||समर्थ रामदासांचा दासबोध दशक १ ||
||दशक पहिला : स्तवननाम ||१||
समास पहिला : ग्रंथारंभलक्षण
||श्रीराम ||
श्रोते पुसती कोण ग्रंथ | काय बोलिलें जी येथ |
श्रवण केलियानें प्राप्त | काय आहे ||१||
ग्रंथा नाम दासबोध | गुरुशिष्यांचा संवाद |
येथ बोलिला विशद | भक्तिमार्ग ||२||
नवविधा भक्ति आणि ज्ञान | बोलिलें वैराग्याचें लक्षण |
बहुधा अध्यात्म निरोपण | निरोपिलें ||३||
भक्तिचेन योगें देव | निश्चयें पावती मानव |
ऐसा आहे अभिप्राव | ईये ग्रंथीं ||४||
मुख्य भक्तीचा निश्चयो | शुद्धज्ञानाचा निश्चयो |
आत्मस्थितीचा निश्चयो | बोलिला असे ||५||
शुद्ध उपदेशाचा निश्चयो | सायोज्यमुक्तीचा निश्चयो |
मोक्षप्राप्तीचा निश्चयो | बोलिला असे ||६||
शुद्धस्वरूपाचा निश्चयो | विदेहस्थितीचा निश्चयो |
अलिप्तपणाचा निश्चयो | बोलिला असे ||७||
मुख्य देवाचा निश्चयो | मुख्य भक्ताचा निश्चयो |
जीवशिवाचा निश्चयो | बोलिला असे ||८||
मुख्य ब्रह्माचा निश्चयो | नाना मतांचा निश्चयो |
आपण कोण हा निश्चयो | बोलिला असे ||९||
मुख्य उपासनालक्षण | नाना कवित्वलक्षण |
नाना चातुर्यलक्षण | बोलिलें असे ||१०||
मायोद्भवाचें लक्षण | पंचभूतांचे लक्षण |
कर्ता कोण हें लक्षण | बोलिलें असे ||११||
नाना किंत निवारिले | नाना संशयो छेदिले |
नाना आशंका फेडिले | नाना प्रश्न ||१२||
ऐसें बहुधा निरोपिलें | ग्रंथगर्भी जें बोलिलें |
तें अवघेंचि अनुवादलें | न वचे किं कदा ||१३||
तथापि अवघा दासबोध | दशक फोडून केला विशद |
जे जे दशकींचा अनुवाद | ते ते दशकीं बोलिला ||१४||
नाना ग्रंथांच्या समती | उपनिषदें वेदांत श्रुती |
आणि मुख्य आत्मप्रचीती | शास्त्रेंसहित ||१५||
नाना समतीअन्वये | म्हणौनी मिथ्या म्हणतां न ये |
तथापि हें अनुभवासि ये | प्रत्यक्ष आतां ||१६||
मत्सरें यासी मिथ्या म्हणती | तरी अवघेचि ग्रंथ उछेदती |
नाना ग्रंथांच्या समती | भगवद्वाक्यें ||१७||
शिवगीता रामगीता | गुरुगीता गर्भगीता |
उत्तरगीता अवधूतगीता | वेद आणी वेदांत ||१८||
भगवद्गीता ब्रह्मगीता | हंसगीता पाण्डवगीता |
गणेशगीता येमगीता | उपनिषदें भागवत ||१९||
इत्यादिक नाना ग्रंथ | समतीस बोलिले येथ |
भगवद्वाक्ये येथार्थ | निश्चयेंसीं ||२०||
भगवद्वचनीं अविश्वासे | ऐसा कोण पतित असे |
भगवद्वाक्याविरहित नसे | बोलणे येथीचें ||२१||
पूर्णग्रंथ पाहिल्याविण | उगाच ठेवी जो दूषण |
तो दुरात्मा दुराभिमान | मत्सरें करी ||२२||
अभिमानें उठे मत्सर | मत्सरें ये तिरस्कार |
पुढें क्रोधाचा विकार | प्रबळे बळें ||२३||
ऐसा अंतरी नासला | कामक्रोधें खवळला |
अहंभावे पालटला | प्रत्यक्ष दिसे ||२४||
कामक्रोधें लिथाडिला | तो कैसा म्हणावा भला |
अमृत सेवितांच पावला | मृत्य राहो ||२५||
आतां असो हें बोलणें | अधिकारासारिखें घेणें |
परंतु अभिमान त्यागणें | हें उत्तमोत्तम ||२६||
मागां श्रोतीं आक्षेपिलें | जी ये ग्रंथीं काय बोलिलें |
तें सकळहि निरोपिलें | संकळीत मार्गे ||२७||
आतां श्रवण केलियाचें फळ | क्रिया पालटे तत्काळ |
तुटे संशयाचें मूळ | येकसरां ||२८||
मार्ग सांपडे सुगम | न लगे साधन दुर्गम |
सायोज्यमुक्तीचें वर्म | ठांइं पडे ||२९||
नासे अज्ञान दुःख भ्रांती | शीघ्रचि येथें ज्ञानप्राप्ती |
ऐसी आहे फळश्रुती | ईये ग्रंथीं ||३०||
योगियांचे परम भाग्य | आंगीं बाणे तें वैराग्य |
चातुर्य कळे यथायोग्य | विवेकेंसहित ||३१||
भ्रांत अवगुणी अवलक्षण | तेंचि होती सुलक्षण |
धूर्त तार्किक विचक्षण | समयो जाणती ||३२||
आळसी तेचि साक्षपी होती | पापी तेचि प्रस्तावती |
निंदक तेचि वंदूं लागती | भक्तिमार्गासी ||३३||
बद्धची होती मुमुक्ष | मूर्ख होती अतिदक्ष |
अभक्तची पावती मोक्ष | भक्तिमार्गें ||३४||
नाना दोष ते नासती | पतित तेचि पावन होती |
प्राणी पावे उत्तम गती | श्रवणमात्रें ||३५||
नाना धोकें देहबुद्धीचे | नाना किंत संदेहाचे |
नाना उद्वेग संसाराचे | नासती श्रवणें ||३६||
ऐसी याची फळश्रुती | श्रवणें चुके अधोगती |
मनास होय विश्रांती | समाधान ||३७||
जयाचा भावार्थ जैसा | तयास लाभ तैसा |
मत्सर धरी जो पुंसा | तयास तेंचि प्राप्त ||३८||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे ग्रंथारंभलक्षणनाम
समास पहिला ||१||१. १
समास दुसरा : गणेशस्तवन
||श्रीराम ||
ॐ नमोजि गणनायेका | सर्व सिद्धिफळदायेका |
अज्ञानभ्रांतिछेदका | बोधरूपा ||१||
माझिये अंतरीं भरावें | सर्वकाळ वास्तव्य करावें |
मज वाग्सुंन्यास वदवावें | कृपाकटाक्षेंकरूनी ||२||
तुझिये कृपेचेनि बळें | वितुळती भ्रांतीचीं पडळें |
आणी विश्वभक्षक काळें | दास्यत्व कीजे ||३||
येतां कृपेची निज उडी | विघ्नें कापती बापुडीं |
होऊन जाती देशधडी | नाममात्रें ||४||
म्हणौन नामें विघ्नहर | आम्हां अनाथांचे माहेर |
आदिकरूनी हरीहर | अमर वंदिती ||५||
