||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक ६ ||
||दशक सहावा : देवशोधन ||६||
समास पहिला : देवशोधन
||श्रीराम ||
चित्त सुचित करावें | बोलिलें तें जीवीं धरावें |
सावध होऊन बैसावें | निमिष येक ||१||
कोणी येके ग्रामीं अथवा देशीं | राहणें आहे आपणासी |
न भेटतां तेथिल्या प्रभूसी | सौख्य कैंचें ||२||
म्हणौनि ज्यास जेथें राहणें | तेणें त्या प्रभूची भेटी घेणें |
म्हणिजे होय श्लाघ्यवाणें | सर्व कांहीं ||३||
प्रभूची भेटी न घेतां | तेथें कैंची मान्यता |
आपुलें महत्व जातां | वेळ नाहीं ||४||
म्हणौनि रायापासूनि रंक | कोणी येक तरी नायक | var तरी येक
त्यास भेटणें हा विवेक | विवेकी जाणती ||५||
त्यास न भेटतां त्याचे नगरीं | राहतां धरितील बेगारी |
तेथें न करितां चोरी | अंगीं लागे ||६||
याकारणें जो शहाणा | तेणें प्रभूसी भेटावें जाणा |
ऐसें न करितां दैन्यवाणा | संसार त्याचा ||७||
ग्रामीं थोर ग्रामाधिपती | त्याहूनि थोर देशाधिपती |
देशाधिपतीहूनि नृपती | थोर जाणावा ||८||
राष्ट्राचा प्रभु तो राजा | बहुराष्ट्र तो महाराजा |
महाराजांचाही राजा | तो चक्रवर्ती ||९||
येक नरपती येक गजपती | येक हयपती येक भूपती |
सकळांमध्ये चक्रवर्ती | थोर राजा ||१०||
असो ऐशिया समस्तां | येक ब्रह्मा निर्माणकर्ता |
त्या ब्रह्म्यासही निर्मिता | कोण आहे ||११||
ब्रह्मा विष्णु आणि हर | त्यांसी निर्मिता तोचि थोर |
तो वोळखावा परमेश्वर | नाना यत्नें ||१२||
तो देव ठायीं पडेना | तरी यमयातना चुकेना |
ब्रह्माण्डनायका चोजवेना | हें बरें नव्हे ||१३||
जेणें संसारीं घातलें | अवघें ब्रह्माण्ड निर्माण केलें |
त्यासी नाहीं वोळखिलें | तोचि पतित ||१४||
म्हणोनि देव वोळखावा | जन्म सार्थकचि करावा |
न कळे तरी सत्संग धरावा | म्हणजे कळे ||१५||
जो जाणेल भगवंत | तया नांव बोलिजे संत |
जो शाश्वत आणि अशाश्वत | निवाडा करी ||१६||
चळेना ढळेना देव | ऐसा ज्याचा अंतर्भाव |
तोचि जाणिजे महानुभाव | संत साधू ||१७||
जो जनांमध्ये वागे | परी जनांवेगळी गोष्टी सांगे |
ज्याचे अंतरीं ज्ञान जागे | तोचि साधू ||१८||
जाणिजे परमात्मा निर्गुण | त्यासींच म्हणावें ज्ञान |
त्यावेगळें तें अज्ञान | सर्व कांहीं ||१९||
पोट भराव्याकारणें | नाना विद्या अभ्यास करणें |
त्यास ज्ञान म्हणती परी तेणें | सार्थक नव्हे ||२०||
देव वोळखावा येक | तेंचि ज्ञान तें सार्थक |
येर अवघेंचि निरर्थक | पोटविद्या ||२१||
जन्मवरी पोट भरिलें | देहाचें संरक्षण केलें |
पुढें अवघेंचि व्यर्थ गेलें | अंतकाळीं ||२२||
एवं पोट भरावयाची विद्या | तियेसी म्हणों नये सद्विद्या |
सर्वव्यापक वस्तु सद्या | पाविजे तें ज्ञान ||२३||
ऐसें जयापाशीं ज्ञान | तोचि जाणावा सज्जन |
तयापासीं समाधान | पुशिलें पाहिजे ||२४||
अज्ञानास भेटतां अज्ञान | तेथें कैंचें सांपडेल ज्ञान |
करंट्यास करंट्याचें दर्शन | होतां भाग्य कैंचें ||२५||
रोग्यापाशीं रोगी गेला | तेथें कैंचें आरोग्य त्याला |
निर्बळापाशीं निर्बळाला | पाठी कैंची ||२६||
पिशाच्यापाशीं पिशाच गेलें | तेथें कोण सार्थक जालें |
उन्मत्तास उन्मत्त भेटलें | त्यास उमजवी कवणू ||२७||
भिकाऱ्यापाशीं मागतां भिक्षा | दीक्षाहीनापाशीं दीक्षा |
उजेड पाहातां कृष्णपक्षा | पाविजे कैंचा ||२८||
अबद्धापाशीं गेला अबद्ध | तो कैसेनि होईल सुबद्ध |
बद्धास भेटतां बद्ध | सिद्ध नव्हे ||२९||
देह्यापाशीं गेला देही | तो कैसेनि होईल विदेही |
म्हणोनि ज्ञात्यावांचूनि नाहीं | ज्ञानमार्ग ||३०||
याकारणें ज्ञाता पहावा | त्याचा अनुग्रह घ्यावा |
सारासारविचारें जीवा | मोक्ष प्राप्त ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
देवशोधननिरूपणनाम समास पहिला ||१||६. १
जय जय रघुवीर समर्थ ||
समास दुसरा : ब्रह्मपावननिरूपण
||श्रीराम ||
ऐका उपदेशाचीं लक्षणें | सायुज्यप्राप्ति होय जेणें |
नाना मतांचें पेखणें | कामा नये सर्वथा ||१||
ब्रह्मज्ञानावीण उपदेश | तो म्हणों नये विशेष |
धान्येविण जैसें भूस | खातां नये ||२||
नाना काबाड बडविलें | नातरी तक्रचि घुसळिलें |
अथवा धुवणचि सेविलें | सावकाश ||३||
नाना साली भक्षिल्या | अथवा चोइट्या चोखिल्या |
खोबरें सांडून खादल्या | नरोट्या जैशा ||४||
तैसें ब्रह्मज्ञानाविण | नाना उपदेशांचा शीण |
सार सांडून असार कोण | शहाणा सेवी ||५||
आतां ब्रह्म जें कां निर्गुण | तेंचि केलें निरूपण |
सुचित करावें अंतःकरण | श्रोतेजनीं ||६||
सकळ सृष्टीची रचना | तें हें पंचभूतिक जाणा |
परंतु हें तगेना | सर्वकाळ ||७||
आदि अंतीं ब्रह्म निर्गुण | तेचि शाश्वताची खूण |
येर पंचभूतिक जाण | नासिवंत ||८||
येरवीं हीं पाहातां भूतें | देव कैसें म्हणावें त्यांतें |
भूत म्हणतां मनुष्यांतें | विषाद वाटे ||९||
मा तो जगज्जनक परमात्मा | त्यासि आणि भूतउपमा |
ज्याची कळेना महिमा | ब्रह्मादिकांसी ||१०||
भूतां ऐसा जगदीश | म्हणतां उत्पन्न होतो दोष |
याकारणें महापुरुष | सर्व जाणती ||११||
पृथ्वी आप तेज वायु आकाश | यां सबाह्य जगदीश |
पंचभूतांस आहे नाश | आत्मा अविनाशरूपी ||१२||
जें जें रूप आणि नाम | तो तो अवघाच भ्रम |
नामरूपातीत वर्म | अनुभवें जाणावें ||१३||
पंचभूतें आणि त्रिगुण | ऐसी अष्टधा प्रकृति जाण |
अष्टधा प्रकृतीस नामाभिधान | दृश्य ऐसें ||१४||
तें हें दृश्य नाशिवंत | ऐसें वेद श्रुति बोलत |
निर्गुण ब्रह्म शाश्वत | जाणती ज्ञानी ||१५||
जें शस्त्रें तोडितां तुटेना | जें पावकें जाळितां जळेना |
जें कालवितां कालवेना | आपेंकरूनी ||१६||
जें वायूचेनि उडेना | जें पडेना ना झडेना |
जें घडेना ना दडेना | परब्रह्म तें ||१७||
ज्यासि वर्णचि नसे | जें सर्वांहूनि अनारिसें |
परंतु असतचि असे | सर्वकाळ ||१८||
दिसेना तरी काय जालें | परंतु तें सर्वत्र संचलें |
सूक्ष्मचि कोंदाटलें | जेथें तेथें ||१९||
दृष्टीस लागली सवे | जें दिसेल तेंचि पहावें |
परंतु गुज तें जाणावें | गौप्य आहे ||२०||
प्रगट तें जाणावें असार | आणि गुप्त तें जाणावें सार |
