ||६४||
दृश्य अवघें वोलांडिलें | अदृश्य सुन्यत्वीं पडिलें |
ब्रह्म म्हणौनि मुरडलें | तेथुनिच मागे ||६५||
इकडे दृश्य तिकडे देव | मध्यें सुन्यत्वाचा ठाव |
तयास मंदबुद्धिस्तव | प्राणी ब्रह्म म्हणे ||६६||
रायास नाहीं वोळखिलें | सेवकास रावसें कल्पिलें |
परी तें अवघें वेर्थ गेलें | राजा देखतां ||६७||
तैसें सुन्यत्व कल्पिलें ब्रह्म | पुढें देखतां परब्रह्म |
सुन्यत्वचा अवघा भ्रम | तुटोन गेला ||६८||
परी हा सूक्ष्म आडताळा | वारी विवेकें वेगळा |
जैसें दुग्ध घेऊन जळा | राजहंस सांडी ||६९||
आधीं दृश्या सोडिलें | मग सुन्यत्व वोलांडिलें |
मूळमायेपरतें देखिलें | परब्रह्म ||७०||
वेगळेपणें पाहाणें घडे | तेणें वृत्ति सुन्यत्वीं पडे |
पोटीं संदेह पवाडे | सुन्यत्वाचा ||७१||
भिन्नपणें अनुभविलें | तयास सुन्य ऐसें बोलिलें |
वस्तु लक्षितां अभिन्न जालें | पाहिजे आधीं ||७२||
वस्तु आपणचि होणें | ऐसें वस्तुचें पाहाणें |
निश्चयेंसीं भिन्नपणें | सुन्यत्व लाभे ||७३||
याकारणें सुन्य कांहीं | परब्रह्म होणार नाहीं |
वस्तुरूप होऊन पाहीं | स्वानुभवें ||७४||
आपण वस्तु सिद्धचि आहे | मन मी ऐसें कल्पूं नये |
साधु सांगती उपाये | तूंचि आत्मा ||७५||
मन मी ऐसें नाथिलें | संतीं नाहीं निरोपिलें |
मानावें कोणाच्या बोलें | मन मी ऐसें ||७६||
संतवचनीं ठेवितां भावे | तोचि शुद्ध स्वानुभव |
मनाचा तैसाच स्वभाव | आपण वस्तु ||७७||
जयाचा घ्यावा अनुभव | तोचि आपण निरावेव |
आपुला घेती अनुभव | विश्वजन ||७८||
लोभी धन साधूं गेले | तंव ते लोभी धनचि जाले |
मग भाग्यपुरुषीं भोगिलें | सावकास ||७९||
तैसें देहबुद्धी सोडितां | साधकास जालें तत्वता |
अनुभवाची मुख्य वार्ता | ते हे ऐसी ||८०||
आपण वस्तु मुळीं येक | ऐसा ज्ञानाचा विवेक |
येथून हा ज्ञानदशक | संपूर्ण जाला ||८१||
आत्मज्ञान निरोपिलें | येथामतीनें बोलिलें |
न्यूनपर्ण क्ष्मा केलें | पाहिजे श्रोतीं ||८२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सुन्यत्वनिर्शननाम समास दहावा ||१०||८. १०
||दशक आठवा समाप्त ||
Encoded and proofread by Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh08.itx
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 8
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
% Further refinement by Shriram Deshpande
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% Latest update : August 6, 2014
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