वंदूनियां मंगळनिधी | कार्य करितां सर्वसिद्धी |
आघात अडथाळे उपाधी | बाधूं सकेना ||६||
जयाचें आठवितां ध्यान | वाटे परम समाधान |
नेत्रीं रिघोनियां मन | पांगुळे सर्वांगी ||७||
सगुण रूपाची टेव | माहा लावण्य लाघव |
नृत्य करितां सकळ देव | तटस्त होती ||८||
सर्वकाळ मदोन्मत्त | सदा आनंदे डुल्लत |
हरूषें निर्भर उद्दित | सुप्रसन्नवदनु ||९||
भव्यरूप वितंड | भीममूर्ति माहा प्रचंड |
विस्तीर्ण मस्तकीं उदंड | सिंधूर चर्चिला ||१०||
नाना सुगंध परिमळें | थबथबा गळती गंडस्थळें |
तेथें आलीं षट्पदकुळें | झुंकारशब्दें ||११||
मुर्डीव शुंडादंड सरळे | शोभे अभिनव आवाळें |
लंबित अधर तिक्षण गळे | क्षणक्ष्णा मंदसत्वी ||१२||
चौदा विद्यांचा गोसांवी | हरस्व लोचन ते हिलावी |
लवलवित फडकावी | फडै फडै कर्णथापा ||१३||
रत्नखचित मुगुटीं झळाळ | नाना सुरंग फांकती कीळ |
कुंडलें तळपती नीळ | वरी जडिले झमकती ||१४||
दंत शुभ्र सद्दट | रत्नखचित हेमकट्ट |
तया तळवटीं पत्रें नीट | तळपती लघु लघु ||१५||
लवथवित मलपे दोंद | वेष्टित कट्ट नागबंद |
क्षुद्र घंटिका मंद मंद | वाजती झणत्कारें ||१६||
चतुर्भुज लंबोदर | कासे कासिला पितांबर |
फडके दोंदिचा फणीवर | धुधूकार टाकी ||१७||
डोलवी मस्तक जिव्हा लाळी | घालून बैसला वेटाळी |
उभारोनि नाभिकमळीं | टकमकां पाहे ||१८||
नाना याति कुशुममाळा | व्याळपरियंत रुळती गळां |
रत्नजडित हृदयकमळा-| वरी पदक शोभे ||१९||
शोभे फरश आणी कमळ | अंकुश तिक्षण तेजाळ |
येके करीं मोदकगोळ | तयावरी अति प्रीति ||२०||
नट नाट्य कळा कुंसरी | नाना छंदें नृत्य करी |
टाळ मृदांग भरोवरी | उपांग हुंकारे ||२१||
स्थिरता नाहीं येक क्षण | चपळविशईं अग्रगण |
साजिरी मूर्ति सुलक्षण | लावण्यखाणी ||२२||
रुणझुणा वाजती नेपुरें | वांकी बोभाटती गजरें |
घागरियासहित मनोहरें | पाउलें दोनी ||२३||
ईश्वरसभेसी आली शोभा | दिव्यांबरांची फांकली प्रभा |
साहित्यविशईं सुल्लभा | अष्टनायका होती ||२४||
ऐसा सर्वांगे सुंदरु | सकळ विद्यांचा आगरु |
त्यासी माझा नमस्कारु | साष्टांग भावें ||२५||
ध्यान गणेशाचें वर्णितां | मतिप्रकाश होये भ्रांता |
गुणानुवाद श्रवण करितां | वोळे सरस्वती ||२६||
जयासि ब्रह्मादिक वंदिती | तेथें मानव बापुडे किती |
असो प्राणी मंदमती | तेहीं गणेश चिंतावा ||२७||
जे मूर्ख अवलक्षण | जे कां हीणाहूनि हीण |
तेचि होती दक्ष प्रविण | सर्वविशईं ||२८||
ऐसा जो परम समर्थ | पूर्ण करी मनोरथ |
सप्रचीत भजनस्वार्थ | कल्लौ चंडीविनायेकौ ||२९||
ऐसा गणेश मंगळमूर्ती | तो म्यां स्तविला येथामति |
वांछ्या धरूनि चित्तीं | परमार्थाची ||३०||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे गणेशस्तवननाम
समास दुसरा ||२||१. २
समास तिसरा : शारदास्तवन
||श्रीराम ||
आतां वंदीन वेदमाता | श्रीशारदा ब्रह्मसुता |
शब्दमूल वाग्देवता | माहं माया ||१||
जे उठवी शब्दांकुर | वदे वैखरी अपार |
जे शब्दाचें अभ्यांतर | उकलून दावी ||२||
जे योगियांची समाधी | जे धारिष्टांची कृतबुद्धी |
जे विद्या अविद्या उपाधी | तोडून टाकी ||३||
जे माहापुरुषाची भार्या | अति सलग्न अवस्था तुर्या |
जयेकरितां महत्कार्या | प्रवर्तले साधु ||४||
जे महंतांची शांती | जे ईश्वराची निज शक्ती |
जे ज्ञानियांची विरक्ती | नैराशशोभा ||५||
जे अनंत ब्रह्मांडें घडी | लीळाविनोदेंचि मोडी |
आपण आदिपुरुषीं दडी | मारून राहे ||६||
जे प्रत्यक्ष पाहातां आडळे | विचार घेतां तरी नाडळे |
जयेचा पार न कळे | ब्रह्मादिकांसी ||७||
जे सर्व नाटक अंतर्कळा | जाणीव स्फूर्ती निर्मळा |
जयेचेनी स्वानंदसोहळा | ज्ञानशक्ती ||८||
जे लावण्यस्वरूपाची शोभा | जे परब्रह्मसूर्याची प्रभा |
जे शब्दीं वदोनि उभा | संसार नासी ||९||
जे मोक्षश्रिया माहांमंगळा | जे सत्रावी जीवनकळा |
हे सत्त्वलीळा सुसीतळा | लावण्यखाणी ||१०||
जे अवेक्त पुरुषाची वेक्ती | विस्तारें वाढली इच्छाशक्ती |
जे कळीकाळाची नियंती | सद्गुरुकृपा ||११||
जे परमार्थमार्गींचा विचार-| निवडून, दावी सारासार |
भवसिंधूचा पैलपार | पाववी शब्दबळें ||१२||
ऐसी बहुवेषें नटली | माया शारदा येकली |
सिद्धचि अंतरी संचली | चतुर्विधा प्रकारें ||१३||
तींहीं वाचा अंतरीं आलें | तें वैखरिया प्रगट केलें |
म्हणौन कर्तुत्व जितुकें जालें | तें शारदागुणें ||१४||
जे ब्रह्मादिकांची जननी | हरीहर जयेपासुनी |
सृष्टिरचना लोक तिनी | विस्तार जयेचा ||१५||
जे परमार्थाचें मूळ | नांतरी सद्विद्याची केवळ |
निवांत निर्मळ निश्चळ | स्वरूपस्थिती ||१६||
जे योगियांचे ध्यानीं | जे साधकांचे चिंतनीं |
जे सिद्धांचे अंतःकर्णीं | समाधिरूपें ||१७||
जे निर्गुणाची वोळखण | जे अनुभवाची खूण |
जे व्यापकपणें संपूर्ण | सर्वांघटीं ||१८||