सद्गुरुमुखें हा विचार | उमजों लागे ||२१||
उमजेना तें उमजावें | दिसेना तें पहावें |
जें कळेना तें जाणावें | विवेकबळें ||२२||
गुप्त तेंचि प्रगटवावें | असाध्य तेंचि साधावें |
कानडेंचि अभ्यासावें | सावकाश ||२३||
वेद विरंचि आणि शेष | जेथें शिणले निःशेष |
तेंचि साधावें विशेष | परब्रह्म तें ||२४||
तरी तें कोणेपरी साधावें | तेंचि बोलिलें स्वभावें |
अध्यात्मश्रवणें पावावें | परब्रह्म तें ||२५||
पृथ्वी नव्हे आप नव्हे | तेज नव्हे वायु नव्हे |
वर्णवेक्त ऐसें नव्हे | अव्यक्त तें ||२६||
तयास म्हणावें देव | वरकड लोकांचा स्वभाव |
जितुके गांव तितुके देव | जनांकारणें ||२७||
ऐसा देवाचा निश्चयो जाला | देव निर्गुण प्रत्यया आला |
आतां आपणचि आपला | शोध घ्यावा ||२८||
माझें शरीर ऐसें म्हणतो | तरी तो जाण देहावेगळाचि तो |
मन माझें ऐसें जाणतो | तरी तो मनही नव्हे ||२९||
पाहातां देहाचा विचार | अवघा तत्वांचा विस्तार |
तत्वें तत्व झाडितां सार | आत्माचि उरे ||३०||
आपणासि ठावचि नाहीं | येथें पाहाणें नलगे कांहीं |
तत्वें ठाईंचा ठाईं | विभागून गेलीं ||३१||
बांधली आहे तों गांठोडी | जो कोणी विचारें सोडी |
विचार पाहातां गांठोडी | आढळेना ||३२||
तत्वांचें गांठोडें शरीर | याचा पाहातां विचार |
येक आत्मा निरंतर | आपण नाहीं ||३३||
आपणासि ठावचि नाहीं | जन्म मृत्यु कैंचे काई |
पाहातां वस्तूच्या ठायीं | पाप पुण्य नसे ||३४||
पाप पुण्य यमयातना | हें निर्गुणीं तों असेना |
आपण तोचि तरी जन्ममरणा | ठावो कैंचा ||३५||
देहबुद्धीनें बांधला | तो विवेकें मोकळा केला |
देहातीत होतां पावला | मोक्षपद ||३६||
झालें जन्माचें सार्थक | निर्गुण आत्मा आपण येक |
परंतु हा विवेक | पाहिलाचि पहावा ||३७||
जागें होतां स्वप्न सरे | विवेक पाहातां दृश्य ओसरे |
स्वरूपानुसंधानें तरे | प्राणिमात्र ||३८||
आपणास निवेदावें | आपण विवेकें नुरावें |
आत्मनिवेदन जाणावें | याचें नांव ||३९||
आधीं अध्यात्मश्रवण | मग सद्गुरुपादसेवन |
पुढें आत्मनिवेदन | सद्गुरुप्रसादें ||४०||
आत्मनिवेदनाउपरी | निखळ वस्तु निरंतरी |
आपण आत्मा हा अंतरीं | बोध जाहला ||४१||
त्या ब्रह्मबोधें ब्रह्मचि जाला | संसारखेद तो उडाला |
देह प्रारब्धीं टाकिला | सावकाश ||४२||
यासि म्हणिजे आत्मज्ञान | येणें पाविजे समाधान |
परब्रह्मीं अभिन्न | भक्तचि जाहला ||४३||
आतां होणार तें होईना कां | आणि जाणार तें जाईना कां |
तुटली मनांतील आशंका | जन्ममृत्यूची ||४४||
संसारीं पुंडावें चुकलें | देवां भक्तां ऐक्य जालें |
मुख्य देवासि वोळखिलें | सत्संगेंकरूनी ||४५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
ब्रह्मप्रतिपादननिरूपणनाम समास दुसरा ||२||६. २
समास तिसरा : मायोद्भव
||श्रीराम ||
निर्गुण आत्मा तो निर्मळ | जैसें आकाश अंतराळ |
घन दाट निर्मळ निश्चळ | सदोदित ||१||
जें खंडलेंचि नाहीं अखंड | जें उदंडाहूनि उदंड |
जें गगनाहूनि वाड | अति सूक्ष्म ||२||
जें दिसेना ना भासेना | जें उपजेना ना नासेना |
जें येईना ना जाईना | परब्रह्म तें ||३||
जें चळेना ना ढळेना | जें तुटेना ना फुटेना |
जें रचेना ना खचेना | परब्रह्म तें ||४||
जें सन्मुखचि सर्वकाळ | जें निष्कलंक आणि निखळ |
सर्वांतर आकाश पाताळ | व्यापूनि असे ||५||
अविनाश तें ब्रह्म निर्गुण | नासे तें माया सगुण |
सगुण आणि निर्गुण | कालवलें ||६||
या कर्दमाचा विचार | करूं जाणती योगेश्वर |
जैसें क्षीर आणि नीर | राजहंस निवडिती ||७||
जड सबळ पंचभूतिक | त्यामध्यें आत्मा व्यापक |
तो नित्यानित्यविवेक | पाहातां कळे ||८||
उंसामधील घेईजे रस | येर तें सांडिजे बाकस |
तैसा जगामध्यें जगदीश | विवेकें वोळखावा ||९||
रस नासिवंत पातळ | आत्मा शाश्वत निश्चळ |
रस अपूर्ण आत्मा केवळ | परिपूर्ण जाणावा ||१०||
आत्म्यासारिखें येक असावें | मग तें दृष्टांतासि द्यावें |
दृष्टांतमिसे समजावें | कैसें तरी ||११||
ऐसी आत्मस्थिति संचली | तेथें माया कैसी जाली |
जैसी आकाशीं वाहिली | झुळूक वायूची ||१२||
वायूपासून तेज जालें | तेजापासून आप निपजलें |
आपापासून आकारलें | भूमंडळ ||१३||
भूमंडळापासून उत्पत्ती | जीव नेणों जाले किती |
परंतु ब्रह्म आदि अंतीं | व्यापून आहे ||१४||
जें जें कांहीं निर्माण जालें | तें तें अवघेंचि नासलें |
परी मुळीं ब्रह्म तें संचलें | जैसें तैसें ||१५||
घटापूर्वीं आकाश असे | घटामध्येंही आकाश भासे |
घट फुटतां न नासे | आकाश जैसें ||१६||
तैसें परब्रह्म केवळ | अचळ आणि अढळ |
मध्यें होत जात सकळ | सचराचर ||१७||
जें जें कांहीं निर्माण जालें | तें तें आधीं ब्रह्में
व्यापिलें |
सर्व नासतां उरलें | अविनाश ब्रह्म ||१८||
ऐसें ब्रह्म अविनाश | तें सेविती ज्ञाते पुरुष |
तत्वनिर्शनें आपणास | आपण लाभे ||१९||
तत्वें तत्व मेळविलें | त्यासि देह ऐसें नाम ठेविलें |
तें जाणते पुरुषीं शोधिलें | तत्वें तत्व ||२०||
तत्वझाडा निःशेष होतां | तेथें निमाली देहअहंता |
निर्गुण ब्रह्मीं ऐक्यता | विवेकें जाहली ||२१||
विवेकें देहाकडे पाहिलें | तों तत्वें तत्व ओसरलें |
आपण कांहीं नाहीं आलें | प्रत्ययासी ||२२||
आपला आपण शोध घेतां | आपुली तों माईक वार्ता |
तत्वांतीं उरलें तत्वता | निर्गुण ब्रह्म ||२३||
आपणाविण निर्गुण ब्रह्म | हेंचि निवेदनाचें वर्म |
तत्वासरिसा गेला भ्रम | मीतूंपणाचा ||२४||
मीपण पाहातां आढळेना | निर्गुण ब्रह्म तें चळेना |
आपण तेंचि परी कळेना | सद्गुरूविण ||२५||
सारासार अवघें शोधिलें | तों असार तें निघून गेलें |
पुढें सार तें उरलें | निर्गुण ब्रह्म ||२६||
आधीं ब्रह्म निरूपिलें | तेंचि सकळामध्यें व्यापिलें |
सकळ अवघेंचि नासलें | उरलें तें केवळ ब्रह्म ||२७||
होतां विवेकें संहार | तेथें निवडे सारासार |
आपला आपणासि विचार | ठायीं पडे ||२८||
आपण कल्पिलें मीपण | मीपण शोधितां नुरे जाण |
मीपण गेलिया निर्गुण | आत्माचि स्वयें ||२९||
झालिया तत्वांचें निरसन | निर्गुण आत्मा तोचि आपण |
कां दाखवावें मीपण | तत्वनिरसनाउपरी ||३०||