शास्त्रें पुराणें वेद श्रुति | अखंड जयेचें स्तवन करिती |
नाना रूपीं जयेसी स्तविती | प्राणीमात्र ||१९||
जे वेदशास्त्रांची महिमा | जे निरोपमाची उपमा |
जयेकरितां परमात्मा | ऐसें बोलिजे ||२०||
नाना विद्या कळा सिद्धी | नाना निश्चयाची बुद्धी |
जे सूक्ष्म वस्तूची शुद्धी | ज्ञेप्तीमात्र ||२१||
जे हरिभक्तांची निजभक्ती | अंतरनिष्ठांची अंतरस्तिथी |
जे जीवन्मुक्तांची मुक्ती | सायोज्यता ते ||२२||
जे अनंत माया वैष्णवी | न कळे नाटक लाघवी |
जे थोराथोरासी गोवी | जाणपणें ||२३||
जें जें दृष्टीनें देखिलें | जें जें शब्दें वोळखिलें |
जें जें मनास भासलें | तितुकें रूप जयेचें ||२४||
स्तवन भजन भक्ति भाव | मायेंवाचून नाहीं ठाव |
या वचनाचा अभिप्राव | अनुभवी जाणती ||२५||
म्हणौनी थोराहुनि थोर | जे ईश्वराचा ईश्वर |
तयेसी माझा नमस्कार | तदांशेंचि आतां ||२६||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे शारदास्तवननाम
समास तिसरा ||३||१. ३
समास चवथा : सद्गुरुस्तवन
||श्रीराम ||
आतां सद्गुरु वर्णवेना | जेथें माया स्पर्शों सकेना |
तें स्वरूप मज अज्ञाना | काये कळे ||१||
न कळे न कळे नेति नेति | ऐसें बोलतसे श्रुती |
तेथें मज मूर्खाची मती | पवाडेल कोठें ||२||
मज न कळे हा विचारु | दुऱ्हूनि माझा नमस्कारु |
गुरुदेवा पैलपारु | पाववीं मज ||३||
होती स्तवनाची दुराशा | तुटला मायेचा भर्वसा |
आतां असाल तैसे असा | सद्गुरु स्वामी ||४||
मायेच्या बळें करीन स्तवन | ऐसें वांछित होतें मन |
माया जाली लज्यायमान | काय करूं ||५||
नातुडे मुख्य परमात्मा | म्हणौनी करावी लागे प्रतिमा |
तैसा मायायोगें महिमा | वर्णीन सद्गुरूचा ||६||
आपल्या भावासारिखा मनीं | देव आठवावा ध्यानीं |
तैसा सद्गुरु हा स्तवनीं | स्तऊं आतां ||७||
जय जया जि सद्गुरुराजा | विश्वंभरा बिश्वबीजा |
परमपुरुषा मोक्षध्वजा | दीनबंधु ||८||
तुझीयेन अभयंकरें | अनावर माया हे वोसरे |
जैसें सूर्यप्रकाशें अंधारें | पळोन जाये ||९||
आदित्यें अंधकार निवारे | परंतु मागुतें ब्रह्मांड भरे |
नीसी जालियां नंतरें | पुन्हां काळोखें ||१०||
तैसा नव्हे स्वामीराव | करी जन्ममृत्य वाव |
समूळ अज्ञानाचा ठाव | पुसून टाकी ||११||
सुवर्णाचें लोहो कांहीं | सर्वथा होणार नाहीं |
तैसा गुरुदास संदेहीं | पडोंचि नेणे सर्वथा ||१२||
कां सरिता गंगेसी मिळाली | मिळणी होतां गंगा जाली |
मग जरी वेगळी केली | तरी होणार नाहीं सर्वथा ||१३||
परी ते सरिता मिळणीमागें | वाहाळ मानिजेत जगें |
तैसा नव्हे शिष्य वेगें | स्वामीच होये ||१४||
परीस आपणा ऐसें करीना | सुवर्णें लोहो पालटेना |
उपदेश करी बहुत जना | अंकित सद्गुरूचा ||१५||
शिष्यास गुरुत्व प्राप्त होये | सुवर्णें सुवर्ण करितां न ये |
म्हणौनी उपमा न साहे | सद्गुरूसी परिसाची ||१६||
उपमे द्यावा सागर | तरी तो अत्यंतची क्षार |
अथवा म्हणों क्षीरसागर | तरी तो नासेल कल्पांतीं ||१७||
उपमे द्यावा जरी मेरु | तरी तो जड पाषाण कठोरु |
तैसा नव्हे कीं सद्गुरु | कोमळ दिनाचा ||१८||
उपमे म्हणों गगन | तरी गगनापरीस तें निर्गुण |
या कारणें दृष्टांत हीण | सद्गुरूस गगनाचा ||१९||
धीरपणें उपमूं जगती | तरी हेहि खचेल कल्पांतीं |
म्हणौन धीरत्वास दृष्टांतीं | हीण वसुंधरा ||२०||
आतां उपमावा गभस्ती | तरी गभस्तीचा प्रकाश किती |
शास्त्रें मर्यादा बोलती | सद्गुरु अमर्याद ||२१||
म्हणौनी उपमे उणा दिनकर | सद्गुरुज्ञानप्रकाश थोर |
आतां उपमावा फणीवर | तरी तोहि भारवाही ||२२||
आतां उपमे द्यावें जळ | तरी तें काळांतरीं आटेल सकळ |
सद्गुरुरूप तें निश्चळ | जाणार नाहीं ||२३||
सद्गुरूसी उपमावें अमृत | तरी अमर धरिती मृत्यपंथ |
सद्गुरुकृपा यथार्थ | अमर करी ||२४||
सद्गुरूसी म्हणावें कल्पतरु | तरी हा कल्पनेतीत विचारु |
कल्पवृक्षाचा अंगिकारु | कोण करी ||२५||
चिंता मात्र नाहीं मनीं | कोण पुसे चिंतामणी |
कामधेनूचीं दुभणीं | निःकामासी न लगती ||२६||
सद्गुरु म्हणों लक्ष्मीवंत | तरी ते लक्ष्मी नाशिवंत |
ज्याचे द्वारीं असे तिष्टत | मोक्षलक्ष्मी ||२७||
स्वर्गलोक इंद्र संपती | हे काळांतरीं विटंबती |
सद्गुरुकृपेची प्राप्ती | काळांतरीं चळेना ||२८||
हरीहर ब्रह्मादिक | नाश पावती सकळिक |
सर्वदा अविनाश येक | सद्गुरुपद ||२९||
तयासी उपमा काय द्यावी | नाशिवंत सृष्टी आघवी |
पंचभूतिक उठाठेवी | न चले तेथें ||३०||
म्हणौनी सद्गुरु वर्णवेना | हे गे हेचि माझी वर्णना |
अंतरस्थितीचिया खुणा | अंतर्निष्ठ जाणती ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सद्गुरुस्तवननाम
समास चवथा ||४||१. ४
समास पांचवा : संतस्तवन
||श्रीराम ||
आतां वंदीन सज्जन | जे परमार्थाचें अधिष्ठान |
जयांचेनि गुह्यज्ञान | प्रगटे जनीं ||१||
जे वस्तु परम दुल्लभ | जयेचा अलभ्य लाभ |