तत्वांमध्यें मीपण गेलें | तरी निर्गुण सहजचि उरलें |
सोहंभावें प्रत्यया आलें | आत्मनिवेदन ||३१||
आत्मनिवेदन होतां | देवभक्तांस ऐक्यता |
साचार भक्त विभक्तता | सांडूनि जाहला ||३२||
निर्गुणासि नाहीं जन्ममरण | निर्गुणासि नाहीं पाप पुण्य |
निर्गुणीं अनन्य होतां आपण | मुक्त जाहला ||३३||
तत्वीं वेंटाळूनि घेतला | प्राणी संशयें गुंडाळला |
आपणास आपण भुलला | कोहं म्हणे ||३४||
तत्वीं गुंतला म्हणे कोहं | विवेकें पाहातां म्हणे सोहं |
अनन्य होतां अहं सोहं | मावळलीं ||३५||
याउपरि उर्वरित | तेंचि स्वरूप संत |
देहीं असोनि देहातीत | जाणिजे ऐसा ||३६||
संदेहवृत्ति ते न भंगे | म्हणोनि बोलिलेंच बोलावें लागे ||
आम्हांसि हें घडलें प्रसंगें | श्रोतीं क्ष्मा करावें ||३७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
मायोद्भवनाम समास तिसरा ||३||६. ३
जय जय रघुवीर समर्थ ||
समास चवथा : ब्रह्मनिरूपण
||श्रीराम ||
कृतायुग सत्रा लक्ष अठ्ठाविस सहस्र | त्रेतायुग बारा
लक्ष शाहाणौ सहस्र |
द्वापर आठ लक्ष चौसष्टी सहस्र | आतां कलयुग ऐका ||१||
कलयुग चार लक्ष बत्तीस सहस्र | चतुर्युगें त्रेचाळीस
लक्ष वीस सहस्र |
ऐसीं चतुर्युगें सहस्र | तो ब्रह्मयाचा येक दिवस ||२||
ऐसे ब्रह्मे सहस्र देखा | तेव्हां विष्णूची येक घटिका |
विष्णू सहस्र होतां ऐका | पळ येक ईश्वराचें ||३||
ईश्वर जाय सहस्र वेळ | तैं शक्तीचें अर्ध पळ |
ऐसी संख्या बोलिली सकळ | शास्त्रांतरीं ||४||
चतुर्युगसहस्राणि दिनमेकंपितामहम् |
पितामहसहस्राणि विष्णोर्घटिकमेव च ||
विष्णोरेकः सहस्राणि पलमेकं महेश्वरम् |
महेश्वरसहस्राणि शक्तेरर्धं पलं भवेत् ||
ऐशा अनन्त शक्ती होती | अनंत रचना होती जाती |
तरी अखंड खंडेना स्थिति | परब्रह्माची ||५||
परब्रह्मासि कैंची स्थिती | परी ही बोलावयाची रीती |
वेदश्रुती नेति नेति | परब्रह्मीं ||६||
चार सहस्र सातशें साठी | इतुकी कलयुगाची राहाटी |
उरल्या कलयुगाची गोष्टी | ऐसी असे ||७||
चार लक्ष सत्तावीस सहस्र | दोनशें चाळीस संवत्सर |
पुढें अन्योन्य वर्णसंकर | होणार आहे ||८||
ऐसें रचलें सचराचर | येथें येकाहूनि येक थोर |
पाहातां येथींचा विचार | अंत न लगे ||९||
येक म्हणती विष्णु थोर | येक म्हणती रुद्र थोर |
येक म्हणती शक्ति थोर | सकळांमध्यें ||१०||
ऐसे आपुलालेपरी बोलती | परंतु अवघेंचि नासेल कल्पांतीं |
यद्दृष्टं तन्नष्टं हें श्रुति | बोलतसे ||११||
आपुलाली उपासना | अभिमान लागला जनां |
याचा निश्चयो निवडेना | साधुविण ||१२||
साधु निश्चयो करिती येक | आत्मा सर्वत्र व्यापक |
येर हें अवघेंचि माईक | सचराचर ||१३||
चित्रीं लिहिली सेना | त्यांत कोण थोर कोण साना |
हें तुम्ही विचाराना | आपुलें ठायीं ||१४||
स्वप्नीं उदंड देखिलें | लहान थोरही कल्पिलें |
परंतु जागें जालिया जालें | कैसें पहा ||१५||
पाहातां जागृतीचा विचार | कोण लहान कोण थोर |
झाला अवघाचि विस्तार | स्वप्नरचनेचा ||१६||
अवघाचि माईक विचार | कैंचें लहान कैंचें थोर |
लाहानथोराचा निर्धार | जाणती ज्ञानी ||१७||
जो जन्मास येऊन गेला | तो मी थोर म्हणतांच मेला |
परी याचा विचार पाहिला | पाहिजे श्रेष्ठीं ||१८||
जयां जालें आत्मज्ञान | तेचि थोर महाजन |
वेद शास्त्रें पुराण | साधु संत बोलिले ||१९||
एवं सकळांमध्यें थोर | तो येकचि परमेश्वर |
तयामध्यें हरिहर | होती जाती ||२०||
तो निर्गुण निराकार | तेथें नाहीं उत्पत्ति विस्तार |
स्थानमानांचा विचार | ऐलिकडे ||२१||
नांव रूप स्थान मान | हा तों अवघाचि अनुमान |
तथापि होईल निदान | ब्रह्मप्रळयीं ||२२||
ब्रह्म प्रळयावेगळें | ब्रह्म नामरूपावेगळें |
ब्रह्म कोणा येका काळें | जैसें तैसें ||२३||
करिती ब्रह्मनिरूपण | जाणती ब्रह्म संपूर्ण |
तेचि जाणावे ब्राह्मण | ब्रह्मविद ||२४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
ब्रह्मनिरूपणनाम सामास चौथा ||४||६. ४
समास पांचवा : मायाब्रह्मनिरूपण
||श्रीराम ||
श्रोते पुसती ऐसें | मायाब्रह्म तें कैसें |
श्रोत्या वक्त्याचे मिषें | निरूपण ऐका ||१||
ब्रह्म निर्गुण निराकार | माया सगुण साकार |
ब्रह्मासि नाहीं पारावार | मायेसि आहे ||२||
ब्रह्म निर्मळ निश्चळ | माया चंचळ चपळ |
ब्रह्म निरोपाधि केवळ | माया उपाधिरूप ||३||
माया दिसे ब्रह्म दिसेना | माया भासे ब्रह्म भासेना |
माया नासे ब्रह्म नासेना | कल्पांतकाळीं ||४||
माया रचे ब्रह्म रचेना | माया खचे ब्रह्म खचेना |
माया रुचे ब्रह्म रुचेना | अज्ञानासी ||५||
माया उपजे ब्रह्म उपजेना | माया मरे ब्रह्म मरेना |
माया धरे ब्रह्म धरेना | धारणेसी ||६||
माया फुटे ब्रह्म फुटेना | माया तुटे ब्रह्म तुटेना |
माया विटे ब्रह्म विटेना | अविनाश तें ||७||
माया विकारी ब्रह्म निर्विकारी | माया सर्व करी ब्रह्म
कांहींच न करी |
माया नाना रूपें धरी | ब्रह्म तें अरूप ||८||
माया पंचभूतिक अनेक | ब्रह्म तें शाश्वत येक |
मायाब्रह्माचा विवेक | विवेकी जाणती ||९||
माया लहान ब्रह्म थोर | माया असार ब्रह्म सार |
माया अर्ति, पार-| ब्रह्मासी नाहीं ||१०||
सकळ माया विस्तारली | ब्रह्मस्थिति अछ्यादिली | var अछ्यादली
परी ते निवडून घेतली | साधुजनीं ||११||
गोंडाळ सांडून नीर घेइजे | नीर सांडून क्षीर सेविजे |
माया सांडून अनुभविजे | परब्रह्म तैसें ||१२||
ब्रह्म आकाशा ऐसें निवळ | माया वसुंधरा डहुळ |
ब्रह्म सूक्ष्म केवळ | माया स्थूळरूप ||१३||
ब्रह्म तें अप्रत्यक्ष असे | माया ते प्रत्यक्ष दिसे |
ब्रह्म तें समचि असे | माया ते विषमरूप ||१४||
माया लक्ष्य ब्रह्म अलक्ष्य | माया साक्ष ब्रह्म असाक्ष |
मायेमध्यें दोन्ही पक्ष | ब्रह्मीं पक्षचि नाहीं ||१५||
माया पूर्वपक्ष ब्रह्म सिद्धांत | माया असत् ब्रह्म सत् |
ब्रह्मासि नाहीं करणें हेत | मायेसि आहे ||१६||
ब्रह्म अखंड घनदाट | माया पंचभूतिक पोंचट |
ब्रह्म तें निरंतर निघोट | माया ते जुनी जर्जरी ||१७||
माया घडे ब्रह्म घडेना | माया पडे ब्रह्म पडेना |
माया विघडे ब्रह्म विघडेना | जैसें तैसें ||१८||
ब्रह्म असतचि असे | माया निरसितांच निरसे |
ब्रह्मास कल्पांत नसे | मायेसि आहे ||१९||
माया कठिण ब्रह्म कोमळ | माया अल्प ब्रह्म विशाळ |
माया नासे सर्वकाळ | ब्रह्मचि असे ||२०||
वस्तु नव्हे बोलिजे ऐसी | माया जैसी बोलिजे तैसी |
काळ पावेना वस्तूसी | मायेसी झडपी ||२१||
नाना रूप नाना रंग | तितुका मायेचा प्रसंग |
माया भंगे ब्रह्म अभंग | जैसें तैसें ||२२||
आतां असो हा विस्तार | चालत जातें सचराचर |
तितुकी माया परमेश्वर | सबाह्य अभ्यंतरीं ||२३||
सकळ उपाधींवेगळा | तो परमात्मा निराळा |
जळीं असोन नातळे जळा | आकाश जैसें ||२४||
मायाब्रह्मांचें विवरण | करितां चुके जन्ममरण |
संतांसि गेलिया शरण | मोक्ष लाभे ||२५||
अरे या संतांचा महिमा | बोलावया नाहीं सीमा |
जयांचेनि जगदात्मा | अंतरचि होये ||२६||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
मायाब्रह्मनिरूपणनाम समास पांचवा ||५||६. ५
जय जय रघुवीर समर्थ ||
समास सहावा : सृष्टिकथन
||श्रीराम ||
सृष्टीपूर्वीं ब्रह्म असे | तेथें सृष्टि मुळींच नसे |
आतां सृष्टि दिसत असे | तें सत्य कीं मिथ्या ||१||
तुम्ही सर्वज्ञ गोसांवी | माझी आशंका फेडावी |
ऐसा श्रोता विनवी | वक्तयासी ||२||
आतां ऐका प्रत्योत्तर | कथेसि व्हावें तत्पर |
वक्ता सर्वज्ञ उदार | बोलता जाला ||३||
जीवभूतः सनातन | ऐसें गीतेचें वचन |
येणें वाक्यें सत्यपण | सृष्टीस आलें ||४||
यद्दृष्टं तन्नष्टं येणें | वाक्यें सृष्टि मिथ्यापणें |
सत्य मिथ्या ऐसें कोणें | निवडावें ||५||
सत्य म्हणों तरी नासे | मिथ्या म्हणों तरी दिसे |
आतां जैसें आहे तैसें | बोलिजेल ||६||
सृष्टीमध्यें बहु जन | अज्ञान आणि सज्ञान |
म्हणौनियां समाधान | होत नाहीं ||७||
ऐका अज्ञानाचें मत | सृष्टि आहे ते शाश्वत |
देव धर्म तीर्थ व्रत | सत्यचि आहे ||८||
बोले सर्वज्ञाचा राजा | मूर्खस्य प्रतिमापूजा |
ब्रह्मप्रळयाच्या पैजा | घालूं पाहे ||९||
तंव बोले तो अज्ञान | तरी कां करिसी संध्यास्नान |
गुरुभजन तीर्थाटण | कासया फिरावें ||१०||
श्लोक ||तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दम् |
वृन्दे वृन्दे तत्वचिन्तानुवादः |
वादे वादे जायते तत्वबोधः |
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ||१||
चंद्रचूडाचें वचन | सद्गुरूचें उपासन |
गुरुगीतानिरूपण | बोलिलें हरें ||११||
गुरूसि कैसें भजावें | आधीं तयासि वोळखावें |
त्याचें समाधान घ्यावें | विवेकें स्वयें ||१२||
श्लोक ||ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||१||
गुरुगीतेचें वचन | ऐसें सद्गुरूचें ध्यान |
तेथें सृष्टिमिथ्याभान | उरेल कैंचें ||१३||
ऐसें सज्ञान बोलिला | सद्गुरु तो वोळखिला |
सृष्टि मिथ्या ऐसा केला | निश्चितार्थ ||१४||
श्रोता ऐसें न मनी कदा | आधीक उठिला वेवादा |
म्हणे कैसा रे गोविंदा | अज्ञान म्हणतोसी ||१५||
जीवभूतः सनातनः | ऐसें गीतेचें वचन |
तयासि तूं अज्ञान | म्हणतोसि कैसा ||१६||
ऐसा श्रोता आक्षेप करी | विषाद मानिला अंतरीं |
याचें प्रत्योत्तर चतुरीं | सावध परिसावें ||१७||
गीतेंस बोलिला गोविंद | त्याचा न कळे तुज भेद |
म्हणौनियां व्यर्थ खेद | वाहतोसि ||१८||
श्लोकपाद ||अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां
माझी विभूती पिंपळ | म्हणौनि बोलिला गोपाळ |
वृक्ष तोडितां तत्काळ | तुटत आहे ||१९||
श्लोक ||नैनं छिंदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||१||
शस्त्रांचेनि तुटेना | अग्निचेनि जळेना |
उदकामध्यें कालवेना | स्वरूप माझें ||२०||
पिंपळ तुटे शस्त्रानें | पिंपळ जळे पावकानें |
पिंपळ कालवे उदकानें | नाशिवंत ||२१||
तुटे जळे बुडे उडे | आतां ऐक्य कैसें घडे |
म्हणोनि हें उजेडे | सद्गुरुमुखें ||२२||
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि | कृष्ण म्हणे मन तो मी |
तरी कां आवरावी ऊर्मी | चंचळ मनाची ||२३||
ऐसें कृष्ण कां बोलिला | साधनमार्ग दाखविला |
खडे मांडूनि सिकविला | वोनामा जेवीं ||२४||
ऐसा आहे वाक्यभेद | सर्व जाणे तो गोविंद |
देहबुद्धीचा वेवाद | कामा नये ||२५||
वेद शास्त्र श्रुति स्मृती | तेथें वाक्यभेद पडती |
ते सर्वही निवडती | सद्गुरूचेनि वचनें ||२६||
वेदशास्त्रांचें भांडण | शस्त्रें तोडी ऐसा कोण |
हें निवडेना साधुविण | कदा कल्पांतीं ||२७||
पूर्वपक्ष आणि सिद्धांत | शास्त्रीं बोलिला संकेत |
याचा होय निश्चितार्थ | साधुमुखें ||२८||
येऱ्हवीं वादाचीं उत्तरें | येकाहूनि येक थोरें |
बोलूं जातां अपारें | वेदशास्त्रीं ||२९||
म्हणोनि वादवेवाद-| सांडून, कीजे संवाद |
तेणें होये ब्रह्मानंद | स्वानुभवें ||३०||
येके कल्पनेचे पोटीं | होती जाती अनंत सृष्टी |
तया सृष्टीची गोष्टी | साच केवी ||३१||
कल्पनेचा केला देव | तेथें जाला दृढभाव |
देवालागीं येतां खेव | भक्त दुःखें दुःखवला ||३२||
पाषाणाचा देव केला | येके दिवशीं भंगोन गेला |
तेणें भक्त दुखवला | रडे पडे आक्रंदे ||३३||
देव हारपला घरीं | येक देव नेला चोरीं |
येक देव दुराचारीं | फोडिला बळें ||३४||
येक देव जापाणिला | येक देव उदकीं टाकिला |
येक देव नेऊनि घातला | पायातळीं ||३५||
काय सांगों तीर्थमहिमा | मोडूनि गेला दुरात्मा |
थोर सत्व होतें तें मा | काय जालें कळेना ||३६||
देव घडिला सोनारीं | देव वोतिला वोतारीं |
येक देव घडिला पाथरीं | पाषाणाचा ||३७||
नर्बदागंडिकातीरीं | देव पडिले लक्षवरी |
त्यांची संख्या कोण करी | असंख्यात गोटे ||३८||
चक्रतीर्थीं चक्रांकित | देव असती असंख्यात |
नाहीं मनीं निश्चितार्थ | येक देव ||३९||
बाण तांदळे तांब्रनाणें | स्फटिक देव्हारीं पूजणें |
ऐसे देव कोण जाणे | खरे किं खोटे ||४०||
देव रेसिमाचा केला | तोही तुटोनियां गेला |
आतां नवा नेम धरिला | मृत्तिकेचा ||४१||
आमचा देव बहु सत्य | आम्हां आकांतीं पावत |
पूर्ण करी मनोरथ | सर्वकाळ ||४२||
आतां याचें सत्व गेलें | प्राप्त होतें तें जालें |
प्राप्त न वचे पालटिलें | ईश्वराचेनि ||४३||
धातु पाषाण मृत्तिका | चित्रलेप काष्ठ देखा |