तेंचि होये सुल्लभ | संतसंगेकरूनी ||२||
वस्तु प्रगटचि असे | पाहातां कोणासीच न दिसे |
नाना साधनीं सायासें | न पडे ठाईं ||३||
जेथें परिक्षवंत ठकले | नांतरी डोळसचि अंध जाले |
पाहात असतांचि चुकले | निजवस्तूसी ||४||
जें दीपाचेनि दिसेना | नाना प्रकाशें गवसेना |
नेत्रांजनेंहि वसेना | दृष्टीपुढें ||५||
सोळां कळी पूर्ण शशी | दाखवू शकेना वस्तूसी |
तीव्र आदित्य कळारासी | तोहि दाखवीना ||६||
जया सुर्याचेनि प्रकाशें | ऊर्णतंतु तोहि दिसे |
नाना सूक्ष्म पदार्थ भासे | अणुरेणादिक ||७||
चिरलें वाळाग्र तेंहि प्रकासी | परी तो दाखवीना वस्तूसी |
तें जयाचेनि साधकांसी | प्राप्त होये ||८||
जेथें आक्षेप आटले | जेथें प्रेत्न प्रस्तावले |
जेथें तर्क मंदावले | तर्कितां निजवस्तूसी |
वळे विवेकाची वेंगडी | पडे शब्दाची बोबडी |
जेथें मनाची तांतडी | कामा नये ||१०||
जो बोलकेपणें विशेष | सहस्र मुखांचा जो शेष |
तोहि सिणला निःशेष | वस्तु न संगवे ||११||
वेदे प्रकाशिलें सर्वही | वेदविरहित कांहीं नाहीं |
तो वेद कोणासही | दाखऊं सकेना ||१२||
तेचि वस्तु संतसंगें | स्वानुभवें कळों लागे |
त्याचा महिमा वचनीं सांगे | ऐसा कवणु ||१३||
विचित्र कळा ये मायेची | परी वोळखी न संगवे वस्तूची |
मायातीता अनंताची | संत सोये सांगती ||१४||
वस्तूसी वर्णिलें नवचे | तेंचि स्वरूप संतांचें |
या कारणे वचनाचें | कार्य नाही ||१५||
संत आनंदाचें स्थळ | संत सुखचि केवळ |
नाना संतोषाचें मूळ | ते हे संत ||१६||
संत विश्रांतीची विश्रांती | संत तृप्तीची निजतृप्ती |
नांतरी भक्तीची फळश्रुती | ते हे संत ||१७||
संत धर्माचें धर्मक्षेत्र | संत स्वरूपाचें सत्पात्र |
नांतरी पुण्याची पवित्र | पुण्यभूमी ||१८||
संत समाधीचें मंदिर | संत विवेकाचें भांडार |
नांतरी बोलिजे माहेर | सायोज्यमुक्तीचें ||१९||
संत सत्याचा निश्चयो | संत सार्थकाचा जयो |
संतप्राप्तीचा समयो | सिद्धरूप ||२०||
मोक्षश्रिया आळंकृत | ऐसे हे संत श्रीमंत |
जीव दरिद्री असंख्यात | नृपती केले ||२१||
जे समर्थपणें उदार | जे कां अत्यंत दानशूर |
तयांचेनि हा ज्ञानविचार | दिधला न वचे ||२२||
माहांराजे चक्रवर्ती | जाले आहेत पुढें होती |
परंतु कोणी सायोज्यमुक्ती | देणार नाहीं ||२३||
जें त्रैलोकीं नाहीं दान | तें करिती संतसज्जन |
तयां संतांचें महिमान | काय म्हणौनी वर्णावें ||२४||
जें त्रैलोक्याहून वेगळें | जें वेदश्रुतीसी नाकळे |
तेंचि जयांचेनि वोळे | परब्रह्म अंतरीं ||२५||
ऐसी संतांची महिमा | बोलिजे तितुकी उणी उपमा |
जयांचेनि मुख्य परमात्मा | प्रगट होये ||२६||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे संतस्तवननाम
समास पांचवा ||५||१. ५
समास सहावा : श्रोतेजनस्तवन
||श्रीराम ||
आतां वंदूं श्रोते जन | भक्त ज्ञानी संत सज्जन |
विरक्त योगी गुणसंपन्न | सत्यवादी ||१||
येक सत्वाचे सागर | येक बुद्धीचे आगर |
येक श्रोते वैरागर | नाना शब्दरत्नांचे ||२||
जे नाना अर्थांबृताचे भोक्ते | जे प्रसंगीं वक्तयाचे वक्ते |
नाना संशयातें छेदिते | निश्चई पुरुष ||३||
ज्यांची धारणा अपार | जे ईश्वराचे अवतार |
नांतरी प्रत्यक्ष सुरवर | बैसले जैसे ||४||
किं हे ऋषेश्वरांची मंडळी | शांतस्वरूप सत्वागळी |
जयांचेनि सभामंडळीं | परम शोभा ||५||
हृदईं वेदगर्भ विलसे | मुखीं सरस्वती विळासे |
साहित्य बोलतां जैसे | भासती देवगुरु ||६||
जे पवित्रपणें वैश्वानर | जे स्फूर्तिकिरणाचे दिनकर |
ज्ञातेपणें दृष्टीसमोर | ब्रह्मांड न ये ||७||
जे अखंड सावधान | जयांस त्रिकाळाचें ज्ञान |
सर्वकाळ निराभिमान | आत्मज्ञानी ||८||
ज्यांचे दृष्टीखालून गेलें | ऐंसें कांहींच
नाहीं उरलें |
पदार्थमात्रांसी लक्षिलें | मनें जयांच्या ||९||
जें जें कांहीं आठवावें | तें तें तयांस पूर्वीच ठावें |
तेथें काये अनुवादावें | ज्ञातेपणेंकरूनी ||१०||
परंतु हे गुणग्राहिक | म्हणौन बोलतों निःशंक |
भाग्यपुरुष काये येक | सेवीत नाहीं ||११||
सदा सेविती दिव्यान्नें | पालटाकारणें आवेट अन्नें |
तैसींच माझीं वचनें | पराकृतें ||१२||
आपुले शक्तिनुसार | भावें पुजावा परमेश्वर |
परंतु पुजूं नये हा विचार | कोठेंचि नाहीं ||१३||
तैसा मी येक वाग्दुर्बळ | श्रोते परमेश्वरचि केवळ |
यांची पूजा वाचाबरळ | करूं पाहे ||१४||
वित्पत्ती नाहीं कळा नाहीं | चातुर्य नाहीं प्रबंद नाहीं |
भक्ति ज्ञान वैराग्य नाहीं | गौल्यता नाहीं वचनाची ||१५||
ऐसा माझा वाग्विळास | म्हणौन बोलतों सावकाश |
भावाचा भोक्ता जगदीश | म्हणौनियां ||१६||
तुम्ही श्रोते जगदीशमूर्ति | तेथें माझी वित्पत्ती किती |
बुद्धिहीण अल्पमती | सलगी करितों ||१७||
समर्थाचा पुत्र मूर्ख जगीं | परी सामर्थ्य असे त्याचें आंगीं |
तुम्हां संतांचा सलगी | म्हणौनि करितों ||१८||
व्याघ्र सिंह भयानक | देखोनि भयचकित लोक |
परी त्यांचीं पिलीं निःशंक | तयांपुढे खेळती ||१९||
तैसा मी संतांचा अंकित | तुम्हां संतांपासीं बोलत |
तरी माझी चिंता तुमचे चित्त | वाहेलच कीं ||२०||
आपलेंची बोले वाउगें | त्याची संपादणी करणें लागे |
परंतु काहीं सांगणें नलगे | न्यून तें पूर्ण करावें ||२१||
हें तों प्रीतीचें लक्षण | स्वभावेंची करी मन |
तैसे तुम्ही संतसज्जन | मायेबाप विश्वाचे ||२२||
माझा आशय जाणोनि जीवें | आतां उचित तें करावें |
पुढें कथेसि अवधान द्यावें | म्हणे दासानुदास ||२३||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे श्रोतेस्तवननाम
समास सहावा ||६||१. ६
समास सातवा : कवेश्वरस्तवन
||श्रीराम ||
आतां वंदूं कवेश्वर | शब्दसृष्टीचे ईश्वर |
नांतरी हे परमेश्वर | वेदावतारी ||१||
कीं हे सरस्वतीचें निजस्थान | कीं हे नाना कळांचें जीवन |
नाना शब्दांचें भुवन | येथार्थ होये ||२||
कीं हे पुरुषार्थाचें वैभव | कीं हे जगदीश्वराचें
महत्व |
नाना लाघवें सत्कीर्तीस्तव | निर्माण कवी ||३||
कीं हे शब्दरत्नाचे सागर | कीं हे मुक्तांचे मुक्त सरोवर |
नाना बुद्धीचे वैरागर | निर्माण जाले ||४||
अध्यात्मग्रंथांची खाणी | कीं हे बोलके चिंतामणी |
नाना कामधेनूचीं दुभणीं | वोळलीं श्रोतयांसी ||५||
कीं हे कल्पनेचे कल्पतरु | कीं हे मोक्षाचे मुख्य पडीभरु |
नाना सायोज्यतेचे विस्तारु | विस्तारले ||६||
कीं हा परलोकींचा निजस्वार्थु | कीं हा योगियांचा
गुप्त पंथु |
नाना ज्ञानियांचा परमार्थु | रूपासि आला ||७||
कीं हे निरंजनाची खूण | कीं हे निर्गुणाची वोळखण |
मायाविलक्षणाचे लक्षण | ते हे कवी ||८||
कीं हा श्रुतीचा भावगर्भ | कीं हा परमेश्वराचा
अलभ्य लाभ |
नातरी होये सुल्लभ | निजबोध कविरूपें ||९||
कवि मुमुक्षाचें अंजन | कवि साधकांचें साधन |
कवि सिद्धांचें समाधान | निश्चयात्मक ||१०||
कवि स्वधर्माचा आश्रयो | कवि मनाचा मनोजयो |
कवि धार्मिकाचा विनयो | विनयकर्ते ||११||
कवि वैराग्याचें संरक्षण | कवि भक्तांचें भूषण |
नाना स्वधर्मरक्षण | ते हे कवी ||१२||
कवि प्रेमळांची प्रेमळ स्थिती | कवि ध्यानस्थांची ध्यानमूर्ति |
कवि उपासकांची वाढ कीर्ती | विस्तारली ||१३||
नाना साधनांचे मूळ | कवि नाना प्रेत्नांचें फळ |
नाना कार्यसिद्धि केवळ | कविचेनि प्रसादें ||१४||
आधीं कवीचा वाग्विळास | तरी मग श्रवणीं तुंबळे रस |
कविचेनि मतिप्रकाश | कवित्वास होये ||१५||
कवि वित्पन्नाची योग्यता | कवि सामर्थ्यवंतांची सत्ता |
कवि विचक्षणाची कुशळता | नाना प्रकारें ||१६||
कवि कवित्वाचा प्रबंध | कवि नाना धाटी मुद्रा छंद |
कवि गद्यपद्यें भेदाभेद | पदत्रासकर्ते ||१७||
कवि सृष्टीचा आळंकार | कवि लक्ष्मीचा शृंघार |
सकळ सिद्धींचा निर्धार | ते हे कवी ||१८||
कवि सभेचें मंडण | कवि भाग्याचें भूषण |
नाना सुखाचें संरक्षण | ते हे कवी ||१९||
कवि देवांचे रूपकर्ते | कवि ऋषीचें महत्ववर्णिते |
नाना शास्त्रांचें सामर्थ्य ते | कवि वाखाणिती ||२०||
नस्ता कवीचा व्यापार | तरी कैंचा अस्ता जगोद्धार |
म्हणौनि कवि हे आधार | सकळ सृष्टीसी ||२१||
नाना विद्या ज्ञातृत्व कांहीं | कवेश्वरेंविण तों नाहीं |
कवीपासून सर्वही | सर्वज्ञता ||२२||
मागां वाल्मीक व्यासादिक | जाले कवेश्वर अनेक |
तयांपासून विवेक | सकळ जनासी ||२३||
पूर्वीं काव्यें होतीं केलीं | तरीच वित्पत्ती प्राप्त जाली |
तेणे पंडिताआंगीं बाणली | परम योग्यता ||२४||
ऐसे पूर्वीं थोर थोर | जाले कवेश्वर अपार |
आतां आहेत पुढें होणार | नमन त्यांसी ||२५||
नाना चातुर्याच्या मूर्ती | किं हे साक्षात् बृहस्पती |
वेद श्रुती बोलों म्हणती | ज्यांच्या मुखें ||२६||
परोपकाराकारणें | नाना निश्चय अनुवादणें |
सेखीं बोलीले पूर्णपणें | संशयातीत ||२७||
कीं हे अमृताचे मेघ वोळले | कीं हे नवरसाचे वोघ लोटले |
नाना सुखाचे उचंबळले | सरोवर हे ||२८||
कीं हे विवेकनिधीचीं भांडारें | प्रगट जालीं
मनुष्याकारें |
नाना वस्तूचेनि विचारें | कोंदाटले हे ||२९||
कीं हे आदिशक्तीचें ठेवणें | नाना पदार्थास आणी उणें |
लाधलें पूर्व संचिताच्या गुणें | विश्वजनासी ||३०||
कीं हे सुखाचीं तारुवें लोटलीं | आक्षै आनंदे उतटलीं |
विश्वजनास उपेगा आलीं | नाना प्रयोगाकारणे ||३१||
कीं हे निरंजनाची संपत्ती | कीं हे विराटाची योगस्थिती |
नांतरी भक्तीची फळश्रुती | फळास आली ||३२||
कीं हा ईश्वराचा पवाड | पाहातां गगनाहून वाड |
ब्रह्मांडरचनेहून जाड | कविप्रबंदरचना ||३३||
आतां असो हा विचार | जगास आधार कवेश्वर |
तयांसी माझा नमस्कार | साष्टांग भावें ||३४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे कवेश्वरस्तवननाम
समास सातवा ||७||१. ७
समास आठवा : सभास्तवन
||श्रीराम ||
आतां वंदूं सकळ सभा | जये सभेसी मुक्ति सुल्लभा |