तेथें देव कैंचा मूर्खा | भ्रांति पडिली ||४४||
हे आपुली कल्पना | प्राप्तांऐसीं फळें जाणा |
परी त्या देवाचिया खुणा | वेगळ्याचि ||४५||
म्हणौनि हें मायाभ्रमणें | सृष्टि मिथ्या कोटिगुणें |
वेद शास्त्रें पुराणें | ऐसींच बोलती ||४६||
साधुसंत मानुभाव | त्यांचा ऐसाचि अनुभव |
पंचभूतातीत देव | सृष्टि मिथ्या ||४७||
सृष्टीपूर्वीं सृष्टि चालतां | सृष्टि अवघी संव्हारतां |
शाश्वत देव तत्वतां | आदिअंतीं ||४८||
ऐसा सर्वांचा निश्चयो | यदर्थीं नाहीं संशयो |
वीतरेक आणि अन्वयो | कल्पनारूप ||४९||
येके कल्पनेचे पोटीं | बोलजेती अष्ट सृष्टि |
तये सृष्टीची गोष्टी | सावध ऐका ||५०||
येकी कल्पनेची सृष्टी | दुजी शाब्दिक सृष्टी |
तिजी प्रत्यक्ष सृष्टी | जाणती सर्व ||५१||
चौथी चित्रलेपसृष्टी | पांचवी स्वप्नसृष्टी |
साहावी गंधर्वसृष्टी | ज्वरसृष्टी सातवी ||५२||
आठवी दृष्टिबंधन | ऐशा अष्ट सृष्टि जाण |
यामधें श्रेष्ठ कोण | सत्य मानावी ||५३||
म्हणोनि सृष्टी नासिवंत | जाणती संत महंत |
सगुणीं भजावें निश्चित | निश्चयालागीं ||५४||
सगुणाचेनि आधारें | निर्गुण पाविजे निर्धारें |
सारासारविचारें | संतसंगें ||५५||
आतां असो हें बहुत | संतसंगें कळे नेमस्त |
येर्हवीं चित्त दुश्चित | संशईं पडे ||५६||
तंव शिष्यें आक्षेपिलें | सृष्टी मिथ्या ऐसें कळलें |
परी हें अवघें नाथिलें | तरी दिसतें कां ||५७||
दृश्य प्रत्यक्ष दिसतें | म्हणोनि सत्यचि वाटतें |
यासि काय करावें तें | सांगा स्वामी ||५८||
याचें प्रत्योत्तर भलें | पुढिले समासीं बोलिलें |
श्रोतां श्रवण केलें | पाहिजे पुढें ||५९||
एवं सृष्टी मिथ्या जाण | जाणोनि रक्षावें सगुण |
ऐसी हे अनुभवाची खूण | अनुभवी जाणती ||६०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सृष्टिकथननाम समास सहावा ||६||६. ६
समास सातवा : सगुणभजन
||श्रीराम ||
ज्ञानें दृश्य मिथ्या जालें | तरी कां पाहिजे भजन केलें |
तेणें काय प्राप्त जालें | हें मज निरूपावें ||१||
ज्ञानाहून श्रेष्ठ असेना | तरी कां पाहिजे उपासना |
उपासनेनें जनां | काय प्राप्त ||२||
मुख्य सार तें निर्गुण | तेथें दिसेचिना सगुण |
भजन केलियाचा गुण | मज निरूपावा ||३||
जें समस्त नासिवंत | त्यासि भजावें किंनिमित्त |
सत्य सांडून असत्य | कोणें भजावें ||४||
असत्याचा प्रत्ययो आला | तरी मग नेम कां लागला |
सत्य सांडून गलबला | कासया करावा ||५||
निर्गुणानें मोक्ष होतो | प्रत्यक्ष प्रत्यय येतो |
सगुण काय देऊं पाहातो | सांगा स्वामी ||६||
सगुण नासिवंत ऐसें सांगतां | पुनः भजन करावें
म्हणतां |
तरी कासयासाठीं आतां | भजन करूं ||७||
स्वामीचे भिडेनें बोलवेना | येऱ्हवीं हें कांहींच मानेना |
साध्यचि जालिया साधना | कां प्रवर्तावें ||८||
ऐसें श्रोतयाचें बोलणें | शब्द बोले निर्बुजलेपणें |
याचें उत्तर ऐकणें | म्हणे वक्ता ||९||
सद्गुरु वचन प्रतिपालन | हेंचि मुख्य परमार्थाचें लक्षण |
वचनभंग करितां विलक्षण | सहजचि जाहलें ||१०||
म्हणोनि आज्ञेसि वंदावें | सगुण भजन मानावें |
श्रोता म्हणे हें देवें | कां प्रयोजिलें ||११||
काय मानिला उपकार | कोण जाला साक्षात्कार |
किंवा प्रारब्धाचें अक्षर | पुसिलें देवें ||१२||
होणार हें तों पालटेना | भजनें काय करावें जना |
हें तों पाहातां अनुमाना | कांहींच न ये ||१३||
स्वामीची आज्ञा प्रमाण | कोण करील अप्रमाण |
परंतु याचा काय गुण | मज निरूपावा ||१४||
वक्ता म्हणे सावधपणें | सांग ज्ञानाची लक्षणें |
तुज कांहीं लागे करणें | किंवा नाहीं ||१५||
करणें लागे भोजन | करणें लागे उदकप्राशन |
मळमूत्रत्यागलक्षण | तेंही सुटेना ||१६||
जनाचें समाधान राखावें | आपुलें पारिखें वोळखावें |
आणि भजनचि मोडावें | हें कोण ज्ञान ||१७||
ज्ञान विवेकें मिथ्या जालें | परंतु अवघें नाहीं टाकिलें |
तरी मग भजनेंचि काय केलें | सांग बापा ||१८||
साहेबास लोटांगणीं जावें | नीचासारिखें व्हावें |
आणि देवास न मानावें | हें कोण ज्ञान ||१९||
हरि हर ब्रह्मादिक | हे जयाचे आज्ञाधारक |
तूं येक मानवी रंक | भजसि ना तरी काय गेलें ||२०||
आमुचे कुळीं रघुनाथ | रघुनाथ आमुचा परमार्थ |
जो समर्थाचाही समर्थ | देवां सोडविता ||२१||
त्याचे आम्ही सेवकजन | सेवा करितां जालें ज्ञान |
तेथें अभाव धरितां पतन | पाविजेल कीं ||२२||
सद्गुरु सांगती सारासार | त्यास कैसें म्हणावें असार |
तुज काय सांगणें विचार | शाहाणे जाणती ||२३||
समर्थाचे मनींचें तुटे | तेंचि जाणावें अदृष्ट खोटें |
राज्यपदापासून करंटें | चेवलें जैसें ||२४||
मी थोर वाटे मनीं | तो नव्हे ब्रह्मज्ञानी |
विचार पाहातां देहाभिमानी | प्रत्यक्ष दिसे ||२५||
वस्तु भजन करीना | न करीं ऐसेंही म्हणेना |
तरी जाणावी ती कल्पना | दडोन राहिली ||२६||
ना तें ज्ञान ना तें भजन | उगाचि आला देहाभिमान |
तेथें नाहीं कीं अनुमान | प्रत्ययो तुझा ||२७||
तरी आतां ऐसें न करावें | रघुनाथभजनीं लागावें |
तेणेंचि ज्ञान बोलावें | चळेना ऐसें ||२८||
करी दुर्जनांचा संहार | भक्तजनांचा आधार |
ऐसा हा चमत्कार | रोकडा चाले ||२९||
मनीं धरावें तें होतें | विघ्न अवघेंचि नासोनि जातें |
कृपा केलिया रघुनाथें | प्रचीति येते ||३०||
रघुनाथभजनें ज्ञान जालें | रघुनाथभजनें महत्व
वाढलें |
म्हणोनि तुवां केलें | पाहिजे आधीं ||३१||
हें तों आहे सप्रचीत | आणि तुज वाटेना प्रचित |
साक्षात्कारें नेमस्त | प्रत्ययो करावा ||३२||
रघुनाथ स्मरोन कार्य करावें | तें तत्काळचि सिद्धि पावे |
कर्ता राम हें असावें | अभ्यंतरीं ||३३||
कर्ता राम मी नव्हे आपण | ऐसें सगुण निवेदन |
निर्गुणीं तें अनन्य | निर्गुणचि होइजे ||३४||
मी कर्ता ऐसें म्हणतां | कांहींच घडेना सर्वथा |
प्रतीत पाहासी तरी आतां | शीघ्रचि आहे ||३५||
मी कर्ता ऐसें म्हणसी | तेणें तूं कष्टी होसी |
राम कर्ता म्हणतां पावसी | यश कीर्ति प्रताप ||३६||
येके भावनेसाठीं | देवासि पडे तुटी |
कां ते होय कृपादृष्टी | देव कर्ताभावितां ||३७||
आपण आहे दों दिवसांचा | आणि देव बहुतां काळांचा |