जेथें स्वयें जगदीश उभा | तिष्ठतु भरें ||१||
श्लोक ||नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये रवौ |
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||
नाहीं वैकुंठीचा ठाईं | नाहीं योगियांचा हृदईं |
माझे भक्त गाती ठाईं ठाईं | तेथें मी तिष्ठतु
नारदा ||२||
याकारणें सभा श्रेष्ठ | भक्त गाती तें वैकुंठ |
नामघोषें घडघडाट | जयजयकारें गर्जती ||३||
प्रेमळ भक्तांचीं गायनें | भगवत्कथा हरिकीर्तनें |
वेदव्याख्यान पुराणश्रवणें | जेथें निरंतर ||४||
परमेश्वराचे गुणानुवाद | नाना निरूपणाचे संवाद |
अध्यात्मविद्या भेदाभेद | मथन जेथे ||५||
नाना समाधानें तृप्ती | नाना आशंकानिवृत्ती |
चित्तीं बैसे ध्यानमूर्ति | वाग्विळासें ||६||
भक्त प्रेमळ भाविक | सभ्य सखोल सात्त्विक |
रम्य रसाळ गायक | निष्ठावंत ||७||
कर्मसीळ आचारसीळ | दानसीळ धर्मसीळ |
सुचिस्मंत पुण्यसीळ | अंतरशुद्ध कृपाळु ||८||
योगी वीतरागी उदास | नेमक निग्रह तापस |
विरक्त निस्पृह बहुवस | आरण्यवासी ||९||
दंडधारी जटाधारी | नाथपंथी मुद्राधारी |
येक बाळब्रह्मचारी | योगेश्वर ||१०||
पुरश्चरणी आणी तपस्वी | तीर्थवासी आणी मनस्वी |
माहायोगी आणी जनस्वी | जनासारिखे ||११||
सिद्ध साधु आणी साधक | मंत्रयंत्रशोधक |
येकनिष्ठ उपासक | गुणग्राही ||१२||
संत सज्जन विद्वज्जन | वेदज्ञ शास्त्रज्ञ माहाजन |
प्रबुद्ध सर्वज्ञ समाधान | विमळकर्ते ||१३||
योगी वित्पन्न ऋषेश्वर | धूर्त तार्किक कवेश्वर |
मनोजयाचे मुनेश्वर | आणी दिग्वल्की ||१४||
ब्रह्मज्ञानी आत्मज्ञानी | तत्वज्ञानी पिंडज्ञानी |
योगाभ्यासी योगज्ञानी | उदासीन ||१५||
पंडित आणी पुराणिक | विद्वांस आणी वैदिक |
भट आणी पाठक | येजुर्वेदी ||१६||
माहाभले माहाश्रोत्री | याज्ञिक आणी आग्नहोत्री |
वैद्य आणी पंचाक्षरी | परोपकारकर्ते ||१७||
भूत भविष्य वर्तमान | जयांस त्रिकाळाचें ज्ञान |
बहुश्रुत निराभिमान | निरापेक्षी ||१८||
शांति क्ष्मा दयासीळ | पवित्र आणी सत्वसीळ |
अंतरशुद्ध ज्ञानसीळ | ईश्वरी पुरुष ||१९||
ऐसे जे कां सभानायेक | जेथें नित्यानित्यविवेक |
त्यांचा महिमा अलोलिक | काय म्हणोनि वर्णावा ||२०||
जेथें श्रवणाचा उपाये | आणी परमार्थसमुदाये |
तेथें जनासी तरणोपाये | सहजचि होये ||२१||
उत्तम गुणाची मंडळी | सत्वधीर सत्वागळी |
नित्य सुखाची नव्हाळी | जेथें वसे ||२२||
विद्यापात्रें कळापात्रें | विशेष गुणांची सत्पात्रें |
भगवंताचीं प्रीतिपात्रें | मिळालीं जेथें ||२३||
प्रवृत्ती आणी निवृत्ती | प्रपंची आणी परमार्थी |
गृहस्ताश्रमी वानप्रहस्ती | संन्यासादिक ||२४||
वृद्ध तरुण आणी बाळ | पुरुष स्त्रियादिक सकळ |
अखंड ध्याती तमाळनीळ | अंतर्यामीं ||२५||
ऐसे परमेश्वराचे जन | त्यांसी माझें अभिवंदन |
जयांचेनि समाधान | अकस्मात बाणें ||२६||
ऐंसिये सभेचा गजर | तेथें माझा नमस्कार |
जेथें नित्य निरंतर | कीर्तन भगवंताचें ||२७||
जेथें भगवंताच्या मूर्ती | तेथें पाविजे उत्तम गती |
ऐसा निश्चय बहुतां ग्रंथीं | महंत बोलिले ||२८||
कल्लौ कीर्तन वरिष्ठ | जेथें होय ते सभा श्रेष्ठ |
कथाश्रवणें नाना नष्ट | संदेह मावळती ||२९||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सभास्तवननाम
समास आठवा ||८||१. ८
समास नववा : परमार्थस्तवन
||श्रीराम ||
आतां स्तऊं हा परमार्थ | जो साधकांचा निजस्वार्थ |
नांतरी समर्थामध्ये समर्थ | योग हा ||१||
आहे तरी परम सुगम | परी जनासी जाला दुर्गम |
कां जयाचें चुकलें वर्म | सत्समागमाकडे ||२||
नाना साधनांचे उधार | हा रोकडा ब्रह्मसाक्षात्कार |
वेदशास्त्रीं जें सार | तें अनुभवास ये ||३||
आहे तरी चहूंकडे | परी अणुमात्र दृष्टी न पडे |
उदास परी येकीकडे | पाहातां दिसेना ||४||
आकाशमार्गी गुप्त पंथ | जाणती योगिये समर्थ |
इतरांस हा गुह्यार्थ | सहसा न कळे ||५||
साराचेंहि निजसार | अखंड अक्षै अपार |
नेऊं न सकती तश्कर | कांही केल्या ||६||
तयास नाहीं राजभये | अथवा नाहीं अग्निभये |
अथवास्वापदभये | बोलोंच नये ||७||
परब्रह्म तें हालवेना | अथवा ठावही चुकेना |
काळांतरी चळेना | जेथीचा तेथें ||८||
ऐसें तें निज ठेवणें | कदापि पालटों नेणे |
अथवा नव्हे आदिक उणें | बहुतां काळें ||९||
अथवा तें घसवटेना | अथवा अदृश्य होयेना |
नांतरी पाहातां दिसेना | गुरुअंजनेविण ||१०||
मागां योगिये समर्थ | त्यांचाहि निजस्वार्थ |
यासि बोलिजे परमार्थ | परमगुह्य म्हणौनि ||११||
जेंही शोधून पाहिला | त्यासी अर्थ सांपडला |
येरां असोनी अलभ्य जाला | जन्मोजन्मीं ||१२||
अपूर्वता या परमार्थाची | वार्ता नाहीं जन्ममृत्याची |
आणी पदवी सायोज्यतेची | सन्निधचि लाभें ||१३||
माया विवेकें मावळे | सारासारविचार कळे |
परब्रह्म तेंहि निवळे | अंतर्यामीं ||१४||
ब्रह्म भासले उदंड | ब्रह्मीं बुडालें ब्रह्मांड |
पंचभूतांचें थोतांड | तुछ्य वाटे ||१५||
प्रपंच वाटे लटिका | माया वाटे लापणिका |
शुद्ध आत्मा विवेका-| अंतरीं आला ||१६||
ब्रह्मस्थित बाणतां अंतरीं | संदेह गेला ब्रह्मांडाबाहेरीं |
दृश्याची जुनी जर्जरी | कुहिट जाली ||१७||
ऐसा हा परमार्थ | जो करी त्याचा निजस्वार्थ |
आतां या समर्थास समर्थ | किती म्हणौनि म्हणावें ||१८||
या परमार्थाकरितां | ब्रह्मादिकांसि विश्रामता |
योगी पावती तन्मयता | परब्रह्मीं ||१९||
परमार्थ सकळांस विसांवा | सिद्ध साधु माहानुभावां |
सेखीं सात्विक जड जीवां | सत्संगेंकरूनी ||२०||
परमार्थ जन्माचें सार्थक | परमार्थ संसारीं तारक |
परमार्थ दाखवी परलोक | धार्मिकासी ||२१||
परमार्थ तापसांसी थार | परमार्थ साधकांसी आधार |
परमार्थ दाखवी पार | भवसागराचा ||२२||
परमार्थी तो राज्यधारी | परमार्थ नाहीं तो भिकारी |
या परमार्थाची सरी | कोणास द्यावी ||२३||
अनंत जन्मींचें पुण्य जोडे | तरीच परमार्थ घडे |
मुख्य परमात्मा आतुडे | अनुभवासी ||२४||
जेणें परमार्थ वोळखिला | तेणें जन्म सार्थक केला |
येर तो पापी जन्मला | कुलक्षयाकारणें ||२५||
असो भगवत्प्राप्तीविण | करी संसाराचा सीण |
त्या मूर्खाचें मुखावलोकन | करूंच नये ||२६||
भल्यानें परमार्थीं भरावें | शरीर सार्थक करावें |
पूर्वजांस उद्धरावें | हरिभक्ती करूनी ||२७||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे परमार्थस्तवननाम
समास नववा ||९||१. ९
समास दहावा : नरदेहस्तवननिरूपण
||श्रीराम ||
धन्य धन्य हा नरदेहो | येथील अपूर्वता पाहो |
जो जो कीजे परमार्थलाहो | तो तो पावे सिद्धीतें ||१||
या नरदेहाचेनि लागवेगें | येक लागले भक्तिसंगें |
येकीं परम वीतरागें | गिरिकंदरें सेविलीं ||२||
येक फिरती तिर्थाटणें | येक करिती पुरश्चरणें |
येक अखंड नामस्मरणें | निष्ठावंत राहिले ||३||
येक तपें करूं लागले | येक योगाभ्यासी माहाभले |
येक अभ्यासयोगें जाले | वेदशास्त्री वित्पन्न ||४||
येकीं हटनिग्रह केला | देह अत्यंत पीडिला |
येकीं देव ठाईं पाडिला | भावार्थबळें ||५||
येक माहानुभाव विख्यात | येक भक्त जाले ख्यात |
येक सिद्ध अकस्मात | गगन वोळगती ||६||
येक तेजीं तेजचि जाले | येक जळीं मिळोन गेले |
येक ते दिसतचि अदृश्य जाले | वायोस्वरूपीं ||७||
येक येकचि बहुधा होती | येक देखतचि निघोनि जाती |
येक बैसले असतांची भ्रमती | नाना स्थानीं समुद्रीं ||८||
येक भयानकावरी बैसती | येक अचेतनें चालविती |
येक प्रेतें उठविती | तपोबळेंकरूनी ||९||
येक तेजें मंद करिती | येक जळें आटविती |
येक वायो निरोधिती | विश्वजनाचा ||१०||
ऐसे हटनिग्रही कृतबुद्धी | जयांस वोळल्या नाना सिद्धी |
ऐसे सिद्ध लक्षावधी | होऊन गेले ||११||
येक मनोसिद्ध येक वाचासिद्ध | येक अल्पसिद्ध येक सर्वसिद्ध |
ऐसे नाना प्रकारीचे सिद्ध | विख्यात जाले ||१२||
येक नवविधाभक्तिराजपंथें | गेले, तरले परलोकींच्या
निजस्वार्थें |
येक योगी गुप्तपंथें | ब्रह्मभुवना पावले ||१३||
येक वैकुंठास गेले | येक सत्यलोकीं राहिले |
येक कैळासीं बैसले | शिवरूप होऊनी ||१४||
येक इंद्रलोकीं इंद्र जाले | येक पितृलोकीं मिळाले |
येक ते उडगणी बैसले | येक ते क्षीरसागरी ||१५||
सलोकता समीपता | स्वरूपता सायोज्यता |
या चत्वार मुक्ती तत्वतां | इच्छा सेऊनि राहिले ||१६||
ऐसे सिद्ध साधू संत | स्वहिता प्रवर्तले अनंत |
ऐसा हा नरदेह विख्यात | काय म्हणौन वर्णावा ||१७||
या नरदेहाचेनि आधारें | नाना साधनांचेनि द्वारें |
मुख्य सारासारविचारें | बहुत सुटले ||१८||
या नरदेहाचेनि संमंधें | बहुत पावले उत्तम पदें |
अहंता सांडून स्वानंदे | सुखी जाले ||१९||
नरदेहीं येऊन सकळ | उधरागती पावले केवळ |
येथें संशयाचें मूळ | खंडोन गेलें ||२०||
पशुदेहीं नाहीं गती | ऐसे सर्वत्र बोलती |
म्हणौन नरदेहींच प्राप्ती | परलोकाची ||२१||
संत महंत ऋषी मुनी | सिद्ध साधू समाधानी |
भक्त मुक्त ब्रह्मज्ञानी | विरक्त योगी तपस्वी ||२२||
तत्वज्ञानी योगाभ्यासी | ब्रह्मचरी दिगंबर संन्यासी |
शड्दर्शनी तापसी | नरदेहींच जाले ||२३||
म्हणौनी नरदेह श्रेष्ठ | नाना देहांमध्यें वरिष्ठ |
जयाचेनि चुके आरिष्ट | येमयातनेचें ||२४||
नरदेह हा स्वाधेन | सहसा नव्हे पराधेन |
परंतु हा परोपकारीं झिजऊन | कीर्तिरूपें उरवावा ||२५||
अश्व वृषभ गाई म्हैसी | नाना पशु स्त्रिया दासी |
कृपाळूपणें सोडितां त्यांसी | कोणी तरी धरील ||२६||
तैसा नव्हे नरदेहो | इछा जाव अथवा रहो |
परी यास कोणी पाहो | बंधन करूं सकेना ||२७||
नरदेह पांगुळ असता | तरी तो कार्यास न येता |
अथवा थोंटा जरी असता | तरी परोपकारास न ये ||२८||
नरदेह अंध असिला | तरी तो निपटचि वायां गेला |
अथवा बधिर जरी असिला | तरी निरूपण नाहीं ||२९||
नरदेह असिला मुका | तरी घेतां न ये आशंका |