आपण थोडे वोळखीचा | देवास त्रैलोक्य जाणे ||३८||
याकारणें रघुनाथ भजन | त्यासि मानिती बहुत जन |
ब्रह्मादिक आदिकरून | रामभजनीं तत्पर ||३९||
ज्ञानबळें उपासना | आम्ही भक्त जरी मानूं ना |
तरी या दोषाचिया पतना | पावों अभक्तपणें ||४०||
देव उपेक्षी थोरपणें | तरी मग त्याचें तोचि जाणे |
अप्रमाण तें श्लाघ्यवाणें | नव्हेचि कीं श्रेष्ठा ||४१||
देहास लागली उपासना | आपण विवेकें उरेना |
ऐसी स्थिति सज्जना | अंतरींची ||४२||
सकळ मिथ्या होऊन जातें | हें रामभजनें कळों येतें |
दृश्य ज्ञानियांचें मतें | स्वप्न जैसें ||४३||
मिथ्या स्वप्नविवंचना | तैसी हे सृष्टिरचना |
दृश्य मिथ्या साधुजनां | कळों आलें ||४४||
आक्षेप जाला श्रोतयांसी | मिथ्या तरी दिसतें कां आम्हासीं |
याचें उत्तर पुढिलें समासीं | बोलिलें असे ||४५||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सगुणभजननिरूपणनाम समास सातवा ||७||६. ७
समास आठवा : दृश्यनिरूपण
||श्रीराम ||
मागां श्रोतीं पुसिलें होतें | दृश्य मिथ्या तरी कां दिसतें |
त्याचें उत्तर बोलिजेल तें | सावध ऐका ||१||
देखिलें तें सत्यचि मानावें | हें ज्ञात्याचें देखणें नव्हे |
जड मूढ अज्ञान जीवें | हें सत्य मानिजे ||२||
येका देखिल्यासाठीं | लटिक्या कराव्या ग्रंथकोटी |
संतमहंतांच्या गोष्टी | त्याही मिथ्या मानाव्या ||३||
माझें दिसतें हेंचि खरें | तेथें चालेना दुसरें |
ऐशिया संशयाच्या भरें | भरोंचि नये ||४||
मृगें देखिलें मृगजळ | तेथें धांवे तें बरळ |
जळ नव्हे मिथ्या सकळ | त्या पशूसि कोणें म्हणावें ||५||
रात्रौ स्वप्न देखिलें | बहुत द्रव्य सांपडलें |
बहुत जनांसि वेव्हारिलें | तें खरें कैसेनि मानावें ||६||
कुशळ चितारी विचित्र | तेणें निर्माण केलें चित्र |
देखतां उठे प्रीति मात्र | परंतु तेथें मृत्तिका ||७||
नाना वनिता हस्ती घोडे | रात्रौ देखतां मन बुडे |
दिवसा पाहातां कातडें | कंटाळवाणें ||८||
काष्ठी पाषाणी पुतळ्या | नाना ठकारें निर्मिल्या |
परम सुंदर वाटल्या | परंतु तेथें पाषाण ||९||
नाना गोपुरीं पुतळ्या असती | वक्रांगें वक्रदृष्टीं पाहाती |
लाघव देखता भरे वृत्ती | परंतु तेथें त्रिभाग ||१०||
खेळतां नेटके दशावतारी | तेथें येती सुंदर नारी |
नेत्र मोडिती कळाकुसरीं | परंतु अवघे धटिंगण ||११||
सृष्टि बहुरंगी असत्य | बहुरूपाचें हें कृत्य |
तुज वाटे दृश्य सत्य | परी हे जाण अविद्या ||१२||
मिथ्या साचासारिखें देखिलें | परी तें पाहिजे विचारिलें |
दृष्टि तरळतां भासलें | तें साच कैसें मानावें ||१३||
वरी पाहातां पालथें आकाश | उदकीं पाहातां उताणें
आकाश |
मध्यें चांदण्याचाही प्रकाश | परी तें अवघें मिथ्या ||१४||
नृपतीनें चितारी आणिले | ज्याचे त्या ऐसे पुतळे केले |
पाहातां तेचि ऐसे गमले | परी ते अवघे माईक ||१५||
नेत्रीं कांहीं बाहुली नसे | जेव्हां जें पहावें तेव्हां
तें भासे |
डोळां प्रतिबिंब दिसे | तें साच कैसेनी ||१६||
जितुके बुडबुडे उठती | तितुक्यांमध्यें रूपें दिसती |
क्षणामध्यें फुटोनि जाती | रूपें मिथ्या ||१७||
लघुदर्पणें दोनी चारी होतीं | तितुकीं मुखें प्रतिबिंबती |
परी तीं मिथ्या आदिअंतीं | येकचि मुख ||१८||
नदीतीरीं भार जातां | दुसरा भार दिसे पालथा |
कां पडसादाचा अवचितां | गजर उठे ||१९||
वापी सरोवरांचें नीर | तेथें पशु पक्षी नर वानर |
नाना पत्रें वृक्ष विस्तार | दिसे दोहीं सवां ||२०||
येक शस्त्र झाडूं जातां | दोन दिसती तत्वतां |
नाना तंतु टणत्कारितां | द्विधा भासती ||२१||
कां ते दर्पणाचे मंदिरीं | बैसली सभा दिसे दुसरी |
बहुत दीपांचिये हारीं | बहुत छाया दिसती ||२२||
ऐसें हें बहुविध भासे | साचासारिखें दिसे |
परी हें सत्य म्हणोन कैसें | विश्वासावें ||२३||
माया मिथ्या बाजीगिरी | दिसे साचाचिये परी |
परी हे जाणत्यानें खरी | मानूंचि नये ||२४||
लटिकें साचा ऐसे भावावें | तरी मग पारखी कासया असावें |
एवं ये अविद्येचे गोवें | ऐसेचि असती ||२५||
मनुष्यांची बाजीगिरी | बहुत जनां वाटे खरी |
शेवट पाहातां निर्धारीं | मिथ्या होये ||२६||
तैसीच माव राक्षसांची | देवांसही वाटे साची |
पंचवटिकेसि मृगाची | पाठी घेतली रामें ||२७||
पूर्वकाया पालटिती | येकाचेचि बहुत होती |
रक्तबिंदीं जन्मती | रजनीचर ||२८||
नाना पदार्थ फळेंचि जाले | द्वारकेमध्यें प्रवेशले |
कृष्णें दैत्य किती वधिले | कपटरूपी ||२९||
कैसें कपट रावणाचें | शिर केलें मावेचें |
काळनेमीच्या आश्रमाचें | अपूर्व कैसें ||३०||
नाना दैत्य कपटमती | जे देवांसही नाटोपती |
मग निर्माण होऊन शक्ती | संहार केला ||३१||
ऐसी राक्षसांची माव | जाणों न शकती देव |
कपटविद्येचें लाघव | अघटित ज्यांचें ||३२||
मनुष्यांची बाजीगिरी | राक्षसांची वोडंबरी |
भगवंताची नानापरी | विचित्र माया ||३३||
हे साचासारिखीच दिसे | विचारितांचि नसे |
मिथ्याचि आभासे | निरंतर पाहातां ||३४||
साच म्हणावी तरी हे नासे | मिथ्या म्हणावी तरी हे दिसे |
दोहीं पदार्थीं अविश्वासे | सांगतां मन ||३५||
परंतु हें नव्हे साचार | मायेचा मिथ्या विचार |
दिसतें हें स्वप्नाकार | जाण बापा ||३६||
तथापि असो तुजला | भासचि सत्य वाटला |
तरी येथें चुका पडिला | ऐक बापा ||३७||var तेथें
दृश्यभास अविद्यात्मक | तुझाही देह तदात्मक |
म्हणोनि हा अविवेक | तेथें संचरला ||३८||
दृष्टीनें दृश्य देखिलें | मन भासावरी बैसलें |
परी तें लिंगदेह जालें | अविद्यात्मक ||३९||
अविद्येनें अविद्या देखिली | म्हणोन गोष्टी विश्वासली |
तुझी काया अवघी संचली | अविद्येची ||४०||
तेचि काया मी आपण | हें देहबुद्धीचें लक्षण |
येणेंकरितां जालें प्रमाण | दृश्य अवघें ||४१||
इकडे सत्य मानिला देह | तिकडे दृश्य सत्य हा निर्वाह |
दोंहींमध्यें हा संदेह | पैसावला बळें ||४२||
देहबुद्धी केली बळकट | आणि ब्रह्म पाहों गेला धीट |
तों दृश्यानें रोधिली वाट | परब्रह्माची ||४३||
तेथें साच मानिलें दृश्याला | निश्चयचि बाणोनि गेला |
पहा हो केवढा चुका पडिला | अकस्मात ||४४||
आतां असो हें बोलणें | ब्रह्म न पाविजे मीपणें |
देहबुद्धीची लक्षणें | दृश्य भाविती ||४५||
अस्तिन्चा देहीं मांषाचा डोळा | पाहेन म्हणे ब्रह्माचा गोळा |
तो ज्ञाता नव्हे आंधळा | केवळ मूर्ख ||४६||
दृष्टीस दिसे मनास भासे | तितुकें काळांतरीं नासे |
म्हणोनि दृश्यातीत असे | परब्रह्म तें ||४७||
परब्रह्म तें शाश्वत | माया तेचि अशाश्वत |
ऐसा बोलिला निश्चितार्थ | नानाशास्त्रीं ||४८||
आतां पुढें निरूपण | देहबुद्धीचें लक्षण |
चुका पडिला तो मी कोण | बोलिलें असे ||४९||
मी कोण हें जाणावें | मीपण त्यागून अनन्य व्हावें |
मग समाधान तें स्वभावें | अंगीं बाणे ||५०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
दृश्यनिरसननाम समास आठवा ||८||६. ८
श्री रघुवीर समर्थ ||
समास नववा : सारशोधन
||श्रीराम ||
गुप्त आहे उदंड धन | काय जाणती सेवकजन |
तयांस आहे तें ज्ञान | बाह्याकाराचें ||१||
गुप्त ठेविले उदंड अर्थ | आणि प्रगट दिसती पदार्थ |
शहाणे शोधिति स्वार्थ | अंतरीं असे ||२||
तैसें दृश्य हें माईक | पाहात असती सकळ लोक |
परी जयांस ठाउका विवेक | ते तदनंतर जाणती ||३||
द्रव्य ठेऊन जळ सोडिलें | लोक म्हणती सरोवर भरलें |
तयाचें अभ्यंतर कळलें | समर्थ जनांसी ||४||
तैसे ज्ञाते जे समर्थ | तिहीं वोळखिला परमार्थ |
इतर ते करिती स्वार्थ | दृश्य पदार्थांचा ||५||
काबाडी वाहती काबाड | श्रेष्ठ भोगिती रत्नें जाड |
हें जयांचें त्यांस गोड | कर्मयोगें ||६||
येक काष्ठस्वार्थ करिती | येक शुभा येकवाटिती |
तैसे नव्हेत कीं नृपती | सारभोक्ते ||७||
जयांस आहे विचार | ते सुखासनीं जाले स्वार |
इतर ते जवळील भार | वाहतचि मेले ||८||
येक दिव्यान्नें भक्षिती | येक विष्ठा सावडिती |
आपण वर्तल्याचा घेती | साभिमान ||९||
सार सेविजे श्रेष्ठीं | असार घेइजे वृथापुष्टीं |
सारासाराची गोष्टी | सज्ञान जाणती ||१०||
गुप्त परिस चिंतामणी | प्रगट खडे काचमणी |
गुप्त हेम रत्नखाणी | प्रगट पाषाण मृत्तिका ||११||
अव्हाशंख अव्हावेल | गुप्त वनस्पती अमूल्य |
एरंड धोत्रे बहुसाल | प्रगट शिंपी ||१२||
कोठें दिसेना कल्पतरू | उदंड शेरांचा विस्तारू |
पाहातां नाहीं मळियागरू | बोरी बाभळी उदंड ||१३||
कामधेनु जाणिजे इंद्रें | सृष्टींत उदंड खिल्लारें |
महद्भाग्य भोगिजे नृपवरें | इतरां कर्मानुसार ||१४||
नाना व्यापार करिती जन | अवघेच म्हणती सकांचन |
परंतु कुबेराचें महिमान | कोणासीच न ये ||१५||
तैसा ज्ञानी योगीश्वर | गुप्तार्थलाभाचा ईश्वर |
इतर ते पोटाचे किंकर | नाना मतें धुंडिती ||१६||
तस्मात् सार तें दिसेना | आणि असार तें दिसे जना |
सारासारविवंचना | साधु जाणती ||१७||
इतरास हें काये सांगणे | खरें खोटें कोण जाणे |
साधुसंतांचिये खुणे | साधुसंत जाणती ||१८||
दिसेना जें गुप्त धन | तयास करणें लागे अंजन |
गुप्त परमात्मा सज्जन | संगतीं शोधावा ||१९||
रायाचें सान्निध्य होतां | सहजचि लाभे श्रीमंतता |
तैसा हा सत्संग धरितां | सद्वस्तु लाभे ||२०||
सद्वस्तूस लाभे सद्वस्तु | अव्यवस्थासि अव्यवस्थु |
पाहातां प्रशस्तासि प्रशस्तु | विचार लाभे ||२१||
म्हणोनि हें दृश्यजात | अवघें आहे अशाश्वत |
परमात्मा अच्युत अनंत | तो या दृष्यावेगळा ||२२||
दृश्यावेगळा दृश्याअन्तरीं | सर्वात्मा तो सचराचरीं |
विचार पाहातां अंतरीं | निश्चयो बाणे ||२३||
संसारत्याग न करितां | प्रपंचउपाधि न सांडितां |
जनांमध्ये सार्थकता | विचारेंचि होये ||२४||
हें प्रचीतीचें बोलणें | विवेकें प्रचीत बाणे |
प्रचीत पाहातील ते शहाणे | अन्यथा नव्हे ||२५||
प्रचीत आणि अनुमान | उधार आणि रोकडें धन |
मानसपूजा प्रत्यक्ष दर्शन | यास महदंतर ||२६||
पुढें जन्मांतरीं होणार | हा तो अवघाच उधार |
तैसें नव्हे सारासार | तत्काळ लभे ||२७||
तत्काळचि लाभ होतो | प्राणी संसारीं सुटतो |
संशय अवघाचि तुटतो | जन्ममरणांचा ||२८||
याचि जन्में येणेंचि काळें | संसारीं होइजे निराळें |
मोक्ष पाविजे निश्चळें | स्वरूपाकारें ||२९||
ये गोष्टीस करी अनुमान | तो सिद्धचि पावेल पतन |
मिथ्या वदेल त्यास आण | उपासनेची ||३०||
हें यथार्थचि आहे बोलणें | विवेकें शीघ्रचि मुक्त होणें |
असोनि कांहींच नसणें | जनांमध्यें ||३१||
देवपद आहे निर्गुण | देवपदीं अनन्यपण |
हाचि अर्थ पाहातां पूर्ण | समाधान बाणे ||३२||
देहींच विदेह होणें | करून कांहींच न करणें |
जीवन्मुक्तांचीं लक्षणें | जीवन्मुक्त जाणती ||३३||
येरवीं हें खरें न वाटे | अनुमानेंचि संदेह वाटे |
संदेहाचें मूळ तुटे | सद्गुरुवचनें ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सारशोधननिरूपणनाम समास नववा ||९||६. ९
जय जय रघुवीर समर्थ ||
समास दहावा : अनुर्वाच्यनिरूपण
||श्रीराम ||
समाधान पुसतां कांहीं | म्हणती बोलिजे ऐसें नाहीं |
तरी तें कैसें आहे सर्वही | निरोपावें ||१||
मुक्यानें गूळ खादला | गोडी न ये सांगाव्याला |
याचा अभिप्राव मजला | निरूपण कीजे ||२||
अनुभवही पुसों जातां | म्हणती न ये किं सांगतां |
कोणापासीं पुसों आतां | समाधान ||३||
जे ते अगम्य सांगती | न ये माझिया प्रचिती |
विचार बैसे माझे चित्तीं | ऐसें करावें ||४||
ऐसें श्रोत्याचें उत्तर | याचें कैसें प्रत्योत्तर |
निरूपिजेल तत्पर | होऊन ऐका ||५||
जें समाधानाचें स्थळ | किं तो अनुभवचि केवळ |
तेंचि स्वरूप प्रांजळ | बोलोन दाऊं ||६||
जें बोलास आकळेना | बोलिल्याविणहि कळेना |
जयास कल्पितां कल्पना | हिंपुटी होये ||७||
तें जाणावें परब्रह्म | जें वेदांचें गुह्य परम |
धरितां संतसमागम | सर्वहि कळे ||८||
तेंचि आतां सांगिजेल | जें समाधान सखोल |
ऐक अनुभवाचे बोल | अनुर्वाच्य वस्तु ||९||
सांगतां न ये तें सांगणें | गोडी कळाया गूळ देणें |
ऐसें हें सद्गुरुविणें | होणार नाहीं ||१०||
सद्गुरुकृपा कळे त्यासी | जो शोधील आपणासी |
पुढें कळे अनुभवासी | आपेंआप वस्तु ||११||
दृढ करूनियां बुद्धि | आधीं घ्यावी आपशुद्धी |
तेणें लागे समाधी | अकस्मात ||१२||
आपुलें मूळ बरें शोधितां | आपुली तों माईक वार्ता |
पुढें वस्तुच तत्वतां | समाधान ||१३||