अशक्त रोगी नासका | तरी तो निःकारण ||३०||
नरदेह असिला मूर्ख | अथवा फेंपऱ्या समंधाचें दुःख |
तरी तो जाणावा निरार्थक | निश्चयेंसीं ||३१||
इतुकें हें नस्तां वेंग | नरदेह आणी सकळ सांग |
तेणें धरावा परमार्थमार्ग | लागवेगें ||३२||
सांग नरदेह जोडलें | आणी परमार्थबुद्धि विसरलें |
तें मूर्ख कैसें भ्रमलें | मायाजाळीं ||३३||
मृत्तिका खाणोन घर केलें | तें माझें ऐसें दृढ कल्पिलें |
परी तें बहुतांचें हें कळलें | नाहींच तयासी ||३४||
मुष्यक म्हणती घर आमुचें | पाली म्हणती घर आमुचें |
मक्षिका म्हणती घर आमुचें | निश्चयेंसीं ||३५||
कांतण्या म्हणती घर आमुचें | मुंगळे म्हणती घर आमुचें |
मुंग्या म्हणती घर आमुचें | निश्चयेंसीं ||३६||
विंचू म्हणती आमुचें घर | सर्प म्हणती आमुचें घर |
झुरळें म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||३७||
भ्रमर म्हणती आमुचें घर | भिंगोर्या म्हणती आमुचें घर |
आळीका म्हणती आमुचें घर | काष्ठामधें ||३८||
मार्जरें म्हणती आमुचें घर | श्वानें म्हणती आमुचें घर |
मुंगसें म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||३९||
पुंगळ म्हणती आमुचें घर | वाळव्या म्हणती आमुचें घर |
पिसुवा म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||४०||
ढेकुण म्हणती आमुचें घर | चांचण्या म्हणती आमुचें घर |
घुंगर्डी म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||४१||
पिसोळे म्हणती आमुचें घर | गांधेले म्हणती आमुचें घर |
सोट म्हणती आमुचें घर | आणी गोंबी ||४२||
बहुत किड्यांचा जोजार | किती सांगावा विस्तार |
समस्त म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||४३||
पशु म्हणती आमुचें घर | दासी म्हणती आमुचें घर |
घरीचीं म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||४४||
पाहुणे म्हणती आमुचें घर | मित्र म्हणती आमुचें घर |
ग्रामस्त म्हणती आमुचें घर | निश्चयेंसीं ||४५||
तश्कर म्हणती आमुचें घर | राजकी म्हणती आमुचें घर |
आग्न म्हणे आमुचें घर | भस्म करूं ||४६||
समस्त म्हणती घर माझें | हें मूर्खहि म्हणे माझें माझें |
सेवट जड जालें वोझें | टाकिला देश ||४७||
अवघीं घरें भंगलीं | गांवांची पांढरी पडिली |
मग तें गृहीं राहिलीं | आरण्यस्वापदें ||४८||
किडा मुंगी वाळवी मूषक | त्यांचेंच घर हें
निश्चयात्मक |
हें प्राणी बापुडें मूर्ख | निघोन गेलें ||४९||
ऐसी गृहांची स्थिती | मिथ्या आली आत्मप्रचीती |
जन्म दों दिसांची वस्ती | कोठें तरी करावी ||५०||
देह म्हणावें आपुलें | तरी हें बहुतांकारणें निर्मिलें |
प्राणीयांच्या माथां घर केलें | वा मस्तकीं भक्षिती ||५१||
रोमेमुळी किडे भक्षिती | खांडुक जाल्यां किडे पडती |
पोटामध्ये जंत होती | प्रत्यक्ष प्राणियांच्या ||५२||
कीड लागे दांतासी | कीड लागे डोळ्यांसी |
कीड लागे कर्णासी | आणी गोमाशा भरती ||५३||
गोचिड अशुद्ध सेविती | चामवा मांसांत घुसती |
पिसोळे चाऊन पळती | अकस्मात ||५४||
भोंगें गांधेंलें चाविती | गोंबी जळवा अशुद्ध घेती |
विंचू सर्प दंश करिती | कानटें फुर्सीं ||५५||
जन्मून देह पाळिलें | तें अकस्मात व्याघ्रें नेलें |
कां तें लांडगींच भक्षिलें | बळात्कारें ||५६||
मूषकें मार्जरें दंश करिती | स्वानें अश्वें लोले तोडिती |
रीसें मर्कटें मारिती | कासावीस करूनी ||५७||
उष्टरें डसोन उचलिती | हस्थी चिर्डून टाकिती |
वृषभ टोचून मारिती | अकस्मात ||५८||
तश्कर तडतडां तोडिती | भूतें झडपोन मारिती |
असो या देहाची स्थिती | ऐसी असे ||५९||
ऐसें शरीर बहुतांचें | मूर्ख म्हणे आमुचें |
परंतु खाजें जिवांचें | तापत्रैं बोलिलें ||६०||
देह परमार्थीं लाविलें | तरीच याचें सार्थक जालें |
नाहीं तरी हें वेर्थची गेलें | नाना आघातें
मृत्यपंथें ||६१||
असो जे प्रपंचिक मूर्ख | ते काये जाणती परमार्थसुख |
त्या मूर्खांचें लक्षण कांहीं येक | पुढे बोलिलें असे ||६२||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे नरदेहस्तवननिरूपणनाम
समास दहावा ||१०||१. १०
||दशक पहिला समाप्त ||
NA
Proofread by Vishwas Bhide and Sunder Hattangadi.
Reproofread by P. D. Kulkarni
% File name : dAsabodh01.itx
%--------------------------------------------
% Text title : Dasabodh dAsabodha dashaka 1
% Author : Swami Samartha Ramadas
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments : Collectively transliterated and proofread
% Transliterated by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in Sunder
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% Proofread by : Vishwas Bhide santsahitya at yahoo.co.in, Sunder
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