आत्मा आहे सर्वसाक्षी | हें बोलिजे पूर्वपक्षीं |
जो कोणी सिद्धांत लक्षी | तोचि सिद्ध ||१४||
सिद्धांतवस्तु लक्षूं जातां | सर्वसाक्षी ते अवस्ता |
आत्मा तीहून पर्ता | अवस्तातीत ||१५||
पदार्थज्ञान जेव्हां सरे | द्रष्टा द्रष्टेपणें नुरे |
ते समईं उतरे | फुंज मीपणाचा ||१६||
जेथें मुरालें मीपण | तेचि अनुभवाची खूण |
अनुर्वाच्य समाधान | या कारणें बोलिजे ||१७||
अत्यंत विचाराचे बोल | तरी ते माईक फोल |
शब्द सबाह्य सखोल | अर्थचि अवघा ||१८||
शब्दाकरितां कळे अर्थ | अर्थ पाहातां शब्द व्यर्थ |
शब्द सांगें तें यथार्थ | परी आपण मिथ्या ||१९||
शब्दाकरितां वस्तु भासे | वस्तु पाहातां शब्द नासे |
शब्द फोल अर्थ असे | घनवटपणें ||२०||
भूसाकरितां धान्य निपजे | धान्ये घेऊन भूस टाकिजे |
तैसा शब्द भूंस जाणिजे | अर्थ धान्य ||२१||
पोंचटामधें घनवट | घनवटीं उडे पोचट |
तैसा शब्द हा फलगट | परब्रह्मीं ||२२||
शब्द बोलोनि राहे | अर्थ शब्दापूर्वींच आहे |
याकारणें न साहे | उपमा तया अर्थासी ||२३||
भूस सांडून कण घ्यावा | तैसा वाच्यांश त्यजावा |
कण लक्ष्यांश लक्षावा | शुद्ध स्वानुभवें ||२४||
दृश्यावेगळें बोलिजे | त्यास वाच्यांश म्हणिजे |
त्याचा अर्थ तो जाणिजे | शुद्ध लक्ष्यांश ||२५||
ऐसा जो शुद्ध लक्ष्यांश | तोचि जाणावा पूर्वपक्ष |
स्वानुभव तो अलक्ष्य | लक्षिला नवचे ||२६||
जेथें गाळून सांडिलें नभा | जो अनुभवाचा गाभा |
ऐसा तोही उभा | कल्पित केला ||२७||
मिथ्या कल्पनेपासूनि जाला | खरेंपण कैसें असेल त्याला |
म्हणौनि तेथें अनुभवाला | ठावचि नाहीं ||२८||
दुजेविण अनुभव | हें बोलणेंचि तों वाव |
याकारणें नाहीं ठाव | अनुभवासी ||२९||
अनुभवें त्रिपुटी उपजे | अद्वैतीं द्वैतचि लाजे |
म्हणौनि बोलणें साजे | अनुर्वाच्य ||३०||
दिवसरजनीचें परमित्य | करावया मूळ आदित्य |
तो आदित्य गेलियां उर्वरित-| त्यासि काय म्हणावें ||३१||
शब्द मौन्याचा विचार | व्हावया मूळ वोंकार |
तो वोंकार गेलिया उच्चार | कैसा करावा ||३२||
अनुभव आणि अनुभविता | सकळ ये मायेचि करितां |
ते माया मुळीं नसतां | त्यासी काये म्हणावें ||३३||
वस्तु येक आपण येक | ऐसी अस्ती वेगळिक |
तरि अनुभवाचा विवेक | बोलों येता सुखें ||३४||
वेगळेपणाची माता | ते लटिके वंधेची सुता |
म्हणोनियां अभिन्नता | मुळींच आहे ||३५||
अजन्मा होता निजेला | तेणें स्वप्नीं स्वप्न देखिला |
सद्गुरूस शरण गेला | संसारदुःखें ||३६||
सद्गुरुकृपेस्तव | जाला संसार वाव |
ज्ञान जालिया, ठाव | पुसे अज्ञानाचा ||३७||
आहे तितुकें नाहीं जालें | नाहीं नाहींपणें निमालें |
आहे नाहीं जाऊन उरलें | नसोन कांहीं ||३८||
सून्यत्वातीत शुद्धज्ञान | तेणें जालें समाधान |
ऐक्यरूपें अभिन्न | सहजस्थिति ||३९||
अद्वैतनिरूपण होतां | निमाली द्वैताची वार्ता |
ज्ञानचर्चा बोलों जातां | जागृती आली ||४०||
श्रोतीं व्हावें सावधान | अर्थीं घालावें मन |
खुणे पावतां समाधान | अंतरीं कळे ||४१||
तेणें जितुकें ज्ञान कथिलें | तितुकें स्वप्नावारीं गेलें |
अनुर्वाच्य सुख उरलें | शब्दातीत ||४२||
तेथें शब्देंविण ऐक्यता | अनुभव ना अनुभविता |
ऐसा निवांत तो मागुता | जागृती आला ||४३||
तेणें स्वप्नीं स्वप्न देखिला | जागा होऊन जागृती आला |
तेथें शब्द कुंठित जाला | अंत नलगे ||४४||
या निरूपणाचें मूळ | केलेंचि करूं प्रांजळ |
तेणें अंतरीं निवळ | समाधान कळे ||४५||
तंव शिष्यें विनविलें | जी हें आतां निरोपिलें |
तें पाहिजे बोलिलें | मागुतें स्वामी ||४६||
मज कळाया कारण | केलेंचि करावें निरूपण |
तेथील जे कां निजखूण | ते मज अनुभवावी ||४७||
अजन्मा तो सांग कवण | तेणें देखिला कैसा स्वप्न |
तेथें कैसें निरूपण | बोलिलें आहे ||४८||
जाणोनि शिष्याचा आदर | स्वामी देती प्रत्योत्तर |
तेंचि आतां अति तत्पर | श्रोतीं येथें परिसावें ||४९||
ऐक शिष्या सावधान | अजन्मा तो तूंचि जण | var तूंच
तुवां देखिला स्वप्नीं स्वप्न | तोही आतां सांगतों ||५०||
स्वप्नीं स्वप्नाचा विचार | तो तूं जाण हा संसार |
येथें तुवां सारासार | विचार केला ||५१||
रिघोनि सद्गुरूस शरण | काढून शुद्ध निरूपण | var रिघोनी
याची करिसी उणखूण | प्रत्यक्ष आतां ||५२||
याचाचि घेतां अनुभव | बोलणें तितुकें होतें वाव |
निवांत विश्रांतीचा ठाव | ते तूं जाण जागृती ||५३||
ज्ञानगोष्टीचा गल्बला-| सरोन, अर्थ प्रगटला |
याचा विचार घेतां आला | अंतरीं अनुभव ||५४||
तुज वाटे हे जागृती | मज जाली अनुभवप्राप्ती |
या नांव केवळ भ्रांती | फिटलीच नाहीं ||५५||
अनुभव अनुभवीं विराला | अनुभवेंविण अनुभव आला |
हाही स्वप्नींचा चेईला | नाहींस बापा ||५६||
जागा जालिया स्वप्नऊर्मी | स्वप्नीं म्हणसी अजन्मा तो मी |
जागेपणें स्वप्नउर्मी | गेलीच नाहीं ||५७||
स्वप्नीं वाटे जागेपण | तैसी अनुभवाची खूण |
आली परी तें सत्य स्वप्न | भ्रमरूप ||५८||
जागृति या पैलिकडे | तें सांगणें केवि घडे |
जेथें धारणाचि मोडे | विवेकाची ||५९||
म्हणोनि तें समाधान | बोलतांचि न ये ऐसें जाण |
निशब्दाची ऐसी खूण | वोळखावी ||६०||
ऐसें आहे समाधान | बोलतांच न ये जाण |
इतुकेन बाणली खूण | निशब्दाची ||६१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
अनुर्वाच्यनिरूपणनाम समास दहावा ||१०||६. १०
जय जय रघुवीर समर्थ ||
||दशक सहावा समाप्त ||
Encoded by Sunder Hattangadi.
Proofread by Sunder Hattangadi and Vishwas Bhide.
Reproofread by P. D. Kulkarni
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% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 6
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
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% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
% Hattangadi sunderh at hotmail.com, NA
% Reproofread by P. D. Kulkarni
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% Latest update : August 6, 2014
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